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रविवार, 15 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 50 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 36

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 4

 

    हमने पौलुस के जीवन और सेवकाई से परमेश्वर के वचन के साथ ठीक से व्यवहार करना सीखना आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 के साथ आरंभ किया था, और देखा था कि यहाँ पर परमेश्वर से उसे सौंपी गई सेवकाई के विषय पौलुस तीन बातें कहता है: पहली, उसे बपतिस्मा देने के लिए नहीं भेजा गया था; दूसरी, उसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए भेजा गया था; और तीसरी उसका प्रचार “शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं” था, और यह करने का कारण भी वह बताता है, “ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।” इन तीन में से पहली बात को हमने पिछले लेख में देखा था, और उस से शिक्षा ली थी कि, जो परमेश्वर के वचन को बाँटने, प्रचार करने, सिखाने की सेवकाई में लगे हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित और प्रदान की गई सेवकाई के बारे में पता होना चाहिए, उन्हें उसका ध्यान रखना चाहिए, और उन्हें उसे पूरा करना चाहिए। परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सेवकाई से बाहर की किसी भी बात में आगे बढ़ने से पहले, उन्हें उस बात को करने के लिए अच्छे से जाँच-परख लेना चाहिए, उसे करने की पुष्टि कर लेनी चाहिए, तब ही उसमें आगे बढ़ना चाहिए, कहीं शैतान उन्हें बहका कर कुछ अनुचित न करवा रहा हो। आज हम दूसरी बात को देखेंगे।


    परमेश्वर की कलीसिया में, विभिन्न लोगों को, कलीसिया की उन्नति और बढ़ोतरी के लिए विभिन्न वरदान और ज़िम्मेदारियाँ दी गई हैं (1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11-13)। परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा निर्धारित की गई सेवकाई के अनुसार, कलीसिया के सदस्यों को उचित वरदान भी दिए गए हैं (1 कुरिन्थियों 12:5-6, 11), ताकि वे अपनी सेवकाइयों को योग्य रीति से कर सकें। उसके परिवर्तन के समय पौलुस को सौंपी गई प्राथमिक सेवकाई थी सुसमाचार का प्रचार और अन्यजातियों और राजाओं, और इस्राएलियों के सामने परमेश्वर के नाम को प्रकट करना (प्रेरितों 9:15)। लेकिन पौलुस का जीवन और उसकी सेवकाई दिखाते हैं कि सुसमाचार का प्रचार करना ही वह एकमात्र वरदान नहीं था जो पौलुस को दिया गया था। पौलुस के पास अन्य वरदान, जैसे कि, सामर्थ्य के अनोखे काम करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और यहाँ तक कि मृतकों को भी पुनः जीवित करना भी थे (प्रेरितों 16:18; 19:11-12; 20:9-12; 28:8)। लेकिन परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए इन वरदानों और योग्यताओं ने उसे कभी इस बात की अवहेलना नहीं करने दी कि उसकी प्राथमिक सेवकाई सुसमाचार प्रचार करना है, जैसा की वह 1 कुरिन्थियों 9:16-17 में कहता है।


    इसीलिए हम देखते हैं की उसके लेख, उसकी उसे सौंपी गई इस प्राथमिक सेवकाई पर ही केन्द्रित रहते हैं। पौलुस ने कभी भी उसे दिए गए अन्य वरदानों के बारे में विस्तार से नहीं सिखाया या लिखा। यद्यपि उसने अन्य भाषाओं में बोलने के वरदान के बारे में कुछ विस्तार से अवश्य लिखा, किन्तु वह भी कुरिन्थुस की मण्डली में घुस आई गलतियों को सही करने के सन्दर्भ में था। उस मण्डली ने अन्य भाषाओं के पवित्र आत्मा के वरदान को गलत समझना और उसका अनुचित रीति से उपयोग करना आरंभ कर दिया था, और उन में से कुछ लोग औरों पर अपने आप को बड़ा दिखाने के लिए उसका दुरुपयोग कर रहे थे। इन सभी बातों के कारण कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों की गवाही और उनकी आत्मिक उन्नति खराब हो रही थी, जो उनके द्वारा सुसमाचार तथा परमेश्वर के वचन के प्रचार के लिए हानिकारक था। इसीलिए पौलुस को पवित्र आत्मा की अगुवाई में इस वरदान के बारे में कुछ विस्तार से बताना पड़ा, जिससे कि गलतियों को सुधार सके, और उन्हें लौटा कर उन्हें दिए गए परमेश्वर के वचन के साथ सही व्यवहार पर ला सके।


    कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी अपनी पहली पत्री, जिसमें उसने उस मण्डली में घुस आई कई गलतियों को संबोधित किया है, के समापन की ओर आते हुए पौलुस उन्हें वापस सुसमाचार पर ले कर जाता है (1 कुरिन्थियों 15:1-4)। निहितार्थ यह है कि उनके द्वारा सुसमाचार को समझने में ही उनकी समस्याओं के समाधान, तथा अपनी गलतियों को पहचानने और सही करने का मार्ग है। परमेश्वर की कलीसिया में उठने वाली प्रत्येक समस्या की जड़ में, तथा वचन के दुरुपयोग और उस से गलत व्यवहार का कारण, हमेशा ही कोई न कोई पाप होता ही है। यह पाप बहुधा बहुत गहरा छिपा हुआ होता है, तथा उसे परमेश्वर के प्रति भक्ति और श्रद्धा से बहुत अच्छे से ढांपा हुआ भी होता है। लेकिन जब मसीही विश्वासी कलवरी के क्रूस के सामने आ कर खड़ा होता है, अपने छुटकारे के आधार और उसके लिए चुकाई गई कीमत पर विचार करता है, तो उसके सामने उसका यह छिपा हुआ पाप प्रकट हो जाता है, वह कायल होता है, पश्चाताप करता है, और परमेश्वर से क्षमा मांगकर उससे निकलने का मार्गदर्शन माँगता है। इसलिए, सुसमाचार न केवल पापियों को उद्धार देने के लिए, बल्कि भटके हुए मसीही विश्वासी को लौटा कर परमेश्वर की संगति में बहाल करने, और उसे फिर से परमेश्वर के लिए उपयोगी बनाने के लिए भी उपयोगी है।


    तो, यहाँ पर, पौलुस के जीवन से हमने परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार के दूसरे सिद्धांत के बारे में देखा है कि, अपनी परमेश्वर द्वारा दी गई सेवकाई को पहचानो, और परमेश्वर द्वारा दिए गए वरदानों और योग्यताओं का सदुपयोग करो, तथा उनके अनुसार परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार करो। इससे आप को भी आशीष मिलेगी, तथा परमेश्वर के नाम को भी महिमा मिलेगी।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Appropriately Handling God’s Word – 4

 

    We are now learning the appropriate way of handling God’s Word, through the life and ministry of the Apostle Paul. In the previous article we had started with 1 Corinthians 1:17, and seen that Paul says three things about his God given ministry in that verse: Firstly, he was not sent to baptize; secondly, he was sent to preach the gospel; and, thirdly, he preached ‘not with wisdom of words’, and the reason for doing so was, ‘lest the cross of Christ should be made of no effect.’ Of these three, we had seen the first one, and drawn the lesson that those engaged in the ministry of sharing, preaching, teaching the Word of God, should be aware of their God appointed ministry, they should take care of it, and fulfil it. Before doing anything outside of their God given ministry, it should diligently be cross checked and confirmed, before proceeding with doing it, lest Satan be deceiving them into doing something inappropriate. We will consider the second statement today.


    In the Church of God, different people have been given different gifts and responsibilities for the growth and edification of the Church (1 Corinthians 12:28; Ephesians 4:11-13). According to the ministry allocated by God the Holy Spirit, appropriate gifts too have been given to the members of the Church (1 Corinthians 12:5-6, 11) to help then carry out their ministries worthily. Paul, at the time of his conversion, had primarily been given the ministry of preaching the Gospel and witnessing for God to Gentiles, kings, and children of Israel (Acts 9:15). But Paul’s life and ministry also shows that preaching the gospel was not the only God given gift that he had. Paul also had the gift of doing various miracles and wonders, of healing, of casting out demons, and even of raising the dead back to life (Acts 16:18; 19:11-12; 20:9-12; 28:8). But these God given gifts and abilities never made him loose sight of the fact that his primary ministry was of preaching the gospel, as he reaffirms it in 1 Corinthians 9:16-17.


    Therefore, we see that his writings are focused on this main ministry that had been entrusted to him. Paul never wrote or taught in any detail about the various other gifts that God had given him. Although he did write in some detail about the gift of speaking in tongues, but that too was in context of rectifying the error that had come into the congregation of the Church at Corinth. That congregation had started misunderstanding and misusing the Holy Spirit’s gift of speaking in tongues, in an incorrect manner, and some were using it to assert superiority over others. All of this was adversely affecting the spiritual growth and witness of the Christian Believers in Corinth, which would have a negative impact on the preaching of the gospel and sharing God’s Word by the Corinthian Christian Believers. Therefore, Paul through the Holy Spirit had to explain about this gift, rectify the errors, and bring them back to correctly handling God’s Word that they had received.


    As Paul concludes his first letter to the Corinthians, in which he addresses the various errors that had come into that congregation, Paul takes them back to the gospel (1 Corinthians 15:1-4). The implication is that in the understanding of the gospel are the solutions to their problems and the way to realize and rectify their errors. Always at the root of every problem in the Church of God and the reason of every mishandling of God’s Word is sin, very often quite covert, and well covered with an appearance of being godly and reverent. But when the Christian Believer comes and stands before the Cross of Calvary, ponders over the basis of his redemption and what it cost, his hidden sin is exposed to him, he is convicted and penitent for it, and seeks God’s forgiveness and guidance to come out of it. Hence, the gospel not only serves to bring salvation to the sinners, but also serves to bring the wayward Believer back into God’s fellowship and make him useful for God once again.


    So, here, from Paul’s life, we see about the second principle of handling God’s Word – know your God given ministry, and use your God given gifts and abilities to focus your handling of God’s Word according to that. That will bless you and others, and glorify God’s name.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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