आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - प्रधान
मसीही
विश्वासियों की मण्डलियों में विभिन्न कार्यों को करने और दायित्वों के निर्वाह के
लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वासियों को विभिन्न वरदान दिए हैं,
जिनकी एक सूची 1 कुरिन्थियों 12:28 में दी गई है। इस सूची में दिए गए क्रम और वरीयता के अनुसार हम पिछले लेखों में इन विभिन्न वरदानों को देखते आ रहे हैं।
इस सूची के अंतिम वरदान, अन्य भाषाएं बोलने, के बारे में हम
आरंभ में देख चुके हैं, क्योंकि इस वरदान को लेकर बहुत सी
गलतफहमियाँ और गलत शिक्षाएं ईसाई समाज और मसीही विश्वासियों में व्याप्त हैं,
और निरंतर फैलाई जाती हैं। आज, इस सूची के शेष
अंतिम वरदान - “प्रधान” होने के विषय
में हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देखेंगे।
जिस शब्द का
हिन्दी अनुवाद “प्रधान” किया गया है,
उसका मूल यूनानी भाषा में शब्दार्थ किसी जहाज के कप्तान के समान
“नियंत्रण रखने, संचालन करने, और दिशा देने वाला” होता है। बाइबल के
विभिन्न अँग्रेज़ी अनुवादों में इसे विभिन्न शब्दों के द्वारा व्यक्त
किया गया है, जिन
में सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला शब्द है Administrations; इसके अतिरिक्त प्रयोग किए गए अँग्रेज़ी शब्द हैं, Managing,
Directions, Governings, Guidings, Leadership, Ministrations, आदि।
यह एक रोचक किन्तु महत्वपूर्ण बात है कि इस शब्द के लगभग सभी अँग्रेज़ी अनुवादों को बहुवचन
में अनुवाद किया गया है। अर्थात, यह कार्य कई दायित्वों
के एक साथ निर्वाह करने का कार्य है; इस शब्द का अभिप्राय
मण्डली की देखभाल, संचालन, मार्गदर्शन,
रख-रखाव करना, और ज़िम्मेदारी लेना एवं निभाना
है। मसीही मण्डलियों में इन दायित्वों के निर्वाह करने वालों के लिए अन्य शब्द भी प्रयोग किए गए हैं, जैसे कि “प्राचीन”
(1 तिमुथियुस 5:17), “रखवाले” (इफिसियों 4:11), “सेवक” (1 कुरिन्थियों
3:5), “अध्यक्ष” (1 तिमुथियुस 3:1,
2), आदि। यह ध्यान
देने और समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि ये सभी शब्द, तथा 1 कुरिन्थियों 12:28 में प्रयुक्त शब्द “प्रधान”, का प्रयोग मण्डली
के शेष लोगों पर किसी अधिकार या वर्चस्व दिखाने अथवा रखने की पदवी अथवा उपाधि को नहीं, वरन सेवक या सहायक के
समान औरों की सेवा, सहायता, और वचन
शिक्षा देने आदि की ज़िम्मेदारियों को दिखाते हैं। साथ ही यहाँ पर यह ध्यान देने और समझने की बात
है कि 1 कुरिन्थियों
12:28 में “प्रधान” शब्द के द्वारा उन लोगों की सामूहिक सेवकाई या दायित्व को बताया गया है,
और पत्रियों में उन लोगों को बताया गया है जो इस दायित्व के अलग-अलग
भागों का साथ मिलकर के निर्वाह करते हैं।
साथ ही इस दायित्व के निर्वाह करने वाले
इन लोगों के लिए प्रयोग किए गए शब्दों के बारे में एक और रोचक एवं बहुत महत्वपूर्ण तथ्य भी वचन में
विदित है, हमेशा
इस दायित्व को निभाने वाले लोगों के लिए बहुवचन का ही प्रयोग किया गया है, चाहे बात किसी एक ही मण्डली की ही क्यों न हो रही हो। कहने का अभिप्राय यह
कि नए नियम में, परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा प्रभु यीशु
की कलीसिया के संचालन और देखभाल आदि के लिए दिए गए निर्देशों के अनुसार, कलीसिया या मण्डली की ज़िम्मेदारी कभी किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं थी; किसी भी मण्डली
का कोई एक सर्वेसर्वा अधिकारी कभी नहीं था। सदा ही अलग-अलग लोगों को मिलकर इस एक दायित्व का
निर्वाह करना था। कोई भी एक व्यक्ति कभी भी किसी एक मण्डली का सर्वाधिकार रखने
वाला, मण्डली
के लोगों को अपनी इच्छा और समझ के अनुसार नियंत्रित करने वाला, औरों पर अधिकार रखने
वाला नहीं ठहराया गया। जिन्हें यह वरदान और दायित्व दिया गया, उन्हें इसका निर्वाह प्रभु के भय में, और सदा ही प्रभु को इसके विषय उत्तर देने के बोध के साथ करना
था, “तुम में जो प्राचीन
हैं, मैं उन के समान प्राचीन और मसीह के दुखों का गवाह और
प्रगट होने वाली महिमा में सहभागी हो कर उन्हें यह समझाता हूं। कि परमेश्वर के उस
झुंड की, जो तुम्हारे बीच में हैं रखवाली करो; और यह दबाव से नहीं, परन्तु परमेश्वर की इच्छा के
अनुसार आनन्द से, और नीच-कमाई के लिये नहीं, पर मन लगा कर। और जो लोग तुम्हें सौंपे गए हैं, उन पर
अधिकार न जताओ, वरन झुंड के लिये आदर्श बनो। और जब प्रधान
रखवाला प्रगट होगा, तो तुम्हें महिमा का मुकुट दिया जाएगा,
जो मुरझाने का नहीं” (1 पतरस 5:1-4)। ध्यान कीजिए कि पवित्र आत्मा द्वारा पतरस से लिखवाए गए इस निर्देश को नम्रता तथा सहनशीलता
से, और आदर्श बनकर निभाना था;
उसे अधिकार रखने और भौतिक लाभ उठाने के लिए प्रयोग नहीं करना था,
और इसे किसी “नौकरी” के
समान नहीं वरन मन से करना था। साथ ही उन्हें “प्रधान रखवाले”
अर्थात प्रभु यीशु मसीह को प्रसन्न करने और उससे अपने प्रतिफल
प्राप्त करने के विचार के साथ इसका निर्वाह करना था; न कि
अपने से किसी अन्य उच्च पद-अधिकारी अथवा किसी मनुष्य को प्रसन्न करने और उनसे कोई ‘इनाम’ या आदर और प्रशंसा पाने के लिए।
साथ ही हम उस आरंभिक मसीही विश्वासियों
की मण्डलियों के उदाहरण से यह भी देखते हैं कि जो “प्रधान”, अर्थात मण्डली की देखभाल और संचालन करने वाले हों, उनमें परमेश्वर के द्वारा दिए गए विशिष्ट
गुणों एवं विशेषताओं का होना आवश्यक था। ये सभी गुण उनके व्यक्तिगत, पारिवारिक, और आत्मिक जीवन में विद्यमान होने चाहिए थे; तब ही उन्हें
मण्डली
के “प्रधान”
होने के पद पर नियुक्त किया जाना था (1 तिमुथियुस 3:1-10;
तीतुस 1:5-11)। वचन में वोट डालकर किसी चुनाव
की प्रक्रिया के द्वारा इन सेवकों को नियुक्ति करने का कोई निर्देश, उदाहरण, अथवा संकेत नहीं है। और न ही नियुक्त होने वालों की कोई निर्धारित संख्या दी गई है, बहुवचन के द्वारा यही
बताया गया है कि उन्हें एक से अधिक होना था। साथ ही किसी एक का दूसरों से उच्च या
बढ़कर अधिकार रखने के लिए भी कोई संकेत नहीं दिया गया है। एक बहु-प्रचलित आम
धारणा के विपरीत, वचन में ऐसा कोई संकेत या उल्लेख नहीं है कि पतरस उस पहली मण्डली का
अध्यक्ष था, जो आगे चलकर ‘पोप’ का पद कहलाया, और आज भी बना हुआ है, और न ही इसी प्रकार के किन्हीं अन्य पदों का कोई उल्लेख किया गया है। इन “प्रधानों” की
कार्यविधि के उदाहरण हम प्रेरितों के काम पुस्तक में, मण्डलियों
में उठे कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के विषय, प्रेरितों 6:1-6
में, तथा 15 अध्याय देखते
हैं। प्रथम
मण्डली के उन “प्रधानों” के कार्य करने के इन उदाहरणों से स्पष्ट है
कि वे स्वयं व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने, प्रार्थना करने, आत्मिक जीवन की बातों की सही प्राथमिकता को बनाए रखने, और परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार कार्य करने वाले लोग थे। उनके निर्णय
परस्पर खुली चर्चा के बाद, सर्वसम्मति से, एक मन होकर लिए जाते थे; उनमें बड़े-छोटे समझे जाने
की, या उनके अहम को पहुंची किसी ठेस के कारण किसी अन्य से
द्वेष रखने की भावना नहीं थी। यह तब ही संभव हो सकता है जब उनमें से प्रत्येक अपने
दायित्व का निर्वाह मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए नहीं, किसी
मनुष्य की इच्छा के अनुसार नहीं, वरन परमेश्वर के भय में
होकर, उसे उत्तरदायी होने की भावना के साथ करे, और परमेश्वर के वचन तथा उसकी आज्ञाकारिता को अपने जीवन में प्राथमिकता दे
(गलातियों 1:10)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और परमेश्वर ने आपको
अपनी मण्डली में कोई ज़िम्मेदारी दी है, आपके द्वारा वह कुछ
कार्य करना चाहता है तो, आपके लिए अनिवार्य है कि सबसे पहले
आपका अपना जीवन मनुष्यों के नहीं वरन परमेश्वर के भय में चलने, उसे उत्तरदायी होने, और उसकी आज्ञाकारिता में बने
रहने, उसके वचन को ध्यान में रखने वाला जीवन हो। तब ही आप
अपने दायित्व का सही निर्वाह करने पाएंगे, उस कार्य के
द्वारा परमेश्वर को महिमा देने और उसे प्रसन्न करने पाएंगे। अन्यथा, यदि आप मनुष्यों को प्रसन्न करने को वरीयता देंगे, तो
शीघ्र ही शैतान आप से ऐसे गलत निर्णय, जो आपके तथा औरों के
जीवन के लिए, तथा मण्डली या कलीसिया के लिए हानिकारक होंगे, उन्हें भी करवाने लगेगा। जैसे अदन की
वाटिका में हव्वा से पाप करवाने के लिए उसने किया था, शैतान हमेशा लोगों को परमेश्वर के निर्देशों का पालन करने,
अथवा अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार सही, लुभावनी,
तथा भली लगने वाली बातों के मध्य चुनाव करने की स्थिति में ला कर
खड़ा कर देता है, और परमेश्वर तथा उसकी बातों पर संदेह लाने के द्वारा परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता
के लिए उकसाता है। यहीं पर हमारे और हमारे कार्यों का परमेश्वर को
स्वीकार्य होने, परमेश्वर के प्रति हमारे समर्पण, विश्वास, और आज्ञाकारिता की वास्तविकता और खराई का निर्णय हो जाता है; जिससे फिर हमारे
परमेश्वर के लिए उपयोगी होने और उससे आदर एवं महिमा, तथा
अनन्तकालीन उत्तम प्रतिफल पाने का भी निर्णय हो जाता है (यूहन्ना 5:41-44)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- सपन्याह
1-3
- प्रकाशितवाक्य 16