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रविवार, 6 नवंबर 2022

भ्रामक शिक्षाओं के विषय-वस्तु / Themes of Deceptive Teachings


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भ्रामक शिक्षाओं के विषय-वस्तु - प्रभु यीशु, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार


पिछले लेखों में हमने इफिसियों 4:14 में दी गई बातों में से, बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं को प्रभावित करने वाले तीसरे दुष्प्रभाव, भ्रामक या गलत उपदेशों के बारे में देखना आरंभ किया था। इन गलत या भ्रामक शिक्षाओं के बारे में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा कुरिन्थुस की मंडली को लिखी दूसरी पत्री में जो लिखवाया है, हम उससे देखेंगे और समझेंगे। इन भ्रामक शिक्षाओं के, गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन स्वरूप होते हैं, जिनके बारे में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने 2 कुरिन्थियों 11:3-4 में उल्लेख किया है “परन्तु मैं डरता हूं कि जैसे सांप ने अपनी चतुराई से हव्वा को बहकाया, वैसे ही तुम्हारे मन उस सिधाई और पवित्रता से जो मसीह के साथ होनी चाहिए कहीं भ्रष्‍ट न किए जाएं। यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”। यहाँ, पद 3 में पौलुस पहले अपनी आशंका को व्यक्त कर रहा है कि जैसे हव्वा शैतान की चतुराई से बहकाई गई और पाप में गिर गई, वैसे ही मसीही विश्वासियों के मन भी भ्रष्ट न कर दिए जाएं। शैतान की चतुराई और उसके द्वारा बहकाए जाने की पद 3 की इस बात को हम पिछले लेख में देख चुके हैं। आज से हम यहाँ पद 4 में दी गई बातों से, उन भ्रामक या गलत शिक्षाओं एवं संदेशों के तीन मुख्य स्वरूपों को देखना आरंभ करेंगे।


परमेश्वर पवित्र आत्मा ने 2 कुरिन्थियों 11:4 में, शैतान द्वारा लोगों को मसीही विश्वास के बारे में, तथा मसीही विश्वासियों और कलीसिया को परमेश्वर के मार्गों और वचन से बहकाने, भटकाने के लिए प्रयोग की जाने वाली तीन प्रकार की गलत शिक्षाओं की युक्तियों के बारे में सचेत किया है। ये तीन प्रकार की युक्तियाँ हैं:

  1. कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया;

  2. या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था;

  3. या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था

साथ ही इसी 2 कुरिन्थियों 11 अध्याय में पवित्र आत्मा ने इसके बारे में भी सचेत किया है कि यह गलत प्रचार, शैतान और उसके लोग प्रभु यीशु के झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप धारण कर के करते हैं, “क्योंकि ऐसे लोग झूठे प्रेरित, और छल से काम करने वाले, और मसीह के प्रेरितों का रूप धरने वाले हैं। और यह कुछ अचम्भे की बात नहीं क्योंकि शैतान आप भी ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का रूप धारण करता है। सो यदि उसके सेवक भी धर्म के सेवकों का सा रूप धरें, तो कुछ बड़ी बात नहीं परन्तु उन का अन्‍त उन के कामों के अनुसार होगा” (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ध्यान कीजिए, पौलुस प्रेरित में होकर पवित्र आत्मा यह नहीं कह रहा कि ऐसा भविष्य में होगा, वरन इस बात के लिखे जाने के समय, उस आरंभिक कलीसिया के समय में ही जब अभी नए नियम की पत्रियां लिखी ही जा रही थीं, सभी लिखी भी नहीं गईं थीं, और न ही बाइबल की पुस्तकें संकलित होकर एक पुस्तक बनी थी, तब से ही शैतान और उसके दूतों का यह कार्य आरंभ हो चुका था। शैतान ने प्रभु के कार्य में अवरोध डालने, उसे भ्रष्ट करने, उसके लोगों को बहकाने में कोई विलंब नहीं किया। जैसा प्रभु यीशु ने मत्ती 13 अध्याय में कहे परमेश्वर के राज्य से संबंधित दृष्टांतों में से दूसरे दृष्टांत, खेत में जंगली बीजों के बोए जाने के दृष्टांत (मत्ती 13:24-30, 36-42) में कहा है, शैतान के ये लोग आरंभ से ही कलीसिया में घुसकर अपनी गलत शिक्षाएं डालते चले आ रहे हैं।

 

इसीलिए, नए नियम की पत्रियों को लिखे जाने के समय से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उन गलत शिक्षाओं को पहचानने की विधि और उन गलत शिक्षाओं के गुण भी लिखवा दिए हैं। शैतान द्वारा भरमाने भटकाने के लिए प्रयोग की जाने वाली युक्तियों के संबंध में 2 कुरिन्थियों 11:4 की उपरोक्त तीनों बातों पर ध्यान कीजिए। इस पद में लिखा है कि शैतान की युक्तियों के तीनों विषयों, प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार के बारे में जो यथार्थ और सत्य है वह वचन में पहले से ही बता दिया गया है। अर्थात सही “यीशु” वही है जिसके बारे में पुराने नियम में लिखा गया है, जिसका प्रचार प्रभु के शिष्यों और प्रेरितों द्वारा किया गया है; पवित्र आत्मा से संबंधित सही शिक्षाएं वही हैं जो पहले दी जा चुकी हैं; सुसमाचार का सही स्वरूप वही है जिसे पहले दिया और माना गया। परमेश्वर के वचन में इन पहले से प्रचार की गई और सिखाई गई बातों के अतिरिक्त, अन्य जो कुछ भी है, वह परमेश्वर की ओर से नहीं है, शैतान की ओर से है; सत्य नहीं असत्य है; उसे स्वीकार नहीं, उसका तिरस्कार किया जाना है।

  

इन तीनों युक्तियों का आधार वही है, जो पहले पाप को करवाने के लिए शैतान द्वारा हव्वा के विरुद्ध प्रयोग किया गया था - परमेश्वर के वचन, निर्देश, और बातों को लेकर, उनमें कुछ जोड़ना-घटाना; उनमें कुछ अपनी बातें मिलाना; और परमेश्वर तथा उसके वचन के सही और उचित होने के प्रति संदेह उत्पन्न करना, और मनुष्यों के प्रति परमेश्वर की योजनाओं और मनसाओं के भले एवं उत्तम होने पर प्रश्न-चिह्न लगाना। अपनी बातों के द्वारा शैतान, परमेश्वर द्वारा नियुक्त जगत के उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह पर, मनुष्यों को प्रदान किए गए परमेश्वरीय सहायक पवित्र आत्मा पर, और प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार प्राप्त करने के सुसमाचार पर, इन बातों और उनसे संबंधित शिक्षाओं पर तीखा हमला करता है। इन बातों की गलत समझ और भ्रष्ट शिक्षाओं के द्वारा शैतान का प्रयास रहता मनुष्यों के उद्धार पाने और फिर परमेश्वर को भावता हुआ जीवन जीने में बाधाएं उत्पन्न कर सके, मसीही विश्वास और विश्वासियों को निष्क्रिय एवं निष्फल कर सके। किन्तु जैसा पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा लिखवाया है, “कि शैतान का हम पर दांव न चले, क्योंकि हम उस की युक्तियों से अनजान नहीं” (2 कुरिन्थियों 2:11), यदि हम शैतान की इन युक्तियों को समझ लें, उसके द्वारा उन्हें अपने जीवन या कलीसिया में कार्यान्वित होते हुए देखने को ताड़ लें, तो शैतान के ये प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे। अगले लेख से हम इन तीनों प्रकार की युक्तियों को बारी-बारी और विस्तार से देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए अभी अवसर और समय है कि आप अपने मसीही विश्वास के जीवन को, उस कलीसिया की बातों को जिसमें आप संगति करते हैं, ध्यान से देख-परख लें कि कहीं आपके जीवन में, या आपकी कलीसिया में शैतान द्वारा बोए गए जंगली दाने तो नहीं उग और पनप रहे हैं? यदि जंगली दाने हैं, तो उन्हें पहचान कर, उनसे बचकर रहिए; उनकी भ्रामक शिक्षाओं और गलत संदेशों में मत पड़िए। प्रार्थना कीजिए कि प्रभु अपने समय में, अपनी विधि से उन्हें प्रकट करे और हटाए। परमेश्वर के वचन और विश्वास में निरंतर उन्नत होते जाएँ।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यिर्मयाह 37-39 

  • इब्रानियों 3


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English Translation

Lord Jesus, Holy Spirit, Gospel – the Subjects of Deceptive Teachings

    In the previous articles we have been considering from Ephesians 4:14 the third harmful affect - deceptive teachings and satanic tricks that influence the immature Christian Believers and their Church. We will look into these deceptive teachings and satanic tricks from what God the Holy Spirit got written through the Apostle Paul in his second letter to the Church at Corinth. These deceptive teachings have three main forms, as has been written in 2 Corinthians 11:3-4, “But I fear, lest somehow, as the serpent deceived Eve by his craftiness, so your minds may be corrupted from the simplicity that is in Christ. For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” Here, in verse 3, Paul is first expressing his apprehension that as Eve was beguiled and fell in sin by the trickery of Satan, similarly the Christian Believers too can be beguiled, therefore, they need to remain alert to this possibility. This we have seen in the last article. From today, we will start looking at the three main forms of the deceptive teachings and preaching from Satan.


In 2 Corinthians 11:4 the Holy Spirit has alerted the Christian Believers, the Church, about the three subjects of wrong teachings spread by Satan about the Christian Faith. They are:

  1. if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached,

  2. or if you receive a different spirit which you have not received,

  3. or a different gospel which you have not accepted

    Along with this the Holy Spirit has also cautioned in 2 Corinthians 11 that Satan and his people trick others into accepting and believing their lies by carrying out their preaching and teaching as false apostles of the Lord Jesus, ministers of righteousness, and angels of light, “For such are false apostles, deceitful workers, transforming themselves into apostles of Christ. And no wonder! For Satan himself transforms himself into an angel of light. Therefore, it is no great thing if his ministers also transform themselves into ministers of righteousness, whose end will be according to their works” (2 Corinthians 11:13-15). Do take note, that under the guidance of the Holy Spirit, Paul is not saying that this will happen in the future, but right at that time when Paul wrote this letter, in that time of the initial Church when the books of the New Testament were still being written, not all of them had been written and neither had the various books of the Bible been compiled as a single Book, from that time itself, Satan and his followers had already got this deception underway. Satan did not at all delay his attempts at adulterating, corrupting, and obstructing the work of the Lord Jesus. As the Lord Jesus spoke in the second of His parables of Matthew 13, the parable of the good seed and the tares (Matthew 13:24-30, 36-42), people of Satan have infiltrated the Church from its inception, and have been spreading their false teachings from the very beginning.


Therefore, since the time of the writing of the letters of the New Testament, the Holy Spirit also had written in them the ways and methods of identifying those wrong teachings and preaching. In context of the tricks and the three kinds of deceptive teachings of Satan mentioned in 2 Corinthians 11:4 ponder over some important things. The themes of the three false teachings, as it is written in this verse are the Lord Jesus, the Holy Spirit, and the Gospel; and that the truth and facts about these three have already been stated in God’s Word. In other words, the true “Jesus” is He who has been prophesied in the Old Testament, and preached about by the disciples of the Lord Jesus and the Apostles; the correct teachings about the Holy Spirit are those which have already been given in God’s Word; the right Gospel is the one that has been already been given, preached, and believed in. Anything other than what has already been given in the word of God, preached and taught from it, is not from God but from Satan; is false not true; it is not to be accepted but outrightly rejected.


The basis of successfully playing out the satanic tricks about these three is the same that Satan used to have the first sin committed by Eve - to corrupt God’s Word and instructions by beguiling man to add or take away from it, by adulterate it with some of one’s own thoughts, and by making him doubt the truth and benefits of the instructions and Word of God. Through these means, Satan creates doubts in people’s hearts about God’s plans for them being good and appropriate. Amongst Christian Believers, Satan through his tricks and deceptions, ferociously attacks the teachings about the God-appointed Savior of the whole world - the Lord Jesus Christ; about the God-given Helper to the Believers - the Holy Spirit; and about the Gospel of Salvation through faith in the Lord Jesus. Satan’s aim is to render the Christian Faith vain, ineffective, and fruitless by preventing the Believers from living a life of obedience to God’s Word, a life that pleases God, by making them fall for wrong beliefs and teachings, unBiblical things, preached and propagated by him and his followers. The way out is as the Apostle Paul has written, “lest Satan should take advantage of us; for we are not ignorant of his devices” (2 Corinthians 2:11). If we are able to understand the ploys of Satan, are able to see how those tricks and deceptions of Satan are made active in our lives, then we can defeat and overcome these cunning efforts of Satan. From the next article onwards, we will look at these three forms of deceptive teachings, one-by-one, and in some detail.


If you are a Christian Believer, then while you have the time and opportunity to examine your life of faith, and the teachings, the beliefs of the Church where you fellowship, do so and correct what needs to be corrected. Examine carefully, has Satan sown his “tares” in your life and in your church, and are they growing and using up the resources? If the “tares” are there, then beware of them, stay away from them, do not fall for their false teachings, deceptions, and tricks. Ask the Lord that in His time and through His method He would expose and remove them. Continue to grow in the Word of God and in Faith.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Jeremiah 37-39 

  • Hebrews 3