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बुधवार, 20 मार्च 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 15


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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 12

 

    सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार करते हुए, हमने देखा है कि वह पश्चाताप और सुसमाचार पर विश्वास करने के द्वारा ही प्रभावी होता है। जिन्होंने वास्तव में पश्चाताप किया है और सुसमाचार को ग्रहण किया है, वे फिर, नया-जन्म पाए हुए परमेश्वर की सन्तान, मसीही विश्वासी होने के नाते, अपने जीवनों से परमेश्वर की महिमा करते हैं। जो अपने जीवनों से परमेश्वर की महिमा करते हैं, अर्थात स्वेच्छा से परमेश्वर को अपना  जीवन समर्पित कर के, उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में बने रहने वाले मसीही विश्वासियों के लिए, उनके लिए जो परमेश्वर के कहे का पालन करने के लिए विश्वास के साथ कदम बढ़ाते हैं, परमेश्वर ने तीन प्रकार की बहुत महान आशीषें रख छोड़ी हैं। पहली, जिसे हम देख चुके हैं, है कि परमेश्वर उस विश्वासी के साथ एक लाड़ करने वाले प्रेमी पिता के समान रहता है। दूसरी, जिस पर हम वर्तमान में विचार कर रहे हैं, वह अपने वचन के द्वारा उन्हें सम्पूर्ण, प्रत्येक भले कार्य के लिए पूर्णतः तैयार, और परिपक्व बनाता है ताकि वे मनुष्यों की चालाकियों द्वारा किसी धोखे में न पड़ें। तीसरी, परमेश्वर उन्हें अपने पुत्र प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप और समानता में ढालना चाहता है। पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर ने विश्वासियों को अपना वचन दिया है, और अपना पवित्र आत्मा भी, कि उनका सहायक हो, उन्हें वचन सिखाए, और मसीही जीवन जीने में उनका मार्गदर्शन करे। हमने यह भी देखा था कि पवित्र आत्मा विश्वासियों को सीधे सिखाने के अतिरिक्त, पाँच प्रकार की वचन से सम्बन्धित सेवकाइयों के द्वारा भी परमेश्वर के वचन को सिखाता है; और इन सेवकों के द्वारा अपनी-अपनी सेवकाई को भली-भान्ति निभाने के लिए, परमेश्वर के वचन को चार भिन्न तरीकों से उपयोग करना चाहिए। आज हम मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर के वचन के द्वारा होने वाले कुछ प्रभावों को देखेंगे, जब वचन को ठीक से ग्रहण किया जाता है और उचित रीती से उसका पालन किया जाता है।

    सामान्यतः, मसीही विश्वासियों में, वचन को सीखना और उस पर मनन करना तो दूर, उनके द्वारा व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर के वचन को नियमित और क्रमवार पढ़ने की बड़ी कमी देखी जाती है। इसका प्रमुख कारण है कि उन्होंने कभी इसके बारे में सीखा ही नहीं है, या उन्हें परमेश्वर के वचन को अपने जीवन में कार्यकारी होने देने के बारे में सिखाया नहीं गया है; वे केवल कुछ परम्पराएं निभाना और औपचारिकताएं पूरा करना ही जानते हैं। यद्यपि यह अपने आप  में एक बड़ा विषय है, और सम्पूर्ण भजन 119 परमेश्वर के वचन ही के बारे में है; किन्तु आज हम केवल कुछ पद देखेंगे जो परमेश्वर के वचन के साथ उचित और पर्याप्त समय बिताने के महत्व और आवश्यकता को दिखाते हैं, और जो परमेश्वर के वचन को आदर देते हैं, उसका पालन करते हैं, उनके जीवनों में वचन द्वारा क्या प्रभाव आते हैं।

  • सबसे पहली बात, जिसका विश्वासियों को एहसास करना चाहिए और सदा ध्यान में रखना चाहिए, है कि परमेश्वर का सम्पूर्ण वचन सत्य और आवश्यक है “तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक-एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है” (भजन 119:160)। उसमें से कुछ भाग चुन लेने और शेष को छोड़ देने का कोई औचित्य नहीं है। उसका, उसकी सम्पूर्णता में आदर एवं पालन किया जाना चाहिए।
  • जो लोग ऐसा करते हैं, वे परमेश्वर की शान्ति और सुरक्षा की बड़ी आशीष पाते हैं, “तेरी व्यवस्था से प्रीति रखने वालों को बड़ी शान्ति होती है; और उन को कुछ ठोकर नहीं लगती” (भजन 119:165)।
  • जब परमेश्वर का वचन व्यक्ति के मन में भरा रहता है, तो वह उसे सचेत रखता है और पाप करने से रोके रहता है, “जवान अपनी चाल को किस उपाय से शुद्ध रखे? तेरे वचन के अनुसार सावधान रहने से। मैं ने तेरे वचन को अपने हृदय में रख छोड़ा है, कि तेरे विरुद्ध पाप न करूं” (भजन 119:9, 11)। परमेश्वर का वचन, प्रभु के शिष्यों को शुद्ध करता है “तुम तो उस वचन के कारण जो मैं ने तुम से कहा है, शुद्ध हो” (यूहन्ना 15:3)।
  • परमेश्वर के वचन पर निरन्तर मनन करते रहने का रवैया बनाए रखने से परमेश्वर के लोग बुद्धिमान और अपने विरोधियों से भी अधिक समझदार और ज्ञानवान बन जाते हैं “अहा! मैं तेरी व्यवस्था में कैसी प्रीति रखता हूं! दिन भर मेरा ध्यान उसी पर लगा रहता है। तू अपनी आज्ञाओं के द्वारा मुझे अपने शत्रुओं से अधिक बुद्धिमान करता है, क्योंकि वे सदा मेरे मन में रहती हैं। मैं अपने सब शिक्षकों से भी अधिक समझ रखता हूं, क्योंकि मेरा ध्यान तेरी चितौनियों पर लगा है। मैं पुरनियों से भी समझदार हूं, क्योंकि मैं तेरे उपदेशों को पकड़े हुए हूं” (भजन 119:97-100)।
  • जिनके पास परमेश्वर का वचन रहता है और वे उसका पालन भी करते हैं, वे ही सच में प्रभु से प्रेम करने वाले होते हैं; और फिर प्रभु तथा पिता परमेश्वर भी उनसे प्रेम करते हैं, उसके साथ आ कर निवास करते हैं “जिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा। यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना 14:21, 23)।
  • जब कि परमेश्वर के वचन का पालन नहीं करना, इस बात का प्रमाण है कि वह व्यक्ति प्रभु से वास्तविक प्रेम नहीं करता है “जो मुझ से प्रेम नहीं रखता, वह मेरे वचन नहीं मानता, और जो वचन तुम सुनते हो, वह मेरा नहीं वरन पिता का है, जिसने मुझे भेजा” (यूहन्ना 14:24)।
  • जो परमेश्वर के वचन को धीरज से थामे रहते हैं, वे सँसार पर आने वाली परीक्षा से सुरक्षित बने रहेंगे “तू ने मेरे धीरज के वचन को थामा है, इसलिये मैं भी तुझे परीक्षा के उस समय बचा रखूंगा, जो पृथ्वी पर रहने वालों के परखने के लिये सारे संसार पर आने वाला है” (प्रकाशितवाक्य 3:10)।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि परमेश्वर ने मसीही विश्वासी के हाथों में एक महान आशीष, और सुरक्षित तथा सकुशल रहने की कुंजी प्रदान कर रखी है, यदि वे उसे पवित्र आत्मा की अगुवाई में, जो उन्हें इसी कार्य के लिए दिया गया है, सही तरीके से उपयोग करें। अगले लेख में हम तीसरी आशीष और प्रतिफल, प्रभु यीशु की समानता में ढलते जाना, को देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 12

    

While considering the teachings about the gospel, we have seen that the gospel is made effective through repentance and believing in the gospel. Those who have truly repented and have accepted the gospel, as Born-Again children of God, the Christian Believers, then glorify God through their lives. For those who glorify God through their lives, i.e., for the Christian Believer who has voluntarily chosen to fully surrender himself to the Lord, live in obedience to Him and His Word, God has kept three very great blessings for his stepping out in faith to do God’s bidding. Firstly, what we have already seen is that God lives with him like a loving Father. Secondly, the one we are presently considering, God, through His Word, wants to make him complete and thoroughly prepared for every good work; make him mature so that he cannot be deceived by the trickeries of men. Thirdly, God wants to bring him into the form and image of His Son, the Lord Jesus Christ. In the last article we have seen that God has given the Believers His Word, and His Holy Spirit to help them, to teach them the Word, and to guide the Believers in Christian living. We also saw that besides directly teaching the Christian Believers, the Holy Spirit also teaches God’s Word through the ministry of five kinds of ministers of God’s Word; and there are four ways in which God’s Word must be used by these ministers to fulfil their ministries. Today, we will see some of the effects of God’s Word in the Christian Believer’s life, when God’s Word is rightly received and properly obeyed.

    Amongst the Christians, generally speaking, there is a great lack of interest in personally reading God’s Word, regularly and systematically; let alone learning it, meditating upon it. The primary reason for this is that they have not learned, or have not been taught the importance and utility of allowing God’s Word to work in their lives; they only know about fulfilling rituals and some formalities. Although this is a vast subject by itself, and the whole of Psalm 119 is about God’s Word; but today, we will see a few verses that show the importance and necessity of personally spending sufficient time with God’s Word; the effects God’s Word produces in the lives of those who honor and obey it.

  • The first thing that the Believers should realize and always keep in mind is that all of God’s Word is true and necessary “The entirety of Your word is truth, And every one of Your righteous judgments endures forever” (Psalm 119:160); there is no scope for picking and choosing some parts and ignoring the rest. All of it must be honored and obeyed.
  • Those who do so, are greatly blessed by God’s peace and care, “Great peace have those who love Your law, And nothing causes them to stumble” (Psalm 119:165).When God’s Word fills a person’s heart, it cautions him and keeps him from committing sin, “How can a young man cleanse his way? By taking heed according to Your word. Your word I have hidden in my heart, That I might not sin against You!” (Psalm 119:9, 11). God’s word washes and cleanses His disciples “You are already clean because of the word which I have spoken to you” (John 15:3).
  • Having a continual attitude of meditation of God’s Word makes God’s people wiser and more knowledgeable than their detractors and even the ancients, “Oh, how I love Your law! It is my meditation all the day. You, through Your commandments, make me wiser than my enemies; For they are ever with me. I have more understanding than all my teachers, For Your testimonies are my meditation. I understand more than the ancients, Because I keep Your precepts.” (Psalm 119:97-100).
  • Those who have God’s commandments and keeps them too, are the ones who actually love the Lord; and they in turn are loved by the Lord and God the Father, and they come to reside with him “He who has My commandments and keeps them, it is he who loves Me. And he who loves Me will be loved by My Father, and I will love him and manifest Myself to him." Jesus answered and said to him, "If anyone loves Me, he will keep My word; and My Father will love him, and We will come to him and make Our home with him” (John 14:21, 23).
  • Whereas, not obeying God’s Word is proof that the person does not really love the Lord “He who does not love Me does not keep My words; and the word which you hear is not Mine but the Father's who sent Me” (John 14:24).
  • Those who obey the Lord’s command to persevere, will be kept safe in the trial coming upon the world “Because you have kept My command to persevere, I also will keep you from the hour of trial which shall come upon the whole world, to test those who dwell on the earth” (Revelation 3:10).

    So, we see how God has placed in the hands of the Christian Believers a great blessing, and the key to be safe and secure, provided they learn to use it properly, under the guidance of the Holy Spirit, given to them for this purpose. In the next article we will take up the third blessing and reward, of conforming to the Lord Jesus.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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