ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

रविवार, 17 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 22 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 8

परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 3

 

    पिछले लेख में हमने शैतान की उस युक्ति को देखा था जो उसने हव्वा के विरुद्ध सफलतापूर्वक उपयोग की थी, पाप को सृष्टि और मानवजाति में प्रवेश दिलवाने के लिए। युक्ति है कि एक बौद्धिक चर्चा आरंभ कर के परमेश्वर के बारे में सन्देह उत्पन्न किए जाएँ, परमेश्वर को अविश्वासयोग्य दिखाया जाए, और विश्वासी को भरमा कर अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार चलने के लिए उकसाया जाए, उसे इस भ्रम में डाला जाए कि परमेश्वर ने उस से कुछ रोक कर रखा है, और उसे वह नहीं दे रहा है जो उसके लिए उपयुक्त है, और इसलिए कुछ अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए परमेश्वर ही की मानते रहने की बजाए अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार भी निर्णय लेना चाहिए। इस युक्ति के कार्यकारी होने के लिए सबसे आवश्यक भाग है विश्वासी का परमेश्वर की आज्ञाकारिता की बजाए अपनी बुद्धि और समझ पर भरोसा रखना। आज हम बाइबल में से तीन स्थानों से, परमेश्वर के धार्मिक लोगों के उदाहरणों से देखेंगे, कि अपनी बुद्धि और समझ पर परमेश्वर की आज्ञाकारिता से बढ़कर भरोसा करना, परमेश्वर के धार्मिक लोगों के लिए भी कितना गलत और हानिकारक हो सकता है। इन तीनों उदाहरणों में, परमेश्वर के धार्मिक लोगों के द्वारा अपने ही विचार और समझ पर भरोसा रखने के कारण, वास्तव में वह किया गया जो परमेश्वर के विरुद्ध और उसे नापसंद था, जब कि उन्हें यही लग रहा था कि वे परमेश्वर का कार्य कर रहे हैं, उसका आदर कर रहे हैं। ये उदाहरण बाइबल का एक बहुत कम जाना और समझा गया तथ्य प्रकट करते हैं, ऐसा तथ्य जिसका एहसास बहुत कम मसीहियों को होता है, कि न केवल परमेश्वर के विरुद्ध कही गई बातें, लेकिन ऐसी बातें भी जो परमेश्वर के पक्ष में तो कही जाती हैं, किन्तु परमेश्वर के सत्य और तथ्यों के अनुरूप न होने के कारण परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं होती हैं।


·        परमेश्वर के प्रति सचमुच समर्पित और श्रद्धापूर्ण होते हुए भी गलत तथा परमेश्वर को अस्वीकार्य होने का एक अच्छा उदाहरण, अय्यूब के मित्र हैं। ये लोग, परमेश्वर के नाम से, अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार अय्यूब पर दोष लगाते रहे कि उसने परमेश्वर के विरोध में कुछ किया होगा इसीलिए उस पर यह दण्ड आया, और उसे वह सहना पड़ रहा था, जो कि वह सह रहा था। अपनी समझ के अनुसार, वे परमेश्वर के पक्ष में होकर बोल रहे थे। किन्तु अय्यूब की बातों के विपरीत, उन्होंने परमेश्वर के गुणों और चरित्र के अनुसार बात नहीं की थी, जैसी की अय्यूब ने की थी; यद्यपि उसने अपने उपर आए हुए दुखों के लिए शिकायत की और अपने बचाव के लिए अपने पक्ष में तर्क दिए। उन मित्रों की बुद्धि और समझ ने परमेश्वर के सत्यों के प्रति उनकी आँखों को अन्‍धा कर दिया था। इसीलिए, परमेश्वर उन्हें दण्ड देना चाहता था; किन्तु उसने यह अय्यूब पर छोड़ दिया कि उनके साथ क्या किया जाए। अय्यूब ने उनके लिए प्रार्थना की और उन्हें दण्ड से बचा लिया (अय्यूब 42:7-10)।

·        पौलुस, प्रभु यीशु के साथ उसके साक्षात्कार और परिवर्तन से पहले एक बहुत उत्साही फरीसी था। उसके विचार और दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु के अनुयायियों, मसीही विश्वासियों, के पीछे जाकर उनके विरोध में कार्य करने के द्वारा, वह परमेश्वर के लिए कार्य कर रहा था (प्रेरितों 26:9-10)। यद्यपि वह परमेश्वर से प्रेम रखता था, उसके लिए उत्साही था, और उसकी सेवा करना चाहता था; लेकिन फिर भी परमेश्वर के वचन के प्रति उसकी अपनी शिक्षा, व्याख्या, और समझ गलत थे। पौलुस की इस गलत समझ ने उसे क्रूर, अधर्मी रवैया दिया था, और वह भी परमेश्वर के लोगों ही के विरुद्ध।

·        पतरस ने, अपनी समझ और दृष्टिकोण के अनुसार जल्दबाजी में प्रतिक्रिया देते हुए, बजाए इसके कि प्रभु से उस असमंजस में डालने वाली बात को समझाने के लिए कहता जो प्रभु अपने शिष्यों से कह रहा था, अनुचित निर्णय लिया, और प्रभु को ही डाँटने लगा, क्योंकि प्रभु आने वाले समय में अपने पकड़वाए जाने, सताए जाने, और मारे जाने की बात कर रहा था। इसीलिए प्रभु को उससे कड़ाई से व्यवहार करना पड़ा, तीखी डाँट लगा कर उसे उसका सही स्थान दिखाना पड़ा (मत्ती 16:21-23)।

 

    हो सकता है कि परमेश्वर की बात हमेशा ही स्पष्ट न हो, किन्तु वह कभी गलत नहीं होता है। इसके विपरीत, मनुष्य, चाहे वह प्रभु यीशु का सच्चा और समर्पित अनुयायी ही क्यों न हो, परमेश्वर के कहे पर भरोसा रखने के स्थान पर अपनी ही बुद्धि और समझ के अनुसार चलने से बड़ी आसानी से अनजाने में ही परमेश्वर के प्रतिकूल व्यवहार में जा सकता है, इस भ्रम में पड़े हुए कि वह परमेश्वर के लिए कार्य कर रहा है, परमेश्वर का आदर कर रहा है। यदि हम इस मूल धारणा पर विश्वास रखने के साथ आरम्भ करें कि परमेश्वर का वचन हमेशा ही सही होता है और सर्वोत्तम होता है, और हमेशा ही यह ठान कर रखें कि अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार चलने की बजाए हमेशा परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए उसके वचन की आज्ञाकारिता के अनुसार ही चलेंगे, तो फिर कोई भी बात चाहे जितनी भी असमंजस में डालने वाली, समझ से बाहर क्यों न हो, हमें गिरा नहीं सकेगी; हम परमेश्वर के वचन के भले भण्डारी बने रहेंगे, और शैतान के लिए हमें भरमाना और गिराना असम्भव नहीं तो बहुत कठिन तो अवश्य ही हो जाएगा।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

***********************************************************************

Improper Behavior Towards God’s Word – 3

 

    In the previous article we had seen Satan’s strategy that he had successfully used against Eve to bring sin into the creation and into mankind. The strategy is to start an intellectual discussion, create doubts about God, make God seem untrustworthy, seduce the Believer into going by his intellect by making him think that God has held things back and is not giving what ought to have been given, and therefore, to achieve a seemingly greater gain go by one’s own intellect and reasoning rather than obey God. The crucial component of this strategy is the Believer’s relying on one’s intellect instead of obedience to God. Today we will see from three places, from the example of godly persons in the Bible, how flawed and disastrous this reliance on one’s intellect and reasoning over and above obedience to God can be, even in a godly person’s life. All of these three examples, godly persons, because of trusting their own thinking and reasoning, were actually doing things contrary and offensive to God, while thinking they were doing God’s Work, honoring God. They illustrate a very little-known Biblical fact, something that is hardly ever realized by most Christians, that not only things said contrary to God, but even things said in favor of God, but not in accordance with His truth and facts are unacceptable to God.


  • A good example of being sincere and reverent towards God, yet being wrong and unacceptable to God, are Job's friends. They, in the name of God, using their intellect and reasoning, accused Job of being contrary to God; and therefore, suffering what he was suffering. According to their understanding, they had spoken in favor of God. But unlike Job, they had not actually spoken in accordance with the attributes and characteristics of God, as Job had; even though Job had complained about what he had to suffer and had spoken his defense of himself. Their intellect and reasoning had blinded their minds to the truths about God. Therefore, God wanted to punish them; but left it to Job, to decide their fate. Job prayed for them and had them delivered from their punishment (Job 42:7-10).

  • Paul, before his encounter with the Lord Jesus and conversion was a very zealous Pharisee. From his point of view, according to his understanding, by going after the Christian Believers, the followers of Christ Jesus, by destroying those he saw as heretics, he was working for God (Acts 26:9-10). Though he loved the Lord and was zealous for Him, wanting to serve Him; yet his interpretation, learning, and understanding of God's Word was faulty, and Paul’s this intellectual reasoning gave him his cruel, ungodly attitude, that too towards the followers of the Lord God.

  • Peter going by his own reasoning and understanding and reacting hastily, instead of asking the Lord to clarify to the disciples the perplexing situation that the Lord was talking to them about, acted inappropriately, and rebuked the Lord Jesus for talking about His impending arrest, torture, and death; and the Lord had to put him in his place through a strong rebuke (Matthew 16:21-23).

 

    God’s ways may not always be clear, but He is never wrong. On the other hand, man, even a committed follower of the Lord, by trusting his own intellect rather than trusting what God says, inadvertently, can easily get on the wrong side of God, while continuing to think he is working for God, honoring God. If we start off on the basic premise that God’s Word is always right and always the best, and make it a point to trust and obey God’s Word instead of our own intellect and reasoning, no matter how perplexing the situation may be, Satan will have a very hard time, if not be impossible to lead us astray, and we will be good stewards of God’s Word.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well