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मंगलवार, 31 जनवरी 2023

प्रभु भोज – संबंधित बातें (12) / The Holy Communion - Related Issues (12)

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उन्नति के लिए (1)

हमने प्रभु भोज के बारे में अपने इस अध्ययन में, पहले पुराने नियम से उसके प्ररूप, फसह से देखा था। फिर हमने नए नियम से सुसमाचारों में से प्रभु यीशु के द्वारा प्रभु भोज की स्थापना के बारे में देखा। इसके बाद हमने प्रभु की मेज़ के बारे में गलतफहमियों और उसमें गलत रीति से भाग लेने, और मेज़ के दुरुपयोग के बारे में 1 कुरिन्थियों 11:17-34 देखा, और प्रभु भोज से संबंधित कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों के बारे में 1  कुरिन्थियों 10:16-22 से देखा। पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 10:22 से इन बातों के निष्कर्ष के बारे में देखा। इस लेख में, हम प्रभु भोज से संबंधित एक और विषय के बारे में देखेंगे, जिसे पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा 1 कुरिन्थियों 10:23-24 में उठाया है।

 

यद्यपि यह विषय प्रभु की मेज़ के संदर्भ में तो कहा गया है, किन्तु यह मसीही विश्वास और जीवन से संबंधित अनेकों अन्य बातों पर भी उतना ही लागू होता है। इसके बारे में जानकारी रखना मसीही विश्वासियों के लिए बहुत सहायक होगा, विशेषकर उन जटिल परिस्थितियों में जिनका सामना उन्हें अपने विश्वास की यात्रा के दौरान करना पड़ेगा; इसलिए उन्हें इसके बारे में जानना चाहिए, और समय तथा आवश्यकता के अनुसार इसका उपयोग करते रहना चाहिए। 1 कुरिन्थियों 10:23 में लिखा है, “सब वस्तुएं मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब लाभ की नहीं: सब वस्तुएं मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब वस्तुओं से उन्नति नहीं।” जैसा कि इस पद के लेख से प्रकट है, बहुधा ऐसी परिस्थितियाँ होंगी जिनमें व्यक्ति कार्यविधि और वैधानिक दृष्टिकोण से तो सही होगा, किन्तु नैतिक तथा आत्मिक रीति से गलत और परमेश्वर को अस्वीकार्य होगा। इस बात को समझने के लिए हमें यह समझना और ध्यान रखना अनिवार्य है कि परमेश्वर केवल बाहरी स्वरूप और कार्य को नहीं देखता है, वरन व्यक्ति के मन को, उसके हृदय को देखता है (1 शमूएल 16:7; यिर्मयाह 11:20; 20:12) और उसके मन की बातों के अनुसार उसका आँकलन करता है। इसीलिए दाऊद ने अपने पुत्र सुलैमान को, उसे उत्तरदायित्व देते समय चिताया था, “और हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्वर का ज्ञान रख, और खरे मन और प्रसन्न जीव से उसकी सेवा करता रह; क्योंकि यहोवा मन को जांचता और विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है उसे समझता है। यदि तू उसकी खोज में रहे, तो वह तुझ को मिलेगा; परन्तु यदि तू उसको त्याग दे तो वह सदा के लिये तुझ को छोड़ देगा” (1 इतिहास 28:9)।


इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है दाऊद द्वारा योआब को साथ लेकर बतशेबा के पति ऊरिय्याह को मरवाने का षड्यंत्र रचना, क्योंकि वह उसके द्वारा गर्भवती थी (2 शमूएल 11:14-17)। कार्यविधि तथा वैधानिक रीति से, राजा और सेना का प्रधान सेनापति होने के नाते यह दाऊद का अधिकार था कि वह किसी भी सैनिक को कहीं पर भी नियुक्त करे, और योआब पर भी यह बाध्य था कि वह राजा की आज्ञा का पालन करे। लेकिन वास्तविक बात और  दाऊद के मन में छुपी हुई बात तो अपने पाप को ऊरिय्याह तथा लोगों से छुपाने के लिए, ऊरिय्याह को मरवा देना था। योआब भी दाऊद की इस कुटिल और दुष्ट योजना को कार्यान्वित करने के लिए सहमत हो गया, और इस प्रकार दाऊद के पाप का भागी हो गया। बाद में जब परमेश्वर ने अपने नबी नातान के द्वारा दाऊद का इस बात के लिए सामना किया, तब दाऊद ने जो किया था उसे ऊरिय्याह की हत्या करना कहा (2 शमूएल 12:7-12)। दाऊद ने अपने किए को उचित दिखाने के लिए जो पर्दा बनाया था, वह उसके पीछे छुप नहीं सका, अपने आप को अपने पापों के दुष्परिणामों से बचा नहीं सका, यद्यपि उसने जो किया, वह राजा होने के नाते उसके अधिकारों के अन्तर्गत था। परमेश्वर ने उसका न्याय केवल उसके मन की दशा कि अनुसार किया, उसके अनुसार नहीं जैसा उसने बाहरी रीति से दिखाया था।

 

हम जिन पदों पर विचार कर रहे हैं, 1 कुरिन्थियों 10:23-24, वे हमें सिखाते हैं कि हमारा ध्यान अपनी प्रत्येक स्थिति का आँकलन करके उसके प्रत्युत्तर को, प्राथमिक रीति से, प्रत्युत्तर के द्वारा ‘उन्नति’ होने के आधार पर देने का होना चाहिए। हम जो भी कहने या करने का विचार कर रहे हैं, क्या उससे हमारी तथा कलीसिया की उन्नति होती है कि नहीं। यदि उन्नति नहीं होती है, तो चाहे वह व्यवहारिक एवं वैधानिक रीति से सही और उचित भी हो, और संसार के माप-दण्डों के अनुसार स्वीकार्य भी हो, लेकिन फिर भी वह मसीही विश्वासी के लिए अनुचित और अस्वीकार्य है। पौलुस अगले ही पद में इस बात की पुष्टि करते हुए कहता है, “कोई अपनी ही भलाई को न ढूंढे, वरन औरों की” (1 कुरिन्थियों 10:24)। इसी बात को पौलुस और अधिक विस्तार से प्रभु यीशु मसीह के जीवन के उदाहरण के द्वारा फिलिप्पियों 2:1-11 में समझाता है। जो लोग प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, जब वे योग्य रीति से भाग लेने के लिए अपने आप को जाँच रहे होते हैं, तब उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि क्या उनके जीवनों से कलीसिया की उन्नति होती है, और वे स्वयं भी उन्नति करते हैं कि नहीं। अगले लेख में हम उन्नति करने के बारे में विचार करेंगे।

  

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 25-26          

  • मत्ती 20:17-34     


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English Translation


For Edification (1)

We have studied about the Holy Communion or the Lord’s Table from its antecedent, the Passover, from the Old Testament. Then we studied about it from the New Testament accounts; from the Gospels, the Lord Jesus’s establishing it. Followed by studying about the misunderstandings and misuse of the Table, and the correct manner of participating in it from 1 Corinthians 11:17-34, and some other issues related to participation on the Holy Communion from 1 Corinthians 10:16-22. In the last article we have seen the conclusion from 1 Corinthians 10:22. In this article on this study about the Holy Communion, we will see one more point that the Holy Spirit raises through Paul, stated in 1 Corinthians 10:23-24.

 

Although this point is in context of the Lord’s Table, but is also equally applicable to many other issues related to Christian Faith and living. Knowing about it will help the Christian Believers in many perplexing situations that they will face in their journey of faith; so they should remain aware of it, and use it. It is written in 1 Corinthians 10:23, “All things are lawful for me, but not all things are helpful; all things are lawful for me, but not all things edify.” As is evident from the text of the verse, there will often be situations where one can be technically and legally correct, but still be morally and ethically wrong or unacceptable to the Lord. To understand this point, we need to remember that God does not look at the externals, but at the heart (1 Samuel 16:7; Jeremiah 11:20; 20:12), and judges a person according to what is in his heart. Therefore, David cautioned his son Solomon, as he was handing over the charge to him, “As for you, my son Solomon, know the God of your father, and serve Him with a loyal heart and with a willing mind; for the Lord searches all hearts and understands all the intent of the thoughts. If you seek Him, He will be found by you; but if you forsake Him, He will cast you off forever” (1 Chronicles 28:9). So, while a person may be technically and legally right, he can be morally and ethically totally wrong.


A very good illustration of this is David’s plotting of the killing of Uriah, the husband of Bathsheba, with Joab, since she was pregnant with his child (2 Samuel 11:14-17). Technically and legally, as the King and Commander-in-Chief of his troops, David had the right to station any soldier anywhere, and Joab too had to comply with the king’s orders. But the actual situation and the thing in David’s heart was to have Uriah eliminated, to hide his own sin from Uriah and the people. Joab agreed to carry out David’s nefarious plan, and thus became a party to David’s sin. Later when God confronts David through His prophet Nathan, Nathan, on God’s behalf, calls what David had done as murdering Uriah (2 Samuel 12:7-12). David could not hide behind the veneer he had created, and could not absolve himself from the consequences of his sins, though he was well within his rights as King. God judged him only by what was in his heart and not by what he presented on the outside.


  The verses we are considering, 1 Corinthians 10:23, teach us that our primary concern should be to assess every situation and our response to it on the criteria of edification. Whatever we think of doing, does it edify us and the Church or not. If it does not edify, then even if it is technically and legally correct and acceptable by the standards of the world, but it is unacceptable for a Christian Believer. Paul affirms it in the very next verse, “Let no one seek his own, but each one the other's well-being” (1 Corinthians 10:24). Paul explains this thought in some more detail in Philippians 2:1-11, using the Lord Jesus as the role model and example. Those who participate in the Lord’s Table, when examining themselves to partake in a worthy manner, should make sure that their lives have served to edify the Church, and they themselves are edified as well. In the next article we will look into some more detail about this edification.


If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Exodus 25-26

  • Matthew 20:17-34



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