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व्यावहारिक निहितार्थ – 5
हम देख चुके हैं कि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर के लिए, परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों का भण्डारी भी है। इसलिए प्रत्येक विश्वासी को परमेश्वर ने जो उसे सौंपा है, उसके बारे में सीखना और जानना चाहिए, ताकि भण्डारी होने की अपनी जिम्मेदारियों को योग्य रीति से पूरा कर सके। इस सन्दर्भ में हमने मत्ती 16:18 से परमेश्वर की कलीसिया जहाँ परमेश्वर ने विश्वासी को रखा है तथा परमेश्वर के अन्य बच्चों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीखा है, और अब उस सीखे हुए के व्यावहारिक निहितार्थों पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि विश्वासी के जीवन में तथा कलीसिया में भी उन्नति एवं बढ़ोतरी होते रहना अनिवार्य है; और कलीसिया में बढ़ोतरी तभी होगी जब कलीसिया के सदस्य अपने आत्मिक जीवनों में उन्नति करेंगे। आज से हम उन कारणों को देखना आरम्भ करेंगे जो इस उन्नति और बढ़ोतरी में बाधा बनते हैं, विश्वासी के जीवन में तथा कलीसिया में भी।
यदि कलीसिया उन्नति नहीं कर रही है, या उचित रीति से उन्नति नहीं कर रही है, तो इसका अर्थ है कि उसके सदस्य परमेश्वर का भण्डारी होने की अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे हैं, और उनके मसीही जीवनों में कोई गम्भीर गड़बड़ी है। यह बढ़ोतरी न होना विश्वासियों के जीवनों के विभिन्न पक्षों में कमियाँ होने के कारण हो सकती है।
1. जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में कमी:
हमने पिछले लेख में देखा है कि परमेश्वर द्वारा कलीसिया को बढ़ाने के लिए, प्रत्येक विश्वासी को अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ेगा (इफिसियों 4:16)। बहुधा यह मान लिया जाता है कि कलीसिया या मण्डली की सारी ज़िम्मेदारी पास्टरों, अगुवों, कमेटी के सदस्यों, तथा जो वचन की सेवकाई में लगे हैं, केवल उन्हीं की है। इन्हें ही काम में लगे रहना है जबकि शेष लोग आराम से बैठ सकते हैं। लेकिन जैसे हमने कलीसिया के लिए उपयोग किए गए रूपकों से तथा परमेश्वर के वचन के कुछ अन्य हवालों से सीखा था, परमेश्वर ने प्रत्येक विश्वासी को कोई न कोई काम दिया है (इफिसियों 2:10), और उसी काम के अनुसार प्रत्येक विश्वासी को पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान भी दिया गया है। यह कोई साधारण सा लगने वाला काम भी हो सकता है, जैसे फीबे कलीसिया में रख-रखाव करने वाली सेविका थी (रोमियों 16:1)। यह कलीसिया के बाहर, मण्डली के लोगों के मध्य भी हो सकता है, जैसे कि तबिता, या दोरकास की सेवकाई थी जिसके बारे में प्रेरितों 9:36-42 में लिखा है। इस स्त्री ने कोई सन्देश प्रचार नहीं किए अथवा सिखाए, परन्तु उसका जीवन ही एक जीवित सन्देश था। परमेश्वर का वचन उसके विषय गवाही देता है कि, “...वह बहुतेरे भले भले काम और दान किया करती थी” (प्रेरितों 9:36), और उसके इन कामों में से एक था कुरते और कपड़े बनाना (प्रेरितों 9:39। उसकी इस साधारण सी सेवकाई ने ही उसे अपने चारों के लोगों में इतना प्रिय बना दिया था कि उसकी मृत्यु होने पर उन लोगों ने तुरन्त पतरस को बुलाया, और परमेश्वर ने पतरस में होकर काम किया, उसे जिला उठाया (प्रेरितों 9:38-41), और उसकी मृत्यु तथा जिलाए जाने से बहुत से लोगों ने प्रभु यीशु में विश्वास किया (प्रेरितों 9:42)।
जैसे-जैसे विश्वासी अपनी जिम्मेदारियों को योग्य रीति से निभाता है, वह प्रभु में बढ़ता जाता है; और कलीसिया के सदस्यों के इन जिम्मेदारियों के सामूहिक निर्वाह के द्वारा कलीसिया की उन्नति होती है। यदि सदस्य अपनी जिम्मेदारियों से अवगत ही न हों, और किसी भी कारण से, उन्हें निभा ही नहीं रहे हों, तब न तो उनकी और न ही कलीसिया की कोई बढ़ोतरी अथवा उन्नति होने पाएगी। इसलिए, सभी को प्रार्थना करके परमेश्वर से पता करना चाहिए कि उनकी सेवकाई और ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं, और फिर एक प्रयास के साथ उन्हें निभाने का यत्न करना चाहिए।
2. परमेश्वर के वचन को अपने अन्दर लेना:
बाइबल हमने बताती है कि कलीसिया की बढ़ोतरी का मुख्य कारण परमेश्वर का वचन है। परमेश्वर अपने वचन में होकर विश्वासियों से बात करता है, उनका मार्गदर्शन करता है। बाइबल में दिखाया गया नमूना है कि यदि मण्डली में परमेश्वर के वचन की सेवकाई सही है, तो कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति भी होगी। जहाँ परमेश्वर का वचन पनपता है, वहाँ परमेश्वर के लोग भी पनपते हैं। यदि लोगों को परमेश्वर के वचन का उचित पोषण नहीं मिलेगा, वह चाहे उनकी अपनी कमियों-कमजोरियों के कारण हो (1 कुरिन्थियों 3:1-13; इब्रानियों 5:12), या परमेश्वर के वचन के सेवकों में कोई कमियों-कमजोरियों के कारण हो, तो विश्वासियों की, तथा साथ ही कलीसिया की भी परिपक्वता और बढ़ोतरी की हानि होगी। इसे हम पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस में होकर तीमुथियुस को दी गई चेतावनी में देखते हैं (2 तीमुथियुस 2:14-17), जहाँ पौलुस तीमुथियुस को लिखता है कि परमेश्वर के वचन का सही उपयोग न करना लज्जा, अभक्ति, अशुद्ध बकवाद का कारण हो जाता है, ऐसे सन्देश सड़े-घाव के समान फैलते चले जाते हैं और सुनने वालों की हानि का कारण हो जाते हैं (साथ ही 1 तीमुथियुस 6:20 और तीतुस 3:9 भी देखिए)।
इसलिए, परमेश्वर से बढ़ोतरी (कुलुस्सियों 2:9) का न मिलना, इस बात का संकेत है कि कलीसिया में परमेश्वर के वचन को लेने और देने में कोई गड़बड़ी है। जैसे कि मानव-शरीर में, वैसे ही कलीसिया में यह बढ़ोतरी और उन्नति सही वचन – परमेश्वर के वचन के पर्याप्त और नियमित पोषण के मिलते रहने से होती है। इसलिए यदि कलीसिया की उन्नति नहीं हो रही है, तो दूध-पीने वाले बच्चे की बढ़ोतरी न होने के समान, दूध में कोई कमी है, अर्थात उस कलीसिया में परमेश्वर के वचन की सेवकाई में कुछ कमी है।
यह कमी दो तरह से हो सकती है, और उन दोनों में से कोई एक, अथवा दोनों ही कार्यकारी हो सकती हैं। वह “दूध,” अर्थात परमेश्वर का वचन, या तो मात्रा में कम हो सकता है, अथवा गुणवत्ता में कम हो सकता है, या ये दोनों ही बातें एक साथ होना भी संभव है। मुख्यतः, यह इस बात का सूचक है कि जिन्हें वचन की सेवकाई सौंपी गई है, या तो उनके जीवन में कोई समस्या है जिसके कारण वे परमेश्वर के साथ सही और उचित संपर्क रख कर उस से वचन को प्राप्त नहीं करने पा रहे हैं; या वे प्रभु के साथ पर्याप्त समय नहीं बिता रहे हैं कि उस से उसका वचन उन्हें मिल सके; या फिर वे अपने संदेशों को परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बातों की मिलावट के द्वारा बना रहे हैं, और ये मिलावट की बातें उनकी स्वयं की अथवा किसी अन्य मनुष्य की बातों से ली गई हो सकती हैं। यदि सेवक परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बातों से मिलावट कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा सिखाए गए, प्रचार किए गए, सुनाए गए संदेश चाहे कितने भी भक्तिपूर्ण, सुनने में अच्छे, और रोचक क्यों न हों, लेकिन उनमें इब्रानियों 4:12 को पूरा करने और लोगों में परिवर्तन लाने वाली परमेश्वर की सामर्थ्य कभी नहीं होगी; उन से कोई उन्नति अथवा बढ़ोतरी नहीं होगी।
अगले लेख में हम यहाँ से और आगे बढ़ेंगे तथा कमियों के दो और कारणों को देखेंगे जो विश्वासियों और कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी तथा उन्नति में बाधा बनती हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Practical Implications – 5
We have seen that every Born-Again Christian Believer is also a steward of God for the provisions and privileges given to him by God. Therefore, every Believer should learn and know about all that God has entrusted him with, to worthily fulfil his stewardship responsibilities. In this context, having learnt from Matthew 16:18 about the Church of God and about being in fellowship with God’s other children, where God has placed the Believer, we are now considering the practical implications of what we have learnt. In the last article we had seen that growth of the Church as well as of Believer’s spiritual life is essential; and that the Church will grow when the Believers, the members of the Church grow in their spiritual lives. Today we will start considering the causes that obstruct this growth, of the Believer, as well as of the Church.
If a Church is not growing, or not growing adequately, that means its members are not fulfilling their responsibilities as God’s stewards, and that there is something seriously wrong in their Christian lives. This lack of growth can be due to deficiencies in various aspects in the lives of the Believers.
1. Deficiency in fulfilling responsibilities:
We have seen in the last article, for God to grow the Church, every Believer must do his part, must fulfil his responsibility (Ephesians 4:16). It is often assumed that all responsibility of the Church or the Assembly rests only with the Pastors, Elders, the committee members, and those engaged in ministering the Word of God. The rest of the congregation can sit back and let these people do the work. But as we have seen from the metaphors used for the Church and other references from God’s Word, God has given some work or the other, to every Believer (Ephesians 2:10), and some gift of the Holy Spirit to every Believer in accordance with the work assigned to him. This can even be a seemingly ordinary work, e.g., like Phoebe, who was a servant in the Church. It may even be outside the Church, amongst the congregation, as was the ministry of Tabitha, or Dorcas in the first Church; written in Acts 9:36-42. This lady did not preach or teach any sermons, but her life was a living sermon. God’s Word testifies for her that “…This woman was full of good works and charitable deeds which she did” (Acts 9:36), and one of her works was making tunics and garments for others (Acts 9:39). This simple ministry had so endeared her to the people around her that after her death they sent for Peter, and God worked through Peter to bring her back to life (Acts 9:38-41), and then her death and coming back to life brough many others to faith in the Lord Jesus (Acts 9:42).
As the Believer fulfils his responsibilities worthily, he grows in the Lord; and it is the collective fulfilment of these responsibilities by the members that results in the growth of the Church. If the members are not aware of their responsibilities, and are not carrying them out due to whatever reasons, neither their own nor the Church growth will happen. Therefore, everyone should pray and ask God to show them their ministry and responsibilities in the body of Christ, and then strive diligently to fulfil it.
2. Deficiency in feeding on the Word of God:
The Bible tells us that the primary means of Church growth is God's Word. God speaks to the Believers and guides them through His Word. The Biblical pattern is that if the ministry of God's Word is proper, then Church growth will happen. Where God's Word grows, God's people also grow. If the people do not receive the proper nourishment of the Word of God, whether due to their own deficiencies (1 Corinthians 3:1-3; Hebrews 5:12), or due to deficiencies in the ministers of God’s Word, then the spiritual growth and maturity of the Believers, as well as the Church will suffer. This is seen in Paul’s warning to Timothy through the Holy Spirit (2 Timothy 2:14-17), where Paul writes to Timothy that not rightly dividing the Word of God is like profanity, idle babblings, that promote ungodliness, and such messages spread like cancer, ruining the hearers (also see 1 Timothy 6:20; Titus 3:9).
Therefore, the increase from God (Colossians 2:19) not coming would imply there is something wrong in the Church receiving and/or serving God's Word. This growth, as for the human body, happens through the Church receiving the proper, regular, and adequate nourishment of the Word - God's Word. So, if the Church is not growing, then taking an analogy from a milk-fed child's growth, there is a deficiency in the milk, i.e., the Word of God in that Church.
This can be in two forms, and either one, or both may be the operative reason for this deficiency. The 'Milk,' i.e., God’s Word is either deficient in quantity, or it is deficient in quality, or in both. Primarily it indicates that those entrusted with the Word ministry either have some problem in their own lives, therefore are not able to connect with God and receive His Word from Him; or, they are not spending adequate time with the Lord to receive the Word from Him; or they are making up their messages by adulterating God’s Word with man's word - either their own, or borrowed from someone else. If the ministers are adulterating God’s Word with man’s words, then although what they say, preach, and teach may sound pious, nice, and interesting, but it will never have the power of God to fulfil Hebrews 4:12 and transform others.
We will carry on from here in the next article and look at two more deficiencies that obstruct the spiritual growth of Believers and the growth of the Church.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.