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आराधना – परमेश्वर पर भरोसे को दृढ़ एवं उन्नत करने के लिए
पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से आराधना प्रार्थनाओं को प्रभावी बनाती है, और बाइबल यह दिखाती है कि परमेश्वर के लोग अपनी प्रार्थनाएँ आराधना के साथ ही अर्पित किया करते थे। इसके पीछे कार्यकारी विचार परमेश्वर को जानना और उस पर भरोसा रखना है। व्यक्ति जितनी निकटता से परमेश्वर को जानता है, जितना अधिक उस पर भरोसा करता ही, उतनी ही अच्छी उसकी आराधना होगी, और प्रार्थना तथा परमेश्वर से उसका उत्तर मिलने के विषय उसकी समझ-बूझ भी उतनी ही बेहतर होगी। हम पहले देख चुके हैं कि व्यक्ति द्वारा की जाने वाली आराधना परमेश्वर के साथ उसकी घनिष्ठता, उसके द्वारा परमेश्वर के चरित्र, गुणों, व्यवहार, और परमेश्वर के कार्यों को जानने पर आधारित है। आराधना तथा परमेश्वर को जानने के मध्य एक परस्पर सहायक तथा लाभकारी होने का संबंध है - हम जितना बेहतर परमेश्वर को जानेंगे, हमारी आराधना भी उतनी ही बेहतर होगी; और हम जितनी अधिक आराधना करेंगे, हम उतना ही उसकी निकटता और घनिष्ठता में बढ़ते चले जाएँगे। तो, इस प्रकार से ये दोनों एक, दूसरे को पोषित करते हैं, बढ़ाते और संवारते रहते हैं; व्यक्ति जितना अधिक परमेश्वर की आराधना करने का अभ्यास करता रहता है, वह उतना ही परमेश्वर को निकटता से जानने, और बेहतर जानने के लिए प्रोत्साहित होता चला जाता है। यही सिद्धांत आराधना के एक और लाभ को हमारे सामने ले कर आता है, जिसे हम आज देखेंगे - आराधना परमेश्वर में हमारे भरोसे को बनाए रखती और बढ़ाती है।
यह दैनिक जीवन में आम तौर से देखे जाने वाला तथ्य है कि हम किसी व्यक्ति को, उसके गुणों, योग्यताओं, उसके व्यवहार आदि को, जितना अधिक जानते हैं, हम उतना ही अधिक यह जानने पाते हैं कि वह किन बातों और परिस्थितियों में हमारी सहायता कर सकेगा, हम उस पर कितना तथा किन बातों के लिए भरोसा कर सकते हैं, और वह क्या कुछ कर अथवा नहीं सकता है, आदि। हम जितना अधिक किसी व्यक्ति के साथ घनिष्ठ होंगे, किसी परिस्थिति अथवा आवश्यकता के समय में उसकी सहायता उपलब्ध होने के प्रति उतने ही आश्वस्त होंगे। साथ ही, जब हमें यह पता होता है कि किसी व्यक्ति का सहायता करने का स्वभाव है, और उसने कई लोगों की विभिन्न परिस्थितियों में सहायता की है, तो हमारी भी हिम्मत बनी रहती है कि अपनी किसी परिस्थिति अथवा आवश्यकता में यदि हम उसके पास जाएँगे तो वह हमारी भी सहायता करेगा। ठीक यही बातें परमेश्वर के साथ हमारे संबंधों में भी कार्यकारी होती हैं। हम जितना अधिक परमेश्वर को जानते हैं, उतना ही अधिक उस पर भरोसा बनाए रखेंगे और अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उसकी सहायता के लिए उतने ही आश्वस्त बने रहेंगे। जब हम परमेश्वर की आराधना करते हैं, विशेषकर उसकी स्तुति और गुणानुवाद के द्वारा, तो हम अपने अंदर उतना अधिक उसके गुणों, योग्यताओं, चरित्र, व्यवहार, कार्यों तथा कार्य-विधियों, आदि को दोहराते रहते हैं; और जो लोग हमारी आराधना सुन रहे हैं, उन्हें भी इन बातों को बताते या स्मरण करवाते रहते हैं। हम जितना अधिक परमेश्वर के बारे में सीखेंगे, बोलेंगे और याद करेंगे, उतना ही बेहतर उसकी आराधना करने पाएँगे (यशायाह 40:21; 40:28)। यदि परमेश्वर के ये गुण हमारे मन और मस्तिष्क में बने रहेंगे, हमें याद आते रहेंगे, हम जितना परमेश्वर द्वारा उसके लोगों की विभिन्न परिस्थितियों में की गई सहायता के बारे में दोहराते रहेंगे, हम उतना ही अपने लिए उसकी सहायता और देखभाल के उपलब्ध रहने के विषय आश्वस्त बने रहेंगे; उस पर हमारा भरोसा दृढ़ बना रहेगा। यह परमेश्वर में हमारे विश्वास और भरोसे को बढ़ाता रहेगा और हमें शैतान द्वारा हम पर लाई गई विभिन्न विपरीत परिस्थितियों के कारण अविश्वास के जाल में फंसने से बचाए रखेगा।
हम परमेश्वर के बारे में उसके वचन, बाइबल से जानते और सीखते हैं। इसीलिए परमेश्वर ने व्यवस्थाविवरण 6 अध्याय में इस्राएलियों से कहा कि वे उसके वचनों को अपने दरवाजों की चौखटों पर लिख कर रखें, अपनी बाँहों पर बाँध कर रखें, अपने बच्चों से उनके बारे में बातें करें और उन्हें सिखाएं, और मार्ग के किनारे की चट्टानों पर लिख कर रखें (व्यवस्थाविवरण 27:2-3); जिससे कि वे कभी भी उन्हें भूलें नहीं। हम न्यायियों की पुस्तक में देखते हैं कि इस्राएलियों के जीवनों में गिरावट और पतन इसी लिए आ गया क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के इस निर्देश का पालन नहीं किया (न्यायियों 2:10)। पवित्र आत्मा, प्रेरित पौलुस के द्वारा मसीही विश्वासियों से आग्रह करता है, उन्हें बल देकर कहता है कि वे परमेश्वर के वचन का उपयोग न केवल परमेश्वर के बारे में सीखने के लिए करें, बल्कि उसकी आराधना के लिए भी करे, “मसीह के वचन को अपने हृदय में अधिकाई से बसने दो; और सिद्ध ज्ञान सहित एक दूसरे को सिखाओ, और चिताओ, और अपने अपने मन में अनुग्रह के साथ परमेश्वर के लिये भजन और स्तुतिगान और आत्मिक गीत गाओ” (कुलुस्सियों 3:16)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 23-25
मरकुस 14:1-26
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Worship - To Develop & Maintain Trust in God
In the previous article we have seen how worship helps in making prayers more effective, and the Bible illustrates that God’s people offered their prayers with worship. The principle behind this is knowing and trusting God. The better one knows God, the more he trusts God, the better will be his worship as well as discernment regarding prayer matters, and God’s answer for prayers. We have seen earlier that a person’s worship is based on his intimacy with God, his knowing God’s characteristics, attributes, and God’s works, etc. There is a mutually complementary and beneficial relationship between worship and knowing God - the better we know God, the better will our worship be; and the more we worship, the more will we grow in His nearness and knowing Him. So, one fuels and improves the other; the more one practices worshipping God, the more he gets encouraged to draw nearer to God and know Him better. This same principle, also leads to another benefit of worshipping, one that we will consider today - Worship develops and maintains our trust in God.
It is a common everyday fact of life that the more we know a person, his qualities, his abilities, his character etc., the more we know in what-all kinds of situations can he be of help, and to what extent can we trust him, what all can he do or not do, etc. The more intimate we are with a person, the more confident we are of his helping us in a situation or time of need. Also, when we know that the person has a helping nature, and has helped people in their various situations, we are confident of approaching him in our time of need and his being willing to help us as well in similar situations. These same things hold true in our relationship with God; the better we know Him, the better will we trust Him and rely on Him in various circumstances that we will face in our lives. Through worshipping God, especially in praising and exalting Him, we also continue to revise and remind ourselves, as well as the others listening to our worship, about God’s qualities, abilities, attributes, working methods etc., so they always remain fresh and readily available in our minds. The more we learn and tell about God, the better we can worship Him. (Isaiah 40:21; Isaiah 40:28). If we have these attributes of God going around in our heart and head all the time, we will also keep recalling how He has helped His people in their different situations, and will therefore keep trusting Him to do the same for us in every situation we are in. This will strengthen our faith and trust in God and enable us to escape the snare of unbelief that Satan lays out for us by bringing various kinds of situations upon us.
We get to know and learn about God through the Word of God, the Bible. That is why God had asked the Israelites in Deuteronomy 6 to write his Words on their door-posts, bind them around their arms, teach them and speak about them to their children, and to write them on huge rocks (Deuteronomy 27:2-3); so that they never forget them. The downward spiral in the life of Israelites, in the book of Judges started because they did not follow this God given instruction (Judges 2:10). The Holy Spirit through the Apostle Paul exhorts the Christian Believers to remember, and use God’s Word to not only learn and teach about God, but also to worship Him, “Let the word of Christ dwell in you richly in all wisdom, teaching and admonishing one another in psalms and hymns and spiritual songs, singing with grace in your hearts to the Lord” (Colossians 3:16).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 23-25
Mark 14:1-26
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