आत्मिक वरदानों के
प्रयोगकर्ता - प्रेरित: परमेश्वर द्वारा नियुक्ति
मसीही विश्वासियों की मण्डलियों में
आत्मिक वरदानों की उपयोगिता के अनुसार 1 कुरिन्थियों 12:28 में दिए गए क्रम
में पहले तीन स्थान उन लोगों के हैं जिन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा ने वचन की
सेवकाई से संबंधित वरदान प्रदान किए हैं अर्थात, प्रेरित,
भविष्यद्वक्ता, और शिक्षक। जैसे उपयोगिता के
इस वरीयता क्रम में दिए गए अंतिम वरदानों, अन्य भाषाएं बोलना
और उनका अनुवाद करने के वरदान के साथ हो गया है, वैसे ही
आरंभिक दोनों वरदानों - प्रेरित, और भविष्यद्वक्ता होने के
वरदान के साथ भी हो गया है। इन्हें वर्तमान में बहुत गलत समझा जाता है, और मण्डली में अपने आप को उच्च एवं प्रभावी दिखाने, अपने
आप को औरों से भिन्न तथा बढ़कर महत्व वाला दर्शाने के लिए इन्हें प्रयोग किया जाने
लगा है, जबकि यह वचन के अनुसार सही नहीं है। परमेश्वर की
दृष्टि में सभी सेवकाई और सभी वरदान समान स्तर के हैं, क्योंकि
सभी सेवाकाइयाँ भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई हैं, तथा
उन सेवकाइयों के लिए उपयुक्त वरदान भी परमेश्वर पवित्र आत्मा ही अपनी इच्छा के
अनुसार प्रदान करता है, किसी मनुष्य की इच्छा अथवा लालसा और
प्रार्थना के अनुसार नहीं।
इन सेवकाइयों और वरदानों तथा उनके
प्रयोगकर्ताओं के बारे में गलत धारणाओं और शिक्षाओं से बचने का एक उपाय है, उन्हें उस दृष्टिकोण से
समझना, जिस प्रकार से उस आरंभिक मण्डली या कलीसिया के लोगों
ने उन्हें समझा था, जब उन वरदानों और सेवकाइयों के बारे में
उन्हें सिखाया गया और पत्रियों में लिखा गया था। वही उनका प्राथमिक और वास्तविक
अर्थ एवं अभिप्राय है, जो समय, स्थान,
सभ्यता, और लोगों के अनुसार कभी नहीं बदल सकता,
क्योंकि परमेश्वर का वचन स्थिर, स्थाई,
और अटल है और कभी नहीं बदलता है। इस आधार पर उस आरंभिक मण्डली के
लिए प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, और शिक्षक
होने का जो अभिप्राय था, वही
आज भी है। आज बहुत से लोग अपने आप लिए इन सेवकाइयों को उपाधियों के समान प्रयोग
करते हैं; अपने नाम और प्रचार में अपने महत्व और ओहदे या स्तर को दिखाने के लिए इन सेवकाइयों
को उपाधि के समान लगाकर प्रचार करते हैं, यह दिखाना चाहते हैं कि वे कितने विशिष्ट और प्रमुख हैं।
किन्तु वास्तविकता तो यह है कि हम सभी, चाहे हमने कोई भी
उपाधि क्यों न धारण कर रखी हो, पापी ही हैं, जिन्हें प्रभु यीशु ने हमारे किसी कर्म अथवा योग्यता के कारण नहीं वरन
अपने अनुग्रह में होकर क्षमा किया और बचाया है, तथा अपनी इच्छा के अनुसार अपनी मण्डली में सेवकाई सौंपी है;
अपने आप को बड़ा या प्रमुख, या विशिष्ट दिखाने
के लिए नहीं, और न ही उस सेवकाई को सांसारिक लाभ और संपत्ति
जमा करने का साधन बनाने के लिए, वरन सुसमाचार के प्रचार और
प्रभु के नाम को महिमा एवं आदर देने के लिए। हम सभी को प्रभु परमेश्वर की महिमा को
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से चुराने के प्रयास करने की बजाए, पौलुस प्रेरित के रवैये “परन्तु मैं जो कुछ भी
हूं, परमेश्वर के अनुग्रह से हूं: और उसका अनुग्रह जो मुझ पर
हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैं ने उन सब से बढ़कर
परिश्रम भी किया: तौभी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से जो
मुझ पर था” (1 कुरिन्थियों 15:10) का
अनुसरण करना चाहिए।
इस संदर्भ में आज हम आरंभिक कलीसिया के
लिए “प्रेरित” होने के अभिप्राय को परमेश्वर के वचन से देखते और समझते हैं, क्योंकि यह लोगों द्वारा धारण की जाने वाली एक बहुत प्रचलित उपाधि है, जिसे लेकर बहुत
गलत शिक्षाएं और समझ फैला दी गई है:
मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “प्रेरित” किया गया है, उसका अर्थ है “विशेष
अधिकार के साथ नियुक्त किया हुआ।” यह संज्ञा स्वयं प्रभु ने
ही अपने 12 शिष्यों दी थी। प्रभु ने अपने सभी शिष्यों को
प्रेरित नहीं कहा, वरन अपने सभी शिष्यों में से जिन बारह को
उसने विशेषकर चुना था, उन्हें ही यह संज्ञा दी (लूका 6:12-16)। और यह संज्ञा सुसमाचारों में अन्त तक (पकड़वाए जाने से पहले फसह का पर्व
– लूका 22:14; पुनरुत्थान के बाद एकत्रित लोगों को बताना –
लूका 24:9-10) उन्हीं बारह के लिए ही प्रयोग की गई। अर्थात,
प्रभु का प्रत्येक शिष्य, प्रभु यीशु की ओर से,
“प्रेरित” नहीं था; प्रभु
के साथ रहने वाले लोगों और शिष्यों में से भी प्रेरित केवल वही कहलाते थे जिन्हें
प्रभु यीशु ने प्रेरित कहा था। और इन बारह को चुनने के पीछे, जिन्हें प्रभु ने प्रेरित नियुक्त किया था, उनके लिए
प्रभु का विशेष अभिप्राय था, जो मण्डली में पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए प्रेरित होने के वरदान के समान है तथा वचन की सेवकाई से संबंधित है। उन बारह ‘प्रेरितों’ को प्रभु यीशु के अन्य शिष्यों से कुछ भिन्न होना था, जैसा कि मरकुस 3:13-15 में उनके लिए दिया गया है:
– वे
उसके साथ रहें;
– वे
उसके द्वारा भेजे जाने के लिए तैयार रहें – जब और जहाँ प्रभु भेजे;
– वे
प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करें; और दुष्टात्माओं को
निकालने का अधिकार रखें।
प्रेरित कहलाने वाले शिष्यों के लिए कही
गई इन तीनों बातों के क्रम का भी महत्व है; अकसर लोग अंतिम बात, प्रचार करने और
आश्चर्यकर्म करने की सेवकाई के पीछे भागते हैं; किन्तु प्रभु के साथ समय बिताने,
और उसके कहे के अनुसार जाकर उसके द्वारा बताए गए कार्य को करने की
इच्छा नहीं रखते हैं। शिष्य को सबसे पहले प्रभु के साथ रहना है, फिर उसके कहे के अनुसार करना है, और तब ही प्रचार या
आश्चर्यकर्मों की लालसा रखनी है।
बाद में नए नियम में
शब्द “प्रेरित” का प्रयोग दूसरे रूप
में भी किया गया है – एक तो प्रेरित वे थे जिन्हें प्रभु ने नियुक्त किया था;
और इस शब्द का दूसरा प्रयोग उनके लिए आया है जो विशेष सन्देश-वाहक
थे, जैसे कि बरनबास (प्रेरितों 14:14) , प्रभु का भाई याकूब (गलातियों 1:19), संभवतः सिलास (1
थिस्सलुनीकियों 2:6 को 1:1 से मिलाकर देखें), आदि। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि
प्रभु के प्रत्येक सेवक को भी प्रेरित कहा गया; उदाहरण के
लिए, तिमुथियुस, तीतुस, फिलेमोन, उनेसिमुस, इपफ्रूदितुस,
आदि महत्वपूर्ण सेवकों के लिए प्रेरित शब्द नहीं प्रयोग किया गया
है।
कलीसिया के कार्यों और देखभाल के लिए
नियुक्त किए गए लोगों में भी परमेश्वर के द्वारा प्रेरितों को नियुक्त करने का
उल्लेख है (1 कुरिन्थियों 12:28-29; इफिसियों
4:11)। कलीसिया के कार्यों से संबंधित “प्रेरितों” के लिए इन दोनों पत्रियों – कुरिन्थियों
और इफिसियों, में स्पष्ट आया है कि उन्हें परमेश्वर ने
नियुक्त किया था; वे किसी मनुष्य की नियुक्ति नहीं थे – यह
भी हो सकता है कि ये प्रेरित, वे प्रभु द्वारा आरंभ में
नियुक्त किए गए शिष्य हों, जिन्हें अब प्रभु द्वारा
कलीसियाओं की रखवाली की ज़िम्मेदारी भी दी गई। अर्थात, प्रेरित
जब भी नियुक्त किए गए, परमेश्वर के द्वारा ही नियुक्त किए
गए।
यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि
बाद में तीतुस और तिमुथियुस को लिखी गई पत्रियों में जब कलीसिया के कार्यों को
संभालने के लिए, कलीसियाओं
के सदस्यों द्वारा, अगुवों की नियुक्ति करने के लिए, कलीसिया के उन सेवकों या अगुवों या प्राचीनों के गुणों के बारे में
निर्देश दिया गया (1 तिमुथियुस 3:1-7; तीतुस
1:6-9), तब वहाँ कलीसिया के कार्यों के लिए अथवा प्रभु
के सुसमाचार और संदेश के प्रचार के लिए मनुष्यों द्वारा प्रेरितों के चुनाव
करने के लिए न तो कहा गया (तीतुस 1:5), और न ही तब स्वयं को प्रेरित नियुक्त करने
या मण्डली के द्वारा किसी को प्रेरित नियुक्त करने के लिए कोई विशेष गुण लिखवाए गए। साथ ही इस पर भी ध्यान कीजिए कि
रोमियों 16 अध्याय में, जो उस पत्री का अंतिम अध्याय है,
पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस कई लोगों को उनके कार्य और सहायता
के लिए धन्यवाद के लिए स्मरण करता है, और पहले ही पद में फीबे को डीकनेस भी कहता
है, अर्थात एक सेवकाई और
ज़िम्मेदारी के पद का उल्लेख भी करता है। किन्तु 16:7 में
अपने साथ के पुराने प्रेरितों को छोड़, पौलुस और किसी को
प्रेरित नहीं कहता है। इसी प्रकार 1 कुरिन्थियों 16 में भी किसी के प्रेरित होने का उल्लेख नहीं है, जबकि
पवित्र आत्मा की अगुवाई में यहाँ पर भी कई लोगों की उनके मसीही जीवन और कार्यों के लिए सराहना की गई है।
परमेश्वर का वचन ही अपना सबसे उत्तम
स्पष्टीकरण और अपनी समझ प्रदान करता है, और परमेश्वर ने अपने वचन में ही हमें प्रेरितों की पहचान
भी बताई है। प्रेरितों 1:2-3 में हमें प्रभु द्वारा नियुक्त
प्रेरितों की पहचान के लिए दिए गए तीन गुण देखते हैं:
1. प्रभु
द्वारा चुने हुए (पद 2)
2. प्रभु
द्वारा आज्ञा पाए हुए (पद 2)
3. जिन्होंने
पुनरुत्थान हुए प्रभु को देखा (पद 3)
पौलुस के जीवन में भी दमिश्क के मार्ग पर
उसे मिले प्रभु यीशु के दर्शन के द्वारा ये तीनों बातें पूरी हुई, और इस बात का दावा वह 1
कुरिन्थियों 9:1-2; 15:9 में करता है; इसीलिए पौलुस भी प्रेरित कहलाया है। इन तीन बातों के आधार पर
मनुष्यों द्वारा, यहूदा इस्करियोती के स्थान पर एक प्रेरित
की नियुक्ति का एकमात्र उदाहरण हम प्रेरितों 1:20-26 में
पाते हैं। किन्तु मनुष्यों द्वारा की गई इस एक नियुक्ति के लिए उन लोगों ने वचन से
असंगत क्या कुछ किया, यह अपने आप में एक रोचक अध्ययन है,
जिसे हम अगले लेख में देखेंगे।
जैसे सच्चे प्रेरित थे, वैसे ही शैतान ने अपने
लोगों को झूठे प्रेरित बना कर मण्डलियों में मिला दिया (2 कुरिन्थियों
11:13) जिससे प्रभु के कार्य को बिगाड़ सकें, लोगों को सच्चाई के मार्ग से भटका सकें। ये झूठे प्रेरित व्यावसायिक
प्रचारक थे, जो लोग-लुभावनी बातों का
प्रचार करके (2 तिमुथियुस 4:3-4), श्रोताओं
से पैसे लेते थे। ये लोगों से सिफारिश की पत्रियाँ या अपनी प्रशंसा के पत्र
लिखवाकर ले आए थे, और पौलुस द्वारा दी गई शिक्षाओं का विरोध
करते थे (2 कुरिन्थियों 3:1-3)। और आज
भी स्वयं-नियुक्त अथवा मनुष्यों द्वारा नियुक्त ‘प्रेरितों’
में यही बात देखी जाती है - वे लोगों में अपनी प्रशंसा, आदर, स्तर, और लोगों द्वारा
उन्हें प्रदान किए जाने वाले उच्च स्थान का ढिंढोरा पीटते हैं, और फिर उसके आधार पर अपने आप को प्रमुख और विशिष्ट जताते हैं, तथा दीनता, नम्रता, और खराई से
वचन की सही और सच्ची शिक्षाएं देने वालों के महत्व को कम या व्यर्थ दिखाते हैं। प्रभु यीशु ने
कहा था कि सच्चे और झूठे भविष्यद्वक्ताओं में भिन्नता उनके फलों से पता चल जाएगी
(मत्ती 7:16-20)। प्रभु की इसी बात को आधार बनाकर, पौलुस
कुरिन्थियों की मण्डली के लोगों से कहता है कि तुम ही हमारे प्रशंसा-पत्र, हमारे सिफारिशी पत्र हो। अर्थात हमें किसी मनुष्य से प्रशंसा पाने या अपना
ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता नहीं है, प्रभु हमारी सेवकाई और
वास्तविकता को भली-भांति जानता है; हमारी सेवकाई के फलों,
यानि कि, तुम्हें देखकर ही लोग पहचानते हैं कि
उन झूठे प्रेरितों की तुलना में तुम्हारे शिक्षक कौन और कैसे थे, और तुम्हें क्या सिखाते थे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो यह ध्यान और विश्वास
रखिए कि परमेश्वर ने हमें भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों की पहचान न कर पाने की असहाय स्थिति में नहीं छोड़ा है; उसने अपने वचन में ही
इसकी पहचान दी है, और वचन को समझाने के लिए अपना पवित्र
आत्मा हमें दिया है। मसीही विश्वासियों के लिए समझने के लिए यह बहुत
महत्वपूर्ण बात है कि वचन में मनुष्यों द्वारा न तो प्रेरित नियुक्त किए जाने के
कोई निर्देश हैं, न इस नियुक्ति
के लिए कोई गुण और प्रक्रिया दी गई है, और न मनुष्यों द्वारा की गई नियुक्ति के आधार पर कोई प्रेरित होने के दायित्व को
निभा सका है। प्रभु चाहता है कि हम पहले जाँचें, सच्चाई को परखें,
और तब ही किसी शिक्षा या धारणा को स्वीकार करें (1 यूहन्ना 4:1; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। सच्चे और झूठे प्रेरितों की
पहचान करने के लिए हम आज उन्हें मरकुस 3:13-15 में दिए गए
प्रेरित कहलाने वाले शिष्यों के गुणों, तथा प्रेरितों 1:1-2
में दिए गए प्रेरितों के गुणों और बातों के आधार पर, तथा प्रभु द्वारा मत्ती 7:16-20 की पहचान – उनके
फलों के द्वारा जाँच सकते हैं। जिस में ये बाते नहीं हैं, वह
मसीही सेवकाई के लिए प्रभु द्वारा नियुक्त सच्चा प्रेरित भी नहीं है। आज भी जो अपने आप को प्रेरित कहते हैं, उनके जीवनों में इन
आरंभिक कलीसिया के लोगों के लिए दी गई पहचान की बातों को भी होना चाहिए, अन्यथा उनका दावा गलत है।
यदि आपने प्रभु की
शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन
और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना
निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की
बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी
है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा
से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और
स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु
मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना
जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी
कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने
मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े
गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें।
मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए
स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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- आमोस
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