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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - शिक्षक और शिक्षा देना
मसीही विश्वासियों की परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित सेवकाइयों में, वचन की सेवकाई से संबंधित 1 कुरिन्थियों 12:28 में दी गई सेवकाइयों में से पहली दो - प्रेरित, और भविष्यद्वक्ता होने के बारे में हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। आज इस पद में दी गई वचन से संबंधित तीसरी सेवकाई, शिक्षक के बारे में देखेंगे। यह रोचक बात है कि इस पद में, और पद 8 से 10 में दिए गए पवित्र आत्मा के वरदानों में से ऐसे वरदान, जिनसे अपने आप को प्रमुख, या महत्वपूर्ण, या विशिष्ट दिखाया जा सके, जैसे कि प्रेरित, भविष्यद्वक्ता और भविष्यवाणी, आश्चर्यकर्म और चंगा करने वाले, अन्य भाषा बोलना, आदि के लिए तो सामान्यतः लोग बहुत लालसा रखते हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रार्थना और प्रयास करते हैं; किन्तु अन्य वरदानों जैसे शिक्षक, उपकार या सहायता करने वाले, बुद्धि, ज्ञान, और विश्वास, आत्माओं की परख, आदि के लिए सामान्यतः लोगों में कोई रुचि नहीं होती है। जबकि 1 कुरिन्थियों 8-10, 28 में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सबसे पहले इन्हीं वरदानों को लिखवाया है, जिनके लिए आज लोग कम चाह रखते हैं। साथ ही इन कम चाहे जाने वाले वरदानों के साथ यह भी है कि उनके निर्वाह के लिए परमेश्वर के साथ बैठना और समय बिताना पड़ता है, लोगों के मध्य परिश्रम करना पड़ता है, और बहुधा सामान्य लोगों को क्योंकि परमेश्वर की खरी बातें रास नहीं आती हैं, इसलिए इन वरदानों का प्रयोग करने वालों को संसार में आदर, ओहदा, और उच्च स्थान भी कम ही मिलते हैं, तिरस्कार और विरोध अधिक मिलता है। संभवतः इसीलिए मसीही विश्वासियों में इन वरदानों के लिए चाह बहुत कम है।
हम वचन से ही वचन की शिक्षा दिए जाने और उसकी प्रभावों के कुछ उदाहरणों को देखते हैं:
प्रभु यीशु मसीह ने जब लोगों को सिखाया, तब, शास्त्रियों के समान नहीं, परंतु अधिकारी के समान सिखाया (मरकुस 1:22), अर्थात ‘किताबी या मानवीय’ ज्ञान के अनुसार नहीं वरन वचन की गहराई से समझ और दृढ़ता के साथ सिखाया। किन्तु साथ ही वह लोगों को उनकी समझ के अनुसार सिखाता था, और परमेश्वर की शिक्षाओं को सरल दृष्टांतों के द्वारा लोगों को समझाता था (मरकुस 4:33-34)। मसीही शिक्षक को वचन की शिक्षा देने की विधि का यही उदाहरण लेकर चलना चाहिए।
पौलुस ने कुरिन्थुस की मण्डली को उन्हें उससे मिली सुसमाचार की शिक्षा के विषय स्मरण दिलाया, “और हे भाइयों, जब मैं परमेश्वर का भेद सुनाता हुआ तुम्हारे पास आया, तो वचन या ज्ञान की उत्तमता के साथ नहीं आया। और मेरे वचन, और मेरे प्रचार में ज्ञान की लुभाने वाली बातें नहीं; परन्तु आत्मा और सामर्थ्य का प्रमाण था। इसलिये कि तुम्हारा विश्वास मनुष्यों के ज्ञान पर नहीं, परन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य पर निर्भर हो” (1 कुरिन्थियों 2:1, 4-5)। अर्थात, पौलुस जैसे ज्ञानवान और पवित्र शास्त्र की उत्तम शिक्षा पाए हुए व्यक्ति के द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में जो सुसमाचार की शिक्षा दी गई, वह आत्मा की सामर्थ्य से तो थी, किन्तु ज्ञान बघारने की बातें, या संसार के ज्ञान की बातें नहीं थीं।
इसी प्रकार थिस्सलुनीकिया की मसीही मण्डली को पौलुस ने लिखा, “क्योंकि हमारा सुसमाचार तुम्हारे पास न केवल वचन मात्र ही में वरन सामर्थ्य और पवित्र आत्मा, और बड़े निश्चय के साथ पहुंचा है; जैसा तुम जानते हो, कि हम तुम्हारे लिये तुम में कैसे बन गए थे। और तुम बड़े क्लेश में पवित्र आत्मा के आनन्द के साथ वचन को मान कर हमारी और प्रभु की सी चाल चलने लगे” (1 थिस्स्लुनीकियों 1:5, 6)। यहाँ पर भी हम देखते हैं कि पौलुस द्वारा वचन की शिक्षा मनुष्य के ज्ञान के द्वारा नहीं, वरन, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और बड़ी दृढ़ता से दी गई। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि परमेश्वर के वचन का पालन करने में थिस्सलुनीकिया के मसीही विश्वासियों को क्लेश तो उठाना पड़ा, किन्तु साथ ही उनमें पवित्र आत्मा का आनंद भी था, और उनके जीवन में परिवर्तन आया, और वे प्रभु की सी चाल चलने लगे - जो वचन के सच्चे, खरे, और परमेश्वर की ओर से होने का प्रमाण है।
परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने लोगों को वचन की शिक्षा देने के संदर्भ तिमुथियुस को लिखा था:
“अपने आप को परमेश्वर का ग्रहण योग्य और ऐसा काम करने वाला ठहराने का प्रयत्न कर, जो लज्ज़ित होने न पाए, और जो सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाता हो। पर अशुद्ध बकवाद से बचा रह; क्योंकि ऐसे लोग और भी अभक्ति में बढ़ते जाएंगे” (2 तीमुथियुस 2:15-16)। अर्थात, वचन की सेवकाई करने वाले को यह ध्यान रखना है कि वह वचन को अपने स्वार्थ या इच्छा-पूर्ति के लिए नहीं, वरन, ठीक रीति से काम में लाए, अशुद्ध बकवाद से बचा रहे, उसका जीवन और व्यवहार किसी भी रीति से लज्जित करने वाला न हो, और वह तथा उसका कार्य मनुष्यों को नहीं वरन परमेश्वर को ग्रहण योग्य हो - परमेश्वर के कहे और इच्छा के अनुसार हो, न कि लोगों को लुभाने वाला हो।
“कि तू वचन को प्रचार कर; समय और असमय तैयार रह, सब प्रकार की सहनशीलता, और शिक्षा के साथ उलाहना दे, और डांट, और समझा। क्योंकि ऐसा समय आएगा, कि लोग खरा उपदेश न सह सकेंगे पर कानों की खुजली के कारण अपनी अभिलाषाओं के अनुसार अपने लिये बहुतेरे उपदेशक बटोर लेंगे। और अपने कान सत्य से फेरकर कथा-कहानियों पर लगाएंगे। पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर” (2 तीमुथियुस 4:2-5)। अर्थात, वचन की शिक्षा देने वाले को हर समय अपने आप को तैयार रखना चाहिए, और धैर्य के साथ इस सेवकाई को निभाना चाहिए। वचन के शिक्षक को, वचन को समझाने के लिए यदि आवश्यकता पड़े तो लोगों को उलाहना देने और डांटने की भी अनुमति है, वरन, ऐसा करने की ज़िम्मेदारी है; इसमें निहित है कि वचन की शिक्षा पाने वालों को उलाहना और डाँट सुनने के लिए भी तैयार और नम्र रहना चाहिए। वचन के शिक्षक को सार्थक और सच्ची बातों के द्वारा खराई से परमेश्वर की बातों, निर्देशों, और शिक्षाओं को लोगों तक पहुँचाना है, चाहे वे कटु सत्य ही क्यों न हों। उसे लुभावनी बातें सुनाकर लोगों से प्रशंसा और प्रमुख स्थान पाने से बच कर रहना है। चाहे यह सब करने के लिए उसे लोगों से विरोध का सामना ही क्यों न करना पड़े, दुख ही क्यों न उठाने पड़ें।
“हर एक पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए” (2 तीमुथियुस 3:16-17)। अर्थात मसीही शिक्षक को परमेश्वर की शिक्षाओं को लोगों तक पहुँचाने के लिए परमेश्वर के वचन ही का प्रयोग करना चाहिए, जिसे स्मरण करवाने, सिखाने, और समझाने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा निवास करता है (यूहन्ना 14:26; 16:13-14; 1 कुरिन्थियों 2:10-13)। परमेश्वर के वचन के प्रयोग के द्वारा ही लोग परमेश्वर की वास्तविक शिक्षाओं को सीखने पाते हैं, और उसी से वे सिद्ध बनकर भले कार्यों के लिए तैयार होने पाते हैं; साथ ही इफिसियों 4:11-12 भी देखें।
उपरोक्त सभी उदाहरणों में हम वचन की शिक्षा से संबंधित कहीं किसी नाटकीय व्यवहार, या सांसारिक अथवा शारीरिक लाभ की बातों को नहीं पाते हैं। हर उदाहरण परमेश्वर के वचन के खराई से प्रयोग, और पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के साथ था, जिसका प्रमाण लोगों के जीवन बदलने के द्वारा देखा गया, न कि कुछ समय के लिए कुछ अच्छा अनुभव हुआ, सुनने में अच्छा लगा, और फिर जीवन बदले बिना ही व्यक्ति अपनी पहले की से दशा में फिर से पहुँच गया। वचन को सुनने और मानने वालों ने इसके लिए क्लेश सहना भी स्वीकार किया, किन्तु वचन की खराई और सच्चाई से पीछे नहीं हटे। परमेश्वर की ओर से नियुक्त शिक्षक जब परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से परमेश्वर के वचन को बताते और सिखाते हैं, तो वह ‘मनुष्य की अभिलाषाओं के अनुसार कानों की खुजली’ मिटाने वाली कथा-कहानियों का प्रचार नहीं होता है (2 तिमुथियुस 4:3-4), वरन मन और जीवन बदलने वाली सामर्थी शिक्षाएं, परमेश्वर की दोधारी तलवार होता है जो “जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है” (इब्रानियों 4:12)।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, और आपको लोगों को परमेश्वर के वचन की शिक्षा देने का दायित्व मिल है, परमेश्वर ने आपके लिए यह सेवकाई निर्धारित की है, तो अपनी सेवकाई के लिए परमेश्वर से यशायाह 50:4 आपके लिए पूरा करना माँगिए। उपरोक्त बातों और प्रभु यीशु के शिक्षा देने के उदाहरण का ध्यान रखिए और पालन कीजिए। यह आपके लिए भी तथा औरों के लिए भी उन्नति का कारण ठहरेगा। आप जितना वचन को औरों के साथ बाँटेंगे, आप पाएंगे के आप स्वयं भी वचन की समझ और गहराई में उतना अधिक बढ़ते चले जा रहे हैं, और परमेश्वर अपने वचन के गूढ़ भेद आप पर और भी अधिक प्रकट करता जा रहा है। परंतु सावधान रहिए, ऐसा होने से शैतान आपके अन्दर कोई घमण्ड न ले आए, आप अपने आप को विद्वान और विशिष्ट न समझने लगें; जहाँ घमंड होगा, वहाँ बहुत शीघ्र ही पतन भी आ जाएगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
नीतिवचन 1-2
1 कुरिन्थियों 16
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Users of the Gifts of the Holy Spirit - Teachers & Teaching
We have seen in the previous articles first two Spiritual gifts and the related Word Ministries - Apostles and Prophets, from 1 Corinthians 12:28. Today we will look at the third gift and Ministry related to preaching and teaching God’s Word - “Teacher.” It is an interesting thing that of the Spiritual gift mentioned in 1 Corinthians 12:8-10, people mostly earnestly desire and pray for gifts and ministries like being an Apostle, a Prophet, to be able to Prophesy, to do miracles and healings, and to speak in ‘tongues’, i.e., the gifts and ministries through which they can show themselves to be special, important, of having a higher status. But hardly anyone shows any interest or desire in other gifts like being a Teacher, helping and serving others, having wisdom and discernment, having faith, being able to discern spirits, etc. Another thing that is of importance about these lesser or never desired Spiritual gifts is that for utilizing them, one has to spend time with God and His Word, have to labor amongst the people, and quite often the general public does not want to hear or like the straightforward teachings of God; therefore, the people with these gifts and ministries do not usually get any recognition, honor, name, fame, and status from the people, instead they are often opposed, rejected, and ridiculed. Quite possibly that is why hardly any Christian Believers desire these gifts.
Let us look at some Biblical examples about teaching God’s Word and its effects:
When the Lord Jesus taught the people, He did so with authority, and not like the scribes (Mark 1:22), meaning not with any bookish or human knowledge. But He explained and clarified the Word, taught it in its correct form, in its true meaning. The Lord also made it a point to teach the people according to their level of understanding and their ability to grasp what was being taught, explaining to the people through simple examples and parables (Mark 4:33-34). A Christian teacher should follow, and teach according to this example set by the Lord.
Paul reminded the Church at Corinth about the teachings they had received from him, “And I, brethren, when I came to you, did not come with excellence of speech or of wisdom declaring to you the testimony of God. And my speech and my preaching were not with persuasive words of human wisdom, but in demonstration of the Spirit and of power, that your faith should not be in the wisdom of men but in the power of God” (1 Corinthians 2:1; 4-5). In other words, the teachings that were given by a knowledgeable highly educated person like Paul under the guidance of the Holy Spirit, were not through his own intellectual abilities, not using words of human or worldly wisdom but with the power of the Holy Spirit.
Similarly, Paul wrote to the Church in Thessalonica, “For our gospel did not come to you in word only, but also in power, and in the Holy Spirit and in much assurance, as you know what kind of men we were among you for your sake. And you became followers of us and of the Lord, having received the word in much affliction, with joy of the Holy Spirit” (1 Thessalonians 1:5-6). Here too we see that the teachings of God’s Word which Paul gave were not through human wisdom and ability, but with conviction and by the power of the Holy Spirit. We also see here that the Believers in Thessalonica had to suffer much affliction for following the Word of God, but they also had the joy of the Holy Spirit, their lives were changed, and they started to emulate the Lord - which is a proof of receiving and applying the pure, uncorrupted Word of God.
Under the guidance of the Holy Spirit, Paul wrote to Timothy about teaching God’s Word:
“Be diligent to present yourself approved to God, a worker who does not need to be ashamed, rightly dividing the word of truth. But shun profane and idle babblings, for they will increase to more ungodliness” (2 Timothy 2:15-16). Meaning that the one ministering God’s Word has to keep in mind the fact that he should not in any way misuse God’s Word to fulfill his own selfish desires, but to use it rightly, stay clear of profane babblings, his own life and behavior should not in any manner bring any shame, and he and his works should be according to God’s instructions and will, not men, for pleasing God, not men.
“Preach the word! Be ready in season and out of season. Convince, rebuke, exhort, with all longsuffering and teaching. For the time will come when they will not endure sound doctrine, but according to their own desires, because they have itching ears, they will heap up for themselves teachers; and they will turn their ears away from the truth, and be turned aside to fables. But you be watchful in all things, endure afflictions, do the work of an evangelist, fulfill your ministry” (2 Timothy 4:2-5). Meaning, the one engaged in the ministry of teaching the Word of God should always be ready, and in fulfilling his ministry should exercise great patience. The teacher of the Word, if it is required, has God’s permission to rebuke to correct people. It is his God given responsibility that he should make people understand God’s Word. This also implies that those who learn God’s Word, should be prepared to listen to rebuke, and remain humble. The Teacher of God’s Word has to teach God’s instructions and teachings in a forthright manner to the people, even if he has to suffer their opposition for doing so, even if the teachings are harsh and bitter for people to accept. The Teacher should not succumb to falling into the temptation of speaking and teaching only pleasing things to gain popularity and acceptance.
“All Scripture is given by inspiration of God, and is profitable for doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness, that the man of God may be complete, thoroughly equipped for every good work” (2 Timothy 3:16-17). Meaning, that the teacher of God’s Word should use the Word of God itself to explain and teach it to the people. He should never forget that whatever he teaches under the guidance of the Holy Spirit, God the Holy Spirit, who resides in every Born-Again Christian Believer to remind, teach, explain, and instruct them about God’s Word (John 14:26; 16:13-14; 1 Corinthians 2:10-13), will explain it to the Believers, will help them to understand it. It is only through the use of God’s Word under the guidance of the Holy Spirit that people are able to correctly and properly understand the teachings of God’s Word, and it is only through the Word that they are made complete, and equipped for good works; also see Ephesians 4:11-12 in this context.
In none of the above examples, or anywhere else in God’s Word do we find any instruction or support for using dramatic behavior and actions to teach God’s Word; or or use it for any worldly and physical gains through this Spiritual gift and ministry. Rather, every example speaks of using God’s Word with integrity, in a forthright manner, in the power of the Holy Spirit. The proof of the teachings being given in accordance with God’s instructions is the changed lives of the people who listen and accept them. Teachings not in accordance with God’s instructions may seem good to hear, create an emotional ‘high’ in the listeners, but there will be no change in the lives of the audience and they will soon fall back into their previous state. But we have seen that those who learned and accepted God’s Word in accordance with the teachings of God’s Word, were willing to suffer all kinds of persecutions for it, but never turned away from it’s truth and integrity. When the Teachers appointed by God teach God’s Word through the power of the Holy Spirit, then it is not something “according to their own desires, for satisfying those who have itching ears” (2 Timothy 4:3-4), but they are teachings that change hearts and minds, like a double-edged sword “piercing even to the division of soul and spirit, and of joints and marrow, and is a discerner of the thoughts and intents of the heart” (Hebrews 4:12).
If you are a Christian Believer, and you have been entrusted by God with the responsibility of teaching God’s Word, then ask God to fulfill Isaiah 50:4 for you; always keep the above-mentioned things and the example of the Lord Jesus teaching the people in mind, and follow them. The more you share God’s Word with others, the more will it help you and others grow in faith and in the Lord, and you will find that not only are you growing, but also the deep and mysterious things of God’s Word also become clear to you. But also, beware that Satan does not bring any pride in you, and you start considering yourself to be someone special and knowledgeable, endowed with exceptional wisdom; for, wherever there is pride, fall will soon follow.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Proverbs 1-2
1 Corinthians 16