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रविवार, 31 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 12


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पवित्र आत्मा का प्रमाण - पाप के लिए कायल करना (यूहन्ना 16:9)


पिछले लेख में हमने देखा था कि मसीही की सेवकाई में, परमेश्वर पवित्र आत्मा अपने कार्य और सामर्थ्य को प्रभु यीशु के शिष्यों, अर्थात मसीही विश्वासियों में होकर करता है, और उनमें होकर संसार के लोगों के समक्ष मसीही जीवन के उदाहरण तथा शिक्षाओं को रखता है। न केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा इस प्रकार से अपना कार्य करना मसीही विश्वासी यानि कि प्रभु यीशु के शिष्य बनने वालों के जीवनों, मनोदशा, और विचारधारा में आए परिवर्तन का प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक प्रमाण होता है, वरन साथ ही यह औरों को भी प्रोत्साहित करता है कि जैसा एक मनुष्य के जीवन में हुआ है, वैसे ही मेरे भी तथा औरों के जीवनों में भी इसी प्रकार का परिवर्तन और परमेश्वर के लिए उपयोगिता संभव है। यूहन्ना 16:8 में पवित्र आत्मा ने तीन बातें लिखवाई हैं, जिनके विषय वह प्रभु यीशु के शिष्यों में होकर संसार को दोषी ठहराता है। ये तीन बातें हैं - पाप, धार्मिकता, और न्याय। और फिर पद 9, 10, और 11 में इन तीनों के विषय टिप्पणी दी है।

 

यदि हम थोड़ा सा विचार करें, तो मानव जाति और संसार की सभी समस्याओं की जड़, संसार के लोगों, विशेषकर पदाधिकारियों द्वारा, इन्हीं तीन बातों का अनुचित एवं अनुपयुक्त निर्वाह अथवा अवहेलना करना है। सारे संसार के विभिन्न लोगों और धर्मों के निर्वाह, रीति-रिवाजों की पूर्ति, अनुष्ठानों के किए जाने, आदि के बावजूद, लोगों में से इन तीनों समस्याओं को मिटा पाना संभव नहीं होने पाया है, वरन इनके विषय स्थिति सुधारने की बजाए और बिगड़ती ही जा रही है। यही अपने आप में एक जग-विदित प्रमाण है कि धर्म-कर्म-रस्म का निर्वाह इस समस्या का समाधान नहीं है। इस बढ़ती हुई समस्या का कारण, यूहन्ना 16:8 के प्रभु के कथन में निहित है - क्योंकि संसार के लोग अपने आप को इन तीनों के विषय दोषी नहीं समझते अथवा स्वीकारते हैं। और परमेश्वर पवित्र आत्मा, प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों के परिवर्तित जीवन और व्यवहार में होकर संसार के लोगों को इन बातों के विषय दोषी ठहराता है - प्रभु के वास्तविक और सच्चे शिष्यों के जीवनों से तुलना के द्वारा संसार के लोगों को उनकी वास्तविक दशा दिखाता है। आज हम यूहन्ना 16:9 से इन तीनों में से पहली बात, पाप के विषय दोषी ठहराए जाने के बारे में थोड़ा सा देखेंगे।

 

यूहन्ना 16:9 पाप के विषय में इसलिये कि वे मुझ पर विश्वास नहीं करते। प्रभु यीशु ने कहा कि पवित्र आत्मा सबसे पहले संसार के लोगों को उनके पाप के विषय दोषी ठहराएगा - क्योंकि संसार के लोग प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास नहीं करते हैं। वास्तव में मसीह यीशु पर विश्वास लाने पर व्यक्ति स्वतः ही अपने पापों के लिए कायल होकर, उनका सही और स्थाई समाधान ढूँढता है (प्रेरितों 2:37)। परमेश्वर की दृष्टि में पाप क्या है, और बाइबल में पाप और उसके निवारण तथा समाधान के विषय दी गई शिक्षाओं पर एक विस्तृत चर्चा पहले प्रस्तुत की जा चुकी है; इस विस्तृत चर्चा की शृंखला का आरंभ इस लेख के साथ हुआ था: "बाइबल, पाप और उद्धार"; और जिन पाठकों ने इसे नहीं देखा है, वे इस लेख के लिंक से उसे देख सकते हैं, अध्ययन कर सकते हैं। संक्षेप में, परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, पाप, मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में किया गया परमेश्वर की आज्ञाओं और निर्देशों का उल्लंघन अथवा अवहेलना है (1 यूहन्ना 3:4)। हमारे आदि माता-पिता, आदम और हव्वा के द्वारा किए गए प्रथम पाप के साथ ही पाप ने सृष्टि में प्रवेश किया, और आदम की संतानों में फैल गया (रोमियों 5:12-14)। मनुष्यों में आनुवंशिक रीति से विद्यमान पाप करने की इस प्रवृत्ति का निवारण और समाधान, उस व्यक्ति द्वारा उद्धार या नया जन्म प्राप्त करने के द्वारा होता है। यह उद्धार, उस व्यक्ति के द्वारा किए गए अपने पापों के अंगीकार तथा उन से पश्चाताप, प्रभु यीशु मसीह द्वारा सेंत-मेंत मिलने वाली पापों की क्षमा और नया जीवन, तथा स्वेच्छा से प्रभु यीशु को अपना जीवन समर्पण करने वाले व्यक्ति के जीवन में प्रभु के द्वारा किया गया मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आधारभूत परिवर्तन, के द्वारा प्रकट होता है।

 

जब इस प्रकार पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु को किए गए जीवन समर्पण के द्वारा प्राप्त हुए परिवर्तित एवं आशीषित जीवन की गवाही उद्धार पाने वाला व्यक्ति संसार के सामने रखता है, और अपने प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में उस परिवर्तन को जी कर संसार के समक्ष प्रत्यक्ष दिखाता है, तो स्वतः ही वह संसार के लोगों के सामने, उनके तथा उस उद्धार पाए हुए व्यक्ति के जीवन और व्यवहार में एक तुलना ले आता है, संसार के लोगों को उनके जीवन और व्यवहार के लिए स्वतः ही दोषी ठहरा देता है। जिन्हें अपने पापों के दोष का बोध होता है, फिर वे अपनी समस्त ‘धार्मिकता’ के प्रयासों के बावजूद अपने में विद्यमान पापों की समस्या का निवारण और समाधान ढूँढते हैं, और वह समाधान प्रभु यीशु मसीह है: “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम क्या करें? पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे” (प्रेरितों 2:37-38)। इसीलिए शैतान और उसके दूत, लोगों तक सुसमाचार पहुँचने नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि उस सुसमाचार में जीवन बदलने की सामर्थ्य है; उन्होंने लोगों के मनों को अंधा कर रखा है कि सुसमाचार की जीवन दायक ज्योति उन पर न चमकने पाए “और उन अविश्वासियों के लिये, जिन की बुद्धि को इस संसार के ईश्वर ने अन्‍धी कर दी है, ताकि मसीह जो परमेश्वर का प्रतिरूप है, उसके तेजोमय सुसमाचार का प्रकाश उन पर न चमके” (2 कुरिन्थियों 4:4)। प्रभु यीशु मसीह ने धर्म के अगुवों और पवित्र शास्त्र के विद्वानों से कहा “तुम पवित्र शास्त्र में ढूंढ़ते हो, क्योंकि समझते हो कि उस में अनन्त जीवन तुम्हें मिलता है, और यह वही है, जो मेरी गवाही देता है। फिर भी तुम जीवन पाने के लिये मेरे पास आना नहीं चाहते” (यूहन्ना 5:39-40)।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, अर्थात किसी धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह के अंतर्गत नहीं, वरन आप ने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा याचना करके, और स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित किया है, तो क्या आपके जीवन में प्रभु की ओर, उसके वचन और आज्ञाकारिता की ओर परिवर्तन आया है? क्या परमेश्वर का वचन और उसकी आज्ञाकारिता आपके जीवन में प्राथमिक स्थान पाते हैं (यूहन्ना 14:15, 21, 23)? क्या पवित्र आत्मा के फलों (गलातीयों 5:22-23) से आपका जीवन सुसज्जित है? आपका परिवर्तित जीवन, परमेश्वर के वचन बाइबल के नियमित एवं गंभीर अध्ययन के प्रति आपकी लालसा, जीवन में पवित्र आत्मा के फलों की उपस्थिति, और लगन तथा गंभीरता से प्रेरितों 2:42 का पालन करते रहने की लालसा ही प्रमाणित करेगी कि आप में परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति है। और यदि आपका जीवन पवित्र आत्मा की अगुवाई और आज्ञाकारिता में जिया जाएगा (गलातीयों 5:18, 25), तो फिर आपके जीवन के द्वारा संसार के लोग, यूहन्ना 16:9 के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास न करने के कारण दोषी भी ठहराए जाएंगे, कायल किए जाएंगे, उनमें उनके पापों के प्रति संवेदनशीलता तथा बोध उत्पन्न होगा, और फिर वे भी आपके परिवर्तित जीवन से आकर्षित होकर प्रभु की ओर आकर्षित होंगे, आप से उद्धार का मार्ग जानने के लिए लालायित होंगे। ध्यान रखिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों में, आप में, होकर ही कार्य करता है।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, तथा पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 54-56 

  • रोमियों 3


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English Translation 

Holy Spirit Convicts of Sin - John 16:9


In the previous article we had seen that in the Christian Ministry, the Holy Spirit does His works and demonstrates His power in and through the disciples of Lord Jesus, i.e., the Christian Believers; and through them places before the people of the world the examples and teachings of Christian life. This work of the Holy Spirit, i.e., the changes He brings in the lives, mentality, and thinking, not only is it a practical proof of His presence in the disciple’s life, but it also encourages the others to think and believe that what is possible in one person’s life, is also possible in another’s, to make someone else useful for the Lord too. In John 16:8, the Holy Spirit got recorded three things about which He convicts the world through the disciples of the Lord Jesus. These three things are sin, righteousness, and judgment; and then in the subsequent verses 9, 10, and 11, a comment about each of these three is given.


If we stop and consider for a while, it is evident that the root cause for all the problems of mankind and the world is the ignoring or the unjust and inappropriate use of these three things by the people, especially by the officers and administrators of the world. Despite the fulfilling and carrying out all the religious works, rituals, and ceremonies, all over, by the people of the world, it has not been possible to eliminate these three things and the problems caused by them; instead, the situation has only been going from bad to worse with the passage of time. This by itself is an evident proof that religion, good works, and religious rites and rituals are not the answer to this problem. The cause for this growing menace, all over the world is implied in what the Lord Jesus has said in John 16:8 - the people of the world do not consider themselves to be guilty about these things, and have to be brought to the realization of their being guilty about them. The Holy Spirit of God, convicts the people of the world through the changed lives of the disciples of Lord Jesus, the Born-Again Christian Believers - the Holy Spirit places a mirror before the people of the world through the life of the true followers of Christ Jesus, so that the people of the world can see themselves as they actually are in God’s eyes. Today, from John 16:9, we will see the first of these three things, i.e., being convicted about sin.


 John 16:9 “of sin, because they do not believe in Me.” The Lord Jesus said that the first thing the Holy Spirit convicts the people of the world about is their sin - because they do not believe in the Lord Jesus Christ. Truly coming to faith in the Lord Jesus, automatically convicts the person about his sin and compels him to seek the actual and lasting remedy for his sin (Acts 2:37). We have already seen in detail, in earlier articles about what sin is in the eyes of God; this series on sin was begun with this article: "The Bible, Sin, and Salvation", and the readers who have not read it before, can go through the series and study the topic, starting from this article onwards. In brief, according to the Word of God, sin is lawlessness, i.e., the disobedience to the instructions and commandments of God, done in mind or thoughts or attitude or behavior (1 John 3:4). The disobedience committed by our first fore-parents, Adam and Eve gave entry to sin into the creation, and then sin spread in the children of Adam (Romans 5:12-14). The solution to this hereditary tendency in man to commit sin is through being saved or being Born-Again. This having being saved or salvation is made evident by the radical change that is brought about in the life, mind, thoughts, attitude, and behavior of a person, when he acknowledges his sins, repents of them, voluntarily accepts the forgiveness for them made freely available by the Lord Jesus, and surrenders one’s life to the Lord Jesus.


When a person witnesses before the people of the world about his changed life, changed by his repentance of sins and surrendering his life to the Lord Jesus, and manifests this change practically in his day-to-day life to the people of the world, then he automatically brings a contrast through his life before them. The people of the world, when they compare their lives with his, are automatically convicted for their life and behavior. Those who come to the realization of their sins, and the vanity of their own efforts to overcome and remedy their actual condition, they then seek a solution for their situation; and the solution is the Lord Jesus Christ: “Now when they heard this, they were cut to the heart, and said to Peter and the rest of the apostles, "Men and brethren, what shall we do?" Then Peter said to them, "Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit” (Acts 2:37-38). Because of this Satan and his people try their utmost to prevent the gospel of salvation from reaching the people. Because the gospel has the power to change the lives of people; and Satan has blinded the minds of the people to the life-giving light of the gospel “whose minds the god of this age has blinded, who do not believe, lest the light of the gospel of the glory of Christ, who is the image of God, should shine on them” (2 Corinthians 4:4). The Lord Jesus said to the religious leaders and the Scholars of the Scriptures, “You search the Scriptures, for in them you think you have eternal life; and these are they which testify of Me. But you are not willing to come to Me that you may have life” (John 5:39-40).


If you are a Christian Believer, i.e., you have accepted the Lord Jesus not by fulfilling some religious rites and rituals, but by repenting of your sins, asking the Lord Jesus’s forgiveness for them, and voluntarily surrendering your life to Him, then has there been any change in your life brought about by your obedience to the Lord Jesus and His Word? Do the Word of God and His obedience have the primary place in your life (John 14:15, 21, 23)? Does your life have the fruits of the Spirit (Galatians 5:22-23)? Only your changed life, your commitment to seriously and regularly studying God’s Word and obeying it, the presence of the fruits of the Holy Spirit in your life, and your steadfast desire to live by Acts 2:42 will prove the presence of the Holy Spirit in your life. If your life is lived in obedience and guidance of the Holy Spirit (Galatians 5:18, 25), then through your life the people of the world will be convicted in accordance with John 16:9. They will be attracted by your changed life, will be sensitized to their sins through you, be convicted of their not believing in the Lord Jesus, and would be interested in learning from you the way of salvation. Bear in mind that the Holy Spirit acts through Christian Believers in the lives of others.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 54-56 

  • Romans 3





शनिवार, 30 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 11


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मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा का प्रमाण - यूहन्ना 16:8


हम देख चुके हैं कि मसीही सेवकाई के निर्वाह के लिए मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति कितनी आवश्यक है, सहायक के रूप में पवित्र आत्मा की भूमिका मसीही सेवकाई के लिए अनिवार्य है, और बिना उसमें परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति के कोई यीशु को प्रभु भी नहीं कह सकता है (1 कुरिन्थियों 12:3)। इसीलिए स्वयं प्रभु परमेश्वर अपने प्रत्येक सच्चे विश्वासी, अपने प्रत्येक वास्तविक शिष्य को स्वतः ही, उसके उद्धार पाने के साथ ही तुरंत ही पवित्र आत्मा भी प्रदान कर देता है। प्रभु के किसी भी वास्तविक शिष्य को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए न तो किसी मनुष्य की किसी सहायता की आवश्यकता है, और न ही वह मनुष्यों के द्वारा बताई अथवा बनाई गई किसी विधि या अनुष्ठान आदि के द्वारा पवित्र आत्मा को प्राप्त कर सकता है। 


किन्तु साथ ही प्रत्येक जन, विश्वासी अथवा अविश्वासी, को यह भी समझ लेना चाहिए कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है। वह हमारा सहायक अवश्य है, किन्तु न हमारा सेवक है, न हमारे हाथों की कठपुतली है जिसके साथ और जिसके नाम में मनुष्य अपनी इच्छा और समझ के अनुसार कुछ भी कहते और करते रहें। परमेश्वर पवित्र आत्मा को भी हमें वही आदर और श्रद्धा प्रदान करनी है जो पिता परमेश्वर को, प्रभु यीशु को, और उनके नाम के प्रयोग को देते हैं। हमें पवित्र आत्मा के नाम से अपनी समझ और इच्छा के अनुसार कुछ भी, कैसा भी बर्ताव, बात, और व्यवहार करने की स्वतंत्रता नहीं दी गई है। जैसा व्यवहार परमेश्वर पिता तथा परमेश्वर पुत्र के प्रति आवश्यक एवं उचित है, बिलकुल वैसा ही परमेश्वर पवित्र आत्मा के लिए भी है। इसलिए वचन में कही गई और पहले से लिखवा दी गई बातों के अतिरिक्त परमेश्वर या पवित्र आत्मा के नाम से अन्य जो कुछ भी किया, बताया, और सिखाया जाता है, वह परमेश्वर की ओर से नहीं है; वह सब मनुष्य द्वारा वचन में जोड़ना है - जो परमेश्वर द्वारा वर्जित किया गया है। वचन के बाहर की बातों को परमेश्वर पवित्र आत्मा पर थोप कर उनके नाम में विचित्र हाव-भाव एवं अनुचित व्यवहार करना और सिखाना, लोगों को ऐसी शिक्षाएं देना जिनका वचन में कोई समर्थन, उल्लेख, या उदाहरण नहीं है, वह सब परमेश्वर के वचन और बातों में मिलावट करना है, अस्वीकार्य है, दण्डनीय है।


व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित बातों को अपने शिष्यों को बताने के बाद, प्रभु यीशु ने उनकी सुसमाचार प्रचार और मसीही सेवकाई से संबंधित बातों में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका को बताना आरंभ किया। इस सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित जो पहली शिक्षा प्रभु ने शिष्यों को दी, वह है, “और वह आकर संसार को पाप और धामिर्कता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा” (यूहन्ना 16:8)। प्रभु के इस कथन को समझने के लिए प्रभु द्वारा यूहन्ना 14 अध्याय में प्रभु द्वारा कही गई इस बात को ध्यान रखना अति आवश्यक है, कि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वासियों में होकर ही अपनी सामर्थ्य को प्रकट करना था, उनमें होकर ही संसार के समक्ष कार्य करना था। क्योंकि प्रभु के इस कथन में यह निहित है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों में होकर इस कार्य को करेगा; इसलिए यह स्वाभाविक निष्कर्ष है कि जो भी मसीही संसार से यूहन्ना 16:8 की बातों के बारे में बात करे, परमेश्वर के नाम से लोगों के सामने इन बातों का प्रचार करे, तो उसका अपना जीवन भी पाप, धार्मिकता, और न्याय के विषय में परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुरूप हो। अन्यथा उस मसीही का प्रचार और गवाही झूठी ठहरेगी, अप्रभावी होगी, उसके अपने तथा साथ ही परमेश्वर के भी उपहास और निन्दा का कारण ठहरेगी। यह बात एक बार फिर मसीही विश्वासी के जीवन में पहले पवित्र आत्मा की भूमिका और कार्य (यूहन्ना 14) द्वारा उचित सुधार और सही व्यवहार कर लेने, और तब सार्वजनिक सेवकाई (यूहन्ना 16) का निर्वाह करने की अनिवार्यता पर बल देता है, उसके महत्व को प्रमुख करता है।

 

आज मसीही विश्वास के प्रति लोगों के अविश्वास, लोगों की आलोचना, और संसार द्वारा मसीहियों से दुर्व्यवहार का एक बहुत बड़ा कारण मसीही या ईसाई कहलाने वाले लोगों के जीवनों में व्याप्त यही दोगलापन - उनके प्रचार और व्यक्तिगत व्यवहार में विद्यमान एवं सर्व-विदित भिन्नता है। वे संसार से जिस बात, बर्ताव, और व्यवहार का निर्वाह करने का प्रचार करते हैं, वह उनके अपने जीवनों में लोगों को दिखाई नहीं देता है। पवित्र आत्मा की जिस जीवन और मन बदलने वाली सामर्थ्य के बारे में लोगों को बताकर उन्हें प्रभु यीशु की ओर आने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते हैं, व्यक्ति के विचार और व्यवहार बदलने वाली वह सामर्थ्य उनके स्वयं के जीवन में लोगों को दिखाई नहीं देती है। आज संसार के लोगों को मसीही या विश्वासी कहलाए जाने वाले बहुत से लोगों में पवित्र आत्मा के नाम से बहुत शोर-शराबा, उछल-कूद, विचित्र व्यवहार और शारीरिक क्रियाएं तथा हाव-भाव, शारीरिक चंगाइयों के दावे आदि तो दिखते हैं; किन्तु सांसारिकता और संसार की बातों तथा वस्तुओं के मोह को त्याग कर प्रभु की आज्ञाकारिता में जिया जाने वाला विनम्र, प्रेमपूर्ण, आत्मा के फलों से भरा व्यावहारिक जीवन दिखाई नहीं देता है। वरन, विडंबना तो यह है कि लोगों ने पवित्र आत्मा के नाम और काम को व्यक्तिगत कमाई का साधन बना लिया है; पवित्र आत्मा के नाम पर सांसारिक धन-संपत्ति, ज़मीन-जायदाद, विलासिता की बातों से भरे महल बना लिए हैं। फिर भी लोग ऐसे भ्रामक प्रचारकों के पीछे भागते हैं, उनकी बातों को बिना जाँचे-परखे ऐसे स्वीकार करते हैं, मानों स्वयं परमेश्वर बोल रहा हो। यदि उन ढोंगी प्रचारकों के ढोंग को लोगों के सामने लाने के प्रयास किए जाएं, तो प्रतिक्रिया अपमान और क्रोध होता है। यद्यपि उन प्रचारकों के जीवनों और कार्यों में वचन से संगत और उचित कुछ भी देख पाना लगभग असंभव होता है; और उनके प्रचार में वचन की बातों को संदर्भ से बाहर लेकर, तोड़-मरोड़ कर, उनकी अपनी ही धारणाओं के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है। उनकी शिक्षाएं पापों की क्षमा, उद्धार, और आत्मिक उत्थान की बजाए भौतिक लाभ, शारीरिक बातों, सांसारिक उपलब्धियों आदि की प्राप्ति से संबंधित होती हैं; फिर भी लोग अंधे और निर्बुद्धि होकर प्रभु और उसके वचन का नहीं परंतु उन सांसारिक प्रचारकों का और उनकी गलत शिक्षाओं का बड़ी लगन और आदर के साथ अनुसरण करते हैं।

 

प्रभु ने कहा कि परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर संसार को “निरुत्तर” करेगा। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का हिन्दी अनुवाद “निरुत्तर” किया गया, मूल भाषा का उसका अर्थ है “डाँट लगाएगा”, या “उलाहना देगा”; और अँग्रेज़ी में इस शब्द का अनुवाद convict अर्थात दोषी ठहराना किया गया है, जो मूल यूनानी भाषा के अर्थ के साथ अधिक मेल रखता है। जिन बातों के विषय वह ऐसा करेगा, उनके बारे में आगे पद 8 से 11 में और विस्तार से लिखा गया है, और उन्हें हम उन पदों के अध्ययन के साथ ही देखेंगे। किन्तु यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों में निवास एवं उनमें होकर कार्य करने के द्वारा, मसीही विश्वासियों के जीवन, व्यवहार और बर्ताव, उनके जीवन में आए परिवर्तनों के द्वारा संसार के लोगों को उनके जीवन, उनके व्यवहार और बर्ताव, उनके अपरिवर्तित जीवनों के लिए दोषी ठहराएगा। व्यक्ति के जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति का प्रमाण वे बातें नहीं हैं जो ये गलत शिक्षाएं देने वाले बताते, दिखाते, और सिखाते हैं; वरन बाइबल के अनुसार प्रमाण हैं  व्यक्ति के जीवन में आया हुआ परिवर्तन, उसका उद्धारकर्ता की समानता में ढलते चले जाना, अपने उद्धार और उद्धारकर्ता की गवाही देना।

  

यदि आप सच में मसीही विश्वासी हैं, वास्तविकता में प्रभु यीशु मसीह के शिष्य हैं, तो क्या आप में निवास करने वाला पवित्र आत्मा, आपके व्यवहार, बर्ताव, और बदले हुए जीवन के द्वारा, संसार के लोगों को उनके जीवन और व्यवहार के लिए दोषी ठहराता है? क्या आपके जीवन के साथ अपने जीवन की तुलना करने पर वे परमेश्वर की बातों और कार्यों को आपके जीवन में विद्यमान, और अपने जीवन से अनुपस्थित देखने या समझने पाते हैं? क्या आपकी उपस्थिति में लोग छिछोरी बातें और भद्दे मज़ाक करने, सांसारिकता की व्यर्थ बातें करने से हिचकिचाते हैं? या फिर संसार के लोग आप में भी वही बातें, विचार, व्यवहार, और बर्ताव देखते हैं जो उनमें विद्यमान है? क्या आपके मसीही विश्वासी होने के नाते, परमेश्वर पवित्र आत्मा आप में होकर यूहन्ना 16:8 की बात को पूरा करने पाता है? यदि नहीं, तो मसीही सेवकाई में हाथ डालने से पहले, अभी आप को पहले अपने आप में वह आवश्यक परिवर्तन करने और व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्रमाणित करने वाले कार्य दिखाने अनिवार्य हैं, जो पवित्र आत्मा को आप में होकर संसार के समक्ष सार्वजनिक मसीही सेवकाई के कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, तथा पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 51-53 

  • रोमियों 2

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English Translation

Proof of the Holy Spirit - John 16:8


We have seen that in the life of a Christian Believer, for him to live out his life of Christian ministry, the presence of the Holy Spirit is absolutely essential. Without the presence of God’s Holy Spirit no one can even call Jesus as Lord (1 Corinthians 12:3); therefore, the Lord God has given the Holy Spirit to every one of His Believers, from the moment of their being Born-Again. No person who is truly saved, Born-Again, needs to do anything, no one needs the help of any man, or fulfill any man-made rituals and methods, to receive the Holy Spirit.


At the same time, everyone, Believer or unbeliever needs to understand this very clearly that Holy Spirit is God. He has been given as a Christian Believer’s helper, but has not been made his servant or subordinate, and neither is He like a puppet in the hands of man, for men to treat Him in any way they like, to do and say whatever comes to their minds about Him. We have to accord the same honor and reverence to Him and His name, that we accord to God the Father and to God the Son, Lord Jesus. We have not been given the freedom to speak about or treat or behave regarding the Holy Spirit in any manner we think appropriate. Whatever attitude and behavior has to be accorded to God the Father and God the Son, absolutely the same has to be accorded to God the Holy Spirit as well. We cannot take Him for granted, and say anything that comes to our minds in His name. That is why, except for the things already stated and written in God’s Word about the Holy Spirit, anything else said, taught, and done in the name of the Holy Spirit is not from God; is tantamount to adding to God’s Word - which has been forbidden by God. To act, speak, and behave in a strange, odd manner, and to teach the same to others, things that have no mention, example, or support from God’s Word, is all corrupting God’s Word with man’s things, is unacceptable and is punishable by God.


After stating to His disciples about the things of the Holy Spirit related to their personal lives, the Lord then started to tell them about the role of the Holy Spirit in their Christian ministry. In this context, the first teaching that the Lord Jesus gave to His disciples was, “And when He has come, He will convict the world of sin, and of righteousness, and of judgment” (John 16:8). To understand this statement of the Lord, it is essential to keep in mind what the Lord had already said in John chapter 14, that the Holy Spirit would manifest His power and act before the world through the Christian Believers. Since it is implied in this statement of the Lord that God the Holy Spirit would act through the Christian Believers, therefore, it is a natural conclusion that if any Christian talks to the world about John 16:8, preaches to the people in the name of God, his own life too must be in accordance with what the verse says about sin, righteousness, and judgement. Otherwise, his own life, preaching, and witness will turn out to be a lie and be ineffective; and he will be a cause of not only his own ridicule but also of ridiculing God. This by itself, once again emphasizes the importance of every Christian Believer first allowing appropriate corrections and proper behavior in his own life through the action of the Holy Spirit (John chapter 14); and only then trying to exhibit the power of the Holy Spirit in Christian ministry through preaching and works (John chapter 16).


Today, a major cause of unbelief amongst the people of the world, and their criticism of Christianity, and even of Christians being mistreated is this dichotomy, the contradiction that the world sees in what the Christians preach and how they behave. What they preach to the world, is not seen in their own lives. The power of the Holy Spirit to change lives, hearts, and minds that they talk about, is not seen and demonstrated through their own lives. Today, people of the world see amongst those who call themselves Christians, a lot of shouting, strange utterances and noises, odd behavior and bodily gestures, claims of physical healings, etc., but a life of disassociating from the world and discarding worldliness, of not having an attraction for the things of the world, of following the Lord Jesus Christ and living a life of humility, love, and fruits of the Holy Spirit is never seen. Instead, a contradiction has become evident - people have made the name and works of the Holy Spirit a means of earning temporal things for their personal lives; they have built bank-balances, properties, luxurious houses using the name of the Holy Spirit.

 

Although, it is very difficult to show anything consistent with God’s Word in the preaching and teaching of these false preachers; since their preaching, teaching, and doctrines are through taking the things of God’s Word out of context, twisting and trimming it to make it appear to be consistent with their preaching. Their teachings and preaching are not about repentance, sin, forgiveness of sins, salvation, spiritual growth and spiritual rewards, but about worldly gains, bodily benefits, temporal achievements, etc., yet people blindly and mindlessly accept what they say. Without cross-checking their teaching and preaching from God’s Word, the people still continue to run after such false preachers and corrupters of God’s Word. Without giving it any thought, examining and discerning what these false preachers are saying, people listen and accept their false teachings and doctrines as if God Himself was speaking. If someone tries to expose these hypocritical preachers and teachers and their teachings, then their followers react with rage and disrespect, but have no concern for the manipulation and misuse of God’s Word by these false teachers and preachers.


The Lord Jesus said in John 16:8, the Holy Spirit will “convict” the world. The word used in the original Greek language, and translated as “convict” actually means “reprove” or “admonish.” The things the Holy Spirit will convict or reprove about are written in verses 8 to 11, and we will see them in some detail in the days to come. But what we need to note here is that the Holy Spirit, through residing in and working in the lives of the Christian Believers, by changing and converting their life, attitude, and behavior, does two things - firstly the changes He brings in their lives are a practical and evident proof of His presence in them; and secondly through these changes He presents a contrast to the unsaved, unconverted, unchanged people of the world, to convict them of the sin in their lives. The proof of God’s Holy Spirit in a person’s life is the change into the likeness of his Savior, that the Holy Spirit brings about in that life’s person - an affirmation of John 15:26, that the Holy Spirit testifies of the Lord Jesus through the lives of the followers of Lord Jesus. The Biblical proof of the presence of the Holy Spirit in a person is not what these teachers of false doctrines say, but a changed life, changed into likeness of the Lord and testifying about Him.


If you are a Christian Believer, truly a disciple of the Lord Jesus, then does the Holy Spirit residing in you manifest His presence through your changed life, attitude, and behavior? Does your life convict the unsaved people of the presence of sin in their lives? When people of the world see and experience your life, are they able to see godliness in your life and feel its absence in their own lives? Do people hesitate to speak frivolous things and indulge in loose talks in your presence? Or, is it that people of the world see the same things, attitude, and behavior as they have in their own lives? By virtue of your being a Christian Believer, is the Holy Spirit able to fulfill John 16:8 through your life? If not, then before engaging in Christian ministry, you should first endeavor to demonstrate the changed life which is the proof of the presence of the Holy Spirit; only then will the Holy Spirit be able to work through you to change the lives of others.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 51-53 

  • Romans 2





शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 10


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पवित्र आत्मा के लिए जवाबदेही - यूहन्ना 16:7.


मसीही सेवकाई के लिए मसीही विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका को हमने पिछले लेखों में देखा है, कि वह कैसे प्रभु के शिष्य को उसकी सेवकाई के लिए सिखाता है, तैयार करता है, प्रभु की बातें स्मरण करवाता है, और उसे सुरक्षा प्रदान करता है। शिष्य तब ही संसार का और ‘संसार के सरदार’, अर्थात शैतान, उसकी युक्तियों, उसके दूतों का सामना कर सकता है, मसीही सेवकाई में प्रभावी हो सकता है, जब वह स्वयं इस कार्य के लिए तैयार हो गया हो - और उसकी यह तैयारी उसे केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवा कर देता है। उस शिष्य की अपनी कोई योग्यता, कोई गुण, कोई शिक्षा, कोई प्रशिक्षण, कोई अनुभव, आदि तब तक किसी उपयोगिता का नहीं है, जब तक परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके जीवन में कार्य करके उसे अपनी रीति से सक्षम न कर दे; तब ही उस शिष्य के अन्य कोई भी गुण, योग्यता, शिक्षा, प्रशिक्षण, और अनुभव आदि प्रभु के लिए उपयोगी और प्रभावी किए जा सकते हैं - जैसा हम पौलुस के जीवन से देखते हैं। परमेश्वर के वचन की बातों में सर्वोत्तम गुरु, गमलिएल, से वचन की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने, और फरीसी होने के लिए प्रशिक्षित किए जाने के बाद भी, वह प्रभु परमेश्वर के लिए उपयोगी नहीं था, वरन प्रभु के कार्य का विरोधी और नाशक था। किन्तु प्रभु यीशु में विश्वास लाने के बाद ही उसका वह सब प्रशिक्षण, अध्ययन, अनुभव, आदि पवित्र आत्मा के द्वारा प्रभु के लिए उपयोगी बनाया जा सका। प्रभु यीशु की वास्तविकता को समझने के बाद वह अपने पहले के सभी ज्ञान, समझ, प्रशिक्षण, अनुभव, कार्य आदि को ‘कूड़ा’ कहता है, और उसकी लालसा वचन के मानवीय ज्ञान में नहीं, वरन प्रभु यीशु मसीह की मृत्युंजय की सामर्थ्य को जानने और उसमें बढ़ने की हो जाती है (फिलिप्पियों 3:4-11)। इसी प्रकार से मूसा को भी मिस्र से मिला वहाँ का सर्वोत्तम मानवीय ज्ञान-बुद्धि-सामर्थ्य और योग्यता इस्राएलियों का कुछ भला करने के लिए उसके किसी काम नहीं आए। उसे वह सब छोड़ कर भागना पड़ा। जब वह जंगल में मूक और मूर्ख भेड़ों की देखभाल करते रहने से परमेश्वर के द्वारा प्रशिक्षित कर लिया गया, तब ही परमेश्वर ने उसे अपने लोगों की चरवाही करने के लिए सक्षम करके वापस मिस्र में भेजा, और उसमें होकर अभूतपूर्व कार्य किए, संसार के लोगों के लिए अपने वचन तथा व्यवस्था को दिया।


व्यक्तिगत रीति से तैयार करने के बाद, अब यूहन्ना 16 अध्याय में सार्वजनिक मसीही सेवकाई से संबंधित बातें प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के सामने रखीं। इन बातों का आरंभ यूहन्ना 16:7 “तौभी मैं तुम से सच कहता हूं, कि मेरा जाना तुम्हारे लिये अच्छा है, क्योंकि यदि मैं न जाऊं, तो वह सहायक तुम्हारे पास न आएगा, परन्तु यदि मैं जाऊंगा, तो उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा” से होता है, जहाँ फिर यूहन्ना 13 अध्याय से आरंभ हुए इस वार्तालाप में चौथी बार प्रभु शिष्यों से कहता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा उनके पास और उनमें रहने के लिए प्रभु के भेजे जाने के द्वारा ही आएगा; अर्थात प्रभु के शिष्यों के लिए प्रभु परमेश्वर के अतिरिक्त परमेश्वर पवित्र आत्मा को उपलब्ध करवाने का और कोई तरीका नहीं है। पवित्र आत्मा परमेश्वर है, और सार्वभौमिक, सर्वसामर्थी, सर्वज्ञानी, सृजनहार है; वह मनुष्य के वश या अधीनता में नहीं है कि मनुष्य के कहे के अनुसार कार्य और व्यवहार करे। प्रभु ने अपने महान अनुग्रह और प्रेम में होकर अपने शिष्यों की सहायता के लिए उसे अवश्य प्रदान किया है, किन्तु उसे शिष्यों का सेवक या दास नहीं बना दिया है कि वे अपनी ही इच्छा और समझ के अनुसार उससे, और उसके नाम में लोगों से कुछ भी उलटा-सीधा कार्य तथा व्यवहार करें। जिस दिन प्रभु हिसाब लेगा, और इस हिसाब के लेने का आरंभ प्रभु के लोगों से ही होगा (1 पतरस 4:17), उस दिन पवित्र आत्मा के नाम से किया जाने वाला यह सब बाइबल के वचनों से बाहर का व्यर्थ का और अनुचित व्यवहार, ऐसा करने और सिखाने वालों के लिए बहुत भारी पड़ेगा (मत्ती 12:36-37), किन्तु तब उनके पास बचने का कोई मार्ग नहीं होगा। उन्हें अपने द्वारा परमेश्वर पवित्र आत्मा के प्रति किए गए अपमानजनक व्यवहार और व्यर्थ बातों के लिए दण्ड भोगना ही होगा।


यदि आप मसीही विश्वासी हैं, आपने अपने पापों से वास्तविक पश्चाताप करके प्रभु यीशु से उनके लिए सच्चे मन से क्षमा माँगी है, अपना जीवन प्रभु को समर्पित किया है, प्रभु की आज्ञाकारिता में जीवन जीने का निर्णय किया है, तो यह ध्यान रखिए कि आप अपने इस निर्णय के उचित और सही निर्वाह के लिए प्रभु के प्रति व्यक्तिगत रीति से उत्तरदायी हैं। और मसीही विश्वासी होने के नाते आप से भी स्वर्ग में आपके अनन्तकालीन प्रतिफल निर्धारित करने के लिए आपके व्यवहार, कार्य और बातों का सारा हिसाब अवश्य ही लिया जाएगा (1 कुरिन्थियों 3:13-15; 2 कुरिन्थियों 5:10; प्रकाशितवाक्य 22:12)। उस समय आप अपने अनुचित, वचन की शिक्षाओं से अलग, वचन के उदाहरणों और बातों से भिन्न व्यवहार के लिए किसी अन्य मनुष्य, या मानवीय मत-समुदायों-डिनॉमिनेशंस के नियमों और रीतियों आदि पर बात नहीं टाल सकेंगे। परमेश्वर का वचन बाइबल आपके हाथ में होते हुए भी, और उसे सिखाने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा आपके साथ होते हुए भी, तथा परमेश्वर द्वारा अन्य विभिन्न साधन उपलब्ध करवाए जाने के बावजूद, क्यों आपने केवल उनके आकर्षक और लाभकारी प्रतीत होने के कारण, मनुष्यों की शिक्षाओं, व्यवहारों, बातों को वचन की शिक्षाओं और उदाहरणों से बढ़कर महत्व दिया - इसका उत्तर आप ही को देना होगा। प्रभु ने आपके लिए सब कुछ करके दिया है, उसके द्वारा दिए गए इन अद्भुत प्रयोजनों का सदुपयोग करना तो आपके हाथों में है। उसने आपके लिए उत्तम भोज सजा कर दिया है, सेंत-मेंत उपलब्ध करवा दिया है; फिर भी यदि आप व्यर्थ और हानिकारक भोजन खाकर हानि उठाएं, तो प्रभु को तो उसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, तथा पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 49-50 

  • रोमियों 1


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English Translation

Accountability Regarding the Holy Spirit - John 16:7


We have seen the role of God the Holy Spirit in the personal life of a Christian Believer in the previous articles; how He teaches and prepares a disciple of the Lord Jesus, brings to his remembrance what the Lord Jesus taught and said, provides him the safety and security, etc. for his ministry. It is only because of this that the disciple of Christ is able to face and overcome the devices and plans of “the ruler of this world”, i.e., Satan and his angels. A Christian Believer can only be effective when he has become adequately prepared for his ministry, and it is the Holy Spirit who prepares him, and makes him effective in his ministry. No ability, no characteristic, no education and training, no experience of any Believer can be of any use, unless the Holy Spirit makes him ready and useful in His own manner - as we see from the life of Paul. Paul was taught by the best teacher, Gamliel, and received the highest possible education of his time, was trained to be a Pharisee - a master of the Scriptures, and yet he was of no use for God, rather he was a cause for pain and problems in the Christian Ministry. But once he came to faith in the Lord Jesus, it was only then that the Holy Spirit could put his education, training, knowledge, experience, understanding, work, etc. to proper use and he could be made effective for the Lord. After coming to the right understanding of the truth about the Lord Jesus, Paul called all of his previous knowledge, understanding, training, experience, etc., from human sources to be “rubbish”; and his yearning was no longer for gaining knowledge, wisdom, and commendation from men, but to know the power of the resurrection of the Lord Jesus and to grow in Him (Philippians 3:4-11). Similarly, Moses also could not put any of the knowledge, wisdom, and abilities he learnt in Egypt, the best learning center of that time, to any use for helping the Israelites. He had to run away from Egypt. Only after he had been trained by God through tending the dumb sheep, did God send him back into Egypt to look after His people, and did wonderful unprecedented works through him, gave His Law and Word through him for the world.


Having talked to the disciples about the role of the Holy Spirit in their personal lives, in John chapter 16, the Lord talked to them about His role in their ministry, on which they would embark in the near future. This starts with the Lord’s statement in John 16:7, “Nevertheless I tell you the truth. It is to your advantage that I go away; for if I do not go away, the Helper will not come to you; but if I depart, I will send Him to you.” Once again, in this discourse which had begun in John chapter 13, for the fourth time, the Lord tells the disciples that the Holy Spirit will only come to them to be with them and reside in them, when He sends Him. In other words, for the disciples of the Lord, there was no other way to receive God the Holy Spirit. The Holy Spirit is God, He is omnipotent, omnipresent, omniscient, creator; He is not under the command or control of any person, that the person may say and He will have to do accordingly. The Lord God in His great mercy and grace has given Him to His disciples as their helper, but has not made Him the servant or sub-ordinate of His disciples, that they may use Him in any way they want, and speak to the people about Him whatever comes to their minds, do any kind of odd behavior in His name, teach others strange things not given in God’s Word the Bible.


The day the Lord sits on His judgement throne and starts taking an account - and this accounting will begin with God’s people (1 Peter 4:17), all these unBiblical contrived things being practiced, preached, and taught will be a very difficult thing to explain and answer for by those who indulge in them (Matthew 12:36-37); they will have no way to escape from Lord God’s judgement about it all. They will have to suffer the consequences of their derogatory, demeaning, and unBiblical attitude and behavior towards the Holy Spirit.


If you have repented of your sins, sincerely asked forgiveness for them from the Lord Jesus, and have surrendered your life to the Lord Jesus to live a life of obedience to Him, i.e., you are a Christian Believer, then bear in mind that you are accountable and answerable to the Lord Jesus for properly carrying out this decision that you have made. For your eternal rewards in heaven, you will surely be called to answer for your attitude, behavior, works, all you speak and say, etc. (1 Corinthians 3:13-15; 2 Corinthians 5:10; Revelation 22:12). At that time, you will not be able to pass on the blame for your strange, odd, unBiblical behavior, preaching, teaching, and works etc., to others; to sects, groups and denominations and their practices, their rules and regulations etc. Because you had the Word of God in your hand and God’s Holy Spirit was there with you to teach the Word to you, God had also made available other resources to help you learn His Word; the example of so many other people of God was also there for you to see and emulate, and yet you chose to accept, believe, and follow unBiblical teachings and practices devised by men, just because they seemed attractive and beneficial. The Lord has done and provided all that is required for you to live a life pleasing and acceptable to Him; now it is up to you to make use of His provisions. He has prepared and freely made available the best meal and has set the table for you; if you still go and partake of vain, unhealthy food, you cannot hold God responsible for the consequences of your own decisions.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 49-50 

  • Romans 1