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मनुष्य का स्वास्थ्य - 2
परमेश्वर ने न केवल मनुष्य के शरीर की रचना में उसे स्वस्थ बनाए रखने के लिए प्रावधान प्रदान किए हैं, किन्तु साथ ही अपने वचन बाइबल की पुस्तकों में अनेकों ऐसे उपाय भी लिखवाए हैं, जिनके पालन के द्वारा मनुष्य स्वस्थ बन रह सकता है। परमेश्वर ने ये निर्देश हज़ारों वर्ष पहले मनुष्यों को दे दिए थे; वर्तमान में चिकित्सा-विज्ञान इनके महत्व और उपयोगिता को पहचान रहा है, तथा “बचाव द्वारा स्वास्थ्य” की शिक्षा के रूप में पालन करने के लिए कह रहा है। परमेश्वर द्वारा बाइबल में दिए गए स्वास्थ्य संबंधी कुछ निर्देश हैं:
परमेश्वर ने लगभग 3500 वर्ष पहले, अपने लोगों से कहा था कि वे शौच के लिए अपनी छावनी के क्षेत्र से बाहर जाएँ, और अपने साथ मल को ढांपने के लिए उपकरण भी ले जाएं “छावनी के बाहर तेरे दिशा फिरने का एक स्थान हुआ करे, और वहीं दिशा फिरने को जाया करना; और तेरे पास के हथियारों में एक खनती भी रहे; और जब तू दिशा फिरने को बैठे, तब उस से खोदकर अपने मल को ढांप देना” (व्यवस्थाविवरण 23:12-13)। हम आज जानते हैं कि मल के प्रदूषित पानी या भोजन सामग्री के खाने से, या उससे दूषित मिट्टी के संपर्क में रहने से कितने ही रोग होते हैं। रोगों की रोक-थाम की योजनाओं में पानी और मिट्टी को मल से दूषित होने से रोके रखने के उपाय सबसे प्राथमिक और महत्वपूर्ण होते हैं। कहा जाता है कि प्रथम विश्व-युद्ध होने के समय तक उतने सैनिक युद्ध से नहीं मरे थे, जितने छावनियों में फैलने वाली बीमारियों से मरे, क्योंकि उन्होंने स्वच्छता के इस सिद्धांत का पालन नहीं किया था।
परमेश्वर ने अपने वचन में बताया है कि यौन-संबंध पति-पत्नी के मध्य ही उचित और स्वीकार्य हैं। व्यभिचार, अनेकों के साथ यौन-संबंध रखना, समलैंगिक संबंध, आदि सभी शरीर में रोगों और अस्वस्थता उत्पन्न करते हैं (रोमियों 1:27; 1 कुरिन्थियों 6:18)।
परमेश्वर ने लगभग 3000 वर्ष पहले अपने लोगों को शुद्ध और अशुद्ध जीव-जन्तुओं की सूची दी थी, अशुद्ध पशुओं को भोजन के लिए निषेध किया था (लैव्यव्यवस्था 11; तथा व्यवस्थाविवरण 14 अध्याय)। जिन पशुओं को भोजन के लिए निषिद्ध किया गया था उनमें सूअर सहित कुछ और जानवर “फिर सूअर, जो चिरे खुर का होता है परन्तु पागुर नहीं करता, इस कारण वह तुम्हारे लिये अशुद्ध है। तुम न तो इनका मांस खाना, और न इनकी लोथ छूना” (व्यवस्थाविवरण 14:8), और जलाशयों के तले में रहने वाले जल-जंतु, जिनके चोंयेटे और पंख (scales & fins) नहीं होते, सम्मिलित हैं: “फिर जितने जल जन्तु हैं उन में से तुम इन्हें खा सकते हों, अर्थात समुद्र वा नदियों के जल जन्तुओं में से जितनों के पंख और चोंयेटे होते हैं उन्हें खा सकते हो। और जलचरी प्राणियों में से जितने जीवधारी बिना पंख और चोंयेटे के समुद्र वा नदियों में रहते हैं वे सब तुम्हारे लिये घृणित हैं। वे तुम्हारे लिये घृणित ठहरें; तुम उनके मांस में से कुछ न खाना, और उनकी लोथों को अशुद्ध जानना। जल में जिस किसी जन्तु के पंख और चोंयेटे नहीं होते वह तुम्हारे लिये अशुद्ध है” (लैव्यव्यवस्था 11:9-12)। ये जीव-जंतु बहुधा तले पर पड़ी गंदगी खाने वाले होते हैं, जिससे मनुष्यों में बीमारियों के प्रवेश करने का खतरा रहता है। आज कई बीमारियाँ जो पहले जंतुओं में ही होती थीं मनुष्यों में घातक बनकर दिखने लगी हैं, क्योंकि परमेश्वर द्वारा दिए गए शुद्ध-अशुद्ध के नियमों का पालन नहीं किया गया।
परमेश्वर ने निर्देश दिए थे कि पीने के लिए स्वच्छ जल का ही प्रयोग करना है, और किसी भी मृतक जन्तु से दूषित बर्तन के भोजन अथवा उसके जल को प्रयोग नहीं करना है “और यदि मिट्टी का कोई पात्र हो जिस में इन जन्तुओं में से कोई पड़े, तो उस पात्र में जो कुछ हो वह अशुद्ध ठहरे, और पात्र को तुम तोड़ डालना। उस में जो खाने के योग्य भोजन हो, जिस में पानी का छुआव हों वह सब अशुद्ध ठहरे; फिर यदि ऐसे पात्र में पीने के लिये कुछ हो तो वह भी अशुद्ध ठहरे। और यदि इनकी लोथ में का कुछ तंदूर वा चूल्हे पर पड़े तो वह भी अशुद्ध ठहरे, और तोड़ डाला जाए; क्योंकि वह अशुद्ध हो जाएगा, वह तुम्हारे लिये भी अशुद्ध ठहरे। परन्तु सोता वा तालाब जिस में जल इकट्ठा हो वह तो शुद्ध ही रहे; परन्तु जो कोई इनकी लोथ को छूए वह अशुद्ध ठहरे” (लैव्यव्यवस्था 11:33-36)। वर्तमान में चिकित्सा विज्ञान को मनुष्यों में रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं की जानकारी होने के बाद परमेश्वर द्वारा 3000 वर्ष पहले कहे गई इस बात का महत्व समझ में आता है।
परमेश्वर ने रोगों के इलाज के लिए वनस्पति में भी प्रावधान रखे, और मनुष्यों को उसके विषय बताया (यशायाह 38:21; यहेजकेल 47:12; प्रकाशितवाक्य 22:2): “यशायाह ने कहा था, अंजीरों की एक टिकिया बना कर हिजकिय्याह के फोड़े पर बान्धी जाए, तब वह बचेगा” (यशायाह 38:21); “और नदी के दोनों तीरों पर भांति भांति के खाने योग्य फलदाई वृक्ष उपजेंगे, जिनके पत्ते न मुरझाएंगे और उनका फलना भी कभी बन्द न होगा, क्योंकि नदी का जल पवित्र स्थान से निकला है। उन में महीने महीने, नये नये फल लगेंगे। उनके फल तो खाने के, ओर पत्ते औषधि के काम आएंगे” (यहेजकेल 47:12)। इसी प्रकार से जैतून का तेल और दाखरस भी घावों के इलाज में प्रयोग किया जाता था (लूका 10:34)। जैतून का तेल त्वचा को स्वस्थ रखता है, और दाखरस में विद्यमान इथाइल अल्कोहल कीटाणुओं को मारता है।
परमेश्वर ने 3000 वर्ष पूर्व राजा सुलैमान द्वारा लिखे नीतिवचनों में लिखवा दिया था कि “मन का आनन्द अच्छी औषधि है, परन्तु मन के टूटने से हड्डियां सूख जाती हैं” (नीतिवचन 17:22); तथा “मन आनन्दित होने से मुख पर भी प्रसन्नता छा जाती है, परन्तु मन के दु:ख से आत्मा निराश होती है” (नीतिवचन 15:13)। परमेश्वर के वचन में 3000 वर्ष पहले लिखे गए इस तथ्य को चिकित्सा विज्ञान आज समझ और मान रहा है; वर्तमान समय की लोगों को सर्वाधिक ग्रसित करने वाली घातक बीमारियाँ, जैसे बढ़ा हुआ ब्लडप्रेशर, हृदय रोग, डायबटीस, निराशा या डिप्रेशन, आदि अशांत और अस्वस्थ मन के कारण ही शरीर पर प्रभाव डालते हैं; और इनके इलाज के लिए मन के प्रसन्न और संतुष्ट होने से बहुत सहायता मिलती है।
जिस परमेश्वर ने हमारे नश्वर शरीरों को, जो एक न एक दिन मर ही जाएंगे, स्वस्थ रखने के लिए इतने प्रावधान किए, निर्देश दिए, उसी ने हमारी कभी न मरने वाली आत्मा को सबसे विनाशकारी और अनन्तकाल के लिए परेशानी उत्पन्न करने वाले पाप के रोग से भी बचाव और स्वस्थ रहने का उपाय दिया है। परमेश्वर ने कहा, “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9)। वह हमसे केवल इतना चाहता है कि हम अपने पाप मान लें और उन पापों से उसके सम्मुख सच्चे मन से पश्चाताप कर लें। उसके आगे हमें उन पापों से शुद्ध करने और हमें परमेश्वर की दृष्टि और मापदंड के अनुसार धर्मी बनाने की ज़िम्मेदारी और कार्य उसका है। स्वेच्छा और सच्चे मन से की गई केवल एक प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने मन, ध्यान, विचार, और व्यवहार में पाप किया है, और आपने मेरे पापों के निवारण के लिए क्रूस पर अपने आप को बलिदान किया और फिर जीवित हो गए। कृपया मेरे पाप क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना आज्ञाकारी, समर्पित जन बना लें। मेरे जीवन को अपनी इच्छानुसार परिवर्तित कर दें” - आपको पाप के रोग से मुक्त और स्वस्थ कर के परमेश्वर के राज्य में अनन्तकाल के लिए प्रवेश प्रदान कर देगी। चाहे अविश्वसनीय लगे, किन्तु करके देखिए - सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी, मन से, शांत होकर अपने ही अंदर यह प्रार्थना करने से आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा, कोई हानि नहीं होगी; यदि कुछ हुआ तो आपका भला ही होगा - पाप से मुक्ति, उद्धार और आशीषों से भरपूर अनन्त जीवन मिलेगा; फिर क्यों डरना? विश्वास के साथ कदम बढ़ाइए, भला ही मिलेगा, कोई हानि नहीं।
Bible and Man’s Health - 2
God has not only made provisions in the creation of man's body to keep him healthy, but has also written many such measures in the books of his Word, the Bible, by which man can remain healthy, if he follows them. God gave these instructions to mankind thousands of years ago; but medical science is recognizing their importance and utility now, and is asking people to do these things as “preventive medicine”. Some of these health instructions given by God in the Bible are:
About 3500 years ago, God told His people to go out of the area of their camp to defecate, and also to carry an implement to cover the excretion. “Also you shall have a place outside the camp, where you may go out; and you shall have an implement among your equipment, and when you sit down outside, you shall dig with it and turn and cover your refuse" (Deuteronomy 23:12-13). We know today that many diseases are caused by consuming fecal contaminated water or food material, or by coming in contact with soil contaminated with feces and sewage. Preventing contamination of water and soil with feces and sewage is the primary and most important part of disease prevention plans. It is said that by the time of the First World War, not as many soldiers had died from war as from diseases spread in the cantonments, because they did not follow this principle of cleanliness.
God has told in His Word that sexual relations are proper and acceptable only between husband and wife. Adultery, having sex with multiple partners, homosexual relations, etc. all cause diseases and problems in the body (Romans 1:27; 1 Corinthians 6:18).
God gave his people a list of clean and unclean animals, and had forbidden them to eat unclean animals (Leviticus 11; and Deuteronomy 14), about 3000 years ago. Among the animals that were forbidden for food was swine, and some other animals, "Also the swine is unclean for you, because it has cloven hooves, yet does not chew the cud; you shall not eat their flesh or touch their dead carcasses” (Deuteronomy 14:8), and the water animals living at the bottom of water bodies, the ‘bottom-feeders’ and those without scales and fins: “These you may eat of all that are in the water: whatever in the water has fins and scales, whether in the seas or in the rivers--that you may eat. But all in the seas or in the rivers that do not have fins and scales, all that move in the water or any living thing which is in the water, they are an abomination to you. They shall be an abomination to you; you shall not eat their flesh, but you shall regard their carcasses as an abomination. Whatever in the water does not have fins or scales--that shall be an abomination to you” (Leviticus 11:9-12). These animals are often eaters of unhealthy materials lying on the bottom, due to which there is a risk of diseases entering humans. Today many diseases, which were earlier present only in animals, have started appearing in humans as diseases that are either fatal, or are difficult to control or treat, because the rules of edible animals, or their being clean and unclean given by God are not followed.
The Lord has instructed that only clean water should be used for drinking, and that food or water from a vessel contaminated with any dead animal should not be used "Any earthen vessel into which any of them falls you shall break; and whatever is in it shall be unclean: in such a vessel, any edible food upon which water falls becomes unclean, and any drink that may be drunk from it becomes unclean. And everything on which a part of any such carcass falls shall be unclean; whether it is an oven or cooking stove, it shall be broken down; for they are unclean, and shall be unclean to you. Nevertheless a spring or a cistern, in which there is plenty of water, shall be clean, but whatever touches any such carcass becomes unclean” (Leviticus 11:33-36). At present, medical science has understood the importance of this, after knowing about the germs that cause disease in humans, which was said by God 3000 years ago.
God also made provisions in plants for the treatment of diseases, and told men about it (Isaiah 38:21; Ezekiel 47:12; Revelation 22:2): “Isaiah said, Hezekiah had made a cake of figs and is tied to the boil, then it will survive” (Isaiah 38:21); “Along the bank of the river, on this side and that, will grow all kinds of trees used for food; their leaves will not wither, and their fruit will not fail. They will bear fruit every month, because their water flows from the sanctuary. Their fruit will be for food, and their leaves for medicine” (Ezekiel 47:12). Similarly olive oil and wine were also used to treat wounds (Luke 10:34). Olive oil keeps the skin healthy, and the ethyl alcohol present in the wine kills germs.
God had it written in Proverbs 3000 years ago by King Solomon that "A merry heart does good, like medicine, But a broken spirit dries the bones" (Proverbs 17:22); And "A merry heart makes a cheerful countenance, But by sorrow of the heart the spirit is broken" (Proverbs 15:13). Medical science today is understanding and accepting this fact, written in the Word of God 3000 years ago; The most common and troublesome diseases that afflict the people of the present day, such as high blood pressure, heart disease, diabetes, despair or depression, etc., affect the body only due to a disturbed and unhealthy mind; And for their treatment, being happy and satisfied in the mind is essential.
The God who has made so many provisions and instructions for the health and safekeeping of our mortal bodies, which eventually will die one day or the other, has also made provision for the healing and safe-keeping of our immortal soul from the most devastating and eternally troublesome disease of sin. God said, “If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness” (1 John 1:9). All He wants is that we voluntarily confess our sins and repent of them with a sincere heart before Him. After we do this, the responsibility and work of cleansing us from those sins and making us righteous as per God's standards and in God’s eyes, is God’s. Through only one prayer, offered voluntarily and with a sincere heart, “Lord Jesus, I confess that I have sinned in mind, heart, thought, and behavior, and You have sacrificed Yourselves on the Cross for the remission of my sins, died for them and then became alive for my salvation. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your obedient, committed follower. Change my life into what you wish it to be'' - you can be made free from the disease of sin and healed. And you will be granted entry into the kingdom of God for eternity. Though it may seem unbelievable, but try it with a calm mind, there is no harm in trying it - praying this prayer even quietly, within yourself, but being sincere and committed about it, with a willingness to be obedient to the Lord, will be a life-changing experience for you; you will not come to any harm; anything that happens, it will only be for your good - for your freedom from sin, for salvation and eternal life full of blessings; Then why be afraid? Do it with faith, you will come only to something good, not any harm.