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शनिवार, 12 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 31 – The Law’s Purpose / व्यवस्था का उद्देश्य – 1

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 22

व्यवस्था का उद्देश्य (भाग 1)

पिछले लेखों में हमने रोमियों 7 अध्याय से व्यवस्था की सीमाओं को देखा है कि व्यवस्था केवल पाप की पहचान करवा कर मनुष्य को पाप के लिए दोषी तो ठहरा सकती है। साथ ही व्यवस्था उस पाप और दोष के लिए दण्ड भी बता सकती है, किन्तु मनुष्य को पाप करने से रोक नहीं सकती है। और न ही पापी को दंडित करने के बाद भी परमेश्वर के साथ संगति में बहाल कर सकती है। साथ ही हमने यह भी देखा कि क्योंकि प्रभु यीशु में होकर व्यवस्था को हमारे सामने से हटा दिया गया है, इसलिए अब मसीही विश्वासियों के लिए व्यवस्था की बातों में जाने और उनका पालन करने के प्रयास करना, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता ही नहीं, वरन परमेश्वर के द्वारा हटा दी गई बात को पुनःस्थापित करने के द्वारा उसकी अवहेलना और उसका अपमान करना भी है। व्यवस्था की इतनी सीमाओं और अक्षमताओं के बावजूद, परमेश्वर ने मनुष्यों को, अपने चुने हुए लोगों को व्यवस्था दी ही क्यों? परमेश्वर कोई भी कार्य निरुद्देश्य नहीं करता है, उसकी हर बात में एक योजना, एक उपयोगिता होती है। तो व्यवस्था के दिए जाने में क्या योजना और क्या उद्देश्य है? आज और अगले लेख में हम इसी प्रश्न के उत्तर को देखेंगे और समझेंगे।


इस शृंखला के आरंभिक लेखों में हमने मानव इतिहास का एक बहुत संक्षिप्त अवलोकन किया था, और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि चाहे मनुष्य अपनी बुद्धि, अपने प्रयासों, अपने द्वारा निर्धारित किए कार्यों के द्वारा धर्मी और पवित्र होने का प्रयास करे, अथवा परमेश्वर द्वारा दिए गए नियमों, विधियों, बलिदानों, आदि के पालन के द्वारा यह करना चाहे, परिणाम एक ही है - मनुष्य कर्मों के द्वारा धर्मी, पवित्र, और सिद्ध कदापि नहीं बन पाता है, “हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के आधीन हैं: इसलिये कि हर एक मुंह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे” (रोमियों 3:19)। परमेश्वर की व्यवस्था मनुष्य के हाथों में होते हुए भी वह उसका पालन कर पाने में असमर्थ रहता है। अन्ततः हर मनुष्य को परमेश्वर के अनुग्रह और क्षमा के सहारे ही, पश्चाताप के द्वारा ही परमेश्वर को स्वीकार्य होना होता है।

यही व्यवस्था का पहला उद्देश्य है - उसमें विद्यमान पाप के कारण, मनुष्य को उसकी क्षमताओं की सीमाओं से अवगत कराना, और उन सीमाओं के प्रति जागरूक रखना। इब्रानियों का लेखक, इस बात को इन शब्दों में व्यक्त करता है, “क्योंकि व्यवस्था जिस में आने वाली अच्छी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब है, पर उन का असली स्वरूप नहीं, इसलिये उन एक ही प्रकार के बलिदानों के द्वारा, जो प्रति वर्ष अचूक चढ़ाए जाते हैं, पास आने वालों को कदापि सिद्ध नहीं कर सकती। नहीं तो उन का चढ़ाना बन्द क्यों न हो जाता? इसलिये कि जब सेवा करने वाले एक ही बार शुद्ध हो जाते, तो फिर उन का विवेक उन्हें पापी न ठहराता। परन्तु उन के द्वारा प्रति वर्ष पापों का स्मरण हुआ करता है।” पद 11 “और हर एक याजक तो खड़े हो कर प्रति दिन सेवा करता है, और एक ही प्रकार के बलिदान को जो पापों को कभी भी दूर नहीं कर सकते; बार बार चढ़ाता है” (इब्रानियों 10:1-3, 11)। अगले लेख में हम व्यवस्था के उद्देश्यों के बारे में आगे देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Why The Law Cannot Save Us – 22

Laws Purpose (Part 1)

 

    In previous articles, we've seen the limitations of the Law from Romans 7 that the Law can only help man to recognize sin, and it can hold man guilty of sin. The law can also prescribe punishment for that sin and offense, but it cannot prevent man from committing sin. Nor can it restore the sinner to fellowship with God even after he has been punished. Also, we have seen that because the Law has been taken away from us by God through the Lord Jesus, therefore, the Christian Believers have no need to go into observing the things of the Law. Rather, their still insisting to do so is not only disobedience to God, but by trying to reinstate what has been taken away by God, it is also demeaning and insulting Him. Despite the many limitations and incapabilities of the Law, why did God give His Law to men, to His chosen people? God does not do anything in vain, He has a plan, a purpose in everything. So, what is the plan and what is the purpose in the giving of the Law? Today and in the next article we will see and understand the answer to this question.


    In an earlier article of this series, we took a very brief look at human history, and came to the conclusion that whether man seeks to be righteous and holy through his own wisdom, his efforts, his self-devised deeds and actions, or through the Laws given by God, by the observance of statutes, sacrifices, etc., the result is the same man never becomes righteous, holy, and perfect, by any of his works,Now we know that whatever the law says, it says to those who are under the law, that every mouth may be stopped, and all the world may become guilty before God" (Romans 3:19). Even though the Law of God is in the hands of man, he is still unable to obey it. Ultimately, every human being becomes acceptable to God only through repentance of sins, and through God's grace and forgiveness.


    That is the first purpose of the Law - to make man aware of the limits of his abilities because of the sin in him, and to keep him conscious of those limits. The author of Hebrews expressed this in these words, "For the law, having a shadow of the good things to come, and not the very image of the things, can never with these same sacrifices, which they offer continually year by year, make those who approach perfect. For then would they not have ceased to be offered? For the worshipers, once purified, would have had no more consciousness of sins. But in those sacrifices, there is a reminder of sins every year.” Verse 11 “And every priest stands ministering daily and offering repeatedly the same sacrifices, which can never take away sins” (Hebrews 10:1-3, 11). In the next article we will consider further about the purpose of the Law.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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