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शनिवार, 16 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 21 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 7

परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 2

 

    पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान का प्रयास रहता है कि मनुष्य के अन्दर किसी न किसी रीति से परमेश्वर तथा उसके वचन के प्रति सन्देह उत्पन्न करे, परमेश्वर के विमुख हो जाए, और परमेश्वर के वचन पर भरोसा नहीं रखे। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने कई युक्तियाँ बना रखी हैं, और व्यक्ति के अनुसार उपयुक्त युक्ति के उपयोग के द्वारा उसे बहका कर गिराने का प्रयास करता है। परमेश्वर का वचन बाइबल ही शैतान के द्वारा उसकी इन युक्तियों के सफल प्रयोग करने के मार्ग में सबसे कारगर और प्रभावी बाधा है। इसीलिए शैतान की एक मुख्य युक्ति है मनुष्य के मन में परमेश्वर और उसके वचन के प्रति सन्देह उत्पन्न करना। हम इस युक्ति का उपयोग आदम और हव्वा को पाप में गिराने और पाप का सृष्टि में, मानवजाति में, प्रवेश करवाने के लिए अदन की वाटिका में उपयोग होते देखते हैं (उत्पत्ति 3:1-7)। इस खण्ड में हव्वा के साथ हुई शैतान की बातचीत में ध्यान दीजिए कि उसने हव्वा से उस वर्जित फल को खाने के लिए सीधे और स्पष्ट रीति से नहीं कहा। बल्कि, पहले उसने हव्वा को यह अभिप्राय दिया कि परमेश्वर ने उन से सच नहीं बोला है (पद 3), फिर शैतान हव्वा को यह एहसास दिलवाने का प्रयास करता है कि उसे और आदम को किसी ऐसी बात से वंचित रखा गया है जो उनके लिए बहुत लाभकारी हो सकती है; और फिर वह हव्वा को उस बड़े लाभ के बारे में बताता है, जिसे तथाकथित रीति से परमेश्वर ने उन्हें नहीं दिया है – कि वे भी परमेश्वर के तुल्य बन सकते हैं (पद 5)। इन सारी बातों के द्वारा वह बड़े चुपके से हव्वा को उकसाता है कि केवल परमेश्वर के वचन पर ही भरोसा करते रहने के स्थान पर, वह अपनी बुद्धि और समझ का उपयोग करे। हव्वा उसकी चालाकी में फँस जाती है, और बजाए इसके कि उससे कही जा रही बात की पहले आदम के साथ चर्चा करे, या परमेश्वर से उसे समझे, उसकी पुष्टि करे, अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार वह तुरन्त ही जो उसे सही लगता है उसे करने का निर्णय ले लेती है, स्वयं भी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करती है और आदम से भी करवाती है; और हम आज तक उसके द्वारा पहले पुष्टि करने की बजाए, जल्दबाजी में लिए गए परमेश्वर के वचन की अनाज्ञाकारिता करने के इस निर्णय के परिणाम भोग रहे हैं।


    उस समय से लेकर आज तक, मसीही विश्वासियों को परमेश्वर की निकटता से गिरा देने के लिए, शैतान इस युक्ति का बारंबार सफल उपयोग करता चला आ रहा है। इस युक्ति का क्रम बहुत सीधा सा और प्रकट है, और वास्तव में इस युक्ति के पहले कदम से ही मसीही विश्वासी के मन में चेतावनी की घंटियाँ बजनी आरम्भ हो जानी चाहिएँ, और उसे उस बात से पीछे हट जाना चाहिए, इससे पहले कि वह हव्वा के समान गलती में फँसा लिया जाए। ध्यान कीजिए, उत्पत्ति 3:1 में शैतान ने अपने आप को हव्वा के सामने सर्प में होकर प्रस्तुत किया, जिसे यहाँ पर सभी पशुओं में से सबसे धूर्त कहा गया है। जब हव्वा और सर्प/शैतान के मध्य यह वार्तालाप हुआ, उस समय तक पाप ने सृष्टि में प्रवेश नहीं किया था; इसलिए, उस सन्दर्भ में, धूर्त होने के वे नकारात्मक अभिप्राय नहीं लिए जा सकते हैं, जिन्हें हम आज समझते और मानते हैं। इसलिए मूल इब्रानी भाषा के शब्द के अनुसार, धूर्त का तात्पर्य था जो अपनी बुद्धि से या अपनी समझ के अनुसार कार्य करता है। और शैतान ने ठीक इसी तरीके से, बुद्धि के अनुसार, उसके मन को भरमाने के द्वारा, हव्वा को बहकाया।


    इन बातों को ध्यान में रखते हुए, प्रकट है कि शैतान की इस युक्ति का क्रम है, कोई अविश्वासी किसी मसीही विश्वासी को परमेश्वर तथा उसके वचन के बारे में किसी अहानिकारक, सीधी से प्रतीत होने वाली बात में लगा लेता है, उलझा लेता है; फिर तर्क और बुद्धि के अनुसार दलीलों के द्वारा वह विश्वासी के मन में परमेश्वर के वचन के बारे में सन्देह उत्पन्न करता है; फिर उसे किसी तरह से यह एहसास करवाने का प्रयास करता है कि उसे किसी बात से रोक कर, किसी ऐसे लाभ से जो उसे मिलना चाहिए था, वंचित रखा जा रहा है। और चुपके से उस विश्वासी में बजाए परमेश्वर के वचन पर विश्वास करते रहने के, अपनी बुद्धि और समझ का प्रयोग करने के लिए उकसाया जाता है। अब फन्दा बिलकुल तैयार है, बस विश्वासी को उसमें फँसने के लिए इतना ही करना है कि अपने आप को परमेश्वर की कही बात से अधिक बुद्धिमान समझ ले। जैसे ही विश्वासी परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता करने की बजाए अपनी सोच-समझ पर भरोसा रख कर कार्य करता है, वह शैतान के फन्दे में फँस जाता है और पाप में गिर जाता है।


    अगले लेख में हम देखेंगे कि परमेश्वर के सच्चे विश्वासियों, उसके प्रति समर्पित और उसके भक्त लोगों के द्वारा भी, अपनी या मानवीय समझ-बूझ और ज्ञान-बुद्धि के द्वारा परमेश्वर के वचन की व्याख्या, प्रचार, शिक्षा, और उपयोग करना, और वह करना तथा कहना, जो कि धार्मिक भी प्रतीत होता है, या ऐसा लगता है कि परमेश्वर की सेवकाई के लिए किया जा रहा है, परमेश्वर की भक्ति और उसके आदर के लिए उचित एवं उपयुक्त है, यद्यपि अनजाने में किन्तु वास्तव में वह भी कितनी गंभीर गलतियों वाला हो सकता है, और परमेश्वर को बहुत अप्रसन्न कर सकता है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Improper Behavior Towards God’s Word - 2

 

    In the previous article we had seen that Satan somehow wants to make man doubt God and His Word, turn away from God and not believe in God’s Word. To accomplish this, he has devised various strategies, and uses the appropriate one against a person to beguile him. God’s Word, the Bible is the most potent and effective obstacle in his successfully implementing his strategies. Hence, one of his main strategies is to create doubts in man’s heart about God and His Word. We see this strategy being used in the Garden of Eden, to make Adam and Eve fall, and let sin come into the creation, into mankind (Genesis 3:1-7). Notice in Satan’s conversation with Eve in this section, he is not directly telling her to eat the forbidden fruit. Instead, he first implies that God has not told them the truth (vs. 3), then makes her feel that she and Adam have been denied something that would be beneficial for them; and then tells her about that great benefit that he alleges has been kept from them by God – that even they will be like God (vs. 5). Through all this he subtly provokes Eve to take recourse to her intellect and reasoning, instead of relying upon God’s Word spoken to them. Eve, falls for his ploy, and instead of waiting to discuss it with Adam or confirm from God what was said to her, on the basis of her thinking and what seems right to her, she immediately decides on what seems to be the correct thing to do, disobeys God’s Word, and makes Adam do so too; and we are still reaping the consequences of that one hasty action committed as disobedience of God’s Word, instead of first confirming and only then acting upon it.


    Since then, Satan has been very successfully using this strategy time and again to make Christian Believers fall away from God. The steps of the strategy are very evident, very straightforward, and actually speaking the very first step of this strategy should get alarm bells ringing and make a Christian Believer wary and back away, before he gets sucked into committing the same error as Eve did. Note, in Genesis 3:1, Satan presents himself to Eve through the serpent, who is said to be the most cunning or crafty of all creatures. When this conversation between Eve and the serpent/Satan happened, sin had not yet entered the creation; therefore, being crafty or cunning cannot be interpreted with the negative connotations that we interpret it as now. Hence according to the word used in the original Hebrew language, being cunning or crafty would simply mean being very thinking or going about things very intellectually. And that is how, intellectually or by appealing to the mind, Satan beguiled Eve.


    With this in mind, the steps of this satanic strategy are, an unbeliever draws the Believer into a seemingly innocuous conversation about God and His Word; then using logic and intellectual arguments creates doubts in the Believer’s mind about things given in God’s Word; makes him feel as if he is being kept back from something or being denied some benefit which he is entitled to; and subtly induces him to use his own mind to think and act, instead of only believing God’s Word. Now the trap is set, all the Believer has to do to fall into the trap is to start using his intellect over and above God’s Word, consider himself to be wiser than what God has said. As soon as the Believer trusts his own intellect over and above obedience to God’s Word and acts accordingly, he falls into Satan’s trap and sins.


    In the next article, we will see how using human, or, our own intellect and reasoning in interpreting, preaching, teaching, and utilizing God’s Word, seemingly in a godly manner, or apparently to be of service for God, or is something that is appropriate and good for honoring and revering God, makes even Godly people, inadvertently but actually commit grave errors, that strongly displease God.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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