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कलीसिया से बहिष्कृत करना – 7
नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को जिस कलीसिया और विश्वासियों की सहभागिता में परमेश्वर ने उन्हें रखा है, वहाँ पर परमेश्वर के भण्डारी होने के नाते, उनकी भूमिका पर यह अन्तिम लेख है। अपने भण्डारी होने के उचित निर्वाह के लिए, उन्हें कलीसिया की बढ़ोतरी तथा अन्य विश्वासियों की आत्मिक उन्नति को सुनिश्चित करना है। अभी तक हमने इस भण्डारी होने के बारे में जो सीखा है, यह लेख उन बातों के निहितार्थों और व्यावहारिक उपयोग को सामने रखने, और पाठकों को उकसाने के लिए है कि वे कलीसिया में अपनी भूमिका के बारे में सचेत हों, उसके विषय गंभीरता से विचार करें, और अपनी जिम्मेदारियों के उचित निर्वाह में लग जाएँ, न कि जैसे वे अभी तक करते आए हैं, वैसे ही निष्क्रिय और मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले होकर कलीसिया या मण्डलियों में गुटों और विभाजनों को होने और पनपने दें, और कुछ लोगों को कलीसिया में अपनी मनमानी करते रहने दें। परमेश्वर का भण्डारी होने के नाते प्रत्येक विश्वासी को उस कलीसिया और सहभागिता के बारे में जिस में परमेश्वर ने उसे रखा है, तथा वहाँ अपनी भूमिका के बारे में गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
प्रत्येक कलीसिया या मण्डली के सभी विश्वासियों को कलीसिया और सहभागिता से सम्बन्धित इन तथ्यों पर भी विचार करना चाहिए:
· क्योंकि कलीसिया का स्वामी परमेश्वर है, और कलीसिया परमेश्वर का निवास-स्थान है, प्रभु की देह और दुल्हन है;
· क्योंकि परमेश्वर ही व्यक्ति को कलीसिया का अंग बनाता है, और निर्णय करता है कि किसे कहाँ पर किस संगति में रखना है;
· क्योंकि कलीसिया के सभी सदस्य परमेश्वर द्वारा नियुक्त उसके भण्डारी हैं, ताकि उसने उन्हें जो ज़िम्मेदारियाँ दी हैं उन्हें पूरा करें;
· क्योंकि परमेश्वर की इच्छा के बिना कोई भी कलीसिया का अंग नहीं बन सकता है, और सदस्यता की इस प्रक्रिया में किसी भी मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है;
· क्योंकि नया-जन्म पाए हुए सभी विश्वासी समान रूप से परमेश्वर की सन्तान हैं, समान रूप से परमेश्वर के परिवार के सदस्य हैं, किसी में भी परस्पर कोई भिन्नता नहीं है;
· क्योंकि परमेश्वर ने सभी का न्याय अपने ही हाथों में रखा है (रोमियों 12:19), और हमें यह निर्देश दिया है कि समय से पहले किसी का कोई न्याय न करें (1 कुरिन्थियों 4:5);
· क्योंकि परमेश्वर कभी भी अपने किसी भी विश्वासी को अपने परिवार और राज्य से निष्कासित नहीं करता है, और न ही आज तक किसी को किया है, चाहे उस विश्वासी का जीवन और व्यवहार कैसा भी क्यों न हो; उसके पापों के लिए विश्वासी की ताड़ना होती है, किन्तु वह निष्कासित नहीं किया जाता है;
· क्योंकि कोई भी विश्वासी दोष रहित नहीं है, सभी भिन्न-भिन्न प्रकार से पाप करते ही रहते हैं और उन्हें बारंबार क्षमा और बहाली के लिए परमेश्वर के सामने आते रहना ही पड़ता है (1 यूहन्ना 1:9); और कोई भी अपने आप से परमेश्वर के सामने खड़ा नहीं रह सकता है (भजन 130:3);
इसलिए,
· किसी भी व्यक्ति के पास, कलीसिया या मण्डली में उसकी सेवकाई, ओहदा, प्रतिष्ठा चाहे जो भी हो, परमेश्वर की इच्छा की अनदेखी कर के, अपनी ही इच्छा पूरी करने और करवाने का अधिकार नहीं है।
· किसी भी व्यक्ति के पास, कलीसिया या मण्डली में उसकी सेवकाई, ओहदा, प्रतिष्ठा चाहे जो भी हो, अपनी ही धारणाओं को, ऐसी धारणाएं जो उसकी अपनी बुद्धि और समझ की उपज हैं, किन्तु जो परमेश्वर के वचन में नहीं हैं, दूसरों पर थोपने, उनका प्रचार करने, उन्हें सिखाने का अधिकार अथवा अनुमति नहीं है।
· कोई भी व्यक्ति, किसी अन्य विश्वासी के साथ व्यक्तिगत मतभेदों और कलह के कारण, औरों को उस विश्वासी के साथ सहभागिता रखने से मना नहीं कर सकता है; बल्कि उसे स्वयं भी यह नहीं करना चाहिए। कोई भी किसी से यह कहने के द्वारा कि “या तो उसके साथ संगति रखो या हमारे साथ; यदि उसके साथ संगति रखते हो तो फिर हम से अलग रहो” किसी अन्य विश्वासी पर, परमेश्वर की अन्य सन्तानों पर, यह नहीं थोप सकता है कि, वे परमेश्वर की कलीसिया या सहभागिता में एक विभाजन या गुट में रहने का निर्णय लेने के लिए बाध्य हो जाएँ या ऐसे किसी निर्णय में सम्मिलित हो जाएँ।
· यह बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब वे मतभेद और कलह विश्वासियों के मध्य व्यक्तिगत कारणों से हों या मात्र व्यक्तिगत स्तर के हों। व्यक्ति इन मतभेदों और कलह के निवारण के लिए कलीसिया की सहायता ले सकता है; किन्तु क्या यह सही होगा कि वह उन के कारण कलीसिया के अन्य सदस्यों पर गुट या विभाजन के लिए ज़ोर दे या बाध्य करे? चाहे वे मतभेद और कलह कलीसिया के कार्य और संचालन से सम्बन्धित ही क्यों न हों, यदि उनका निवारण मत्ती 18:15-17 में प्रभु द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार नहीं किया गया है, तो इस तरह से यह विभाजन कदापि किया या करवाया नहीं जा सकता है। जबकि, परमेश्वर का वचन सभी विश्वासियों को यही सिखाता है कि क्षमा और मेल-मिलाप में होकर काम करें और गलती करने वाले को संगति में लौटा ले आएँ (2 कुरिन्थियों 2:5-9; 2 थिस्सलुनीकियों 3:14-15)। तो फिर विभाजन की ये दीवारें खड़ी क्यों की जाएँ, बना कर क्यों रखी जाएँ, और क्यों औरों को भी इन्हें बना कर रखने के लिए बाध्य किया जाए? क्यों किसी से कहा जा या तो इस विभाजन को स्वीकार करो अन्यथा पृथक हो जाओ?
· परमेश्वर ने कुछ विश्वासियों से अलग हटने या उन से बच कर रहने के लिए कुछ कारण दिए हैं (रोमियों 16:17; 1 कुरिन्थियों 5:11; 2 थिस्सलुनीकियों 3:6-15; 1 तीमुथियुस 6:3-5; 2 यूहन्ना 1:10)। किन्तु परमेश्वर द्वारा दिए गए इन कारणों के अतिरिक्त, किसी के पास भी यह अधिकार अथवा अनुमति नहीं है कि किसी को अलग कर देने के लिए वह अपने ही बनाए हुए कारण बनाए और परमेश्वर की कलीसिया पर, परमेश्वर की सन्तानों पर उन्हें थोप दे। वरन, रोमियों 16:17 तो यही कहता है कि कलीसिया में इस प्रकार से विभाजन करने वालों से दूर रहना है।
· क्या कोई भी व्यक्ति परमेश्वर से अधिक शुद्ध और पवित्र है, या हो सकता है? जब पाप की प्रवृत्ति रखने वाले विश्वासियों के साथ सहभागिता बनाए रखने से परमेश्वर की शुद्धता और पवित्रता पर कोई दाग़ नहीं आता है, वह बिगड़ती नहीं है, तो फिर पाप की प्रवृत्ति रखने वाले किसी व्यक्ति की, किसी अन्य पाप की प्रवृत्ति रखने वाले विश्वासी के साथ, जिससे वह सहमत नहीं है, सहभागिता रखने से उस व्यक्ति की शुद्धता और पवित्रता कैसे बिगड़ सकती है; उसके साथ सहभागिता में रहने को “समझौता करना” कैसे कहा जा सकता है? और फिर, अन्ततः तो हम सभी विश्वासी उसी एक ही स्वर्ग में उसी एक ही प्रभु के पास जाकर, एक साथ ही रहेंगे; तो फिर यह कार्य यहीं इसी पृथ्वी पर ही क्यों न आरम्भ कर लें? क्यों अपने ढीठ और बाइबल विरोधी आचरण के द्वारा अपनी तथा औरों की अनन्तकालीन आशीषों की हानि करें और करवाएं?
परमेश्वर को अपनी कलीसिया में, अपनी सन्तानों के मध्य मनुष्यों द्वारा खड़ी की गई बाधाएँ और दीवारें नहीं चाहिएं। बल्कि वह चाहता है कि लोग और कलीसियाएँ अलग करने वाली सभी दीवारों को गिरा दें, और एक दूसरे के साथ प्रेम और क्षमा की आत्मा के साथ मेल-मिलाप कर लें।
औरों को ज़ोर देकर प्रतिदिन सुसमाचार बाँटने के लिए कहना, जबकि स्वयं कलीसिया और परमेश्वर की सन्तानों के मध्य मतभेदों और विभाजनों को बनाए रखना, पनपने देना, परस्पर मेल-मिलाप नहीं होने देना, एक पाखण्ड करना है, दोगलापन है। जब हम परमेश्वर की सन्तानों से, हमें परमेश्वर द्वारा दिए गए परिवार के लोगों से प्रेम नहीं कर सकते हैं, तो हम सँसार के लोगों के साथ प्रेम करने का दावा कैसे कर सकते हैं (मत्ती 5:22-24; 1 यूहन्ना 4:20)? परमेश्वर की सन्तान होने के नाते यदि हम एक-दूसरे के साथ प्रेम और क्षमा नहीं दिखा सकते हैं, मेल-मिलाप नहीं कर सकते हैं, तो हम सच्चे मन से कैसे प्रेम, क्षमा, और मेल-मिलाप के सुसमाचार को औरों को प्रचार कर सकते हैं?
अगले लेख से हम मसीही विश्वासी के पवित्र आत्मा के वरदानों का भण्डारी होने के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Excommunication From the Church – 7
This is the concluding article on the role of Born-Again Christian Believers being God’s stewards of the Church and fellowship where God has placed them; where to worthily fulfil their stewardship, they need to ensure the growth of the Church and spiritual progress of the fellow Believers. This article sums up the implications and applications of what we have learnt about this stewardship, and is meant to provoke the readers into seriously thinking about their role in the Church and becoming active about their responsibilities, instead of passively carrying on, as they have been so far, allowing divisions and factions in the church to be created or maintained for the sake of pleasing men, and let some people do whatever they want to in the Church. As steward of God, every Believer seriously needs to think over his membership and placement by God in a particular Church or Assembly, and the role he should be playing in that Fellowship.
All Believers in every Church or Assembly should ponder over the following facts pertaining to the Church:
• Since the Church belongs to God, is meant to be His dwelling place, the Body and Bride of the Lord;
• Since it is God who joins a person to a Church, and decides whom to place where and in which fellowship;
• Since members of the Church are only God appointed stewards to carry out responsibilities assigned to them by Him;
• Since without the will of God, no one can become a member of the Church, and no man has any role in their membership of God’s Church;
• Since all Born Again Christian Believers are equally the children of God, are equally the members of God's family, without any differentiation of any kind;
• Since God has kept all judgement to Himself (Romans 12:19), has instructed us not to judge anyone for anything before time (1 Corinthians 4:5);
• Since God has never cast any Believer away from His family or Kingdom, and never will, despite whatever the Believer’s life and behavior may be; the Believer is chastised for his sins but he is never cast away;
• Since no Believer is above reproach, all keep sinning in various ways all the time, and need to keep coming to God for forgiveness and restoration (1 John 1:8-10); on our own, none can stand before God, (Psalm 130:3);
Therefore,
• No person in the Church of God has the authority to do, not God's will, but his own will, because of his status and standing.
• No person, irrespective of his ministry, position, and standing in the Church, has the permission or authority to preach, teach, or impose his own notions upon others, notions that are based on his own wisdom and understanding, but not in conformity with the teachings of God’s Word.
• No person, because of personal differences of opinions and disagreements with another Believer, can forbid others from having fellowship with that Believer; rather, even he should not stop fellowshipping. No one can impose this upon others, compel the other children of God to take a divisive stand by stating "either fellowship with us or with them; if you are fellowshipping with ‘them’ then stay away from us." Doing this is creating factions and divisions in the Church or Assembly of God.
• This becomes all the more important when those differences amongst Believers are only personal and between individuals. A person can take the help of the Church to resolve those differences; but is it correct for anyone to impose divisions and factionalism upon the other members of the Church because of them? Even if the differences are related to the functioning and matters of the Church, if they have not been resolved in the manner instructed by the Lord Mat 18:15-17; then no one can impose this segregation. Moreover, God's Word teaches all Believers to forgive, be reconciled, and restore the errant back into fellowship (2 Corinthians 2:5-9; 2 Thessalonians 3:14-15). Then why should the walls of divisions be put up and kept up, and why should others be compelled to either maintain those differences, or else get separated from the Assembly.
• God has given the criteria to separate from or avoid some Believers (Romans 16:17; 1 Corinthians 5:11; 2 Thessalonians 3:6-15; 1 Timothy 6:3-5; 2 John 1:10). But other than these God given criteria, no one has the right to or authority to create and impose their own criteria and methods for segregation amongst Believers in God's Church, upon God's children. Rather, Romans 16:17 instructs the Believers to avoid those who cause divisions and factions in the Church.
• Is any man, or a group of men holier than God, purer than Him? If God’s holiness and purity is not tarnished by fellowshipping with sinful Believers, then how can any sinful person’s holiness and purity get tarnished, be adversely affected by fellowshipping with some other similarly sinful Christian Believer, with whom they are not in agreement; how can fellowshipping with him be called “compromising”? In any case if we are all going to live together in the same heaven with the same Lord, then why not start doing it now and here on earth, instead of harming our blessings, and of others by our obstinate unBiblical behavior?
God does not want any man-made barriers and divisive walls amongst His children, in His Church. Rather, He wants to see people and churches break down all walls of separation, and be reconciled with each other in the spirit of love and forgiveness.
Emphatically exhorting others to share the Gospel daily, while simultaneously promoting or maintaining separation and differences in the Churches and amongst Church members, the children of God, and not allowing reconciliation to happen is hypocrisy. When we cannot love the children of God, the members of our God given family, how can we claim to love the children of the world (Matthew 5:22-24; 1 John 4:20)? Being the children of God, if we cannot live in love and forgiveness with each other, cannot be reconciled with each other, then how can we truthfully preach the Gospel of love, forgiveness, and reconciliation to others?
From the next article we will begin considering the Christian Believer’s stewardship of gifts of the Holy Spirit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.