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मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

प्रभु भोज – पुराने नियम का आधार (6) / The Holy Communion - The OT Foundation (6)

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निर्गमन 12:7 - प्रभु की मेज़ - आज्ञाकारिता एवं समर्पण के बाद ही भाग लें


हम प्रभु भोज, या, प्रभु की मेज़ के बारे में यह अध्ययन पुराने नियम में दिए गए उसके प्ररूप, फसह, जिसका वर्णन निर्गमन 12 और मूसा में होकर परमेश्वर के द्वारा दी गई व्यवस्था में दिया गया है, को आधार बना कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि प्रभु यीशु ने प्रभु भोज, या, इस मेज़ को अपने शिष्यों के साथ फसह का भोज खाने के दौरान, उसी भोज की सामग्री के द्वारा किया था। साथ ही, न तो प्रभु यीशु ने इस मेज़ या प्रभु भोज को स्थापित करते समय, और न ही बाद में पवित्र आत्मा की प्रेरणा और अगुवाई से नए नियम के लेखों को लिखने वाले लेखकों ने, फसह के लिये परमेश्वर द्वारा दी गई विधियों या निर्देशों में से किसी एक को भी न तो रद्द किया, न उसमें कोई परिवर्तन किया, और न ही उसके स्थान पर कोई अन्य बात लागू की; वरन, सभी ने उन्हीं विधियों और निर्देशों के आधार पर ही आगे कहा। हमने यह भी देखा था कि दोनों, फसह और प्रभु भोज, परमेश्वर के लोगों के लिये दिए गए; न कि उनमें भाग लेने से कोई परमेश्वर का जन बन जात है। परमेश्वर के वचन और निर्देशों से संबन्धित यह और ऐसी ही अन्य गलत शिक्षाएं शैतान द्वारा मसीहियत में डाल दी गईं क्योंकि लोग परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और उसके सत्य एवं तथ्य सीखने, तथा व्यक्तिगत जीवन में उनका पालन करने और उन्हें कलीसिया के जीवन में लागू करने के प्रति उदासीन और बेपरवाह हो गए हैं। इसके स्थान पर अब लोग केवल पुल्पिट से दिए गए संदेशों को सुनने और बिना वचन से उन्हें जाँचे और उनकी पुष्टि करे, उन्हें स्वीकार करने और पालन करने वाले हो गए हैं। इस कारण से वे अब परमेश्वर की इच्छा जान कर उसे पूरा करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले होने की बजाए मनुष्यों को प्रसन्न वाले, अर्थात, उनके धार्मिक अगुवे जो भी उन्हें कहते हैं, उसी का पालन करने वाले बन गए हैं। इन बातों के कारण, प्रभु भोज के बारे में परमेश्वर के निर्देशों को सीखने और मानने की बजाए, लोग केवल एक औपचारिकता या रीति के समान प्रभु की मेज़ में भाग लेने वाले हो गए हैं; लेकिन फिर भी यही समझते और मानते हैं कि ऐसा करने से वे परमेश्वर को स्वीकार्य और स्वर्ग में प्रवेश के योग्य हो जाएंगे, जो बाइबल के अनुसार कदापि सही नहीं है। परमेश्वर द्वारा निर्गमन 12 अध्याय में दिए गए निर्देशों से हमने प्रभु भोज के अर्थ एवं महत्व के बारे में कई बातें सीखीं हैं। आज हम निर्गमन 12:7 में दिए गए परमेश्वर के अगले निर्देश के बारे में देखेंगे, और प्रभु भोज में अपने सम्मिलित होने के विषय शिक्षा लेंगे। पद 7 हमें बताता है कि मेमने के बलि किए जाने के बाद फिर आगे क्या करना था। मेमने के बलि करने पर उसका लहू बहता था। बलि चढ़ाने की उस रात्रि को, परमेश्वर का न्याय मिस्र पर, जिसने परमेश्वर के लोगों को बंधुवाई में रखा हुआ था, आना था; और उसका मृत्यु का दूत मिस्र में प्रत्येक पहलौठे को मारने वाला था, वह चाहे मनुष्य का हो या पशु का (निर्गमन 12:12)। वह मिस्रियों के लिये न्याय की, और इस्राएलियों के लिए छुटकारे की रात होनी थी; सांकेतिक रीति से संसार के लिये न्याय और परमेश्वर के लोगों के लिये छुटकारे का समय होना था।

 

निर्गमन 12:7 - पिछले लेख में हमने देखा था कि फसह के मेमने को महीने के चौदहवें दिन गोधूलि के समय बलि किया जाना था, और किस प्रकार से परमेश्वर के मेमने, प्रभु यीशु मसीह का क्रूस पर चढ़ाया जाना और मारा जाना इस बात को पूरा करता था। किन्तु इस्राएलियों को भी कुछ करना था, परमेश्वर में अपने विश्वास और उसकी आज्ञाकारिता के लिए सहमत होने को दर्शाने के लिए उन्हें अपने घरों की चौखटों और अलंगों पर जिस मेमने को उन्होंने बलि किया था, उसी के लहू को लगाना था। परमेश्वर ने कहा था जिस भी घर पर लहू लगा होगा वह उसे छोड़ देगा; उसके अतिरिक्त जितने भी घर होंगे उन में पहलौठे मारे जाएंगे।


जिस प्रकार से इस्राएलियों को बलि किए हुए मेमने के लगाए हुए लहू में न्याय और मृत्यु से बचने के लिये भरोसा रखना था, इस नए नियम के समय में लोगों को प्रभु यीशु के बहाए हुए लहू पर अपने पापों की क्षमा, उनसे छुड़ाए जाने और उनकी शुद्धि के लिए भरोसा रखना है (रोमियों 3:25; इफिसियों 1:7; कुलुस्सियों 1:14; 1 यूहन्ना 1:7; प्रकाशितवाक्य 1:5), परमेश्वर के न्याय और पापों के दण्ड से बचने के लिए।


यहाँ पर थोड़ा रुक कर इस अद्भुत तथ्य, इसके महत्व, तथा तात्पर्यों पर कुछ विचार करने की आवश्यकता है। प्रभु परमेश्वर द्वारा यह पहचान करने के लिए कि किस घर में जाना है, और किस को लांघना या छोड़ना है - इसीलिए उसे लाँघन पर्व भी कहा गया है, केवल एक ही तरीका दिया गया था। बलि किए हुए मेमने के लहू को चौखटों और अलंगों पर लगाने के अतिरिक्त मृत्यु के घर में आने से रोकने का और कोई तरीका नहीं था। परमेश्वर द्वारा निर्धारित विधि के अनुसार लहू लगाना परमेश्वर में विश्वास और उसकी आज्ञाकारिता में रहने का चिह्न था। उसी प्रकार से, आज, प्रभु यीशु में विश्वास करने, उसके लहू के बहाए जाने, और कलवरी के क्रूस पर दिए गए उसके बलिदान को स्वीकार करने, उसके बहाए गए लहू के अधीन आने, अर्थात प्रभु यीशु को व्यक्तिगत रीति से अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के अतिरिक्त किसी के लिए भी पापों के लिए न्याय और दण्ड से बचने का और कोई तरीका नहीं है। यह किसी मनुष्य की कही हुई बात नहीं है, जैसा निर्गमन 12 में था, इस युग में भी, यह बात परमेश्वर द्वारा ही निर्धारित की गई तथा कही गई है। परमेश्वर के निर्देश अटल, अपरिवर्तनीय, तथा पूर्ण रूप से मान्य हैं।


किसी के लिए भी यह सोचना कि वह परमेश्वर की दृष्टि में किसी अन्य रीति से धर्मी और स्वीकार्य हो सकता है, जैसे कि, धर्मी या भक्त होने, भले कार्य करने, अपने डिनॉमिनेशन के सभी रीतियों, परंपराओं एवं विधियों, और अनुष्ठानों का पालन करने, भले होने, लोगों की दृष्टि में प्रशंसनीय एवं सराहनीय होने, आदि, उस व्यक्ति का परमेश्वर में तथा परमेश्वर की कार्य-विधि में अविश्वास करना है। यह पाप में गिरे हुए मनुष्य का परमेश्वर से यह कहना है कि वह अपनी पाप के द्वारा भ्रष्ट बुद्धि से भी अपने लिए सोच सकता है और परमेश्वर से भी बेहतर तरीका निकाल सकता है, वह करने के लिए जिसके लिए परमेश्वर को इतना पीड़ा दायक और वीभत्स तरीका अपनाना पड़ा। यह करने और समझने का अभिप्राय है कि जिस काम को करने के लिए प्रभु यीशु को स्वर्ग की महिमा छोड़ कर पृथ्वी पर मनुष्य बनकर आना और रहना पड़ा, घोर अपमान और तिरस्कार तथा कठोर सताव सहना पड़ा, और अन्ततः निष्पाप और निष्कलंक होते हुए भी एक अपराधी के समान निंदनीय मृत्यु को सहना पड़ा; मनुष्य अपने कार्यों और विधियों के द्वारा उसी कार्य को कर सकता है, और वह भी साथ ही संसार से प्रशंसा और सराहना को अर्जित करते हुए। यह परमेश्वर का, प्रभु यीशु मसीह और क्रूस पर दिए गए उसके बलिदान का अपमान करना है, उसे ठट्ठों में उड़ाना है; अपने आप को परमेश्वर से भी बढ़ाकर दिखाना है; जो घमण्ड और अपनी बड़ाई करने का वही पाप है जो स्वर्ग में लूसिफर ने किया, और उसे स्वर्ग से निकाल कर गिरा दिया गया, वह शैतान बन गया। ऐसी सभी प्रवृत्तियों और प्रयासों को बाइबल पहले ही व्यर्थ और निकम्मा बता चुकी है (इफिसियों 2:1-9; 1 पतरस 1:18-19) और उनका तिरस्कार किया जा चुका है। यह केवल और केवल परमेश्वर के बलि के मेमने - प्रभु यीशु मसीह, के लहू के नीचे आने, उसे समर्पित हो जाने, “उसके लोग” हो जाने ताकि वह उन्हें उनके पापों से बचा सके (मत्ती 1:21) के द्वारा ही संभव है कि लोग अनंतकाल की मृत्यु - उनके पापों के लिए परमेश्वर के न्याय से बचाए जाएं।


जो प्रभु की मेज़, या प्रभु भोज में भाग लेते हैं, उन्हें इस एहसास के साथ इसमें भाग लेना चाहिए कि जब तक कि वे पहले प्रभु यीशु के बहाए गए लहू की अधीनता में नहीं आए हैं, अर्थात, जब तक कि उन्होंने वास्तविकता में और पूर्णतः अपना जीवन प्रभु को समर्पित नहीं किया है, मनुष्यों के प्रचार और शिक्षाओं का पालन नहीं वरन प्रभु और उसके वचन का पालन करने उसकी आज्ञाकारिता में जीने का दृढ़ निर्णय नहीं लिया है, और मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला नहीं वरन परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला होकर रहने (गलातियों 1:10) को नहीं अपना लिया है, तो वे कुछ भी करें, उनके लिए सब व्यर्थ और महत्वहीन है। मृत्यु के दूत ने यह नहीं देखा कि घर के अन्दर कौन है और कैसा है, उसने केवल यही देखा कि घर के बाहर लहू का चिह्न लगा है कि नहीं। यदि बलि किए गए मेमने का लहू घर के बाहर लगा हुआ था, तो वह उस घर पर से लांघ गया, उसे छोड़ कर आगे बढ़कर गया; अन्यथा उस घर में मृत्यु अवश्य ही आई, चाहे उस घर के लोग औरों की दृष्टि में कैसे भी क्यों न रहे हों। यदि आप प्रभु यीशु के बहाए हुए लहू की अधीनता में नहीं आए हैं, तो आप चाहे जो भी कर लें, आप अपने पापों के कारण परमेश्वर के न्याय और दण्ड को टालने या हटाने नहीं पाएंगे।

 

अगले लेख में हम निर्गमन में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं कि नहीं? क्या आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं कि नहीं? क्या आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु की मेज़ में उसी प्रकार से भाग ले रहे हैं जैसे परमेश्वर ने निर्देश दिये हैं, प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ, बड़ी गंभीरता से मेज़ के महत्व पर मनन करते हुए; या फिर आप किसी डिनॉमिनेशन की परंपरा अथवा किसी के  मनमाने विचारों के अनुसार भाग ले रहे हैं? आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • दानिय्येल 3-4         

  • 1 यूहन्ना 5    


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English Translation


Exodus 12:7 - The Lord’s Table - Participate After Obeying & Surrendering

    We are doing this study on the Holy Communion, or the Lord’s Table, based upon its Old Testament antecedent, the Passover, described in Exodus 12 and in the Law given through Moses by the Lord. We have seen that the Lord Jesus established the Communion or Table while participating in the Passover meal with His disciples and using the elements of the Passover meal. Also, neither the Lord Jesus, while establishing the Communion or the Table, nor the authors of the later New Testament writings under the inspiration and guidance of the Holy Spirit, ever annulled, changed, or replaced anything God had said related to the Passover; rather, they all built upon those instructions. We also saw that both the Passover and the Holy Communion were given for the people of God; and not that their participation in them made them the people of God. This and other wrong teachings about God’s Word and instructions have been brought in by Satan into Christianity, because people have become unconcerned about studying God’s Word, learning its truths, and striving to apply those truths in their own lives and in the practices of the Church. Instead, people are now content with accepting whatever is told to them from the pulpit, without verifying it from God’s Word before following it. This has also turned them into being ‘men-pleasers’, i.e., those who are interested in doing whatever their religious leaders tell them, instead of learning what God wants them to do and doing that, and be a ‘God-pleaser.’ Because of these things, people instead of learning and following God’s instructions about the Communion, are content in participating in the Lord’s Table perfunctorily, as a ritual, while presumptively and quite erroneously believing that doing this has made them acceptable to God and worthy of entering heaven. Through the instructions given by God in Exodus 12 about the Passover, we have learnt many things about what the Holy Communion means, and what its significance is. Today we will see the next instruction given by God in Exodus 12:7, and learn from it for our participation in the Lord’s Table.


Exodus 12:7 - In the last article we had seen that the sacrificial lamb for the Passover had to be killed at twilight on the fourteenth day of the month, and how the crucifixion and death of Lord Jesus - the Lamb of God, fulfilled this requirement. Verses 7 tells us of God’s instructions of what to do next with this sacrificed lamb. In sacrificing the lamb, its blood was shed. The night of this sacrifice, God’s judgment was going to fall on the Egyptians who had kept His people under bondage, and His Angel of death was going to kill every first-born, whether of men or animals in the land of Egypt (Exodus 12:12). It was the night of judgment for the Egyptians and deliverance for the Israelites, symbolically, judgment for the world and deliverance for the people of God. But the Israelites were to do something, as an act of faith in God and a sign of their willingness to obey Him - they had to mark their houses, on the door-posts and the lintel, with the blood of the same lamb that they had sacrificed. God had said that He would spare all the houses which were marked by the blood of the lamb that had been sacrificed; in all the other houses, all the first-born would die.


Just as the Israelites had to trust in the blood of the sacrificed lamb applied to their houses for escaping judgment and death, in the New Testament times, people have to trust in the Lord Jesus’s blood shed for the forgiveness, redemption and cleansing from their sins (Romans 3:25; Ephesians 1:7; Colossians 1:14; 1 John 1:7; Revelation 1:5), to be saved from God’s judgment and punishment for their sins.


One needs to stop and ponder upon this astounding fact, upon its significance and implications. There was only one way given by the Lord God to differentiate which house to visit and execute His retribution, and which house to ‘pass over’ i.e., skip - hence the name “Passover.” Other than applying the blood of the sacrificed lamb to the door-posts and lintel, there was no other means or way of escaping God’s visiting death upon the house. The applying of the blood in the given manner was a sign of faith as well as of obedience to God. Similarly, today, except for trusting in the Lord Jesus, His shedding of His blood, and His sacrificial death on the Cross of Calvary, and coming under that shed blood, i.e., submitting to the Lord Jesus accepting Him as the personal savior, there is no other God given way for anyone to escape judgment and punishment for their sins. No man has said this; like in Exodus 12, in this age too, it is God who has said and ordained this. God’s instructions are irrevocable, unalterable and absolutely binding.

 

For anyone to think that he can be righteous and acceptable to God by some other means, e.g., by being religious, or pious, or doing good works, carrying out all the rites, rituals, ceremonies of their denomination, by being good, well-spoken of and commended by people, etc. is disbelieving in God and not having faith in God’s way of doing things. It is men telling God that they too, with their fallen and sin-corrupted minds, can think and work things out for themselves, even better than God, to accomplish something for which God had to take such a pain-staking and terrible course. It is implying that what the Lord Jesus accomplished by giving up His heavenly glory, coming down to earth and living as a man on earth, being humiliated, rejected, made to suffer severely, and ultimately be killed disgracefully as a criminal, despite being sinless and having done no wrong, a man can accomplish the same through his own methods and works, while simultaneously gathering praise and exaltation from the world. In other words, it is belittling and scoffing God, the Lord Jesus Christ, and the Lord’s sacrifice on the Cross; and raising self to be above God - the same sin of pride and self-aggrandizement that Lucifer committed and was cast out of heaven, became Satan. The Bible has already called any such tendencies and efforts as vain and inconsequential (Ephesians 2:1-9; 1 Peter 1:18-19) and rejected them. It is only one’s coming under the blood of the sacrificial Lamb of God - the Lord Jesus Christ, surrendering to Him, becoming “His people'', so that He can save them from their sins (Matthew 1:21), that can save people from eternal death - God’s judgment for their sin.


Those who partake of the Lord’s Table, the Holy Communion of God, should do so realizing that unless they have first come under the shed blood of the Lord Jesus, i.e., have actually and fully surrendered their lives to Him, committed themselves to live in obedience not to the preaching and teachings of men, but to the Lord and His Word, and have decided to be not ‘man-pleasers’ but ‘God-pleasers’ (Galatians 1:10), everything else is vain and inconsequential. The Angel of death did not see who was inside the house, He only saw what was on the outside of the house. If the blood of the sacrificed lamb was there on the outside, he passed over that house; else death came to that house no matter who or what kind of person was inside. If you have not come under the shed blood of the Lord Jesus, whatever else you do, you will not be able to turn away God’s judgment and punishment for sins.


In the next article we will carry on from here and see the subsequent verses from Exodus. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word, are a new creation for the Lord. That you strive for unity, not divisions and factionalism in the Church, and have been participating as the Lord has instructed to be done, participating with full allegiance to the Lord, in all seriousness, and pondering over its significance; instead of doing it in any presumptive manner, or simply as a denominational ritual. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Daniel 3-4 

  • 1 John 5