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शनिवार, 11 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 77 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 6


पवित्र आत्मा परीक्षाओं में हमारी सहायता करता है – 3

 

    हम परमेश्वर द्वारा मसीही विश्वासियों को दिए गए संसाधनों का भण्डारी होने के बारे में विचार करते आ रहे हैं। प्रभु यीशु ने यूहन्ना 14:16 में अपने शिष्यों से प्रतिज्ञा की थी कि परमेश्वर पवित्र आत्मा उन में, उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया सहायक या साथी बनकर रहेगा। इसलिए हमें इस बात से अवगत रहना चाहिए कि हम पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी किस प्रकार से हो सकते हैं, जिस से कि हम उसकी सहायता और मार्गदर्शन का सदुपयोग कर सकें। जैसा कि हम पिछले लेखों में देखते आ रहे हैं, कुछ विश्वासियों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे पवित्र आत्मा को अपने स्थान पर काम करने वाले के रूप में उपयोग करना चाहते हैं, कि वह उनके स्थान पर उनके कार्यों को कर दे, उनके लिए उनकी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर दे। हमने देखा है कि किस प्रकार से यह धारणा बाइबल के प्रतिकूल है, और इसलिए यह करने से सम्बन्धित परमेश्वर से की गई सभी प्रार्थनाएँ अनुत्तरित ही रहेंगी, क्योंकि उनका आधार ही अनुचित है। पिछले लेख से हमने कुछ विश्वासियों की परमेश्वर को उन का काम करके देने के लिए, क्योंकि वे अपने आप को उसके लिए अक्षम समझते हैं, प्रार्थना करने की प्रवृत्ति के बारे में कुछ विस्तार से देखना आरम्भ किया है। इस सन्दर्भ में हमने देखा था कि अधिकांशतः यह विनती किसी प्रत्यक्ष अथवा शारीरिक बात के लिए नहीं, बल्कि विचारों, आदतों और रवैयों, हृदय और मन-मस्तिष्क की बातों के बारे में की जाती है। आज हम इसे और आगे देखेंगे, और यह समझने का प्रयास करेंगे कि क्यों विश्वासियों को मानसिक या अप्रत्यक्ष बातों को नियंत्रित करना कठिन होता है, यद्यपि वे शारीरिक या प्रत्यक्ष बातों को नियंत्रित कर लेते हैं।


    इस बात को बनाए रखने में बहुधा एक कुचक्र कार्य करता रहता है। सामान्यतः ये विश्वासी अपने समय का एक प्रमुख भाग अपने मोबाइल फोन या कम्प्यूटरों तथा इंटरनेट, अथवा अन्य किसी माध्यम द्वारा, साँसारिक रुचियों, आकर्षणों, और शारीरिक आनन्द की बातों में व्यतीत करते हैं। वे अपनी इस कमी को जानते और मानते हैं, और उसका अपनी सार्वजनिक प्रार्थनाओं में भी अंगीकार कर लेते हैं, किन्तु वे उसके निवारण के लिए परमेश्वर के समाधान का कभी पालन नहीं करते हैं, उस समाधान में बने नहीं रहते हैं। क्योंकि वे परमेश्वर और उसके वचन के साथ उपयुक्त समय नहीं बिताते हैं, इसीलिए उनका आत्मिक पोषण और बढ़ोतरी का स्तर कम ही रहता है, उनकी आत्मा कमज़ोर रहती है और आसानी से शैतान की युक्तियों में फँस जाती है, और वे उन्हीं बातों में बारंबार फंसते और गिरते रहते हैं। फिर वे ये सोचने लगते हैं कि क्योंकि वे स्वयं उस प्रवृत्ति पर जयवंत नहीं होने पा रहे हैं, इसलिए परमेश्वर से उन्हें उस से बाहर निकालने के लिए प्रार्थना करें। लेकिन परमेश्वर ने पहले ही से अपने वचन में जो समाधान लिखवा रखा है, वे उसका दृढ़ निश्चय के साथ कभी पालन नहीं करते हैं। वे चाहते हैं कि परमेश्वर उनके आत्मिक जीवन को बढ़ाए और दृढ़ करे, किन्तु अपनी कमज़ोरियों को छोड़ना नहीं चाहते हैं। वे भी वही गलती करते हैं जो इस्राएलियों ने वाचा के संदूक को युद्ध भूमि में लाने के द्वारा की थी। उन्होंने भरोसा किया कि उनके मध्य उसकी उपस्थिति के द्वारा वे विजयी हो जाएंगे, किन्तु उन्हें और भी शर्मनाक तथा बुरी हार का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने अपने मध्य में से पाप को नहीं निकाला था। यद्यपि परमेश्वर का वाचा का संदूक तो उनके मध्य था, किन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य उनके साथ नहीं थी (1 शमूएल 4)। इसीलिए इन विश्वासियों की प्रार्थनाएँ की परमेश्वर उन्हें उनकी कमज़ोर आत्मिक जीवन से छुड़ाए, बस दोहराई जाने वाली निष्फल प्रार्थनाएँ ही रहती हैं। क्योंकि आत्मिक जीवन की बढ़ोतरी और दृढ़ता के लिए वह प्राथमिक आवश्यकता, परमेश्वर और उसके वचन के साथ उपयुक्त समय बिताना, जिससे कि शैतानी हमलों को समझने और उन पर विजयी होने के लिए उपयुक्त समझ और सामर्थ्य उन्हें मिले, पूरी ही नहीं हो रही है।


    क्यों ये विश्वासी प्रभु द्वारा मत्ती 5:29-30 और मत्ती 18:8-10 में कही गई बात का पालन नहीं करते हैं? इन दोनों खण्डों में प्रभु ठोकर देने वाले शरीर के अंगों को काट कर फेंक देने की बात कर रहा है, उन अंगों को जो व्यक्ति को पाप में गिराते हैं, और फिर परमेश्वर के राज्य में उन अंगों तथा उनके द्वारा विश्वासियों के लिए उत्पन्न की जा रही समस्याओं के बिना प्रवेश करने के लिए कहता है। चाहे हम वास्तविक शब्दार्थ में अपने शरीरों के साथ यह कार्य नहीं करते हैं, लेकिन इसमें निहित सिद्धान्त हमारे जीवन के हर पक्ष पर लागू है, आत्मिक बातों पर भी। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि उन बातों को अपने से दूर कर दें जो हमें बारम्बार ठोकर लगने और गिरने का कारण होती हैं। बजाए इसके कि हम बार-बार पाप में फँसे और गिरें, क्या हम अपना इन्टरनेट बंद नहीं कर सकते हैं? नहीं तो, हम अपने फोन या कंप्यूटर में से उन एप्प्स को तो हटा ही सकते हैं जो हमारे लिए अनुशासनहीनता और समय की बरबादी का कारण हैं, जैसे कि साँसारिक मनोरंजन, सोशल-मीडिया, खेल आदि की एप्प्स, जिन्हें ये विश्वासी कहते हैं कि वे उनके समय की बरबादी का कारण हैं। वे एक और काम भी कर सकते हैं, उन्हें गलत बातों में बहकाने में सहायक उनके स्मार्ट-फोन के स्थान पर वे एक छोटा फोन ले लें जो केवल बात करने और लिखित सन्देश आदान-प्रदान करने की क्षमता रखता है।


    लेकिन परमेश्वर द्वारा दिए गए तरीकों को अपनाने और पालन करने के स्थान पर, ये लोग उनकी आत्मिक बढ़ोतरी और दृढ़ता में बाधा डालने वाले शारीरिक आनन्द को भी उठाना चाहते हैं, किन्तु साथ हे परमेश्वर से चाहते हैं कि वह उन्हें आत्मिक जीवन में सक्षम और बलवंत भी कर दे। वे बार-बार कीचड़ में भी जाना चाहते हैं, किन्तु यह भी चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें स्वच्छ बनाए रखे कीचड़ से बचाए रखे (2 पतरस 2:22)। यहाँ एक अनकहा किन्तु आधारभूत विचार यह भी हो सकता है कि वे इसके लिए अपनी जवाबदेही से बचना चाहते हैं। अर्थात यदि परमेश्वर उनके लिए यह कर के नहीं भी देता है, तो भी वे दोषी न ठहराए जाएँ, क्योंकि तब वे बड़ी सरलता से सारी ज़िम्मेदारी परमेश्वर पर ही डाल सकते हैं। वे यह कह सकते हैं कि हमने तो वर्षों तक, सच्चे मन से, पूरे विश्वास से प्रार्थनाएं कीं, कि परमेश्वर हमें इस पापमय प्रवृत्ति और प्रलोभनों से बचाए और निकाल ले, किन्तु उसी ने ऐसा नहीं किया। यह वही प्रवृत्ति है जो आदम ने अदन की वाटिका में हव्वा के बारे में दिखाई थी। यद्यपि आदम ने हव्वा के कहने पर ही उस वर्जित फल को खाया था, किन्तु उसने स्वेच्छा से, बिना किसी की कोई जोर-ज़बरदस्ती के, यह किया था। लेकिन उस ने अपने पाप के लिए परमेश्वर को ही दोषी ठहरा दिया – परमेश्वर तू ही इस स्त्री के लिए, उसने जो किया है, और उसने जो मुझ से करवाया है, उस सभी के लिए ज़िम्मेदार है; क्योंकि तू ही ने मुझे उसे दिया है, तुझे पता होना चाहिए था कि वह क्या कर सकती है। उसी प्रकार से क्योंकि उनकी भौतिक आवश्यकताओं और आराम के लिए परमेश्वर ने ही उन्हें सक्षम किया है, संसाधनों का प्रावधान किया है, इसलिए उन बातों के दुष्प्रभावों के लिए भी उसे ही ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। चाहे उन संसाधनों का दुरुपयोग करने वाले, उन्हें अनुचित बातों के लिए और गलत रीति से उपयोग करने वाले वे स्वयं ही हैं; यह जानते हुए भी कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं फिर भी गलत निर्णय लेने वाले, सही उपयोग नहीं करने वाले, वे स्वयं ही हैं। जैसे आदम का स्पष्टीकरण किसी काम नहीं आया, उसी प्रकार से इन विश्वासियों का तर्क भी कोई काम नहीं आएगा। ये प्रार्थनाएँ कि परमेश्वर उनके स्थान पर कार्य करे, उनकी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर दे, उनके द्वारा परमेश्वर की आज्ञाओं का जान-बूझकर किए गए उल्लंघन तथा परमेश्वर के निर्देशों की अनदेखी करने की प्रवृत्ति को ढाँपने, भक्ति के आवरण से छिपाए रखने के प्रयास मात्र हैं।

अगले लेख में हम देखेंगे कि किस प्रकार से विश्वासी बहुधा और बड़ी सरलता से, अपने जीवनों को सही संचालित करने की परमेश्वर की आज्ञाओं की गलत व्याख्या करते हैं, उन्हें अनुचित रीति से लागू करते हैं जिस से कि परमेश्वर को जवाबदेह होने से बचने के प्रयास कर सकें। 


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Holy Spirit Helps in Our Tests – 3

 

    We are considering the role of Christian Believers as stewards of their God given gifts. The Lord Jesus promised His disciples in John 14:16 that God the Holy Spirit will be with them as their God given Helper, or Companion. Therefore, we need to be aware of how to be a good steward of the Holy Spirit, so we can utilize His help and guidance appropriately. As we have being seeing in the preceding articles, some Believers have a tendency of wanting to us the Hoy Spirit as their substitutes, to do their works and fulfil their responsibilities for them. We have seen how and why this is an unBiblical concept, and hence all prayers to get this done will remain unanswered, since they are made on wrong premises. In the last article we had started to look in some detail into this tendency of some Believers asking God to take over from them, pleading some inability to do the work. In this context we had seen that most often this plea is made not for externally evident or physical things, but for things related to thoughts, habits and attitudes, things in the mind and heart. Today, we will carry on with this, and try to understand why Believers find it difficult to control the non-tangible, while they can usually control the tangible.


    Often, there is a vicious cycle at work here. These Believers usually spend a significant part of their time in worldly interests, fascinations, and physical pleasures through their mobile phones, computers and internet usage, or some other means. They know and acknowledge this shortcoming in them, and may even acknowledge this short-coming in their public prayers, but they never take up or stick to God’s solutions for rectifying it. Since they do not spend adequate time with God and His Word, therefore, their spiritual nourishment and growth levels remain low, their spirits remain weak and vulnerable to satanic influences and they keep falling for the same temptations over and over again. Then they think that since they are not able to overcome on their own, therefore, they will ask God to deliver them out of this, ask God to do it for them. But they never resolutely follow the solution that God already has given to them in His Word. They want God to strengthen their spiritual lives, but do not want to let go of the causes for their weakness. They make the same mistake that the Israelites made in fetching the Ark of the Covenant to the battle-field. They trusted its presence will make them victorious, but suffered and even worse and humiliating loss, since they had not removed the sin from amongst them. Though God’s Ark was with them, but His power was not amongst them (1 Samuel 4). Therefore, the prayers of these Believers to be delivered by God from their poor spiritual lives just remains a repetitive infructuous prayer. Since the primary necessity of strengthening their spiritual lives through spending time with God and His Word to gain spiritual wisdom and strength to overcome these satanic attacks is not being met.


    Why do these Believers not do what the Lord said in Matthew 5:29-30 and Matthew 18:8-10? In these two passages the Lord is talking about cutting off the offending body parts, those parts that make the person sin, stumble, and fall, and then enter the Kingdom of God without them, as well as without the problems those parts create for the Believers. Even if we do not literally do that to our bodies, but the underlying principle is applicable to all aspects of our lives, including the spiritual aspects. The least we can do is to remove from us the things that cause us to stumble and fall, create these problems for us. Instead of repeatedly falling for their addiction and problems, why not just cut off the internet connection, or at the very least, uninstall and eliminate the apps that cause problems of indiscipline and time wasting, e.g., apps related to worldly entertainment, social-media, games etc., i.e., the apps which they say take up their time and keep them from having a disciplined spiritual life? Another thing that can be done is to throw away their smartphones that help them in doing the wrong things, and instead just have a small phone, capable only of making calls and text messaging.


    But instead of implementing God given methods, they want to enjoy the physical pleasures that obstruct their spiritual growth, but want God to make them spiritually strong and overcoming; they want God to keep pulling them out of the mire they keep getting themselves into (2 Peter 2:22). An underlying, unstated thought may be to escape accountability for this, i.e., they cannot be held guilty if God does not do it for them, because then they can conveniently blame Him for not delivering them from the temptations and sinful tendencies, although they had sincerely and repeatedly prayed and begged for it so many times. This is the same tendency that Adam displayed about Eve, who gave him the fruit to eat; though at the behest of Eve, yet, Adam ate the forbidden fruit out of his own will, not under any compulsion from anyone. But he put the blame on God for the sin that he committed - God you are responsible for her, for what she has done, and for what she has made me do, since you gave her to me; you should have known what she will do. Similarly, since God is responsible for providing them the resources for their physical conveniences of life, so He should take the responsibility and the blame for their ill-effects as well. Even though it is they who are using these things inappropriately, and not rectifying the situations despite being well aware of what to do and what not to do. Just as Adam’s reasoning did not work, so too their reasoning will not work either. These prayers of asking God to take over and do the job of fulfilling their responsibilities are actually a cover-up in the garb of godliness for their willful disobedience of God’s commands and deliberate disregard of God’s instructions about winning over such situations and circumstances.


    In the next article we will see how Believers very often and very conveniently misinterpret and misapply God’s commands for us to set our lives right, so as to try to avoid being accountable to God.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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