Click Here for the English Translation
1 तीमुथियुस 2:15, बच्चे जनने से उद्धार पाने को समझना - भाग (2)
अदन की वाटिका में हुए उस पहले पाप, जिसका परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं, के कार्यान्वित हो जाने में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हव्वा द्वारा उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित भूमिका और कार्य से हटकर, आदम को सौंपे गए कार्य में हाथ डालना था – वह “सहायक” से “निर्णायक” और नियंत्रण करने वाली बन गई। शैतान की बातों और बहकावे में आकर (2 कुरिन्थियों 11:3), न केवल उसने वाटिका से संबंधित कार्य और वहाँ के फलों में से किसे खाना है और किसे नहीं का निर्णय करने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया, तथा बिना आदम से पूछे अपने उस निर्णय को प्रभावी किया, वरन उसने आदम को भी अपने इस गलत निर्णय के पालन में सम्मिलित कर लिया (उत्पत्ति 3:6, 12)। यह आदम की गलती थी कि उसने हव्वा को मना करने के स्थान पर, उसके कहे को माना, और इस प्रकार वह भी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता में आ गया। परमेश्वर द्वारा निर्धारित कार्य और भूमिका के निर्वाह के स्थान पर, दूसरे के कार्य और भूमिका में हाथ डालने के कारण पाप का यह श्राप सारे संसार और सृष्टि पर आ गया (रोमियों 8:19-23), जिसके निवारण के लिए परमेश्वर को स्वर्ग की महिमा छोड़कर पृथ्वी पर अपमानित होने तथा निकृष्ट मृत्यु को सहन करने के लिए आना पड़ा। इस पाप के कारण ही स्त्री को पुरुष की अधीनता में आना पड़ा (उत्पत्ति 3:16) – किन्तु अधीनता में आने का यह अर्थ नहीं है कि उसे पुरुष से हीन अथवा गौण कर दिया गया, उसे निकृष्ट या दासी होकर रहने के लिए कहा गया। परमेश्वर द्वारा यह कहना कि “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा”, कोई नई बात लाना नहीं था, केवल स्त्री के “निर्णायक” होने की बजाए, उसके “सहायक” होने को, जो कि परमेश्वर की मूल योजना थी, उसी बात को फिर से दृढ़ता से व्यक्त और प्रभावी करना था।
क्योंकि परमेश्वर ने स्त्री से “सहायक” रहने के लिए कहा है, इसीलिए वचन में बारंबार स्त्रियों को शांत रहने, पुरुषों को और कलीसिया में प्रचार न करने, और अपने पति से सीखने और उसके अधीन रहने के लिए निर्देश दिए गए हैं (1 कुरिन्थियों 11:3-10; 1 कुरिन्थियों 14:34-35; इफिसियों 5:22-24; कुलुस्सियों 3:18; 1 तिमुथियुस 2:11-12; तीतुस 2:15; 1 पतरस 3:1-6)। यह उन्हें नीचा या गौण दिखाने के लिए नहीं है – क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में वे पुरुषों से किसी भी रीति से कमतर नहीं हैं, दोनों ही समान हैं (प्रेरितों 2:18; 5:14; 8:12; गलातियों 3:28)। वरन यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित उनकी तथा पुरुषों की भूमिका का सही रीति से निर्वाह करने के लिए है; उनके परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बने रहने के लिए है। क्योंकि परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के परिणाम भयानक होते हैं, इसलिए यदि वे उसकी आज्ञाकारिता में नहीं आएँगी तो फिर अपने लिए विनाश ले लाएँगी। जो कार्य और भूमिका, विशेषकर परिवार बनाने और संचालित करने से संबंधित बातें, ममता, सहनशीलता, धैर्य आदि के निर्वाह को जैसा स्त्रियाँ कर सकती हैं, वह पुरुषों के लिए करना असंभव है। सामान्यतः, केवल स्त्री ही परिवार और बच्चों को परमेश्वर का भय और आदर करना सिखा सकती है; पुरुष के लिए यह करना बहुत कठिन है। पुरुष परिवार के लिए परमेश्वर की भक्ति का आदर्श और उदाहरण बन सकता है, किन्तु उस आदर्श और उदाहरण का अनुसरण करना, बच्चों को स्त्री ही सिखा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि वचन के प्रचार और मसीही सेवकाई में स्त्रियों के किसी भी प्रकार से संलग्न होने के लिए मना किया गया है; वचन की शिक्षा तथा सेवकाई में भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है – अन्य महिलाओं और बच्चों के मध्य में (नीतिवचन 31:26-30; 1 तिमुथियुस 5:5-10; तीतुस 2:3-5); बस उन्हें यह प्रचार और शिक्षा, परमेश्वर की बुद्धिमानी और योजना में, पुरुषों और कलीसिया में करने से मना किया गया है। ध्यान कीजिए, मूसा की परवरिश राज-महल में, इस्राएलियों को सताने वाले मिस्रियों की रीति के अनुसार हुई थी, किन्तु उन इस्राएलियों के विपरीत व्यवहार की परिस्थितियों में, मूसा को वह परवरिश देने वाली उसकी अपनी माँ ही थी। परिणामस्वरूप, वयस्क होने पर वह मिस्र की रीति पर नहीं चला, वरन, इस्राएलियों को ही “अपने लोग” और यहोवा को अपना परमेश्वर मानने पाया, जिनके लिए वह मिस्र के राज-सिंहासन और ऐश्वर्य को त्यागने के लिए तैयार हो गया (प्रेरितों 7:22-36; इब्रानियों 11:24-26)। परिवार में स्त्रियों की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता का पुरुषों के पास कोई विकल्प अथवा समाधान नहीं है। बात पुरुष और स्त्री को बड़े-छोटे के दृष्टिकोण से देखने के कारण बिगड़ती है, परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखने और समझने के कारण संभलती है, आशीष लाती है।
अब 1 तिमुथियुस 2:15 के संदर्भ पर आते हैं। बाइबल की कोई भी बात देखने, समझने के लिए उसे उसके तात्कालिक सन्दर्भ, अर्थात उसके आगे-पीछे के पदों के साथ देखना अनिवार्य है, साथ ही उसे बाइबल में लिखी अन्य संबंधित बातों के साथ भी देखना आवश्यक है। इस अध्याय का आरंभ मसीही सेवकाई से संबंधित विवरण के साथ होता है (पद 1-8), और फिर मसीही समाज में स्त्रियों के व्यवहार से संबंधित निर्देश दिए गए हैं (पद 9-12), तथा स्त्रियों को दिए गए इन निर्देशों का कारण समझाया गया है (पद 13-14)। क्योंकि पौलुस को, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में, तिमुथियुस को ये निर्देश देने पड़े, इसलिए यह एक स्वाभाविक निष्कर्ष है कि तिमुथियुस जिस कलीसिया का अगुवा था, जिसकी देखभाल का दायित्व उसे सौंपा गया था, उसमें ऐसा नहीं हो रहा था। प्रत्यक्षतः, वहाँ पर स्त्रियाँ वह कर रही थीं जो परमेश्वर के वचन और मसीही विश्वास की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं था। स्त्रियाँ, परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए दायित्व और भूमिका को छोड़ कर पुरुषों की भूमिका और कार्य में हाथ डाल रही थीं – वही पाप कर रही थीं जो हव्वा ने अदन की वाटिका में किया। इस कारण वे परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की दोषी थीं, उस अनाज्ञाकारिता के दुष्परिणाम उन पर आने थे। उनके द्वारा स्वयं पर लाई गई इस विकट स्थिति से “उद्धार” अर्थात छुटकारा लेने और बहाल होने के लिए ही उन्हें यह कहा गया कि वे “बच्चा जनने” के द्वारा यह करने पाएँगी; अर्थात अपने पति के साथ मिलकर उसके “सहायक” की भूमिका के निर्वाह के द्वारा, परिवार में अपनी भूमिका के सही निर्वाह, परिवार और बच्चों की अच्छी देखभाल और सही परवरिश के द्वारा, वे अनाज्ञाकारिता का पाप करने की अपनी इस प्रवृत्ति से निकलने पाएंगी – उस से “उद्धार” पाएँगी – न कि वह आत्मिक उद्धार पाएंगी जिसका उल्लेख रोमियों 10:9-13 में किया गया है। इसीलिए इस 15 पद का दूसरा भाग कहता है, “यदि वे संयम सहित विश्वास, प्रेम, और पवित्रता में स्थिर रहें।” क्योंकि जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम रखता है, वह परमेश्वर के वचन और निर्देशों पर विश्वास भी रखेगा, और चाहे स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा संसार के लोगों के द्वारा उकसाया जाना कैसा भी हो, वह संयम के साथ परमेश्वर के वचन का आज्ञाकारी रहेगा, और अनाज्ञाकारिता के पाप से दूषित नहीं वरन वचन की आज्ञाकारिता की पवित्रता में स्थिर बना रहेगा। बच्चा जनने का अभिप्राय पारिवारिक दायित्व का ठीक से निर्वाह करना है; और इस पद का तात्पर्य स्त्रियाँ पुरुषों के कार्यों में हाथ डालने के स्थान पर, अपने दायित्वों के निर्वाह में लौट आने और उन्हें ठीक से निभाने के द्वारा अनाज्ञाकारिता के दण्ड से बचाई जाएँगी, है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
***********************************************************************************
Understanding Being Saved in Childbearing,
1 Timothy 2:15 - Part (2)
In the committing of the first sin in the Garden of Eden, whose consequences we are still suffering, there was a very major role of Eve taking upon herself a role entrusted to Adam, instead of continuing to fulfill the role and responsibilities assigned to her by God. Instead of remaining as Adam's "helper" she took on the role of being not only the "decision-maker" but also of ensuring implementation of her decision. Getting beguiled by Satan's clever talk (2 Corinthians 11:3), she not only took it upon herself to decide and implement which fruit should be eaten, but also made Adam to eat of the forbidden fruit (Genesis 3:6, 12). Adam's error was that instead of refusing Eve and disallowing her eating the fruit, he too did what she said, and therefore made himself a party to her disobeying God; he too became guilty of the sin of disobedience. Instead of fulfilling God given role and responsibility, putting her hand into the other person's role and responsibility, sin entered and its curse has affected the whole creation (Romans 8:19-23), and to mitigate the effects of this sin God had to leave the glory of heaven, come down to earth to be humiliated and ridiculed, and to suffer the abominable death on the cross. It was because of this sin that Eve and womankind had to come under the subjugation of Adam and mankind (Genesis 3:16) - but this subjugation does not mean she had to become lesser or inferior to man and live a contemptible life as a slave of man. God's saying "Your desire shall be for your husband, And he shall rule over you" was not stating or bringing in something new; it was only firmly emphasizing and ensuring that woman was to live and function as man's "helper" and not as the "decision-maker" and "controller", as was God's original plan for women.
Because God has asked the woman to be man's "helper", therefore God's Word repeatedly asks women to remain quiet, not to preach to men or in the Church, and to learn from their husbands and remain under his authority (1 Corinthians 11:3-10; 1 Corinthians 14:34-35; Ephesians 5:22-24; Colossians 3:18; 1 Timothy 2:11-12; Titus 2:15; 1 Peter 3:1-6). This is not to show them as inferior or lesser – because in God's eyes they are not in the least inferior to men, rather, both are equal (Acts 2:18; 5:14; 8:12; Galatians 3:28). But it is to ensure a proper fulfilling of the roles of men and women as envisaged by God; and for them to remain in obedience to God. Since the consequences of disobeying God are catastrophic, therefore if they do not bring themselves under the obedience of God, they will suffer destructive consequences. The work and role, specially the one related to making and building a family, to demonstrating motherly love and care, patience, forbearance etc. the way women can do, is virtually impossible for men to do likewise. Generally speaking, only the woman can teach the family and children to reverence and obey God; but this is a challenging task for men. A man can make himself an example of godly living, but only a woman can teach the children to emulate that example set up by the man. Also, it is not that the women have been absolutely forbidden to preach or minister God's Word to others; they have a very important role to play in the teaching and preaching of God's Word - but to other women and to children (Proverbs 31:26-30; 1 Timothy 5:5-10; Titus 2:3-5); only that in God's wisdom and planning, they have been forbidden from doing this in the Church or to men. Take note, Moses had been brought up in the royal palace, and taught by the very Egyptians who oppressed the Israelites. But in that environment of opposing the Israelites, it was Moses' mother who had been responsible for his upbringing. Consequently, as an adult, Moses did not walk and work like the Egyptians, but considered the Israelites as "his people" and Jehovah as his God, and for this he was even willing to sacrifice his Egyptian royal status and life of luxury (Acts 7:22-36; Hebrews 11:24-26). This is a very important role and function of ladies in a family, for which the men have no alternative solution. Looking at men and women from the superiority-inferiority, major-minor, better-worse perspective only brings problems; but looking at them from God's perspective and understanding the issue as God wants it understood brings peace and blessings.
Now let us look into the immediate context of 1 Timothy 2:15. To analyze and understand anything from the Bible, it is imperative to look at it in its immediate context - along with the verses before and after it; moreover, it should also necessarily be seen along with the other related things given in the Bible. This chapter begins with instructions related to Christian service (vs. 1-8), followed by instructions related to behavior of women in Christian society (vs. 9-12), and the reason for this is also given (vs. 13-14). Because Paul, under the guidance of the Holy Spirit, necessarily had to give these instructions to Timothy, therefore it is an obvious conclusion that in the Church where Timothy was an elder or leader and had the responsibility of shepherding it, things were not being done according to God's instructions. Evidently, the ladies in that Church were doing things that were not in accordance with God's Word and Christian teachings. The women, having left their God given role and responsibilities, were involving themselves in the roles and responsibilities of men - were committing the same sin that Eve did in the Garden of Eden. Therefore, they were guilty of the sin of disobeying God, and would have had to suffer the deleterious consequences of their disobedience. It was to "save" or deliver them from the harmful consequences of their self-inflicted disobedience and to restore them to their correct positions, that they were told to "be saved in childbearing"; the implication was that by living out their proper role as the "helper" of their husbands and of "home-makers" and other family responsibilities, e.g. proper upbringing and teaching of children and taking care of the family, they will be able to "save" themselves from the consequences of committing this sin - they will thus be "saved" from both, the tendency and its consequences. This "being saved" is not the spiritual salvation that Romans 10:9-13 is talking about. That is why, the second part of this verse says, "if they continue in faith, love, and holiness, with self-control." Because whosoever truly 'loves' God, will also 'believe' in and be obedient to God's Word, and will not defile herself by disobedience, rather will remain firm in the 'holiness' of obedience, exercising 'self-control' no matter what the provocation by their natural tendencies or the ways and teachings of the world may be. The implication of the phrase 'childbearing' is to properly fulfill their familial responsibilities and role; and the meaning of this verse is that the women by reverting back to their role of home-makers and looking after their families, instead of getting into the roles and responsibilities given to men, will be able to "save" or deliver themselves from the consequences of disobedience.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Please Share The Link & Pass This Message To Others As Well