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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 5
पिछले लेख में हमने राजा योशिय्याह के उदाहरण से देखा था कि वास्तविक पश्चाताप जीवन में आए परिवर्तन से प्रमाणित होता है; व्यक्ति के जीवन में दिखाई देने वाले परिवर्तनों से, उस व्यक्ति के द्वारा अपनी पुरानी बातों और व्यवहार को छोड़ कर अपने जीवन और व्यवहार में नई बातों को, जो परमेश्वर के वचन और इच्छा के अनुसार हैं, ले आने के द्वारा। न केवल व्यक्ति में परिवर्तन आता है, वरन उस में साथ ही यह इच्छा भी आ जाती है कि अन्य लोग भी जो अभी अपनी गलतियों में बने हुए हैं, वे भी परिवर्तित हो जाएँ। साथ ही हमने योशिय्याह के उदाहरण से यह भी देखा था कि इसका ‘धार्मिक’ या ‘भक्त’ होने से कोई लेना-देना नहीं है; योशिय्याह, ‘धार्मिक’ और ‘भक्त’ दोनों ही था, और पहले से ही वह काम कर रहा था जो परमेश्वर की दृष्टि में सही थे, तथा अपने पूर्वज दाऊद के मार्गों में चला करता था (2 इतिहास 34:2), और वह बड़ी लग्न से अपने राज्य में से मूर्ति पूजा की सभी बातों को नष्ट करने में लगा हुआ था (2 इतिहास 34:3-8), जब परमेश्वर का वचन उसे पढ़कर सुनाया गया। उसके धर्मी, भक्त, और प्रभु के लिए उत्साही, अर्थात ऐसा होने के बावजूद जैसा हम में से अधिकाँश कभी होने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, जब उसने परमेश्वर के वचन को सुना, उसे तुरन्त ही परमेश्वर के मानकों के सम्मुख अपनी वास्तविक दशा का बोध हो गया। परमेश्वर के वचन ने उसे कायल किया, और वह पश्चाताप में परमेश्वर के सम्मुख आ गया (2 इतिहास 34:19), जो फिर उसके बदले हुए जीवन और कार्यों के द्वारा प्रमाणित हुआ – वही बात जिसकी माँग यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला फरीसियों से कर रहा था (मत्ती 3:7-8)। हम यही बात अय्यूब के जीवन में होती हुई भी देखते हैं; अय्यूब खरा, सीधा, परमेश्वर का भय मानने वाला, और बुराई से परे रहने वाला व्यक्ति था (अय्यूब 1:1); और उसके विषय परमेश्वर ने दो बार कहा कि पृथ्वी पर उसके समान और कोई नहीं था (अय्यूब 1:8; 2:3)। अय्यूब की सम्पूर्ण पुस्तक में, अय्यूब अपने निर्दोष और धर्मी होने पर दृढ़ता से बना रहता है और उसके मित्रों के द्वारा उस पर लगाए जा रहे दोषों का खण्डन करता रहता है। परन्तु अन्ततः, जब उसका सामना परमेश्वर से होता है, उसे तुरन्त ही अपनी वास्तविक दशा का एहसास हो जाता है, और वह परमेश्वर के सम्मुख पश्चाताप में आ जाता है, अपने आप को तुच्छ और घृणित कहता है (अय्यूब 40:3-4; 42:5-6)।
इसलिए वे लोग जो अपने ‘धार्मिक’ और ‘भक्त’ होने को पश्चातापी होने के समान या उसके तुल्य होना समझते हैं; जो लोग यह सोचते हैं कि उनके धार्मिक रीतियों, विधियों, और त्यौहारों का निर्वाह करने से, उनके द्वारा विभिन्न प्रकार के ‘धार्मिक कार्य’ करने से, वे भी ‘पश्चातापी’ या मन-फिराव वाले लोगों की श्रेणी में गिन लिए जाएँगे, उन्हें अपने बारे में फिर से विचार करने और इस घोर गलत धारणा से बाहर निकलने की आवश्यकता है। जिन फरीसियों को यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने धिक्कारा था, और उन्हें ‘सांप के बच्चों’ तक कह दिया था, वे बड़े धर्मी लोग होते थे; प्रभु यीशु मसीह ने भी उनके धर्मी होने को माना था, परन्तु उनकी धार्मिकता को स्वर्ग में प्रवेश करने के लिए पर्याप्त नहीं माना (मत्ती 5:20)। उन बहुत धर्मी और भक्त फरीसियों के सरदार, नीकुदेमुस से प्रभु यीशु ने दो टूक कह दिया कि यदि वह नया-जन्म न ले, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश तो दूर, वह उस देख भी नहीं सकेगा (यूहन्ना 3:3, 5)। वे भक्त यहूदी (प्रेरितों 2:5), जो यरूशलेम में अपने धार्मिक कर्तव्यों और रीतियों को पूरा करने के लिए एकत्रित थे, पिन्तेकुस्त के दिन जब उन्होंने पतरस का प्रचार सुना, तो उस से उनके हृदय छिद गए, और वे परिस्थिति के समाधान के लिए पुकार उठे, पूछने लगे कि उन्हें क्या करना चाहिए, तो पतरस का उत्तर था कि वे मन फिराएं अर्थात पश्चाताप करें (प्रेरितों 2:37-38)। पौलुस एक बहुत धर्मी तथा परमेश्वर के लिए बहुत उत्साही फरीसी था, इतना कि वह दावे के साथ यह कह सका कि व्यवस्था के आधार पर वह निर्दोष था (फिलिप्पियों 3:4-6); परन्तु जब उसका सामना प्रभु यीशु से हुआ, वह पश्चाताप में आ गया, और उसका जीवन पूर्णतः बदल गया।
इसलिए कृपया शैतान के इस झाँसे में न फँसें, कि धर्मी, भक्त, श्रद्धापूर्ण आदि होने के द्वारा, तथा धार्मिक कार्यों, और रीतियों के निर्वाह के द्वारा वे स्वतः ही पश्चातापी या मन-फिराव किए हुए भी मान लिए है जाते हैं – कदापि नहीं; ऐसा कभी संभव नहीं। जैसा कि परमेश्वर के वचन के इन उदाहरणों से स्पष्ट है, धार्मिक होना पश्चातापी होना नहीं है; और हर किसी को, परमेश्वर के अनुयायियों को भी – उस समय यहूदियों और उनके धार्मिक अगुवों को, और अब उनके साथ मसीहियों या ईसाइयों और उनके धार्मिक अगुवों को, सभी को पश्चाताप करना है; क्योंकि यह परमेश्वर की आज्ञा है (प्रेरितों 17:29-31)। यह आज्ञा वैकल्पिक नहीं है, और न ही यह ऐसी है जो कुछ लोगों के लिए लागू मानी जाए किन्तु अन्य लोगों के लिए नहीं; परमेश्वर की आज्ञा है कि हर स्थान पर, हर किसी को पश्चाताप करना ही है (पद 30), और यही इसका अर्थ भी है – हर स्थान पर हर किसी को।
अगले लेख में हम पश्चाताप के बारे में कुछ बातों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 5
In the previous article, we had seen through the example of King Josiah that true repentance is evidenced by a changed life; changes that are evident in the persons works, in his giving up the old things and behavior and bringing in new things and behavior in life, things that are in accordance with God’s Word and will. Not only does the person change, but there comes in a desire in that person to see others, who are still in their errors repent and change as well. We also saw from Josiah’s example, this has nothing to do with being ‘religious’ or ‘devout;’ Josiah was both ‘religious’ as well as ‘devout’ and already doing things that were right in the sight of God, was walking in the ways of his forefather David (2 Chronicles 34:2), and was zealously destroying all pagan worship in his kingdom (2 Chronicles 34:3-8) when God’s Word was read to him. On hearing God’s Word, despite his being religious, devout, zealous for the Lord in a manner that hardly anyone of us can ever think of being, he immediately realized his actual state as per the standards of God’s Word. He was convicted by God’s Word and he came down in repentance (2 Chronicles 34:19), which was then evidenced by his works and changed life – which was what John the Baptist had demanded of the Pharisees (Matthew 3:7-8). We see the same thing happening to Job, a person who was blameless, upright, feared God and shunned evil (Job 1:1), and for whom twice God says that there was none like him on earth (Job 1:8; 2:3). Throughout the Book of Job, Job keeps holding his grounds of being blameless and righteous and disproving the charges being levelled against him by his friends. But eventually, when he is confronted by God, he immediately realises his actual condition, and comes down in repentance before God, calling himself vile and abhorring himself (Job 40:3-4; 42:5-6).
So, those who equate being ‘religious’ and ‘devout’ with being repentant; those who think that their fulfilling religious rituals, feasts and festivals, and carrying out ‘religious works’ of various kinds qualifies them as those who are ‘repentant’ need to think again about their gross misconception. The Pharisees whom John the Baptist rebuked, calling them a ‘brood of vipers’ were very religious people; even the Lord Jesus acknowledged their righteousness, but also called it inadequate to enter the Kingdom of God (Matthew 5:20). To Nicodemus, the leader of these very religious and pious Pharisees, the Lord Jesus categorically stated that unless he was Born-Again, he would not even see the Kingdom of God. Let alone enter it (John 3:3, 5). To the devout Jews (Acts 2:5) gathered in Jerusalem to fulfil their religious obligations and requirements, when they were cut to their hearts on listening to Peter’s sermon on the day of Pentecost, and wanting to know what to do to rectify the situation, Peter asked them to repent (Acts 2:37-38). Paul was a very religious and zealous for God Pharisee, so much so that he could boldly claim that as far as the Law was concerned, he was blameless (Philippians 3:4-6); but when confronted by the Lord Jesus, came down in repentance, and his life changed altogether.
So, please do not fall for this ploy of Satan, who deceives by making people think that by being religious, devout, and pious, by fulfilling religious rituals and works, they automatically also become repentant – no way! As these examples from God’s Word amply illustrate, being religious is not the same as being repentant; and everyone, even the followers of God – the then Jews and their religious leaders, and now also the Christians and their religious leaders, everyone must repent; for this is the commandment of God (Acts 17:29-31). This command is not optional, and neither is it meant only for some and not for others; the command of God is that all men everywhere must repent (v. 30), and that is what it means – all men everywhere.
We will see some more aspects of repentance in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.