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बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया के कार्यकर्ता और उनकी सेवकाई (1)

प्रेरित 

पिछले लेख में हमने इफिसियों 4:11 से उन पाँच प्रकार के सेवकों और सेवकाइयों के विषय देखा था, जिन्हें प्रभु ने अपनी कलीसिया की उन्नति के लिए स्थानीय कलीसियाओं में नियुक्त किया है। मूल यूनानी भाषा में इन पाँचों सेवकाइयों के लिए प्रयोग किए गए शब्द, वचन की सेवकाई के विभिन्न स्वरूपों को दिखाते हैं। हम बारी-बारी इन पाँचों को कुछ विस्तार से देखेंगे। पिछले लेख में हमने बाइबल की प्रेरितों के काम पुस्तक में से आरंभिक कलीसिया के प्रसार और बढ़ोतरी के इतिहास, तथा कुछ अन्य पदों से, और प्रकाशितवाक्य 2 और 3 अध्याय में उल्लेखित सात कलीसियाओं के उदाहरणों से देखा था कि कलीसिया तथा मसीही जीवन की उन्नति और बढ़ोतरी तब ही देखी गई जब वे प्रभु और उसके वचन की आज्ञाकारिता में बने रहे। वचन में मिलावट करना, उसके साथ समझौता करना, और सच्चे समर्पण के स्थान पर किसी मत या डिनॉमिनेशन के नियमों, रीतियों, परंपराओं आदि की औपचारिकता के निर्वाह पर उतर आना और उसे मसीही विश्वास एवं जीवन का निर्वाह समझ लेना, सदा ही हानि और विनाश का कारण रहा है। 


पिछले लेख के अंत में हमने यह भी देखा था कि मत्ती 28:19-20, और प्रेरितों 2:42 के आरंभिक वाक्यांश के अनुसार, मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं में प्रभु यीशु के वचन की शिक्षा देने का दायित्व प्रभु के शिष्यों, प्रभु द्वारा नियुक्त प्रेरितों (लूका 6:13) को दिया गया था। इसी प्रकार से, इफिसियों 4:11 में वचन से संबंधित प्रथम सेवकाई भी “प्रेरितों” की कही गई है। वर्तमान में, शब्द “प्रेरित” को लेकर बहुत असमंजस और कई प्रकार की गलत शिक्षाएं देखने को मिलती हैं। आज अधिकांश लोगों ने अपने आप को “प्रेरित” कहना आरंभ कर दिया है, और इसे वे अपने लिए एक सम्मान के स्थान, मसीही समाज एवं चर्च में उच्च-स्तर और आदर का स्थान एवं सूचक होने के लिए प्रयोग करते हैं। इसलिए, आज हम “प्रेरित” शब्द को परमेश्वर के वचन बाइबल से कुछ विस्तार से देखेंगे। 


मूल यूनानी भाषा में प्रयुक्त जिस शब्द का अनुवाद प्रेरित किया गया है, उस शब्द का अर्थ है “विशेष अधिकार के साथ नियुक्त किया हुआ”, और यह संज्ञा सर्वप्रथम स्वयं प्रभु ने ही अपने कुछ शिष्यों को दी थी। यह एक सामान्यतः अनदेखी की जाने वाली, किन्तु वास्तव में एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि प्रभु ने अपने सभी शिष्यों को कभी भी, कहीं भी प्रेरित नहीं कहा; वरन अपने सभी शिष्यों में से जिन बारह को उसने विशेषकर चुना था, उन्हें ही यह संज्ञा दी (चुनाव - लूका 6:12-16; पद 13); और सुसमाचारों में अन्त तक उन्हीं बारह के लिए ही “प्रेरित” शब्द प्रयोग किया गया (पकड़वाए जाने से पहले फसह का पर्व – लूका 22:14; पुनरुत्थान के बाद एकत्रित लोगों को बताना – लूका 24:9-10)। अर्थात, स्वयं प्रभु यीशु द्वारा इस शब्द के प्रयोग के अनुसार, प्रभु का प्रत्येक शिष्य, प्रभु यीशु की ओर से, “प्रेरित” नहीं था। और इन बारह को चुनने के पीछे, उनके लिए प्रभु का विशेष अभिप्राय था। जिन्हें प्रभु ने “प्रेरित” कहा था, उन्हें उसके अन्य शिष्यों से कुछ भिन्न होना था, जैसा कि मरकुस 3:13-15 में उनके लिए दिया गया है:

–       वे उसके साथ रहें;

–       वे उसके द्वारा भेजे जाने के लिए तैयार रहें – जब और जहाँ प्रभु भेजे;

–       वे प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करें; और दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार रखें।

        

इन तीनों बातों के कहे जाने के क्रम का भी महत्व है; अकसर लोग अंतिम बात, प्रचार करने और आश्चर्यकर्म करने की सेवकाई के पीछे भागते हैं, किन्तु प्रभु के साथ समय बिताने, और उसके कहे के अनुसार जाकर उसके द्वारा बताए गए कार्य को करने की इच्छा नहीं रखते हैं। किन्तु यहाँ दिए गए क्रम में प्रेरित को, या प्रभु के उस विशिष्ट शिष्य को, सबसे पहले प्रभु के साथ रहने वाला होना है, फिर उसके कहे के अनुसार करने वाला होना है, और तब ही प्रभु से प्रचार या आश्चर्यकर्मों को करने की सामर्थ्य पाने की लालसा रखनी है।


 बाद में नए नियम में शब्द “प्रेरित” का प्रयोग दूसरे रूप में भी किया गया है – एक तो प्रेरित वे थे जिन्हें प्रभु ने नियुक्त किया था; और इस शब्द का दूसरा प्रयोग उनके लिए आया है जो विशेष सन्देश-वाहक थे, जैसे कि बरनबास (प्रेरितों 14:14), प्रभु का भाई याकूब (गलातियों 1:19), संभवतः सिलास (1 थिस्सलुनीकियों 2:6 और 1:1 को साथ देखें), आदि। किन्तु प्रभु के प्रत्येक सेवक को कभी भी प्रेरित नहीं कहा गया – जैसे कि तिमुथियुस, तीतुस, फिलेमोन, उनेसिमुस, इपफ्रूदितुस, आदि महत्वपूर्ण और प्रशंसनीय कार्य करने वाले, महत्वपूर्ण भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियाँ निभाने वाले सेवकों के लिए प्रेरित शब्द नहीं प्रयोग किया गया है।


कलीसिया के कार्यों और देखभाल के लिए नियुक्त किए गए लोगों में भी परमेश्वर के द्वारा प्रेरितों को नियुक्त करने का उल्लेख है (1 कुरिन्थियों 12:28-29; इफिसियों 4:11)। कलीसिया के कार्यों से संबंधित “प्रेरितों” के लिए इन दोनों पत्रियों – कुरिन्थियों और इफिसियों, में स्पष्ट आया है कि उन्हें परमेश्वर ने नियुक्त किया था; वे किसी मनुष्य की नियुक्ति नहीं थे – यह भी बहुत संभव है कि ये प्रेरित, प्रभु द्वारा आरंभ में नियुक्त किए गए वे शिष्य रहे हों, जिन्हें तब प्रभु ने “प्रेरित” कहा था, और अब उन्हें प्रभु द्वारा कलीसियाओं की रखवाली की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई।


वचन यह भी संकेत देता है कि उन आरंभिक प्रेरितों की नियुक्ति के पश्चात, फिर कभी कोई अन्य प्रेरित नियुक्त नहीं  किए गए। कलीसियाओं के बढ़ने के साथ, बाद में तीतुस और तिमुथियुस को लिखी गई पत्रियों में जब कलीसिया के कार्यों को संभालने के लिए, कलीसियाओं के सदस्यों द्वारा, अगुवों की नियुक्ति करने के लिए, कलीसिया के उन सेवकों या अगुवों या प्राचीनों के गुणों के बारे में बताया गया (1 तिमुथियुस 3:1-7; तीतुस 1:6-9), तब वहाँ कलीसिया के कार्यों के लिए मनुष्यों द्वारा प्रेरितों के चुनाव के लिए न तो कहा गया (तीतुस 1:5), और न ही तब प्रेरित नियुक्त होने के लिए कोई विशेष गुण लिखवाए गए। रोमियों 16 में, जो पत्री का अंतिम अध्याय है, पौलुस कई सहयोगियों, मित्रों, सहकर्मियों, लोगों को स्मरण करता है, पहले ही पद में फीबे को डीकनेस भी कहता है, किन्तु 16:7 में अपने साथ के पुराने प्रेरितों को छोड़, पौलुस और किसी को प्रेरित नहीं कहता है। इसी प्रकार 1 कुरिन्थियों 16 में भी किसी के प्रेरित होने का उल्लेख नहीं है, जबकि कई लोगों की उनके मसीही जीवन और कार्यों के लिए सराहना की गई है।


प्रेरितों 1:2-3 में हमें प्रभु द्वारा नियुक्त प्रेरितों की पहचान के लिए दिए गए तीन गुण देखते हैं:

1.     प्रभु द्वारा चुने हुए (पद 2)

2.     प्रभु द्वारा आज्ञा पाए हुए (पद 2)

3.     जिन्होंने पुनरुत्थान हुए प्रभु को देखा (पद 3)

पौलुस के जीवन में भी दमिश्क के मार्ग पर उसे मिले प्रभु यीशु के दर्शन के द्वारा ये तीनों बातें पूरी हुई; और इस बात का दावा वह 1 कुरिन्थियों 9:1-2; 15:9 में करता है।


 जैसे सच्चे प्रेरित थे, वैसे ही शैतान ने अपने लोगों को झूठे प्रेरित बना कर मण्डलियों में मिला दिया (2 कुरिन्थियों 11:13) जिससे प्रभु के कार्य को बिगाड़ सकें, लोगों को सच्चाई के मार्ग से भटका सकें। ये झूठे प्रेरित व्यावसायिक प्रचारक थे, जो लोग-लुभावनी बातों का प्रचार करके (2 तिमुथियुस 4:3-4), श्रोताओं से पैसे लेते थे। ये लोगों से सिफारिश की पत्रियाँ या अपनी प्रशंसा के पत्र लिखवाकर ले आए थे, और पौलुस द्वारा दी गई शिक्षाओं का विरोध करते थे (2 कुरिन्थियों 3:1-3)। प्रभु यीशु ने कहा था कि सच्चे और झूठे भविष्यद्वक्ताओं में भिन्नता उनके फलों से पता चल जाएगी (मत्ती 7:16-20)। प्रभु की इसी बात को आधार बनाकर, पौलुस कुरिन्थियों से कहता है कि तुम ही हमारे प्रशंसा-पत्र, हमारे सिफारिशी पत्र हो – तुम्हें देखकर लोग पहचानते हैं कि उन झूठे प्रेरितों की तुलना में तुम्हारे शिक्षक कौन और कैसे थे। अर्थात, प्रभु द्वारा नियुक्त उन आरंभिक प्रेरितों के अतिरिक्त, बाद की “प्रेरित” नाम से नियुक्तियाँ, संभवतः शैतान द्वारा की गई थीं, प्रभु द्वारा नहीं। उन आरंभिक प्रेरितों के साथ ही प्रेरितों का समय और सेवकाई पूर्ण हो गए। उन प्रेरितों द्वारा परमेश्वर का वचन लिखा गया, सिखाया गया, और उचित प्रयोग के लिए अगली पीढ़ी को सौंप दिया गया (इफिसियों 2:20; 2 तीमुथियुस 2:2, 14-16)। आज वचन की शिक्षा पाना, प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं द्वारा लिखे गए वचन से सीखना ही है, जो वर्तमान में भी प्रेरितों 2:42 की आरंभिक बात की पूर्ति है। 


सच्चे और झूठे प्रेरितों की पहचान करने के लिए हम आज उन्हें मरकुस 3:13-15 तथा प्रेरितों 1:1-2 में दिए गए प्रेरित कहलाने वाले शिष्यों के गुणों और बातों के आधार पर, तथा प्रभु द्वारा मत्ती 7:16-20 की पहचान – उनके फलों के द्वारा जाँच सकते हैं। जिस में ये बाते नहीं हैं, वह मसीही सेवकाई के लिए प्रभु द्वारा नियुक्त सच्चा प्रेरित भी नहीं है। आज भी यदि कोई अपने आप को प्रेरित कहते हैं, तो उनके जीवनों में इन बातों को भी होना चाहिए, अन्यथा उनका दावा गलत है; वे स्वयं या शैतान के द्वारा नियुक्त प्रेरित तो हो सकते हैं, किन्तु प्रभु द्वारा नियुक्त प्रेरित कदापि नहीं होंगे।


परमेश्वर ने हमें भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों की पहचान न कर पाने की स्थिति में नहीं छोड़ा है; उसने अपने वचन में सही पहचान दी है। वह चाहता है कि हम पहले जाँचें, सच्चाई को परखें, और तब स्वीकार करें (1 यूहन्ना 4:1; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो किसी के भी द्वारा किए जाने वाले किसी भी दावे को स्वीकार करने से पहले, उसे परमेश्वर के वचन से जाँच-परख कर देखने, और उसकी वास्तविकता या सच्चाई को स्थापित करने की आदत डाल लें, क्योंकि भटकाने भरमाने वाले लोगों की, प्रभु के नाम और उसकी कलीसिया को अपनी प्रशंसा और कमाई के लिए प्रयोग करने वालों की कोई कमी नहीं है। शैतान द्वारा खड़े किए गए ये “प्रेरित” प्रभु की ओर से नहीं हैं, और उनके जीवन, उनके फल ही उनकी सच्ची पहचान बता देते हैं। प्रभु ने अपने प्रत्येक विश्वासी को अपना पवित्र आत्मा अपने वचन को सिखाने के लिए और गलत शिक्षाओं में पड़ने से बचाने के लिए दिया है (1 यूहन्ना 2:27); उसकी सहायता से भरमाए और बहकाए जाएं से बचकर चलें। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 29-30      

  • मत्ती 21:23-46