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शनिवार, 23 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 4


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सुसमाचारों में पवित्र आत्मा की प्राप्ति - भविष्य में

  

पिछले लेख में हमने से देखा था कि मसीही सेवकाई के लिए शैतान के साथ हमारा मल्लयुद्ध आत्मिक युद्ध है, जिसके लिए आत्मिक सामर्थ्य, आत्मिक हथियार, और आत्मिक मार्गदर्शन की आवश्यकता है, जो हमें परमेश्वर पवित्र आत्मा में होकर मिलते हैं। साथ ही हमने प्रेरितों 1:5, 8 से देखा था कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कोई विशेष प्रयास, आग्रह, प्रार्थनाएं, आदि करने की कोई शिक्षा न तो प्रभु यीशु ने शिष्यों को दी, और न ही नए नियम में यह कहीं दी अथवा सिखाई गई है। हमने यह भी देखा था कि प्रेरितों 1:5, 8 के अनुसार पवित्र आत्मा पाना ही पवित्र आत्मा से बपतिस्मा प्राप्त करना है। उद्धार पा लेने के बाद पवित्र आत्मा प्राप्त करने, अर्थात पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाने के लिए कोई विशेष प्रयास करने की आवश्यकता, या कोई पृथक और विशेष बात होना वचन से संगत सिद्धांत नहीं है। व्यर्थ ही लोगों ने इन्हें अलग सिद्धांत बनाकर, अपने ही बनाए हुए उस सिद्धांत से संबंधित बातों की शिक्षाएं फैला कर लोगों को भ्रम में डाल रखा है, वचन की सीधी स्पष्ट शिक्षा से भटका रखा है। इस बपतिस्मे से संबंधित बातों को हम विस्तार से कुछ समय के बाद बपतिस्मे से संबंधित लेखों में विस्तार से देखेंगे। आज प्रेरितों 1:5, 8 के संदर्भ में हम वह दूसरी बात देखेंगे, जिसके विषय कल के लेख में उल्लेख किया गया था।

 

प्रभु यीशु ने अपने स्वर्गारोहण से पहले शिष्यों से कहा था, “और उन से मिलकर उन्हें आज्ञा दी, कि यरूशलेम को न छोड़ो, परन्तु पिता की उस प्रतिज्ञा के पूरे होने की बाट जोहते रहो, जिस की चर्चा तुम मुझ से सुन चुके हो” (प्रेरितों 1:4)। प्रभु उन्हें स्मरण दिला रहा था कि वह उन्हें पहले भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बारे में न केवल बात चुका है, वरन इसके विषय उनसे चर्चा भी कर चुका है, अर्थात विस्तार से उन्हें बता और समझा चुका है। उन शिष्यों के साथ, सेवकाई के दिनों में, प्रभु ने कई बार उन से पवित्र आत्मा प्राप्त करने की बात कही थी; किन्तु हर बार यह भविष्य काल में ही होने की बात थी; अर्थात उन्हें यही सिखाया था पवित्र आत्मा उन्हें बाद में किसी समय पर दिया जाएगा। इससे संबंधत कुछ पदों को देखिए:

  • लूका 11:13 – इस पद का दुरुपयोग यह बताने के लिए किया जाता है कि प्रभु ने कहा है कि पवित्र आत्मा परमेश्वर से मांगने पर मिलता है। जबकि यदि इस पद को उसके संदर्भ (पद 11-13) में देखें, तो यह स्पष्ट है कि यह आलंकारिक भाषा का प्रयोग है, एक तुलनात्मक कथन है। प्रभु, किसी सांसारिक पिता के अपनी संतान की आवश्यकता के लिए उसे सर्वोत्तम देने की मनसा रखने की बात कर रहा है। जैसे सांसारिक पिता अपने बच्चों को यथासंभव उत्तम देता है, वैसे ही परमेश्वर भी “अपने” लोगों को – जो उससे पवित्र आत्मा को मांगने का साहस और समझ रखते हैं; उसका प्रयोग करना जानते हैं, उन्हें अपना यथासंभव उत्तम, यहाँ तक कि अपना पवित्र आत्मा भी दे देगा। साथ ही, हर किसी मांगने वाले को पवित्र आत्मा देने के लिए परमेश्वर बाध्य नहीं है; मांगने वाले का मन भी इसके लिए ठीक होना चाहिए - वे परमेश्वर के “अपने लोग” होने चाहिएं। प्राथमिकता परमेश्वर के अपने लोग होने की है; जो प्रभु परमेश्वर के अपने हो जाते हैं, जैसा हम देख चुके हैं, उन्हें विश्वास करने के साथ ही परमेश्वर पवित्र आत्मा भी प्राप्त हो जाता है। प्रेरितों 8:18-23 में शमौन टोनहा करने वाले को गलत मनसा रखते हुए, और वास्तविकता में प्रभु का जन न होने पर भी पवित्र आत्मा मांगने पर प्रेरितों से अच्छी डाँट मिली, न कि पवित्र आत्मा; यद्यपि वह प्रभु में विश्वास करने का दावा करता था, उसने बपतिस्मा भी लिया था, और विश्वासियों की संगति में रहता था (प्रेरितों 8:13)।

  • यूहन्ना 7:37-39 – “बह निकलेंगी”; “पाने पर थे” – भविष्य काल – और साथ ही शर्त भी कह दी गई है कि ऐसा उनके लिए होगा “जो उस पर विश्वास करने वाले” होंगे – जैसा पहले देख चुके हैं, जो विश्वास करेगा, उसे पवित्र आत्मा स्वतः ही मिल जाएगा। किन्तु जिसने सच्चा विश्वास नहीं किया (यह केवल प्रभु ही जानता है, कोई मनुष्य नहीं), उसे वह कदापि नहीं मिलेगा, वह चाहे कितनी भी प्रार्थनाएं, प्रतीक्षा, या प्रयास करता रहे। जिसने विश्वास किया, उसे फिर कुछ और करने की आवश्यकता नहीं है, और न ही करने के लिए कहा गया है।

  • यूहन्ना 14:16-17 – “देगा”, “होगा” – भविष्य काल – पिता देगा, और फिर वह सर्वदा साथ रहेगा – आएगा जाएगा नहीं, जैसे पुराने नियम में था (ओत्निएल - न्यायियों 3:9,10; गिदोन - न्यायियों 6:34; यिप्ताह, शमसून, राजा शाऊल 1 शमूएल 10:6, 10; दाऊद 1 शमूएल 16:13, आदि)

  • यूहन्ना 16:7 – “आएगा” – भविष्य काल – भविष्य में आना था; उसी समय नहीं

  • यूहन्ना 20:22 – “लो” – अभी तक जो भविष्य की बात कही जा रही थी, अब प्रभु के पुनरुत्थान के बाद उस का समय आ गया था। अब इस बात को पूरा होना था, शिष्यों को एक प्रक्रिया के अंतर्गत पवित्र आत्मा को प्राप्त करना था। प्रभु ने इस पद की यह बात अपने पुनरुत्थान के बाद शिष्यों से कही – उन्हें पहले की प्रतिज्ञा स्मरण करवाई, और स्वर्गारोहण के समय प्राप्ति की प्रक्रिया भी बताई (लूका 24:49)। पवित्र आत्मा प्रभु की फूँक में नहीं था, और न ही आगे भी कभी फूंकने के द्वारा किसी को दिया गया।

 

हम मसीही विश्वासियों ने, जो प्रभु के जन हैं, अर्थात, जिन्होंने किसी धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह के अंतर्गत नहीं, अपितु व्यक्तिगत रीति से अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह से उनके लिए सच्चे मन से क्षमा माँगकर, अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित किया है, उसकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया है, उन्हें मसीही विश्वास में आते ही पवित्र आत्मा दे दिया गया है, अर्थात उन्होंने पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पा लिया है। साथ ही, परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को, परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित सेवकाई (इफिसियों 2:10) के अनुसार, किसी के व्यक्तिगत उपयोग के लिए नहीं वरन कलीसिया के तथा सभी के लाभ के लिए विभिन्न वरदान भी प्रदान किए हैं (1 कुरिन्थियों 12:4-11)। हमें जो वरदान दिए गए हैं, हमें उनका प्रयोग हमारे लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित मसीही सेवकाई में करना है (रोमियों 12:6-8); तथा “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2)।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


यूहन्ना 14 और 16 अध्याय में प्रभु की प्रतिज्ञा के अनुसार, प्रभु के शिष्यों को उनकी मसीही सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा द्वारा मिलने वाली सहायता और मार्गदर्शन से संबंधित बातों को हम कल से देखेंगे।  


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 33-34 

  • प्रेरितों 24


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English Translation

Receiving Holy Spirit in Gospels - A Future Event


In the previous article, we have seen that our battle with Satan is spiritual warfare, for which we need spiritual strength, spiritual weapons, and spiritual guidance; and all of these are provided to us by the Holy Spirit. We had also seen from Acts 1:5, 8 that to receive the Holy Spirit, no special or extra efforts, pleading, prayers, etc. are required. Neither the Lord Jesus nor His disciples ever gave any such teaching anywhere in the New Testament. We had also seen that according to Acts 1:5, 8 to receive the Holy Spirit is the same as baptism with the Holy Spirit. The teaching of having to make special efforts to receive the Holy Spirit, and baptism with the Holy Spirit being a special or a different experience are not consistent with the facts of the Word of God. People have created a vain teaching and a false doctrine on their own understanding, have created unnecessary confusion and controversy about these, and have misled people about these things. We will see in greater detail about this baptism with the Holy Spirit in later articles related to baptism. Today, from Acts 1:5, 8 we will see the second thing that had been mentioned in the previous article.


Just before His ascension, the Lord Jesus had said to His disciples, “And being assembled together with them, He commanded them not to depart from Jerusalem, but to wait for the Promise of the Father, "which," He said, "you have heard from Me"” (Acts 1:4). The Lord was reminding them that He had already talked to them about receiving the Holy Spirit, had discussed it with them, explained and taught about it in detail earlier. During His days of ministry with the disciples, the Lord had talked to them many times about their receiving the Holy Spirit; but every time, it was in the future tense, i.e., the Holy Spirit was to be given to them at some future time. Consider some verses about this:

  • Luke 11:13 - This verse is often misused to show that the Lord has said that the Holy Spirit will be given to people on their asking for Him. But, if you consider this verse in its context (verses 11-13), it becomes clear that the Lord is using idiomatic language here, and His statement is a comparative statement. In this verse, the Lord is taking the example of a father desiring to give the best possible to his children. Just as a worldly father desires to give the best that he can to his children, similarly, to those who are ‘His people’, the Lord God too, wants to give the best possible, even the Holy Spirit, if they have the courage and ability to come to Him and use His powers worthily. The Lord is not under any compulsion to give the Holy Spirit to anyone who asks; the heart and mind of the seeker should be prepared and ready for this, i.e., they should actually be ‘His people’. The primary thing is to be ‘His people’; those who do become ‘His people’, as we have seen earlier, along with their salvation they also receive the Holy Spirit. In Acts 8:18-23 we have an example of Simon the sorcerer, who was not actually one of ‘His people’, and also wanted to have the Holy Spirit with an ulterior motive, and he received not the Holy Spirit but a serious admonition from the Apostles for this; although he claimed to have faith in the Lord, had taken baptism, and lived in the company of the Christian Believers (Acts 8:13).

  • John 7:37-39 - In these verses, in the context of receiving the Holy Spirit, who had not been given out till then, take note of the phrases being used in the future tense by the Lord, “will flow”, “would receive”; and this was to be only for those “who believes in Me”, i.e., Believes in the Lord Jesus - and we have seen previously that when a person believes in the Lord Jesus, he also receives the Holy Spirit. But the person who has not genuinely believed (only the Lord knows the actual state of one’s faith, not any man), will never receive the Holy Spirit, no matter how much fasting and prayers, how much tarrying, or how much effort he makes for it. The one who has believed does not need to do anything else, and neither is he ever asked to do anything else in God’s Word.

  • John 14:16-17 - Once again, note the use of future tense by the Lord, God the Father will give, and once having come, the Holy Spirit will then abide in the Believer forever - He will not come and go as used to happen in the Old Testament (Othniel - Judges 3:9,10; Gideon - Judges 6:34; also Jephthah, Samson; King Saul - 1 Samuel 10:6, 10; David - 1 Samuel 16:13, etc.).

  • John 16:7 - Again use of future tense - “will send Him” - Holy Spirit was to come later, not at the time of the conversation.

  • John 20:22 - This incident is after the Lord’s resurrection, and now He says to the disciples “Receive”. That which was to be a future event till then, now the time had come for it to be fulfilled. For the disciples to receive the Holy Spirit, they had to wait for the Lord’s appointed time (Luke 24:49). The Holy Spirit was not in the Lord’s breath, was not given to them by the Lord’s breathing upon them, and neither ever in the future, anyone received the Holy Spirit by being breathed upon.


We, the Christian Believers, the people of the Lord, i.e., those who have come to faith in the Lord Jesus not through the fulfilling of any religious works, rites and rituals, but by repenting of sins, sincerely asking for the Lord’s forgiveness for the sins, and have personally accepted Lord Jesus as Savior, have personally surrendered their life to Him, they have received the Holy Spirit the very moment they were saved, and that is also the same as having been baptized with the Holy Spirit. When a person is saved or Born-Again, he also has a ministry assigned to him by God (Ephesians 2:10). The Holy Spirit then gives him spiritual gifts according to the needs of his ministry, not for that person’s personal use and benefit or exaltation, but for the benefit of the Church through him and his gifts (1 Corinthians 12:4-11). Whatever gifts have been given to us, we are to use them in our God-assigned ministry (Romans 12:6-8); and to also demonstrate our change of heart in our changed lives “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God, that you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God, which is your reasonable service. And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:1-2).


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 33-34 

  • Acts 24