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गुरुवार, 29 सितंबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - उद्देश्य / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - Purpose


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कलीसिया में होकर पाप से पूर्व की स्थिति की बहाली

 

पिछले लेखों में हमने मत्ती 16:18 में प्रभु के कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...” से देखा है कि कलीसिया कोई स्थान अथवा भवन नहीं है, वरन उन लोगों का समूह है जो प्रभु यीशु को जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, और इस आधार पर, उन्होंने प्रभु यीशु से पापों की क्षमा और उद्धार प्राप्त करके अपने आप को पूर्णतः प्रभु को समर्पित किया है। प्रभु यीशु कहे गए इस वाक्यांश से हमने प्रभु की इस कलीसिया के विषय तीन बातें देखीं - पहली प्रभु यीशु ही अपने लोगों को एकत्रित कर रहा है, और उसके लोगों में किसी अन्य आधार पर कोई भी व्यक्ति सम्मिलित नहीं रह सकता है, प्रभु उन्हें पृथक कर देता है, या कर देगा। दूसरी बात उसके लोगों की देखभाल और रख-रखाव के लिए प्रभु की इस कलीसिया का संपूर्ण स्वामित्व प्रभु यीशु ही के पास है; प्रभु ने कुछ लोगों को कलीसिया की कुछ ज़िम्मेदारियां अवश्य दी हैं, किन्तु स्वामी वह स्वयं ही है, और अपने लोगों की जरा से भी हानि या उनके प्रति कोई भी लापरवाही उसे स्वीकार नहीं है। और तीसरी बात है कि प्रभु की कलीसिया अभी निर्माणाधीन है, प्रभु यीशु ही उसे बना रहा है; उसकी कलीसिया में कौन कहाँ पर किस प्रकार से उपयोग होगा, यह केवल प्रभु यीशु ही निर्धारित एवं कार्यान्वित करता है। अर्थात प्रभु यीशु की कलीसिया से संबंधित हर बात पूर्णतः प्रभु ही के नियंत्रण में है, किसी भी मनुष्य या मानवीय संस्था का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है, चाहे इस संसार में उस मनुष्य अथवा संस्था का कोई भी स्थान या सम्मान क्यों न हो।

 

प्रभु यीशु ने अपने स्वर्गारोहण से पहले अपने शिष्यों को जो महान आज्ञा दी (मत्ती 28:18-20; मरकुस 16:15-19; लूका 24:47; प्रेरितों 1:8), वह सारे संसार के सभी लोगों, सभी जातियों में जा कर पापों से पश्चाताप करने और यीशु को प्रभु स्वीकार करने के द्वारा प्रभु यीशु में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार प्रचार करने के लिए थी।  अर्थात, प्रभु का दृष्टिकोण केवल किसी एक स्थान विशेष के लोगों के लिए नहीं है, वरन सारे संसार के सभी लोगों के लिए है, इसलिए प्रभु यीशु की कलीसिया किसी स्थान अथवा जाति विशेष तक ही सीमित नहीं है, वरन विश्वव्यापी है। प्रभु संसार के सभी स्थानों और लोगों में से अपने विश्वासियों को एकत्रित करके अपनी विश्वव्यापी कलीसिया बनाने में लगा हुआ है। हम मसीही विश्वासी सुसमाचार प्रचार के द्वारा प्रभु के इस कार्य में उसके सहायक हैं - सुसमाचार प्रचार के द्वारा लोगों को प्रभु के पास लाते हैं, प्रभु से जोड़ते हैं; और जो सच्चे मन तथा पूर्ण समर्पण से प्रभु के साथ जुड़ता है, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है और अपना जीवन उसे समर्पित करता है, प्रभु उसे अपनी कलीसिया में उसके लिए उपयुक्त और उचित स्थान निर्धारित करके, उसे उस स्थान और दायित्व के निर्वाह के लिए तैयार करता है, प्रयोग करता है। किन्तु साथ ही प्रभु यीशु प्रत्येक व्यक्ति के पापों से पश्चाताप और उसके प्रति उस व्यक्ति के समर्पण की वास्तविक मनोदशा भी भली-भांति जानता है; कोई उसका मूर्ख नहीं बना सकता है, उसे धोखा नहीं दे सकता है। इसलिए उसकी कलीसिया में वही बना रह सकता है, और उपयोगी हो सकता है जो प्रभु के मानकों पर सही होता है; अन्य सभी लोग देर-सवेर, अथवा जगत के अंत के समय के पृथक किए जाने में कलीसिया से बाहर निकाल कर अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे। इसलिए हम सभी के लिए अभी यह अवसर है कि कलीसिया में अपने होने के विषय अपनी सही जाँच-परख कर लें, और यदि कोई सुधार लाना है तो उसे अभी समय रहते कर लें, क्योंकि किसके पास समय और अवसर कब तक है कोई नहीं जानता है; इस निर्णय को टालना बहुत हानिकारक, अनन्तकाल के लिए पीड़ादायक हो सकता है (इब्रानियों 3:7-19)।

 

इस कलीसिया को बनाने का, हम मनुष्यों को अपने साथ इतनी बारीकी से जाँच-परख कर, जोड़ने के पीछे, प्रभु यीशु का क्या उद्देश्य है, क्या उपक्रम है? इसे समझने के लिए हमें सृष्टि के आरंभ के समय में, अदन की वाटिका में घटित हुई पहले पाप की घटना पर जाना पड़ेगा, जब शैतान ने हव्वा को बहका कर आदम और हव्वा से परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवाई, और पाप को सृष्टि में प्रवेश मिल गया, पाप के दुष्प्रभाव ने सारी सृष्टि को बिगाड़ दिया (रोमियों 8:19-22)। इस दुखद घटना से पूर्व, मनुष्य निष्पाप दशा में परमेश्वर के साथ संगति और सहभागिता रखता था, जो पाप के कारण टूट गई।


मनुष्य के साथ इसी संगति और सहभागिता को पुनः स्थापित करने, शैतान द्वारा मनुष्यों में बोए गए पाप के ‘बीज’ को निकाल बाहर करने, और मनुष्य को उसका वह आदर और स्थान बहाल करने के लिए जो परमेश्वर ने उसकी रचना करने के समय उसे दिया था (उत्पत्ति 1:28), प्रभु परमेश्वर अपने लोगों अपने साथ एकत्रित कर रहा है। इसीलिए वह इतनी बारीकी से देखभाल कर, स्वयं ही इस पूरी प्रक्रिया को पूरा कर रहा है, जिससे शैतान का कोई अंश भी उसमें न रह जाए। उसके इस उद्देश्य और कार्य-विधि को हम बाइबल के नए नियम में “कलीसिया” के लिए दिए गए विभिन्न रूपकों (metaphors) के द्वारा समझ सकते हैं; जिन्हें हम अगले लेख से देखना आरंभ करेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो एक बार फिर आप से आग्रह है कि अभी समय रहते अपनी वास्तविक स्थिति को जाँच-समझ लें। किसी भी परिवार विशेष में जन्म लेने, किसी भी डिनॉमिनेशन के नियम, रीतियाँ, प्रथाएं, और त्यौहार-व्यवहार आदि का निर्वाह करने, अपने परिवार के लोगों के कितनी भी पीढ़ियों से मसीही या ईसाई होने या अभी वर्तमान में भी किसी मसीही सेवकाई में लगे होने, आदि बातों के द्वारा कोई भी प्रभु की कलीसिया का अंग नहीं बनता है। यह केवल व्यक्तिगत रीति से, समझते-बूझते हुए, अपने पापों से पश्चाताप करने और यीशु को प्रभु स्वीकार करके अपना जीवन उसे समर्पित कर देने, और फिर केवल उसी की आज्ञाकारिता में जीवन जीने से होता है (प्रेरितों 17:30-31; रोमियों 10:9-10)। यदि जरा सा भी संदेह है, तो आपसे विनम्र निवेदन है कि अभी इस कार्य को कर लें, कदापि कोई आनाकानी न करें, इस निर्णय को टालें नहीं।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायाह 7-8 

  • इफिसियों 2


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English Translation


Restoration of the pre-sin Condition


In the previous articles, we have been looking at important things from the Lord’s statement, “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18. We have seen that, Biblically, the Church is not a building or a place of worship; it is a group of people called-out and gathered by the Lord Jesus Christ, those that accept Him as the one and only God appointed savior of the world, and on this basis they have asked for forgiveness of their sins from the Lord Jesus, and have surrendered their lives to Him, to live in His obedience. Related to this sentence, we had seen three things about the Church: First, it is the Lord Jesus Himself who is gathering together His people; none can become ‘His people’ and join His Church on any other basis or criteria - Lord separates them out now, or will do it eventually.  Second, the Lord Himself looks after and takes care of His people in the Church; He alone has the full ownership and authority of His Church. Although the Lord has given some responsibilities for the managing and functioning of the Church to some people chosen by Him for this, but only He has the ownership, and will take an account from those He has appointed to look after the Church. The Lord does not tolerate any carelessness or harm to His Church from anyone. Thirdly, the Church of the Lord Jesus is still “Under Construction”; the Lord Jesus Himself is building it. He alone determines who will do what, where, and when in His Church, no man, whoever he may be, has any say in this. So, everything related to the Church of the Lord Jesus is under the control of the Lord Himself; no person or organization has any say or interference in it, whatever be the status, or respect, or ranking of that person or institution.


In the Great Commission that the Lord gave to His disciples, before His ascension to heaven (Matthew 28:18-20; Mark 16:15-19; Luke 24:47; Acts 1:8), was for them to go into the world and preach the gospel to all people, to tell them about repentance of their sins and receiving forgiveness of sins by accepting Jesus as Lord and committing their lives to Him. In other words, the Lord’s perspective was not just for a particular place or people, but for everyone in the world. Therefore, the Church of the Lord too is not confined to any particular place or people, but is universal. The Lord Jesus is engaged in gathering His people from all over the world to build His Universal Church. The truly Born-Again Christian Believers are the Lord’s co-workers, His helpers in this, through preaching the gospel. Through the preaching of the gospel, we bring people to the Lord, join them to the Lord, and those who join with the Lord with a true heart and full submission, those who accept the Lord Jesus as their savior and Lord, the Lord then assigns that person a place in His Church, and starts preparing him to take that place and work for Him accordingly. But along with this, the Lord also fully well knows the actual condition of the repentance, faith, and submission to Him of every person, none can fool Him or bluff their way through. Therefore, in His Church, only those will remain and be useful who satisfy the standards and criteria of the Lord; else, sooner or later, or eventually at the time of separation that will be done at the end of world, everyone not truly Born-Again, will be cast out of the Church into eternal destruction. Therefore, for all of us, this is a time and opportunity to examine ourselves about our being a part of the Lord’s Church, and carry out whatever rectifications that are required to ensure we actually are a part of His Church. Ignoring or postponing this decision can have disastrous eternal consequences (Hebrews 3:7-19).


What is the purpose of the Lord in building His Church, in so minutely examining us before joining us to His Church? To understand this, we need to go back to the first sin committed in the Garden of Eden, when Adam and Eve, beguiled by Satan, disobeyed God, which opened the way for sin to enter into creation and its harmful effects spread into and spoilt the whole of creation (Romans 8:19-22). Before this sad and painful event, man had an open, unbroken fellowship with God, which was broken by sin. Since then, God is engaged in the process of restoring back this fellowship with man, to remove the seeds of sin sown by Satan in the lives of men, and to give back to man the place and position He had given to him at the time of his creation (Genesis 1:28), and gather man to be with Him in that fully restored status. That is why He is so minutely managing and carrying out this whole process, all by Himself, so that nothing of Satan has any chance of remaining behind to once again ruin things. We can better understand this purpose and the Lord’s way of working, through considering the various figures of speech used in the New Testament for the Church of Lord Jesus; and we will start doing this from the next article.


If you are a Christian Believer, then once again it is our humble but ardent request that you earnestly examine and ensure your actual status with the Lord, now while you have the time and opportunity. By being born in a particular family, or by following and fulfilling the rules, regulations, rites, rituals, feasts, festivals, and ceremonies of any sect or denomination, or because of any number of one’s previous generations being ‘Christians’ in the past does not make anyone a person of the Lord and a member of His Church. This only happens by a person’s taking a willing, conscious decision to repent of one’s sins, ask Him for forgiveness of sins, accept the Lord Jesus as savior and Lord, fully surrender and commit one’s life to Him, to live in obedience to Him and His Word (Acts 17:30-31; Romans 10:9-10). If you have any doubts whatsoever, then please get them clarified and settled now; please do not ignore, delay, or postpone doing so.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 7-8 

  • Ephesians 2