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कलीसिया को समझना – 1
हम 1 राजाओं 2:2-4 से, अर्थात हाल ही में इस्राएल के राजा बने उसके पुत्र सुलैमान को दाऊद द्वारा दिए गए निर्देशों में से, एक सफल और आशीषित जीवन जीने के सम्बन्ध में सीख रहे हैं। वर्तमान में हम इस खण्ड के पद 3 पर विचार कर रहे हैं, जिसमें दाऊद सुलैमान से उस सभी का योग्य भण्डारी होने के लिए कहता है, जो परमेश्वर ने उसे सौंपा है।
इसी प्रकार से, पौलुस ने भी 1 कुरिन्थियों 4:1-2 में कहा है कि वह किसी विशिष्ट वरदान या ज़िम्मेदारी का नहीं, बल्कि जो कुछ परमेश्वर ने उसे दिया है, जिस की ज़िम्मेदारी उसे सौंपी है, उस सभी का भण्डारी है; और उसे योग्य भण्डारी बनकर रहना है। क्योंकि हमें यह भी निर्देश दिए गए हैं कि हम मसीह का अनुसरण उसी तरह से करें, जैसे कि पौलुस ने किया (1 कुरिन्थियों 11:1); इसलिए, भण्डारीपन के प्रति जो पौलुस का रवैया था, वही प्रत्येक मसीही विश्वासी का भी होना चाहिए। उसे इस बात के एहसास के साथ जीना और काम करना चाहिए कि परमेश्वर की दृष्टि में वह हर उस बात का भण्डारी है जो परमेश्वर ने उसे दी है। हम पहले देख चुके हैं कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर ने कम से कम ये चार बातें तो दी ही हैं:
· अपना वचन
· अपना पवित्र आत्मा
· अपनी कलीसिया तथा अपने अन्य बच्चों की संगति
· सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान
इन चार में से हमने पिछले लेखों में विश्वासी के परमेश्वर का वचन और पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के बारे में देख लिया है; और फिर पिछले सात लेखों में, अभी तक जो कुछ हमने सीखा है, उसका पुनःअवलोकन भी किया है। जैसा हम उपरोक्त सूची में देखते हैं, तीसरी बात है परमेश्वर की कलीसिया और परमेश्वर की अन्य बच्चों के साथ संगति।
बाइबल में “कलीसिया” शब्द का सबसे पहला उपयोग मत्ती 16:18 में हुआ है, जहाँ पर प्रभु यीशु कहता है कि वह ही अपनी कलीसिया बनाएगा। यहाँ पर मूल यूनानी भाषा में जिस शब्द का उपयोग किया गया है वह है “एक्कलीसिया,” जिसका अंग्रजी अनुवाद “चर्च” और हिन्दी अनुवाद “कलीसिया” किया गया है। इस यूनानी भाषा का शब्दार्थ होता है ‘बुलाया या एकत्रित किया जाना’ या ‘समूह;’ और मसीहियत के संदर्भ में इसका अर्थ ‘यीशु द्वारा छुड़ाए और बुलाए गए लोगों का समूह,’ या, ‘स्वर्ग अथवा पृथ्वी पर, या दोनों ही स्थानों पर, यीशु द्वारा छुड़ाए और बुलाए गए लोगों का समूह।’ अर्थात, परमेश्वर के वचन बाइबल में परिभाषा तथा उपयोग के अनुसार, कलीसिया न तो कोई भवन है, और न ही कोई डिनॉमिनेशन अथवा समुदाय है। वरन, कलीसिया, बिना समय अथवा स्थान के किसी भी अंतर के, मसीहियत के आरंभ से लेकर अभी तक के, सारे सँसार भर के सभी वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का एक समूह है; चाहे वे एक दूसरे से कभी मिले हों अथवा नहीं, एक दूसरे को जाना हो अथवा नहीं, एक दूसरे के साथ संगति की हो अथवा नहीं। किसी भी भौगोलिक स्थान पर विद्यमान कोई भी स्थानीय कलीसिया इसी विश्व-व्यापी कलीसिया का ही एक अंग है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी उसी सम्पूर्ण का एक भाग है। प्रभु परमेश्वर की यह वास्तविक कलीसिया डिनॉमिनेशन या समुदाय के अनुसार विभाजित नहीं है, और न ही उस में ऐसे किसी विभाजन का कोई महत्व अथवा स्थान है।
इसलिए न तो कलीसिया को किसी व्यक्ति अथवा किसी स्थानीय समूह अथवा किसी भवन के समान देखा जाना चाहिए, वरन उसे वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के एक ही विश्व-व्यापी समूह के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए। इसका एक बहुत गंभीर तथा बहुत महत्वपूर्ण अभिप्राय है कि किसी भी मसीही विश्वासी के साथ किया गया कोई भी व्यवहार, परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर की इसी विश्व-व्यापी कलीसिया के साथ किया गया व्यवहार है। उस कलीसिया के साथ, जिसे प्रभु यीशु ने अपने लहू से छुड़ाया और खरीदा है, कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा; और प्रभु उसकी कलीसिया अथवा उसके सदस्यों के साथ किये गए किसी भी दुर्व्यवहार को न तो हल्के में लेता है, और न ही सहन करता है, विशेषकर तब, जब वह जान-बूझ कर या यह तथ्य पता होते हुए भी किया गया हो।
अगले लेख में हम प्रभु की कलीसिया और उसके प्रति विश्वासी के भण्डारी होने के बारे में यहाँ से आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Understanding the Church – 1
We are studying about leading a successful and blessed life as Born-Again Christian Believers, from 1 Kings 2:2-4, i.e., through the instructions given by David to his son Solomon, recently crowned King of Israel. Presently we are on verse 3 of this passage, where David instructs Solomon to be a steward of all that God has given in his charge.
Similarly, Paul says in 1 Corinthians 4:1-2, that he is a steward of not just any specific gift or responsibility, but of everything that God has given him, entrusted him with; and he has to be a faithful steward. We have also been instructed to emulate Christ in the same manner as Paul used to emulate Christ (1 Corinthians 11:1). Therefore, Paul’s attitude towards stewardship should also be the attitude of every Christian Believer; he must realize, live, and function knowing that in God’s eyes, he is a steward of everything that has been given to him by God. We have seen that to every Christian Believer, God has given at least four things:
· His Word
· His Holy Spirit
· His Church and Fellowship of His Children
· Some Gift of the Holy Spirit for their Ministry
Of these four, in the preceding articles, we have seen about the Believer being the steward of God’s Word, and of God the Holy Spirit; and then in the past seven articles, we had recapitulated about what we have learnt so far. As we see in the list above, the third item of stewardship is to be God’s Church and to fellowship with God’s other children.
The first occurrence of the word “church” in the Bible is in Matthew 16:18, where the Lord Jesus says that He will build His Church. The word used here in the original Greek language is “ekklesia,” and has been translated as “church” in the English language. The Greek word literally means ‘a calling out’ or, an ‘assembly;’ and in context of Christianity it has come to mean, ‘a called-out assembly of the Redeemed of Jesus,’ or, ‘the citizenry of the Redeemed of Jesus whether being on earth or in heaven or both.’ So, by definition and usage, in God’s Word the Bible, the Church is neither a building nor a denomination or sect. But the Church is the singular collective body of the actually Born-Again Christian Believers, all over the world, across time, since the beginning of Christianity till date, whether or not they have met, or known, or fellowshipped with each other. The local Church at any geographical place, is one part of this whole universal Church, and every Christian Believer is a smaller part of that whole. This actual Church of the Lord God is not divided according to any denomination or sect, and neither does any such denomination have any importance or place in it.
Therefore, the Church must be seen and understood not just as one individual, nor as any local Assembly, nor any building, but it must be seen as one world-wide corporate body made up of the truly Born-Again Christian Believers. A serious and very important implication of this fact is that anything done to a Christian Believer, in God’s eyes, is done to this universal Church of God, which the Lord Jesus has redeemed and purchased with His blood, through His sacrifice on the Cross of Calvary; and the Lord does not take lightly or tolerate any wrong done to His Church, or its members; and that too deliberately or despite knowing this fact.
In the next article, we will carry on from here about our understanding the Lord’s Church and a Believer’s stewardship towards it.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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