ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

सोमवार, 31 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया की बढ़ोतरी

प्रभु यीशु द्वारा नियुक्तियों के द्वारा   

प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया या मण्डली से संबंधित इस अध्ययन में हम देख चुके हैं कि आम धारणा के विपरीत, कलीसिया, या चर्च, या प्रभु की मण्डली, कोई भौतिक स्थान अथवा भवन नहीं है। वरन, बाइबल के अनुसार, प्रभु की कलीसिया, प्रभु के प्रति पूर्णतः समर्पित और स्वेच्छा से उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करने वाले लोगों का समूह या गुट है। हमने यह भी देखा है कि प्रभु यीशु स्वयं ही अपनी कलीसिया बना रहा है, उसने यह कार्य किसी मनुष्य अथवा संस्था को नहीं सौंपा है, तथा वर्तमान में प्रभु की कलीसिया निर्माणाधीन है, इसलिए अपूर्ण है, उसमें विभिन्न कमियाँ और त्रुटियाँ दिखाई देती हैं। प्रभु अभी कलीसिया को उसका अंतिम पूर्ण स्वरूप देने में कार्यरत है, और अन्ततः कलीसिया प्रभु की दुल्हन के रूप में उसके तेजस्वी और जयवंत स्वरूप में प्रभु के साथ होगी। परमेश्वर के वचन से प्राप्त होने वाले, कलीसिया से संबंधित ये आधार-भूत तथ्य, यह प्रकट और स्पष्ट कर देते हैं कि वास्तविक कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों का वह समूह, जो प्रभु के पास उठाई जाएगी तथा अनन्तकाल के लिए प्रभु के साथ रहेगी वह किसी मानवीय अथवा संस्थागत रीति-रिवाज़ों, नियमों, परंपराओं, या धारणाओं द्वारा न तो बनी है और न प्रभु को स्वीकार्य है। प्रभु यीशु केवल अपनी बनाई हुई कलीसिया को अपने साथ लेगा और रखेगा, और शेष सभी, जो प्रभु यीशु के साथ उसके द्वारा नहीं जोड़े गए हैं, वे अनन्त विनाश के लिए पीछे रह जाएंगे। उन पीछे रह जाने वाले लोगों की धारणाएं और मान्यताएं चाहे कुछ भी रही हों। 

 प्रभु के द्वारा उसकी कलीसिया में जोड़े जाने वाले लोगों का यह समूह या गुट किसी मत या डिनॉमिनेशन के विधि-विधानों, परंपराओं, और नियमों का पालन नहीं करता है। वरन, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रभु की कलीसिया प्रभु यीशु और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करती है, प्रभु के लिए कार्यकारी रहती है। कलीसिया में विभिन्न दायित्वों और कार्यों के निर्वाह के लिए, प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा कुछ आत्मिक वरदान भी दिए गए हैं, जिनके बारे में हम पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित पहले के लेखों में देख चुके हैं। कलीसिया से संबंधित बाइबल के इन तथ्यों से हम प्रभु की कलीसिया के विषय एक और आधार-भूत बात भी सीखते हैं - अभी, इस पृथ्वी पर प्रभु की कलीसिया अचल (static) नहीं वरन गतिमान (dynamic) है। अभी उसमें लोग जोड़े जा रहे हैं, शैतान द्वारा घुसाए गए लोगों की पहचान दिखाकर उन्हें पृथक किया जा रहा है, प्रभु अपनी कलीसिया को अपनेवचन के जल के स्नान सेपवित्र, निर्दोष, बेदाग़, बेझुर्री बना रहा है (इफिसियों 5:26-27)। प्रभु की कलीसिया में यह कार्य किए जाने के लिए प्रभु ने कुछ लोगों को नियुक्त किया है:और उसने कुछ को प्रेरित नियुक्त करके, और कुछ को भविष्यद्वक्ता नियुक्त कर के, और कुछ को सुसमाचार सुनाने वाले नियुक्त कर के, और कुछ को रखवाले और उपदेशक नियुक्त कर के दे दिया। जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए। जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं। ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते हों। वरन प्रेम में सच्चाई से चलते हुए, सब बातों में उस में जो सिर है, अर्थात मसीह में बढ़ते जाएं। जिस से सारी देह हर एक जोड़ की सहायता से एक साथ मिलकर, और एक साथ गठकर उस प्रभाव के अनुसार जो हर एक भाग के परिमाण से उस में होता है, अपने आप को बढ़ाती है, कि वह प्रेम में उन्नति करती जाए” (इफिसियों 4:11-16)

बाइबल के उपरोक्त खण्ड (इफिसियों 4:11-16) के संदर्भ को यदि उसके पहले के पदों (इफिसियों 4:7-10) के साथ देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कलीसिया में इन कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने वाला प्रभु यीशु ही है (4:7); जो प्रभु के द्वारा मत्ती 16:18 में कही गई बात, “मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगाकी पुष्टि है। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इफिसियों 4:11-16 में पाँच भिन्न कार्य और कार्यकर्ताओं का उल्लेख है - प्रेरितभविष्यद्वक्ता, सुसमाचार प्रचारक, रखवाले, और उपदेशक। अर्थात, प्रभु की प्रत्येक स्थानीय कलीसिया में, जो प्रभु के विश्व-व्यापी कलीसिया का एक अंश है, कलीसिया की उन्नति के लिए प्रभु इन सेवकाइयों को चाहता है, और उनके निर्वाह के लिए उपयुक्त लोगों को खड़ा करता है। ये लोग न तो किसी स्थानीय कलीसिया के सदस्यों द्वाराचुनेयानियुक्तकिए जाते हैं; और न ही स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार इस दायित्व को उठाते हैं। कलीसिया के निर्माण से संबंधित लेख में, हम ने 1 राजाओं 6:7 में सुलैमान द्वारा बनवाए जा रहे मंदिर से देखा था कि मंदिर का प्रत्येक पत्थर पहले अपने स्थान के लिए काट-तराश कर तैयार किया जाता था, और फिर मंदिर में लाकर उसे उसके निर्धारित स्थान पर लगा दिया जाता था। इसी प्रकार से प्रभु की कलीसिया में कार्य करने के लिए भी प्रभु ही उपयुक्त लोगों को निर्धारित करता है और उन्हें कलीसिया में उनके कार्य के लिए प्रत्यक्ष करता है। यह तथ्य हमें कलीसिया के प्रभु के होने या न होने के विषय पहचान करने का भी एक तरीका देती है - प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा उस की कलीसिया की उन्नति के लिए, ये पाँचों प्रकार की सेवकाइयों को करने वाले लोग मिलेंगे। जो प्रभु की कलीसिया नहीं है, उसमें यह गुण नहीं देखा जाएगा। हम आते कुछ लेखों में इन सेवकाइयों के विषय और इफिसियों 4:11-16 में कलीसिया की उन्नति से संबंधित लिखी बातों को कुछ और विस्तार से देखेंगे। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो गंभीरता से जाँच परख कर देख लें कि आप अपने आप को जिस कलीसिया का अंग या सदस्य मानते हैं वह प्रभु की कलीसिया है भी या नहीं; और यह भी कि आप प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया में जोड़े गए हैं कि नहीं, या किसी मत अथवा डिनॉमिनेशन के विधि-विधानों, परंपराओं, और नियमों के पालन के द्वारा अपने आप को प्रभु की कलीसिया का सदस्य समझ रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि जब तक वास्तविकता के प्रति सचेत हों, तब तक बहुत देर हो जाए, और बात को ठीक करने का अवसर हाथ से निकल जाए। 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 25-26     
  • मत्ती 20:17-34  

रविवार, 30 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली

प्रभु यीशु में जयवंत   

हमने प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया, अर्थात प्रभु यीशु के विश्वासी समर्पित शिष्यों के समूह या समुदाय विषय परमेश्वर के वचन बाइबल से, मत्ती 16:18 के साथ, जहाँ बाइबल में कलीसिया शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया है, सीखना आरंभ किया था। हमने कलीसिया शब्द के अर्थ को समझा, यह देखा कि आम धारणा के विपरीत प्रभु यीशु ने कलीसिया पतरस पर स्थापित नहीं की; और यह देखा कि क्यों ऐसा समझना इस पद की गलत व्याख्या करना है। हमने देखा कि प्रभु यीशु स्वयं ही अपनी कलीसिया का बनाने वाला और उसकी देख-भाल करने वाला है, उसने यह कार्य किसी अन्य अथवा किसी मनुष्य को नहीं सौंपा है। फिर हमने कलीसिया के लिए बाइबल में प्रयुक्त विभिन्न रूपकों (metaphors) के द्वारा कलीसिया के उद्देश्य और कार्यों को समझा था, और देखा था कि कोई भी मानवीय अथवा संस्थागत रीति अथवा विधि से बनाई गईकलीसियाइन रूपकों पर खरी नहीं उतरती है, और केवल प्रभु यीशु मसीह द्वारा बनाई गई उसकी कलीसिया ही इन रूपकों के गुणों का निर्वाह कर सकती है; इसलिए कोई भी मनुष्य किसी भी रीति से प्रभु की कलीसिया को नहीं बना अथवा बनवा सकता है; और न ही स्वयं उसमें जुड़ सकता है न ही किसी अन्य को जोड़ सकता है 

फिर हमने प्रेरितों 2:38-42 में से उन सात बातों को देखा है, जो कलीसिया के आरंभ से ही सच्ची मसीही कलीसिया तथा उसके सदस्यों के जीवनों का अभिन्न अंग रही हैं। प्रेरितों 2:42 में उन सात में से चार ऐसी बातें दे गई हैं जिन्हें कलीसिया और मसीही जीवन के स्तंभ कहा जाता है, जो कलीसिया और मसीही जीवन की स्थिरता और दृढ़ता के लिए अनिवार्य हैं। किसी भीकलीसियामें इन सात बातों की उपस्थिति दिखाती एवं प्रमाणित करती है कि वहकलीसियाप्रभु की कलीसिया है। अन्यथा वहकलीसियाप्रभु की नहीं, वरन किसी मानवीय अथवा संस्थागत रीतियों के आधार पर मनुष्यों द्वारा बनाई गई ऐसीकलीसियाहै जिसका प्रभु की सच्ची कलीसिया से कोई संबंध नहीं है; कलीसिया के लिए प्रभु की आशीषों और अनन्तकालीन योजनाओं तथा प्रतिफलों में जिसका कोई भाग नहीं है। वरन वह अनन्त विनाश के लिए रखे गए प्रभु के खेत में उगने वाले उन जंगली पौधों के समान है जो खेत में रहते हुए पलते, बढ़ते और पोषित तो होते रहे, किन्तु कटनी के समय पृथक कर के उन्हें उनके पूर्व-निर्धारित अनन्त विनाश के लिए फेंक दिया गया (मत्ती 13:24-30, 37-42)

मत्ती 16:18 में प्रभु यीशु ने अपनी कलीसिया के एक और गुण को भी बताया है... और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे”; अर्थात प्रभु की कलीसिया प्रभु में रहने और प्रभु से प्राप्त सुरक्षा के कारण सदा जयवंत बनी रहेगी, शैतान की कोई योजना, कोई षड्यंत्र उसके विरुद्ध सफल नहीं होगा। प्रभु की कही इस बात के अभिप्राय को समझने के लिए प्रभु द्वारा यहाँ पर प्रयुक्त वाक्यांश अधोलोक के फाटक के इन शब्दों को समझना आवश्यक है। शब्दअधोलोकयूनानी भाषा के शब्द hades (हेडीस) का अनुवाद है और एक ऐसे पीड़ा के स्थान के लिए प्रयोग किया जाता है जहाँ पर पार्थिव जीवन में परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को ठीक नहीं करने वालों की आत्माएं उनके अंतिम न्याय के लिए रखी गई हैं; जैसे कि प्रभु द्वारा लाजरस और धनी व्यक्ति के दृष्टांत (लूका 16:19-31) में दिखाया गया है, उस धनी व्यक्ति की आत्मा अधोलोक डाली गई (लूका 16:23)। अर्थात अधोलोक शैतानी आत्माओं और शक्तियों का स्थान है। बाइबल में, विशेषकर पुराने नियम में, किसी नगर या शहर का फाटक वह स्थान होता था जहाँ पर उस नगर अथवा शहर के मुख्य अधिकारी और न्यायी बैठा करते थे, और लोगों का न्याय करते थे (व्यवस्थाविवरण 16:18; व्यवस्थाविवरण 21:19-20; रूत 4:1-2; अय्यूब 29:7-10)। अर्थात किसी स्थान के फाटक का जन होने से तात्पर्य होता था उस स्थान का प्रमुख न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारी। इसलिए मत्ती 16:18 में इन दोनों शब्दों को साथ देखने से अभिप्राय बनता है शैतानी स्थान की प्रमुख शक्तियां। और प्रभु यीशु मसीह ने दावा किया है कि उसकी कलीसिया के विरुद्ध शैतान की कोई शक्ति प्रबल नहीं हो सकेगी, उसे पराजित नहीं कर सकेगी। 

प्रभु के इस दावे को हम आज वास्तविकता में कार्यान्वित होते हुए क्यों नहीं देखते हैं? ध्यान कीजिए कि, जैसा हम पहले देख चुके हैं, प्रभु की कलीसिया अभी निर्माणाधीन है; अभी अपने अंतिम स्वरूप में नहीं आई है। प्रभु अपने लोगों को तैयार कर के कलीसिया में उनके निर्धारित स्थान पर जोड़ता चला जा रहा है। प्रभु अभी अपनी कलीसिया को वचन के जल के स्नान के द्वारा बेदाग और बेझुर्री, पवित्र और निर्दोष बना रहा है (इफिसियों 5:26-27); यह प्रक्रिया चल रही है, पूरी नहीं हुई है। साथ ही एक बार फिर मत्ती 13:24-30 के प्रभु के दृष्टांत पर ध्यान कीजिए - प्रभु की कलीसिया में प्रभु के जनों के अतिरिक्त शैतान केपौधेभी हैं - जो उनके अनन्त विनाश के लिए पहचान कर लिए गए हैं और कटनी के समय अलग कर दिए जाएंगे। इन कारणों से कलीसिया अभी इस पृथ्वी पर अपने उस तेजस्वी और जयवंत स्वरूप में देखने को नहीं मिलती है, जिसका वर्णन उसके विषय वचन में किया गया है। किन्तु प्रभु की कलीसिया में प्रभु के अनेकों समर्पित जन व्यक्तिगत रीति से यह जयवंत जीवन जीते हुए देखे जा सकते हैं। प्रभु के दूसरे आगमन पर कलीसिया प्रभु के पास उठाई जाएगी, और फिर प्रभु की दुल्हन, आत्मिक यरूशलेम के रूप में प्रभु के साथ रहेगी (प्रकाशितवाक्य 21:2, 9-10)। प्रभु की इस कलीसिया, उसकी दुल्हन, उस आत्मिक यरूशलेम के लिए लिखा है, “और उस में कोई अपवित्र वस्तु या घृणित काम करने वाला, या झूठ का गढ़ने वाला, किसी रीति से प्रवेश न करेगा; पर केवल वे लोग जिन के नाम मेम्ने के जीवन की पुस्तक में लिखे हैं” (प्रकाशितवाक्य 21:27)

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो अभी आपके पास इस बात को जाँचने और परखने का समय है कि क्या आपका नाम वास्तव में मेमने की जीवन की पुस्तक में लिखा गया है कि नहीं? क्या आप प्रभु की कलीसिया के वास्तविक सदस्य हैं, या मत्ती 13:24-30 के प्रभु के दृष्टांत के जंगली बीजों के उस पौधे के समान तो नहीं हैं जो स्वामी की देखभाल, पालन-पोषण, और सुरक्षा के कारण अपने आप को उसके खलिहान में जाने के लिए निश्चिंत समझे हुए है, किन्तु कटनी के समय जो कटु सत्य सामने आएगा, उसके लिए तैयार नहीं है। वह जंगली बीज अपनी नियति नहीं बदल सकता था; किन्तु आपके पास अभी अपनी अनन्तकालीन नियति समझने और सुधारने के लिए समय और अवसर है। प्रभु द्वारा दिए गए इस समय और अवसर को व्यर्थ न जानें दें; उसका सदुपयोग करें और अपने अनन्तकाल को सुरक्षित एवं आशीषित कर लें।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 23-24     
  • मत्ती 20:1-16 

शनिवार, 29 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - चौथा स्तंभ; प्रार्थना


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का चौथा स्तंभ, प्रार्थना  

प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने मेंलौलीन रहे। हमने इन चारों में से पहली तीन, और सातों में से पहली छः बातों को पिछले लेखों में देखा है। आज इन चार में से चौथी तथा सात में से सातवीं बात, प्रार्थना में लौलीन रहने के बारे में देखते हैं। 

यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु यीशु के उन आरंभिक अनुयायियों के जीवन में, आरंभ से ही प्रार्थना करने का बहुत महत्व रहा है। सामान्यतः परमेश्वर से प्रार्थना करने को परमेश्वर से कुछ माँगने या उससे प्राप्त करने के प्रयास करने के अभिप्राय से देखा और समझा जाता है। किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार परमेश्वर से प्रार्थना का अभिप्राय होता है परमेश्वर से वार्तालाप करना, जैसा प्रभु यीशु मसीह बहुधा किया करते थे (मरकुस 1:35; मत्ती 14:23; लूका 5:16; 6:12-13)। यह वार्तालाप औपचारिकता का निर्वाह नहीं, अपितु, किसी अंतरंग मित्र के साथ दिल खोल कर बात करने के समान है। अपने मन की बात परमेश्वर से खुल कर कहना, और परमेश्वर के मन की बात को उससे सुनना। अर्थात, प्रार्थना करना, परमेश्वर से संगति करने के समान है, निरंतर हर बात के लिए उसके संपर्क में बने रहना, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानकर उसके अनुसार कार्य करना। जब मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ ऐसे निकट संबंध और संपर्क में रहेगा, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अपना हर निर्णय और कार्य करेगा, तो स्वतः ही उसके जीवन में परमेश्वर की सामर्थ्य भी प्रकट रहेगी, उसके कार्य भी सफल होंगे, और वह परिस्थितियों द्वारा विचलित और निराश भी नहीं होगा, क्योंकि उसे विश्वास रहेगा के जो कुछ भी उसके जीवन में हो रहा है, वह परमेश्वर की इच्छा और योजना के अंतर्गत है, और अन्ततः उससे उसकी भलाई ही होगी (रोमियों 8:28) 

इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस द्वारा लिखवाया, “निरन्तर प्रार्थना में लगे रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:17)। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि सब कार्य छोड़कर किसी एकांत स्थान में आँख बंद करके और हाथ जोड़कर बैठे रहो और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहते रहो। वरन यह कि हर समय, हर बात के लिए, परमेश्वर के साथ मन में एक मूक संवाद, एक वार्तालाप चलते रहना चाहिए, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानते रहना चाहिए, उसकी इच्छा के अनुसार करते रहना चाहिए। जो इस प्रकार परमेश्वर के साथ अपना घनिष्ठ संबंध बनाए रखते हैं, वे प्रभु के इस वचन को भी समझ सकते हैं और उसके प्रति आश्वस्त रह सकते हैं कि समय और आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रभु से वचन और सहायता मिलती रहेगी (लूका 12:11-12); तथा इन अंत के दिनों की भयानक घटनाओं से बचने और शांति के साथ रहने वाले भी हो सकते हैं (लूका 21:34-36; प्रकाशितवाक्य 3:10)

मसीही विश्वासियों के लिए प्रार्थना करना कोई निर्धारित संख्या के अनुसार गिनकर करना नहीं है, जैसा हम पुराने नियम के कुछ संतों और परमेश्वर के भक्तों के साथ देखते हैं (भजन 55:17; भजन 119:164; दानिय्येल 6:10), वरन हर पल, हर समय परमेश्वर के साथ संपर्क में बने रहना, उससे हर बात के लिए वार्तालाप में बने रहना है। जो इस भाव में जीवन व्यतीत करेगा, फिर वह इस एहसास के साथ भी जीवन जीएगा कि मैं परमेश्वर के साथ, और परमेश्वर मेरे साथ निरंतर विद्यमान हैं। और ऐसी स्थिति में फिर उसके लिए किसी लोभ-लालच, बुरे विचार आदि में बहक कर पाप में गिरना कठिन हो जाएगा, वह शैतान के द्वारा सरलता से बहकाया-गिराया नहीं जाएगा। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जो इस प्रकार से प्रार्थना मेंलौलीनरहेगा, उसके  आत्मिक जीवन का स्तर कैसा होगा। साथ ही, परमेश्वर के साथ इस प्रकार से संगति और संपर्क वही बना कर रख सकता है, जो प्रभु द्वारा अपनाया गया हो, प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ा गया हो। किसी मानवीय या संस्थागत प्रक्रिया के निर्वाह के द्वाराकलीसियासे जुड़ने वाले व्यक्ति के लिए परमेश्वर के साथ इस प्रकार प्रार्थना में जुड़े रहना संभव ही नहीं होगा। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपका प्रार्थना का जीवन कैसा है? क्या आपके लिए प्रार्थना करना परमेश्वर से कुछ माँगना ही है, या एक अंतरंग मित्र के समान उससे अपने दिल की सभी बातें साझा करना, तथा उसके दिल की बातों को जानकर उनके अनुसार कार्य एवं व्यवहार करना है? आप का प्रार्थना का जीवन और प्रार्थना के प्रति आपका रवैया प्रकट करेगा कि आप वास्तव में प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया से जोड़े गए जन हैं कि नहीं। यदि कहीं कोई कमी है, किसी सुधार की आवश्यकता है, तो अभी समय रहते जो भी ठीक करना है, वह कर लीजिए; कहीं बाद में समय और अवसर न मिले और कोई बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ जाए। 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 21-22     
  • मत्ती 19 

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - तीसरा स्तंभ; प्रभु की मेज़ में संभागी क्यों?

 प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का तीसरा स्तंभ, प्रभु की मेज़ का महत्व   

प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने मेंलौलीन रहे। हमने इन चारों में से तीसरी, और सातों में से छठी बात, “रोटी तोड़नाया प्रभु के मेज़ में सम्मिलित होने के बारे में, पिछले लेख से देखना आरंभ किया है। पिछले लेख में हमने अपने शिष्यों के साथ फसह के पर्व का भोज खाने के दौरान प्रभु द्वारा अपनी इस मेज़ की स्थापना किए जाने के बारे में कुछ बातें और मसीही जीवन के लिए उनके अभिप्राय को देखा था। आज इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रभु की मेज़ के महत्व के बारे में कुछ बातों को देखते हैं। 

प्रभु की मेज़ में भाग लेने के विषय पवित्र आत्मा द्वारा 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में, प्रेरित पौलुस में होकर लिखवाया गया है, क्योंकि उस मण्डली में प्रभु की मेज़ का निरादर हो रहा था, वे लोग उस मेज़ में भाग लेने की गंभीरता और महत्व को अनदेखा करने लग गए थे। इस खंड के 23 पद में पौलुस यह स्पष्ट बता देता है कि प्रभु की मेज़ का यह दर्शन उसे प्रभु से ही प्राप्त हुआ, और उसने उन्हें भी पहुँचा दिया। इस खंड में प्रभु की मेज़ के विषय जो अनुचित बातें उन में देखी जा रही थीं, संक्षिप्त में, वे हैं:

  • अनुचित रीति से भाग लेने के कारण प्रभु की मेज़ उनके लिए हानि का कारण बन गई थी (पद 17, 27-32)
  • उन लोगों में परस्पर फूट और मतभेद थे, और विधर्मी लोग भी थे जो उस मेज़ में सम्मिलित होते थे (पद 18, 19)
  • प्रभु की मेज़ उनके लिए साथ मिलकर बैठने का नहीं, वरन भेद-भाव का और एक दूसरे को ऊँचा-नीचा दिखाने का माध्यम बन गई थी (पद 20-22, 33-34)
  • इस अनुचित व्यवहार के कारण उन्हें प्रभु से ताड़ना का सामना करना पड़ रहा था, यहाँ तक कि कुछ कि मृत्यु भी हो गई थी (पद 9-32)

       प्रभु की मेज़ में उचित रीति से भाग लेते समय उन्हें भी, और आज हमें भी, उपरोक्त गलतियों को हटाना है। साथ ही इस खंड में दी गई मेज़ के उद्देश्य और महत्व की तीन बातों को भी ध्यान रखना है। ये तीन बातें हैं:

  1. प्रभु की मेज़ खाने-पीने का भोज मनाने के लिए नहीं, वरन प्रभु के द्वारा दिए गए अपने बलिदान को स्मरण करने का अवसर है (पद 24-25); प्रभु ने अपनी देह और लहू का बलिदान क्यों और कैसे दिया, क्या कुछ सहा। उचित गंभीरता, आदर, एवं श्रद्धा के साथ यह स्मरण करना प्रभु के दूसरे आगमन तक चलते रहना चाहिए। 
  2. प्रभु के मेज़ में भाग लेना, उसकी मृत्यु को प्रचार करने के लिए है (पद 26); अर्थात प्रभु के बलिदान के बारे में औरों को बताने, उन तक सुसमाचार पहुँचाने के लिए। मेज़ में भाग लेने के द्वारा भाग लेने वाला प्रभु की मृत्यु के प्रचार के प्रति अपने समर्पण और आज्ञाकारिता को स्मरण करता तथा दोहराता है। 
  3. प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप को जाँचना है कि वह उचित रीति से भाग ले रहा है कि नहीं; क्योंकि अनुचित रीति से भाग लेने वाला अपने ऊपर दण्ड को लाता है (पद 27-32)। अपने आप को जाँच कर, अपनी गलतियों और पापों को प्रभु के सामने मान कर, उनके लिए पश्चाताप करने और प्रभु से क्षमा माँगने के बाद ही मेज़ में भाग लेना उचित है।

प्रभु के द्वारा उसकी मेज में भाग लेने के औचित्य, उद्देश्य, और महत्व को समझने के द्वारा हम समझ सकते हैं कि प्रभु ने अपने लोगों को शैतान की चालाकियों और बातों से शुद्ध और पवित्र रखने के लिए, तथा अपने शिष्यों को उसके सुसमाचार प्रचार के प्रति समर्पित एवं आज्ञाकारी बनाए रखने के लिए इस मेज़ की स्थापना की, और उसमें नियमित भाग लेते रहने के लिए कहा। इससे हम यह भी समझ सकते हैं कि क्यों यहूदा इस्करियोती को मेज़ में भाग नहीं मिला - क्योंकि वह मेज़ के उद्देश्यों को पूरा ही नहीं करता था। साथ ही हम यह भी समझने पाते हैं कि क्यों जो लोग एक रस्म के समान इसमें भाग लेते हैं, वे अपने लिए कितना बड़ा दण्ड मोल ले रहे हैं; क्योंकि मेज़ में भाग लेने से कोई प्रभु की दृष्टि में धर्मी नहीं बनता है - प्रभु ने तो जो उसकी दृष्टि में धर्मी हैं, उन्हीं के लिए मेज़ को स्थापित किया था, अधर्मियों को धर्मी बनाने के लिए नहीं। किन्तु अनुचित रीति से भाग लेने, या किसी को भाग दिलवाने के द्वारा व्यक्ति अपने लिए प्रभु से दण्ड और ताड़ना का भागी अवश्य बन जाता है। उचित रीति से भाग लेना आशीष का कारण है, क्योंकि व्यक्ति अपने आप को जाँच और सुधार कर मसीही जीवन में आगे बढ़ सकता है; और अनुचित रीति से या रस्म के समान भाग लेने और देने से व्यक्ति स्वयं ही अपने लिए दण्ड कमा लेता है। 

क्योंकि प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, व्यक्ति को अपने आप को जाँचना है, अपने पाप और गलतियों को प्रभु के सामने स्वीकार करना है, इसलिए मेज़ में भाग लेना भी एक उचित समय-अवधि के अनुसार होना चाहिए, जिससे अपने पिछले दिनों के जीवन को सहजता से स्मरण और पुनःअवलोकन किया जा सके। आरंभिक कलीसिया के लोग इसमें लौलीन रहते थे, प्रतिदिन, घर-घर में प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होते थे (प्रेरितों 2:46); किन्तु कुछ समय के पश्चात, यह सामूहिक एकत्रित होना, और रोटी तोड़ना या प्रभु के मेज़ में भाग लेना, सप्ताह के पहले दिन की आराधना सभा (1 कुरिन्थियों 16:2) के साथ जुड़ गया (प्रेरितों 20:7)। सप्ताह भर की यह अवधि, मेज़ में भाग लेने से पहले अपने जीवन का पुनः अवलोकन करने और हफते भर में हुई किसी भी गलती, बुराई, या पाप को ध्यान करके प्रभु के सामने मानने के लिए सहज रहती है। महीने में एक बार, या अन्य किसी समय-अवधि के अनुसार मेज़ में भाग लेने का वचन में कोई समर्थन नहीं है। साथ ही यह कोई रस्म भी नहीं है, इसे भी हम देख चुके हैं।

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु की मेज़ में भाग लेने के महत्व के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है? ध्यान कीजिए, 1 कुरिन्थियों 11:17-32 के पदों में प्रभु और पवित्र आत्मा ने मेज़ में भाग लेने को वैकल्पिक, या, इच्छानुसार नहीं लिखा है, वरन अनिवार्य किया है। इन पदों में स्पष्ट आया है कि मण्डली के लोगों को भाग लेना था; किन्तु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि उचित रीति से भाग लेना था। प्रभु की मेज़ में भाग न लेना, प्रभु की अनाज्ञाकारिता है, दण्डनीय है; और अनुचित रीति से भाग लेना भी दण्डनीय है। अर्थात, प्रभु ने अपने लोगों के लिए एक बहुत संकरा किन्तु बहुत उत्तम मार्ग दिया है, जिससे हम अपनी पिछली बुराइयों, गलतियों, पापों को लिए हुए मसीही जीवन में आगे न बढ़ें, वरन प्रभु से क्षमा और आशीष के साथ मसीही जीवन में उन्नत होते चले जाएं। 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 19-20     
  • मत्ती 18:21-35

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - तीसरा स्तंभ; प्रभु की मेज़ में संभागी


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का तीसरा स्तंभ

प्रभु की मेज़ की स्थापना से शिक्षाएँ     

    इस श्रृंखला में हम देखते आ रहे हैं कि अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ से ही, सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और इन चारों के लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन मेंलौलीन रहे। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से पाँच बातें देख चुके हैं। आज हम छठी बात, जो 2:42 की तीसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का तीसरा स्तंभ है, ‘रोटी तोड़नाके बारे में कुछ बातें देखेंगे, और इन्हें अगले लेख में पूरा करने का प्रयास करेंगे

जब परमेश्वर ने इस्राएलियों को मूसा के द्वारा मिस्र के दासत्व से छुड़ाया था, तो उनके छुटकारे की रात को उन्हेंफसह का पर्वयालाँघन पर्वमनाने की विधि भी दी थी, जिसका वर्णन निर्गमन 12 अध्याय में दिया गया है। इस पर्व को, व्यवस्था के दिए जाने के समय, इस्राएल के वार्षिक पर्वों में सम्मिलित किया गया (लैव्यव्यवस्था 23:5-8)। निर्गमन 12 में दिए गए विवरण के अनुसार, फसह का यह पर्व परिवार जनों के द्वारा साथ मिलकर मनाया जाना था, और यदि परिवार छोटा हो, तो किसी अन्य निकट के छोटे परिवार के साथ सम्मिलित होकर मनाया जाना था (निर्गमन 12:3-4)। यह पर्व पापों से और शैतान के दासत्व से प्रभु यीशु के बलिदान के द्वारा छुटकारे का प्रतीक था। इस प्रतीकात्मक पर्व को वास्तविक करने से ठीक पहले, प्रभु यीशु मसीह ने यह पर्व अपने शिष्यों के साथ मनाया था (मत्ती 26:17-19)। इस पर्व को मनाते समय, पर्व की रीति के अनुसार शिष्यों के साथ भोजन करते समय, प्रभु ने एक और कार्य भी किया - जो पर्व की विधि से कुछ भिन्न था - प्रभु ने रोटी और कटोरे को लेकर उन्हें अपनी देह और लहू का चिह्न बताया और उसे शिष्यों में वितरित किया। इस पर्व के मनाए जाने और प्रभु द्वारा इस प्रकार से रोटी और कटोरे को अपनी देह और लहू का चिह्न बताने का उल्लेख चारों सुसमाचारों में किया गया है।

इस पर्व के मनाए जाने और प्रभु द्वारा रोटी और कटोरा दिए जाने के चारों सुसमाचारों के वर्णनों को साथ मिलाकर ध्यान से तथा क्रमवार देखने से स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु ने फसह के पर्व का भोजन बारहों शिष्यों के साथ आरंभ किया, अर्थात फसह के भोज के समय यहूदा इस्करियोती भी उनके साथ था, और जब प्रभु ने शिष्यों के पाँव धोए, तो यहूदा के भी धोए थे (यूहन्ना 13:4-25)। और फसह के भोज का पहला टुकड़ा, प्रभु ने यहूदा इस्करियोती को दिया, जिसने उसके साथ थाली में हाथ डाला था (मत्ती 26:23, मरकुस 14:20; लूका 22:21; यूहन्ना 13:26), और उससे कहा कि जो तुझे करना है सो कर (यूहन्ना 13:27)। फसह के पर्व का वह पहला टुकड़ा दिए जाने के साथ भोज को खाना आरंभ हो गया, प्रभु और शिष्य फसह के भोज को खाने लगे, और प्रभु से वह टुकड़ा लेते ही यहूदा तुरंत बाहर चला गया (यूहन्ना 13:30); किन्तु यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह कहीं नहीं लिखा है कि यहूदा ने उस टुकड़े को लेकर खाया भी। यहूदा के चले जाने के बाद, जब वे खा रहे थे, तब प्रभु यीशु ने भोज में से उठकर रोटी और कटोरे को उन्हें अपनी देह और लहू के चिह्न के रूप में दिया, और उनसे यह करते रहने के लिए कहा (मत्ती 26:26-28; मरकुस 14:22-25; लूका 22:19-20)। अर्थात, शैतान का वह जन, यहूदा इस्करियोती फसह के पर्व की आरंभिक प्रक्रियाओं में तो था, और प्रभु ने उसे बदलने का मौका भी दिया, उसके पाँव धोए, उससे प्रेम दिखाया, उसे सब के सामने प्रकट और शर्मिंदा नहीं किया, और भोज का पहला टुकड़ा भी उसे ही दिया, जो पारंपरिक रीति से प्रिय जन को दिया जाता था। किन्तु न तो वह बदला, और न उसने फसह का भोज खाया और न ही प्रभु द्वारा रोटी और लहू का चिह्न स्थापित किए जाने के समय वह उनके मध्य में उपस्थित था। 

प्रभु की मेज़, प्रभु भोज का यह दर्शन कुछ बहुत गंभीर तथ्य हमारे सामने रखता है। न ही प्रभु यीशु ने, और न ही उनके उन शिष्यों ने यह पर्व अपने निज परिवारों के साथ मनाया, वरन एक साथ मिलकर मनाया - प्रभु में लाए गए विश्वास और समर्पण के द्वारा अब प्रभु और उसके अन्य विश्वासी ही उनकापरिवारथे, जो यूहन्ना 1:12-13 में प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान, प्रभु की कलीसिया और परमेश्वर के घराने के लोग (इफिसियों 2:19) होने की पुष्टि करता है। फिर, प्रभु की मेज़, प्रभु के सच्चे समर्पित लोगों के लिए है, सार्वजनिक निर्वाह के लिए कोई प्रथा या परंपरा नहीं है। प्रभु ने इसमें भाग लेने के लिए केवल अपने साथ रहने वाले उन शिष्यों को ही आमंत्रित किया, सर्व-साधारण को नहीं; और फिर शिष्यों में से भी जब शैतान का जन चला गया, तब ही प्रभु ने इसे स्थापित किया। निःसंदेह, इसमें भाग लेने वाले शिष्य सिद्ध नहीं थे - थोड़ी ही देर बाद सब के सब प्रभु को छोड़ कर भाग गए, और पतरस ने तो तीन बार प्रभु का इनकार भी किया। किन्तु पुनरुत्थान के बाद प्रभु ने इन्हीं शिष्यों को फिर से दृढ़ और स्थापित कर के कलीसिया का आरंभ किया, सारे संसार में सुसमाचार को पहुँचाया, और उन्हीं के द्वारा संसार भर में कलीसिया का दर्शन गया, कलीसिया स्थापित हुईं। प्रभु की मेज़ से संबंधित कुछ अन्य तथ्य हम आगे अगले लेख में देखेंगे। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके मसीही जीवन को स्थिर और दृढ़ रखने में, आपको प्रभु के लिए उपयोगी बनाने में, प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होने की एक बहुत प्रमुख और महत्वपूर्ण भूमिका है। किन्तु ध्यान रखिए कि यह कोई रस्म या परंपरा नहीं है, जिसमें भाग लेने के द्वारा आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी हो जाते हैं। वरन, अनुचित रीति से भाग लेने के द्वारा, व्यक्ति दंड के भागी हो जाते हैं। इसलिए प्रभु की मेज़ में, प्रभु भोज में सम्मिलित होने से पहले इसके अर्थ और दर्शन को भली भांति समझकर, तब उचित रीति से इसमें सम्मिलित हों, अन्यथा अनुचित रीति से भाग लेना बहुत भारी पड़ जाएगा। 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।



एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 16-18     
  • मत्ती 18:1-20 

बुधवार, 26 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - दूसरा स्तंभ; संगति रखना


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का दूसरा स्तंभ, संगति में साथ      

       अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में आरंभ से ही सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और उनके लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन मेंलौलीन रहे। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से चार बातें देख चुके हैं। आज हम पाँचवीं बात, जो 2:42 की दूसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का दूसरा स्तंभ है, ‘संगति रखनाके बारे में देखेंगे। 

       सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य का अकेले रहना परमेश्वर को पसंद नहीं था; वह आदम को एक ऐसा सहायक देना चाहता था जो उससे मेल खाता हो (उत्पत्ति 2:18)। इसलिए परमेश्वर पहले पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं को आदम के पास लाया, आदम ने उन सभी के नाम रखे, किन्तु उनमें से कोई भी आदम से मेल रखने वाला, उसका सहायक बन सकने वाला नहीं मिला (उत्पत्ति 2:19-20)। आदम को यह एहसास दिलाने के बाद कि वह सारी सृष्टि के सभी जीवों से भिन्न है, परमेश्वर ने उसके समान एक सहायक की रचना करके उसे आदम के साथ रख दिया (उत्पत्ति 2:21-22)। अर्थात, सृष्टि के आरंभ से ही न केवल मनुष्य परस्पर संगति में रहते थे, वरन परमेश्वर भी उनके साथ संगति करता था, उनसे मिलने आता था (उत्पत्ति 3:8)। साथ ही, शैतान हव्वा को तब ही बहका कर पाप में गिराने पाया जब वह अकेली थी (उत्पत्ति 3:1-2); अकेली स्त्री पाप में गिरी, फिर उसने आदम को भी पाप गिराया (उत्पत्ति 3:6), और उस पाप के कारण वे दोनों परमेश्वर की संगति से भी दूर हो गए। परस्पर संगति में तथा परमेश्वर के साथ संगति में बने रहने में बहुत सामर्थ्य है; पाप में पतित और पाप के कारण भ्रष्ट बुद्धि वाले हम मनुष्य इसे नहीं समझते हैं, किन्तु शैतान इस जानता और समझता है; इसीलिए वह हमें भी एक-दूसरे से दूर रखने तथा हमें परमेश्वर से दूर रखने के विभिन्न उपाय कार्यान्वित करता रहता है, कि कहीं हम परस्पर और परमेश्वर के साथ संगति की सामर्थ्य को पहचान कर, एक-मनता के साथ रहें और उसके लिए परेशानी का कारण न बन जाएं। 

राजा सुलैमान ने लिखा, “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है। क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा; परन्तु हाय उस पर जो अकेला हो कर गिरे और उसका कोई उठाने वाला न हो। फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है? यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका सामना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती” (सभोपदेशक 4:9-12)। प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने शिष्यों से उनकी एक-मनता की सामर्थ्य के विषय में कहा, “फिर मैं तुम से कहता हूं, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिये जिसे वे मांगें, एक मन के हों, तो वह मेरे पिता की ओर से स्वर्ग में है उन के लिये हो जाएगी। क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं वहां मैं उन के बीच में होता हूं” (मत्ती 18:19-20)। अर्थात, जहाँ भी प्रभु के लोग एक मन होकर साथ हैं, सहमत हैं, वहाँ प्रभु परमेश्वर भी उनके साथ उस बात में सहमत है, उनके साथ विद्यमान है; वे चाहे संख्या में दो या तीन ही क्यों न हों! प्रभु यीशु ने हमारे पापों की क्षमा और उद्धार के लिए किए गए कार्य के द्वारा न केवल हमारे बीच के विभाजनों की दीवार को हटा दिया और हम सभी मनुष्यों को एक साथ जोड़ दिया, वरन साथ ही हमें एक साथ मिलाकर परमेश्वर का निवास-स्थान भी बना दिया, और परमेश्वर के साथ संगति में भी बहाल कर दिया (इफिसियों 2:11-22), हमारा मेल-मिलाप पिता परमेश्वर के साथ भी करवा दिया (रोमियों 5:1, 10-11) 

क्योंकि हमारा यह साथ मिलकर रहना और परमेश्वर की संगति में रहना हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और कलीसिया की सामर्थ्य के लिए, तथा प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होने का कारगर उपाय है, इसीलिए शैतान हमें परस्पर एक-मनता में नहीं रहने देता है, और परमेश्वर के साथ भी हमारी संगति को बाधित करता रहता है। उसने विभाजित रखने का यह षड्यंत्र कलीसिया के आरंभ से कार्यान्वित कर दिया था (रोमियों 15:5-6; 1 कुरिन्थियों 1:10-13; 11:18; 2 कुरिन्थियों 12:20; गलातियों 5:15; याकूब 4:1-2; आदि), और आज भी प्रभु के लोगों को एक मन होकर साथ रहने से रोकने के उपाय करता रहता है। यह एक दुख भरा कटु सत्य है कि आज हम प्रभु के लोग, एक ही प्रभु, एक ही कलीसिया के सदस्य होते हुए भी, साथ मिलकर रहने और कार्य करने के उपाय नहीं ढूँढ़ते हैं, वरन एक दूसरे से अलग रहने, अलग-अलग रहकर कार्य करने के कारण और तरीके ढूँढ़ते, और निभाते रहते हैं। जबकि होना इसका विपरीत चाहिए (इफिसियों 4:1-6)। इसीलिए हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और हमारी कलीसिया के जीवनों और गवाहियों में इतनी दुर्बलता है; शैतान इतनी सरलता से संसार में हमें प्रभु के लिए निष्क्रिय, निष्फल, और जगत में उपहास का विषय बनाए रखता है। आरंभिक कलीसिया के लोग परस्पर संगति रखने में भी लौलीन रहते थे, इसीलिए परमेश्वर की सामर्थ्य उनमें रहती थी, उनके द्वारा कार्य करती थी, “निदान, हे भाइयो, आनन्दित रहो; सिद्ध बनते जाओ; ढाढ़स रखो; एक ही मन रखो; मेल से रहो, और प्रेम और शान्ति का दाता परमेश्वर तुम्हारे साथ होगा” (2 कुरिन्थियों 13:11)

यदि हम मसीही विश्वासियों को, प्रभु की कलीसिया के सदस्यों को, इन अंत के दिनों में अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ रहना है, और प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होना है, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस प्रेरित में होकर फिलिप्पी की कलीसिया को लिखे गए आग्रह को पूरा करना होगा, “सो यदि मसीह में कुछ शान्ति और प्रेम से ढाढ़स और आत्मा की सहभागिता, और कुछ करुणा और दया है। तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे। जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो” (फिलिप्पियों 2:1-5)। इसलिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु के भय में होकर इस आग्रह के निर्वाह का प्रयास करते रहें; कलीसिया में कभी मतभेद और विभाजनों का नहीं, अपितु प्रेम और मेल-मिलाप का कारण बनें, तब ही आप परमेश्वर की संतान कहलाएंगे (मत्ती 5:9)  

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 14-15     
  • मत्ती 17

मंगलवार, 25 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली – पहला स्तंभ; वचन की शिक्षा

      

प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का पहला स्तंभ, वचन में स्थापित      

पिछले कुछ लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि प्रभु की कलीसिया के साथ प्रभु द्वारा जोड़ दिए जाने वाले उसके जन, एक वास्तविक मसीही विश्वासी के जीवन में, कलीसिया से जुड़ने के साथ ही सात बातें भी जुड़ जाती हैं, उसके जीवन में दिखने लगती हैं। ये सातों बातें प्रेरितों 2:38-42 में दी गई हैं, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में इनका विद्यमान होना कलीसिया के आरंभ से ही देखा जा रहा है। आज भी व्यक्ति के जीवन में इन बातों की सत्यनिष्ठ उपस्थिति यह दिखाती है कि वह व्यक्ति प्रभु का जन है, उसकी कलीसिया के साथ जोड़ दिया गया है। इनमें से पहली तीन को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। प्रेरितों 2:42 में शेष चार बातें दी गई हैं, जिनमें उस प्रथम कलीसिया के सभी लोगलौलीन रहे। ये चारों बातें साथ मिलकर मसीही जीवन और कलीसिया के लिए चार स्तंभ का कार्य करती हैं, जिससे व्यक्ति का मसीही जीवन और कलीसिया स्थिर और दृढ़ बने रह सकें। आज से हम इन चारों बातों को अलग-अलग देखना आरंभ करेंगे। 

प्रेरितों 2:42 में दी गई पहली बात हैप्रेरितों से शिक्षा पाना। जिस समय प्रेरितों 2 अध्याय की घटना घटित हुई, और प्रथम कलीसिया की स्थापना हुई, उस समय परमेश्वर का वचन जो लोगों के पास था, वह हमारी वर्तमान बाइबल कापुराना नियमखंड था; और वह भी फरीसियों, शास्त्रियों, सदूकियों के नियंत्रण में था। ये लोग उस वचन को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़-मरोड़ कर अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया करते थे (मत्ती 15:1-9)। साथ ही उन्होंने उस वचन की बहुत सी गलत व्याख्याएं भी लोगों में फैला रखी थीं; इसीलिए प्रभु यीशु के पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय) में हम बारंबार प्रभु को यह कहते पाते हैं, “तुम सुन चुके हो”, “तुम्हें कहा गया है”, आदि, और फिरपरंतु मैं तुम से कहता हूँ” - अर्थात प्रभु ने वचन की गलत शिक्षाओं को उनके वास्तविक और सही रूप में लोगों के सामने रखा। उस समय के यहूदी समाज के ये धर्म के अगुवे प्रभु यीशु के विरोधी थे, और प्रभु की शिक्षाओं तथा प्रभु यीशु में पापों की क्षमा एवं उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार का विरोध करते थे। इसलिए इन धर्म के अगुवों के विरोध और उनके परमेश्वर के वचन की उनकी गलत समझ एवं जानकारी के कारण यह संभव ही नहीं था कि प्रभु की सही शिक्षाएं जन-सामान्य तक पहुंचाई जातीं। इसीलिए प्रभु ने यह दायित्व अपने चुने हुए लोगों, अपने प्रेरितों को, अपने स्वर्गारोहण के समय सौंपा था (मत्ती 28:18-20)। प्रभु ने अपनी शिक्षाओं का भण्डारी अपने इन प्रेरितों को बनाया था, और उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वे लोगों को प्रभु की शिक्षाएं सिखाएं। जैसे-जैसे मण्डली या कलीसिया बढ़ने लगी, शैतान ने भी वचन की सही शिक्षा को लोगों तक पहुँचने से रोकने के प्रयास किए (प्रेरितों 6:1-7) किन्तु उन प्रेरितों ने प्रार्थना और वचन की सेवकाई के प्रति अपने दायित्व की प्राथमिकता को नहीं छोड़ा (6:4), परिणामस्वरूप, वचन का प्रसार हुआ, शिष्यों की संख्या भी बढ़ी, और यहूदी याजकों का भी एक बड़ा समुदाय प्रभु के शिष्यों के साथ जुड़ गया (6:7) 

जब वचन सभी स्थानों पर फैलने लगा, प्रभु यीशु के अनुयायी बढ़ने लगे, तो प्रभु ने वचन की इस सेवकाई, वचन की शिक्षा उसके लोगों तक पहुँचाने के लिए और लोगों को भी कलीसिया में नियुक्त किया (1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11-12)। पौलुस प्रेरित में होकर कलीसिया की देखभाल करने वालों को वचन की सही शिक्षा देने (2 तिमुथियुस 3:16-17) का दायित्व सौंपा गया, तथा उन्हें इस बात का ध्यान रखने को कहा गया कि वे भविष्य के लिए वचन की सही शिक्षा देने वालों को भी तैयार करें (2 तिमुथियुस 2:1-2)। और तब से लेकर आज तक यह सिलसिला इसी प्रकार चलता चला आ रहा है - प्रभु के समर्पित और आज्ञाकारी सेवक, जिन्हें प्रभु ने वचन की इस सेवकाई के लिए नियुक्त किया है, वे प्रार्थना और वचन के अध्ययन में प्रभु के साथ समय बिताते हैं, प्रभु से सीखते हैं, और फिर उन शिक्षाओं को प्रभु के लोगों तक पहुँचा देते हैं, तथा भावी पीढ़ी में इसी सेवकाई के लिए प्रभु और लोगों को उन से सीखने तथा औरों को सिखाने के लिए उनमें जोड़ता चला जाता है। 

ध्यान कीजिए, प्रभु ने कभी भी, कहीं भी, अपने शिष्यों से यह नहीं कहा कि भले बनो, भलाई करो, भलाई की बातें सिखाओ, और परमेश्वर तुम्हारे साथ रहेगा। प्रभु ने अपने शिष्यों से सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहा, उसकी बातें संसार के लोगों को सिखाने के लिए कहा (प्रेरितों 1:8)। लोगों को परमेश्वर और उसके वचन से भटकाने और उन्हें उनके पापों में फँसाए रखने के लिए शैतान ने ही यह प्रभु के वचन और प्रभु की आज्ञाकारिता मेंलौलीन रहनेके स्थान परभले बनो, भला करोकामंत्रलोगों में डाला है। भले बनना और भला करना अच्छा है, किन्तु इसे परमेश्वर के वचन और उसकी आज्ञाकारिता के स्थान पर रखना अच्छा नहीं, घातक है। जो प्रभु परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी रहेंगे, वे स्वतः ही भले भी हो जाएंगे, और भलाई भी करेंगे। किन्तु भले बनने और भलाई करने से कोई प्रभु के वचन को नहीं सीख अथवा सिखा सकता है। ध्यान कीजिए, संसार का पहला पाप था परमेश्वर के वचन, उसके द्वारा दिए गए निर्देश की अनाज्ञाकारिता करना; और हव्वा से यह पाप करवाने के लिए शैतान ने उसके मन में परमेश्वर के वचन, उसके निर्देशों की सार्वभौमिकता और भलाई के प्रति संदेह उत्पन्न किया। आज भी शैतान इसी कुटिलता का ऐसे ही प्रयोग करता है - परमेश्वर के वचन और आज्ञाकारिता से ध्यान भटका कर, उनके प्रति संदेह उत्पन्न कर के, अपनी बातों में फँसा लेता है, पाप में गिरा देता है।

कनान देश में प्रवेश करने से ठीक पहले परमेश्वर ने यहोशू से कहा, “इतना हो कि तू हियाव बान्धकर और बहुत दृढ़ हो कर जो व्यवस्था मेरे दास मूसा ने तुझे दी है उन सब के अनुसार करने में चौकसी करना; और उस से न तो दाहिने मुड़ना और न बांए, तब जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा काम सफल होगा। व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए, इसी में दिन रात ध्यान दिए रहना, इसलिये कि जो कुछ उस में लिखा है उसके अनुसार करने की तू चौकसी करे; क्योंकि ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा। क्या मैं ने तुझे आज्ञा नहीं दी? हियाव बान्धकर दृढ़ हो जा; भय न खा, और तेरा मन कच्चा न हो; क्योंकि जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे संग रहेगा” (यहोशू 1:7-9)। और कनान देश में इस्राएलियों को बसाने के बाद यहोशू ने अंत में आकर लोगों से कहा, “इसलिये अब यहोवा का भय मानकर उसकी सेवा खराई और सच्चाई से करो; और जिन देवताओं की सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार और मिस्र में करते थे, उन्हें दूर कर के यहोवा की सेवा करो। और यदि यहोवा की सेवा करनी तुम्हें बुरी लगे, तो आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे, चाहे उन देवताओं की जिनकी सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार करते थे, और चाहे एमोरियों के देवताओं की सेवा करो जिनके देश में तुम रहते हो; परन्तु मैं तो अपने घराने समेत यहोवा की सेवा नित करूंगा” (यहोशू 24:14-15)

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो ध्यान रखिए कि आत्मिककनान देश’ - प्रभु की आशीषों, सुरक्षा, और संगति में प्रवेश करने वाले प्रत्येकइस्राएलीअर्थात प्रभु के जन के लिए इसी प्रकार से प्रभु के वचन में स्थिर और दृढ़ बने रहना अनिवार्य है। ऐसा करने से, जैसा यहोवा ने यहोशू को प्रतिज्ञा दी, वैसे ही मसीही विश्वासी के लिए भी, “तब जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा काम सफल होगा”; “ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा”; “जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे संग रहेगा। प्रभु यीशु मसीह ने कहा है कि उसके वचन से व्यक्ति का प्रेम और आज्ञाकारिता ही व्यक्ति के प्रभु से प्रेम का माप है, वास्तविक सूचक है (यूहन्ना 14:21, 23)। प्रभु द्वारा दिए गए इस माप-दण्ड के आधार पर आज आप वचन की शिक्षा के संदर्भ में कहाँ खड़े हैं? अभी समय और अवसर है, जो आवश्यक हैं, अपने जीवन में वे सुधार कर लीजिए, जिससे कल की किसी बड़ी हानि की संभावना से बच सकें।   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 12-13     
  • मत्ती 16