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गुरुवार, 19 जनवरी 2023

प्रभु भोज – भाग लेने में गलतियाँ (19) / The Holy Communion - The Pitfalls (19)

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प्रभु की मेज़ - समस्याओं का समाधान करें; एकता बनाए रखें


प्रभु भोज के बारे में इस बाइबल अध्ययन में, अभी तक, हमने 1 कुरिन्थियों 11:17-32 से देखा है कि पौलुस प्रभु भोज में भाग लेने से संबंधित कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों की गलतियों और कमजोरियों को प्रकट करने और उनकी भर्त्सना करने में बहुत स्पष्टवादी था और उसने अपनी बात कहने के लिए बिल्कुल भी कोई भी समझौता नहीं किया। वह उन्हें स्मरण दिलाता है कि मसीही विश्वासी होने के नाते उन्हें अवश्य ही प्रभु की मेज़ में भाग लेना है, किन्तु उसे एक रीति समझ कर औपचारिकता पूरी करने के लिए नहीं, बल्कि योग्य रीति से, अर्थात, उस प्रकार से जैसा परमेश्वर ने उसके लिए कहा है कि यह किया जाए। प्रभु भोज में भाग लेना भोजन खाना नहीं है, बल्कि सांकेतिक है। यह प्रभु यीशु और उसके बलिदान की याद में, तथा उसकी मृत्यु तथा शीघ्र ही लौट कर आने का प्रचार करने के लिए है।  भाग लेने वालों को पहले अपने आप को जाँच लेना चाहिए, प्रभु के सामने अपने पाप मान लेने चाहिएं, प्रभु से उनके लिए क्षमा माँगनी चाहिए, और क्षमा प्राप्त करने के पश्चात योग्य रीति से भाग लेना चाहिए। जो अपने आप को जाँचते नहीं हैं, परंतु परमेश्वर के वचन और निर्देशों को हलके में लेते हैं, उसके महत्व को नहीं समझते हैं, प्रभु की मेज़ में औपचारिकता पूरी करने के लिए रीति के समान भाग लेते हैं; उन्हें फिर इसके लिए परमेश्वर का सामना करना पड़ेगा - उसके द्वारा उन्हें जाँचे जाने, उनका न्याय करने, और उनकी ढिठाई के साथ अनाज्ञाकारिता में बने रहने के लिए उसकी ताड़ना का भी। परमेश्वर की ताड़ना बहुत कठोर भी हो सकती है, गलती करने वाले व्यक्ति के निर्बल होने से, बीमार होने, और उसकी मृत्यु तक भी।

 

पवित्र आत्मा जिस अगले विषय पर पौलुस से चर्चा करवाना चाहता है, उसे आरंभ करने से पहले, 1 कुरिन्थियों 11:33-34 के द्वारा प्रभु भोज से संबंधित इस चर्चा को समाप्त करता है। पौलुस इस विषय को उसी मुद्दे के साथ अन्त करता है, जिसके साथ उसने इसे आरंभ किया था - मसीही विश्वासियों में परस्पर एकता और प्रभु भोज का दुरुपयोग, सांकेतिक रीति से भाग लेने के स्थान पर उसे एक पूरा भोजन बना लेना; इस मुद्दे को प्रभु भोज पर इस चर्चा के लिए कोष्ठकों के समान प्रयोग करता है। इससे कलीसिया या मण्डली में एकता बनाए रखने तथा मसीही जीवन में प्रभु की मेज़ में योग्य रीति से भाग लेने की समझ रखने के महत्व को भी बल मिलता है।


पौलुस पद 33 का आरंभ “इसलिए” के साथ करता है, अर्थात, यह तात्पर्य देने के द्वारा कि उपरोक्त पर ध्यान देने बाद अब अन्त की बात यह है कि प्रभु भोज में भाग व्यक्तिगत रीति से नहीं परंतु कलीसिया के रूप में एक साथ लेना है, और भाग लेने वालों को भाग लेने से पहले एक-दूसरे के लिए प्रतीक्षा करनी है। लोग अपने आप को जाँच रहे होंगे, और कुछ को यह करने में औरों से अधिक समय भी लग सकता है। जैसे प्रभु यीशु मसीह ने पहला प्रभु भोज उसके साथ एकत्रित शिष्यों को सामूहिक रीति से दिया था, उसी प्रकार से आज प्रभु के जो शिष्य प्रभु भोज के लिए एकत्रित होते हैं, उन्हें भी एक-साथ, सामूहिक रीति से भाग लेना है। ऐसा करना परस्पर एक-दूसरे का ध्यान रखने तथा आदर करने का संकेत और कलीसिया में एकता का चिह्न है। कलीसिया, अर्थात, प्रभु की देह और दुल्हन की इस एकता को कमजोर करने या तोड़ने के लिए किसी को भी कभी भी कुछ नहीं करना चाहिए। उनकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक अथवा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि चाहे जो भी हो, सभी को, अपने आप को एक ही स्तर पर लेकर आना है कि वे भी अन्य लोगों के समान परमेश्वर द्वारा पापों से छुड़ाए और बचाए गए लोग हैं, परमेश्वर के अनुग्रह और प्रभु यीशु मसीह के द्वारा उनके लिए दिए गए बलिदान के कारण (रोमियों 1:14; 12:16; कुलुस्सियों 3:11; तीतुस 3:3-5)। यदि प्रभु के लोग अपने बारे में यह दृष्टिकोण रखते हुए नहीं रहेंगे, तो शैतान को आपस में फूट और मतभेद उत्पन्न करने तथा कलीसिया की एकता को भंग करने और उसके सुचारु संचालन को बाधित कर देने का अवसर हमेशा बना रहेगा।


पौलुस पद 34 में फिर से इस बात पर जोर देता है कि प्रभु भोज में भाग लेना पूरा भोजन करने बैठना नहीं है, किसी की भूख मिटाने के लिए नहीं हा, और न ही कलीसिया के सदस्यों को प्रभु भोज के लिए अपना निज भोजन लेकर आना है। यह तो सांकेतिक रीति से रोटी में से एक टुकड़ा, और कटोरे में से एक छोटा घूंट लेने के लिए है, जैसा कि तब हुआ था जब प्रभु यीशु ने पहली बार प्रभु भोज को दिया था। यहाँ पर पवित्र आत्मा के द्वारा, पौलुस एक गंभीर चेतावनी जोड़ देता है - “जिससे तुम्हारा इकट्ठा होना दण्‍ड का कारण न हो”; प्रभु द्वारा दी गई इस रीति से भाग लेने पर ध्यान न देने का अर्थ प्रभु की मेज़ की गलत समझ रखना और उसे दुरुपयोग करना है। उपरोक्त स्पष्टीकरण और योग्य रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेने से संबंधित निर्देशों के मिलने के बाद भी उनकी अवहेलना करके, अपनी ही रीति के अनुसार भाग लेते रहना, जान-बूझ कर परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करना है। क्योंकि परमेश्वर कभी भी बाहरी या ऊपरी व्यवहार तथा मनुष्यों द्वारा बनाई गई विधियों और रीतियों से प्रभावित नहीं होता है, इसलिए इस प्रकार की यह ढिठाई में की गई उसकी अनाज्ञाकारिता बहुत हानिकारक परिणाम लाएगी। जो लोग अनुचित रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेते ही रहते है, फिर परमेश्वर उनका न्याय करेगा; और जैसा हम ऊपर देख चुके हैं परमेश्वर के न्याय के बाद परमेश्वर की ताड़ना भी आती है। तो फिर क्यों कोई भी जन, उसे जो उसके लिए आशीष का कारण हो सकता है, अपने लिए पलटकर परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का कारण बनाए?


पद 34 का अन्तिम वाक्य है “और शेष बातों को मैं आकर ठीक कर दूंगा”, जो संकेत करता है कि अभी भी कुछ और मुद्दे शेष थे, जिन्हें समझाना और सही करना था, किन्तु संभवतः उनके लिए पौलुस का विद्यमान होना और आमने-सामने चर्चा करना आवश्यक था, या फिर वे इतने गंभीर नहीं थे, और पौलुस के वहाँ आने पर उन पर चर्चा की जा सकती थी। इसलिए उनके बारे में कुछ लिखने की बजाए, पौलुस इस विषय को इस वाक्य के साथ समाप्त कर देता है। किन्तु मुद्दे चाहे जो भी हों, यह देखने के बाद कि पौलुस द्वारा अनुचित रीति से मेज़ में भाग लेने को कितनी गंभीरता और दृढ़ता से लिया गया है, कोरिन्थ की कलीसिया के सदस्य यह तो समझ ही गए होंगे कि यदि वे लोग इन मुद्दों को और बढ़ने तथा बिगड़ने देते हैं, तो फिर उन्हें पौलुस के आने पर उसके द्वारा 1 कुरिन्थियों 4:18-21 में लिखी बात का भी सामना करना पड़ेगा। इससे हमारे लिए शिक्षा यह है कि चाहे पौलुस ने इस पत्री में उन मुद्दों को नहीं उठाया था, किन्तु उन्हें महत्वहीन समझ कर एक ओर भी नहीं कर दिया। पौलुस उन्हें आश्वस्त करता है कि वह उन बातों के बारे में जानता है, और उचित समय पर, जब वह वहाँ आएगा, जैसा कि वह योजना बना रहा था, निश्चय ही उनका समाधान भी करेगा; वह उनकी अनदेखी नहीं कर रहा है, न ही उन्हें एक ओर हटा रहा है। इसलिए कलीसिया के लोगों के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वे किसी भी ऐसी बात की अनदेखी नहीं करें, उसे एक ओर न हटा दें, जो कलीसिया के सुचारु रीति से कार्य करने को, उसकी एकता को, तथा सदस्यों द्वारा प्रभु के योग्य मसीही जीवन को जी कर दिखाने को प्रभावित करती है। बल्कि, कलीसिया के लोगों को तुरन्त ही प्रत्येक मुद्दे पर चर्चा कर के उसका समाधान निकाल लेना चाहिए, इससे पहले कि शैतान उसे बढ़ा-चढ़ा कर गंभीर समस्याएं खड़ी कर दे।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 45-48          

  • मत्ती 13:1-30     


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English Translation


The Lord’s Table - Settle Issues & Maintain Unity


  In this study on the Holy Communion, so far, from 1 Corinthians 11:17-32 we have seen that Paul was very forthright and uncompromising in exposing and denouncing the errors and short-comings of the Corinthians for their participating in the Lord’s Table. He reminds them that as Christian Believers, they do have to partake of the Table, but not as a ritual, not perfunctorily, but worthily, i.e., in the manner God has said it should be done. Participation in the Holy Communion is not eating of food, but symbolic. It is for remembering the Lord Jesus and His sacrifice, a proclamation of His death and imminent return. The participants have to first examine themselves, confess their sins to the Lord, ask His forgiveness for them, and having been pardoned then to participate in the Lord’s Table worthily. Those who do not examine themselves, but take God and His instructions, His Word for granted, participate in it perfunctorily as if it is a ritual, they will then have to contend with God and with His examining them, judging them, and chastising them for their stubbornness and persistent disobedience. God’s chastisement can be quite severe, ranging from the errant person becoming weak, or sick, even to his death.


In 1 Corinthians 11:33-34 Paul concludes his discourse on the Holy Communion, before moving on to the next topic the Holy Spirit wants him to address. Paul closes with the same issue that he began this discussion with - unity amongst the Believers and misuse of the Table as a full-fledged meal instead of a symbolic participation; using this issue like the opening and closing parentheses for this topic of the Holy Communion. But this also underlines the importance of this unity in Church and proper understanding of participating in the Lord’s Table in Christian life.


Paul begins verse 33 with “therefore”, meaning having considered the above, now the conclusion of the matter is that the Holy Communion is not for individual participation but for collective participation by the Church, and the participants have to wait for each other, before taking part. There will be people who will be examining their lives, preparing themselves to participate worthily, and some may take longer than others to do this. Just as the Lord Jesus gave the first Holy Communion collectively to the disciples gathered with Him, so too the disciples of the Lord that now gather for His Communion have to participate collectively. It is a sign and indicator of mutual respect and care, of unity in the Church. Nothing should be done to undermine or break this unity in the Church, i.e., the Body and Bride of Christ. Rather, everyone, irrespective of their social, financial, educational, ethnic, or any other status, has to bring himself to the same level as the others; consider himself only as one of the redeemed of God, like all the others are, he too has been saved from his sins by the grace of God on the basis of the sacrifice of the Lord Jesus Christ for them (Romans 1:14; 12:16; Colossians 3:11; Titus 3:3-5). Unless the Lord’s people live with this viewpoint about themselves in the Church, Satan will always have an opportunity to sow seeds of discord and to disrupt the unity and smooth functioning of the Church.


In verse 34, Paul again emphasizes that participation in the Lord’s Table is not for having a full-fledged meal, it is not for satisfying anyone’s hunger, nor do the members of the Church need to bring their own food for the Holy Communion. It is only symbolically taking a piece of the bread, and a sip from the cup, as was done when the Lord Jesus established the Holy Communion. Through the Holy Spirit, Paul adds a serious caution here - “lest you come together for judgment”; not paying heed to participating in this manner, is to misunderstand and misuse the Lord’s Table. Having received the aforementioned clarifications and instructions about participating worthily in the Lord’s Table, to still ignore them and carry on in their own manner, is to deliberately disobey God. Since God is never impressed by the externals and man-made rituals and procedures, therefore, this stubborn disobedience will then invite its deleterious consequences. God will judge those who persist in their unworthy participation; and as we have seen above, God’s judgment is followed by God’s chastisement. So, why should anyone turn something that can be a blessing into a cause for God’s judgment and chastisement for them?


The concluding sentence of verse 34, “And the rest I will set in order when I come” indicates that there were some other issues too, which needed to be explained and corrected, but they probably required Paul’s presence and a face-to-face discussion; or, they might not have been very gross and could wait till Paul visited them. So, instead of writing about them, Paul ends the matter with this sentence. But, in any case, having seen how seriously and strongly Paul has dealt with the unworthy participation of the Holy Communion, the Corinthian Church members would have become very wary, that if they let these unmentioned issues to grow and deteriorate, then Paul’s admonition of 1 Corinthians 4:18-21, will also become a reality for them, when he comes. The lesson for us is that even if those issues were not mentioned and dealt with in this letter from Paul, yet, they were not swept under the carpet and ignored. Paul does give an assurance that he is aware of them, and in due time he surely will sort them out too, he is not ignoring them, not bypassing them; he will take them up when he comes to them, and he already was planning to do so. Therefore, it is imperative for the Lord’s people to not overlook, ignore, or bypass any issues that affect the functioning of the Church, especially its unity and their individually living a Christian life worthy of the Lord. Rather, the Church members should discuss and sort out every issue at the first available opportunity, else Satan can blow it out of proportion and create problems for the Church.


If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Genesis 46-48

  • Matthew 13:1-30



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