परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 8
पिछले लेख में हमने राजा शाऊल के जीवन की घटनाओं के उदाहरणों से देखा था कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता का अर्थ होता है उसके कहे का पूर्णतः पालन करना; न केवल वह करना जो परमेश्वर चाहता है, वरन उसे वैसे ही करना जैसे करने के लिए परमेश्वर ने कहा है। राजा शाऊल ने वह तो किया जो परमेश्वर ने उस से करने के लिए कहा था, किन्तु वैसे नहीं किया जैसे परमेश्वर ने करने के लिए निर्देश दिए थे। इसलिए उसका किया परमेश्वर की दृष्टि में अनाज्ञाकारिता माना गया, परमेश्वर ने उसे तिरस्कार किया, और अन्ततः शाऊल को अपने ही तरीके से करने, मनुष्य के भय में होकर करने, और परमेश्वर को प्रसन्न करने के स्थान पर मनुष्य को प्रसन्न करने के लिए कार्य को करने की एक बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी।
परमेश्वर के वचन और उसके निर्देशों, उसकी कार्यविधि की अनदेखी करना, परमेश्वर के भय में चलने के स्थान पर मनुष्य के भय में होकर काम करना; मनुष्य को आदर देने के लिए मनुष्य के कहे के अनुसार चलना और करना तब भी जब वह परमेश्वर के कहे के अनुसार न भी हो; और यह मान लेना कि हम परमेश्वर के वचन की अपनी सहूलियत के अनुसार व्याख्या करने और परमेश्वर के कहे के अनुसार करने के लिए उद्यमी होने की बजाए, परमेश्वर के नाम में अपनी ही इच्छा तथा समझ के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं, अन्ततः परमेश्वर की नाराज़गी और उसके न्याय को लाता है, न कि उसके अनुमोदन और आशीषों को। आज हम बाइबल के इसी सिद्धान्त के राजा दाऊद के जीवन में कार्यकारी होने के बारे में देखेंगे, और अगले लेख में राजा उज्जियाह के जीवन से देखेंगे।
हम दाऊद के जीवन के उदाहरण को 1 इतिहास 13 और 15 अध्याय से देखेंगे। पृष्ठभूमि यह है कि परमेश्वर का वाचा का संदूक बीस वर्ष से किर्यत्यारीम में अबीनादाब के घर में रखा हुआ था, और शाऊल ने राजा बनने के बाद उसके बारे में कुछ नहीं किया था (1 शमूएल 7:1-2)। दाऊद राजा बनने के बाद, परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के रूप में वाचा के उस संदूक को वापस यरूशलेम लाने का निर्णय लेता है। इसलिए, यह करने के लिए, वह उस तरह से काम करता है जैसा करना उसे सही प्रतीत होता है। ध्यान दीजिए कि इस प्रक्रिया में परमेश्वर अथवा उसके वचन से मार्गदर्शन लेने का कोई उल्लेख नहीं है, न ही जिस तरीके से यह काम करने का निर्णय लिया गया उसके विषय परमेश्वर की इच्छा और सहमति प्राप्त करने का कोई उल्लेख है। दाऊद द्वारा 1 इतिहास 13:1-4 में उठाए गए क़दमों पर ध्यानपूर्वक विचार कीजिए:
· दाऊद ने सहस्त्रपतियों, शतपतियों अर्थात अपने सेनापतियों और सब प्रधानों से सम्मति ली (पद 1)।
· दाऊद द्वारा इस्राएलियों से लिए गए अनुमोदन में पहला उल्लेख उन लोगों का है, और बाद में एक औपचारिकता के समान परमेश्वर की इच्छा को कहा गया है (पद 2a)।
· दाऊद इस्राएलियों को बुलाने में पहला नाम प्रजा का लेता है, और फिर उसके बाद परमेश्वर के याजकों और लेवियों का (पद 2b)।
· वे सभी मिल कर, एक मन होकर, वाचा के सन्दूक को ले आने का निर्णय लेते हैं, “क्योंकि यह बात उन सब लोगों की दृष्टि में उचित मालूम हुई” (पद 4); बात के परमेश्वर की दृष्टि में सही और उचित होने की किसी को परवाह नहीं थी, यह जानने का किसी ने प्रयास भी नहीं किया।
इसलिए सभी लोग परमेश्वर के वाचा के संदूक को लाने के लिए किर्यत्यारीम को जाते हैं। परमेश्वर के वाचा के संदूक को लाने के लिए वे एक नई गाड़ी को प्रयोग करते हैं, और दाऊद तथा उसके साथ सभी इस्राएली गीत गाते, स्तुति और आराधना करते हुए संदूक को लेकर निकलते हैं (पद 7-8)। लेकिन अचानक ही संदूक के लाने में गड़बड़ हो जाती है, और परमेश्वर क्रोधित होकर उज्जा नामक एक व्यक्ति को मार डालता है। दाऊद अप्रसन्न होता है, परमेश्वर से डर जाता है, संदूक को लाने के कार्य को रोक देता है, और परमेश्वर के वाचा के संदूक को तीन महीने तक एक अन्य व्यक्ति के घर में छोड़ देता है (पद 9-14)।
इसके बाद हम 1 इतिहास 15 अध्याय में देखते हैं कि दाऊद को अपनी गलती का एहसास होता है। वह पहले संदूक के लिए यरूशलेम में स्थान तैयार करता है (पद 1), और फिर परमेश्वर ने जो निर्देश मूसा के द्वारा आने वचन में पहले से ही लिखवा रखे थे, उनका अंगीकार करता है, “लेवियों को छोड़ और किसी को परमेश्वर का सन्दूक उठाना नहीं चाहिये, क्योंकि यहोवा ने उन को इसी लिये चुना है कि वे परमेश्वर का सन्दूक उठाएं और उसकी सेवा टहल सदा किया करें” (1 इतिहास 15:2)। इसलिए, यद्यपि वह फिर से इस्राएलियों को एकत्रित करता है, लेकिन अब परमेश्वर के वाचा के संदूक को लाने की ज़िम्मेदारी स्वयं लेने के स्थान पर, वह इस ज़िम्मेदारी को हारून के संतानों और लेवियों को सौंपता है (पद 4-12)। साथ ही दाऊद पहली बार की गई अपनी गलती को भी मान लेता है, “क्योंकि पहिली बार तुम ने उसको न उठाया इस कारण हमारा परमेश्वर यहोवा हम पर टूट पड़ा, क्योंकि हम उसकी खोज में नियम के अनुसार न लगे थे” (1 इतिहास 15:13)। याजक और लेवीय पहले अपने आप को पवित्र करते हैं, और उसके बाद परमेश्वर द्वारा मूसा से लिखवाई गई विधि के अनुसार परमेश्वर के वाचा के संदूक को लेकर आते हैं (पद 14-15)। इस बार स्तुति और आराधना में अगुवाई करने के लिए उचित गवैये, वाद्य यंत्र बजाने वाले, आदि भी नियुक्त किए जाते हैं (पद 16-24); और तब, इस बार परमेश्वर स्वयं वाचा के संदूक को लाने के लिए लेवियों की सहायता करता है (पद 26)। यद्यपि इस बार भी समस्त इस्राएल बड़े जोश के साथ उत्सव मना रहा था, स्तुति और आराधना कर रहा था (पद 25, 28), परन्तु परिणाम उनके पहले के प्रयास से भिन्न होता है, क्योंकि सभी काम परमेश्वर द्वारा निर्धारित विधि से किए गए थे।
एक बार फिर से यह बहुत स्पष्ट है कि यद्यपि परमेश्वर का वचन और कार्य को करने के परमेश्वर के निर्देश उनके पास थे, किन्तु फिर भी दाऊद भी, जो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने परमेश्वर की उन बातों को मानने की बजाए, अपनी इच्छा और समझ के अनुसार कार्य किया। दाऊद परमेश्वर के लिए बहुत उत्साही थी, उसे आदर देना चाहता था, उसके प्रति अपने प्रेम और श्रद्धा को व्यक्त करना चाहता था। वह जो परमेश्वर के लिए करना चाहता था, यद्यपि वह सही था, लेकिन पहली बार उसने जैसे इस कार्य को किया वह परमेश्वर के वचन तथा उसके द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार नहीं था। इसलिए वह परमेश्वर की दृष्टि में किसी भी रीति से अनाज्ञाकारिता से कम नहीं था। और इसीलिए उस कार्य के इतने दुखदायी परिणाम हुए, यहाँ तक कि एक परमेश्वर की आज्ञाकारिता की बजाए परमेश्वर के भक्त मानवीय अगुवे, राजा दाऊद, की आज्ञाकारिता में कार्य करने की कीमत उज्जा को परमेश्वर के प्रकोप को सहने और अपने प्राण देने से चुकानी पड़ी। यह तथ्य कि दाऊद, उसके सेनापति, उसके प्रधान, और इस्राएल के सभी लोग यह कार्य करने के लिए सहमत थे, उसके बारे में एक मन थे; सभी लोगों ने अपने भक्त अगुवे और राजा की आज्ञाकारिता में रहते हुए काम किया था; उनके द्वारा बड़े उत्साह के साथ स्तुति और आराधना करते हुए इस कार्य को किया गया था, आदि बातों ने इसे उनके लिए सही नहीं ठहरा दिया था, उनके द्वारा किए जा रहे परमेश्वर के वचन और निर्देशों की अनदेखी को उचित नहीं बना दिया था। इन सभी बातों के होते हुए भी, परमेश्वर ने इसे अपने वचन को तुच्छ समझने और उसका अनाज्ञाकारी होने के समान ही देखा, चाहे इस कार्य का मुख्य व्यक्ति और करवाने वाला उसके मन के अनुसार व्यक्ति – दाऊद ही था।
केवल जब परमेश्वर के वचन को उसका उचित स्थान और महत्व प्रदान किया गया, जब कार्य को सही रीति से किया गया – परमेश्वर द्वारा पहले से ही उसके विषय दिए गए निर्देशों के अनुसार, तब ही परमेश्वर ने उसे स्वीकार किया, उस पर आशीष दी, और उसके लिए अपने लोगों की सहायता की। शिक्षा स्पष्ट है, किसी भी मनुष्य को, चाहे वह दाऊद के समान आत्मिक स्तर रखने वाला ही क्यों न हो, परमेश्वर के वचन के साथ अनुचित व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है; परमेश्वर को आदर देने या उसके प्रति प्रेम और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए भी नहीं; कोई भी परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग कर के उसके दुष्परिणामों से बच नहीं सकता है। परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने का अर्थ है यह सुनिश्चित करना कि परमेश्वर के वचन को ठीक उसी तरह से लिया, समझा, और पालन किया जाए जैसे कि परमेश्वर ने निर्देश दिए हैं; न कि किसी मनुष्य की इच्छा या लालसा के अनुसार, चाहे वह इच्छा परमेश्वर को आदर देने, उसके प्रति प्रेम और श्रद्धा को व्यक्त करने की ही क्यों न हो। परमेश्वर के वचन का उसके सही रूप में पालन करना, उस रूप में जैसा परमेश्वर ने हमें दिया है, केवल वही परमेश्वर को आज्ञाकारिता के लिए स्वीकार्य है। परमेश्वर के वचन के साथ किसी भी मनुष्य की इच्छा के अनुसार चाहे किसी भी उद्देश्य से क्यों न किया गया हो, उसे साथ किया गया किसी भी प्रकार का खिलवाड़ या अनुचित व्यवहार, परमेश्वर को कतई पसंद नहीं है, परमेश्वर उसे तिरस्कार करता है, ऐसा करने के गंभीर दुष्परिणाम होते हैं। अगले लेख में हम बाइबल के इसी सिद्धान्त की राजा उज्जिय्याह के जीवन से पुष्टि करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Improper Behavior Towards God’s Word – 8
In the previous article we have seen from the examples of incidences in King Saul’s life, that obedience to God means complete adherence to what He has said about doing things for Him; not only for what He wants done, but also how He wants it done. King Saul did what God wanted done, but not the way God had said it ought to be done. This was considered as disobedience and rejected by God, and eventually Saul had to pay a heavy price for doing things in his own way, and for doing things in the fear of man, to please man, rather than doing them to please God.
Ignoring God’s Word, God’s instructions, placing the fear of man over and above the fear of God in our lives, to walk and work according to the instructions of a man as a mark of respect for him, to honor him, even though what that man says is at variance from or contrary to God’s instructions and assuming that we have the liberty to interpret and to use God’s Word, and God’s instructions according to our own discretion and understanding, instead of being diligent to stay obedient to God, eventually results in earning the displeasure of God and suffering His judgment, instead of getting His approval and blessings. Today we will see the same Biblical principle at work in King David’s life, and in the next article see about it from King Uzziah’s life.
Let us look at David’s example through 1 Chronicles chapters 13 and 15. The background is that the Ark of God was stationed in Kirjath Jearim, in the house of Abinadab for twenty years, and Saul after becoming King had done nothing about it (1 Samuel 7:1-2). David after becoming King, in his love and reverence for God, decides to fetch the Ark back to Jerusalem. So, to do this, he does what seems to him the right thing to do. Note that in this whole process there is no mention of consulting God or His Word, of taking His guidance, getting His consent and approval for the manner he wanted to do it. Consider carefully the steps David takes in 1 Chronicles 13:1-4:
· David consults the captains of his army and every other leader (vs. 1).
· David places receiving the consent and approval of men first, and then after that perfunctorily mentions the Lord God (vs. 2a).
· David primarily calls for the remaining people from the lands, and then as an afterthought the priests and the Levites (vs. 2b).
· They all with one accord decide to bring back the Ark, “for the thing was right in the eyes of all the people” (vs. 4); no mention or concern, whether it was right in the eyes of God.
So, everybody goes to Kirjath Jearim, to bring up the Ark of God. To carry the Ark they use a new cart, and David and all Israelites joyfully sing, play music, and worship God (vs. 7-8). But then, all of sudden things go wrong with the transportation, and God being angry kills a person named Uzza. David is shocked, angry, and afraid of God, drops the transportation, and leaves the Ark in another man’s house for the next three months (vs. 9-14).
Then we see in 1 Chronicles chapter 15 that sense dawns on David, he first prepares a place, a tent in Jerusalem (vs. 1), and then acknowledges what God had already put in his Word through Moses, “No one may carry the ark of God but the Levites, for the Lord has chosen them to carry the ark of God and to minister before Him forever” (1 Chronicles 15:2). So, now though he again assembles all Israel, but now instead of taking upon himself the transportation of the Ark, he hands the responsibility of the transportation to the descendants of Aaron and the Levites (vs. 4-12). David also confesses his error of not doing it the God appointed way the first time, “For because you did not do it the first time, the Lord our God broke out against us, because we did not consult Him about the proper order” (1 Chronicles 15:13). The priests and the Levites first sanctify themselves, then bring up the Ark the way God had got it written through Moses (vs. 14-15). This time, appropriate worship leaders, singers, music players, etc. are also appointed to lead in praise and worship (vs. 16-24); and then, this time God helped them bring the Ark (vs. 26). Though even now, all of Israel was joyfully celebrating the event and worshipping (vs. 25, 28), but the result was different from their earlier attempt, because now things had been done in God’s ordained manner.
Once again, it is so apparent, so clear that even though God’s Word is there, God’s instructions of doing a thing are available, yet even David, a man after God’s own heart, assumes things instead of following those instructions. David was zealous for the Lord God, wanted to honor him, express his love and reverence for Him. Though what he wanted to do for God was right, but the way he initially did it was not according to God’s Word, not according to God’s instructions already given beforehand. So, it was nothing short of disobedience in the eyes of God; hence the painful consequences so much so that obedience to the godly human leader, King David, instead of obedience to God, cost Uzza his life. The fact that David, his Captains, his leaders, the people of Israel were all agreed upon doing this and were of one mind about doing it; the people’s obeying and following their King and godly leader, and obeying his instructions, their collective exuberant joyful and worship did not in any way make things right for them, did not justify their disregard and disobedience for God’s instructions. Despite all this, in God’s eyes, their disobedience remained disobedience, and God had to deal with it as disregard to His Word and disobedience, even though the main person involved was David – a man after God’s own heart.
Only when God’s Word was given its due place and importance, when the right thing was done the right way – according to God’s instructions for it, did God accept it, bless it, and He helped His people for it. The lesson is clear, no man, not even someone of the spiritual stature of David has the right to treat God’s Word inappropriately; not even as an expression or attempt to honor God or show love and reverence towards God; no one can misuse God’s Word and get away with it. To be a steward of God’s Word means to make sure that God’s Word is taken, understood, and followed just as God has instructed, and not according to any man’s fancy or desire, even if that fancy or desire is for honoring God, to express love and reverence for God. Following God’s Word in its true form, the form it has been given to us, is the only thing accepted as obedience by God; any manipulation of God’s Word according to man’s mind, for whatever purpose, is disliked and rejected by God, and it has serious deleterious consequences. In the next article we will reaffirm this Biblical principle from the life of King Uzziah.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.