Click Here for the English Translation
आरम्भिक विचार – 3
हम अब परमेश्वर के वचन, बाइबल के सही अध्ययन और उपयोग के द्वारा मसीही विश्वासी की बढ़ोतरी के बारे में अध्ययन कर रहे हैं। पिछले लेखों में हमने देखा है कि बाइबल परमेश्वर के वचन की सही सेवकाई पर बहुत महत्व देती है, क्योंकि मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं की बढ़ोतरी एवं उन्नति उसे पर निर्भर है। हमने देखा है कि पहली शताब्दी में सारे सँसार भर में कलीसियाओं और मसीही विश्वासियों की तीव्र स्थापना और बढ़ोतरी का प्रमुख कारण था परमेश्वर के वचन की सही सेवकाई, वचन का बिना किसी मिलावट के, बिना उसे भ्रष्ट किए प्रचार करना। इसके विपरीत, जब भी और जहाँ भी परमेश्वर के वचन की सेवकाई में कोई कमी आई, तो उससे कलीसिया और विश्वासियों की बढ़ोतरी और उन्नति पर बुरा असर पड़ा। यह कमी वचन की सेवकाई में मात्रा तथा गुणवत्ता, दोनों में हो सकती है; अर्थात, मात्रा, यानि शिक्षाओं की सँख्या और सामग्री में घटी, और गुणवत्ता, यानि परमेश्वर के वचन में मनुष्यों की समझ और बुद्धि की बातें मिलाना।
परमेश्वर के वचन को सही रीति से सीखने और उसे उसकी शुद्धता और सत्यता में सीखने के महत्व को इस बाट से समझा जा सकता है कि परमेश्वर ने न केवल अपना वचन हमारे हाथों में रखा है, वरन, उसे सिखाने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को अपना पवित्र आत्मा भी दिया है (यूहन्ना 14:26)। जैसा हमने पिछले लेख में देखा था, पौलुस इफिसुस के मसीही विश्वासियों के साथ अपने विदाई वार्तालाप में बल देकर उन्हें स्मरण करवाता है कि उसने उन से किसी प्रकार की कोई शिक्षा रोक कर नहीं रखी, ‘परमेश्वर की सारी मनसा’ उन पर प्रकट की (प्रेरितों 20:20, 27)। विश्वासियों तथा कलीसिया की आत्मिक बढ़ोतरी और उन्नति, तथा परमेश्वर के सारी मनसा को सीखने के लिए बाइबल हमें तीन तरह की शिक्षाओं के बारे में बताती है। जिन्हें परमेश्वर के वचन की सेवकाई सौंपी गई है, उन्हें इस बात का ध्यान करना चाहिए और अपनी सेवकाई को, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, इन के अनुसार स्वरूप देना चाहिए। हम इस श्रृंखला में बाइबल की इन्हीं तीन प्रकार शिक्षाओं के अनुसार सीखेंगे। ये तीन प्रकार की शिक्षाएँ हैं:
पहली, सुसमाचार: प्रभु की सेवकाई के लिए, शिष्यों को करने के लिए कही गई प्राथमिक बात थी सुसमाचार का प्रचार (मत्ती 28:19; मरकुस 16:15; लूका 24:46-48; प्रेरितों 1:8)। पौलुस ने, कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी अपनी पत्री, जिसमें उसने उनकी अनेकों गलतियों और कमियों को उजागर किया और उनके निवारण का उपाय बताया, के समापन पर आते हुए उन्हें फिर से सुसमाचार का स्मरण करवाया – 1 कुरिन्थियों 15:1-4। दूसरे शब्दों में, सुसमाचार केवल लोगों को उद्धार तक लाने के लिए ही नहीं है, वरन वह व्यक्तिगत तथा कलीसिया के जीवन में सभी समस्याओं का उपाय भी प्रदान करता है। तात्पर्य यह कि यदि विश्वासी बारंबार अपने जीवन, अपनी मान्यताओं, व्यवहार, उसे मिलने वाली शिक्षाओं, आदि को सुसमाचार के समक्ष लाकर, उन बातों का आँकलन करता है, तो वह सही और गलत की पहचान करने पाएगा, और भटकाएगा नहीं जा सकेगा। ऐसी कोई भी बात जो उसे प्रभु यीशु की शिक्षाओं से अलग ले जाती है, या किसी भी रीति से उनमें कुछ जोड़ती अथवा उन में से कुछ हटाती है; या लोगों को क्रूस पर दिए गए प्रभु के बलिदान तथा उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के अतिरिक्त अन्य किसी भी बात पर विश्वास करवाती है, वह गलत शिक्षा है, और उसे न तो स्वीकार किया जाना चाहिए और न ही उसका पालन किया जाना चाहिए; वह चाहे कितनी भी भक्तिपूर्ण, तर्कसंगत, और आकर्षक क्यों न लगे, और उसका निर्वाह करने, प्रचार करने, और सिखाने वाला चाहे कोई भी क्यों हो।
दूसरी, आरंभिक शिक्षाएँ: इब्रानियों का लेखक, इब्रानियों 5:12 में लिखता है कि उसके पाठक इस हद तक पीछे हट चुके थे कि उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षा को फिर से सिखाने की आवश्यकता हो गई थी। फिर वह इब्रानियों 6:1-2 में उन छः आरंभ की बातों को बताता है, जिन्हें वह शिक्षा रूपी नेव कहता है, और इसलिए ये हैं वे बातें जिन्हें सभी कलीसियाओं में सिखाए जाने की आवश्यकता है। ये छः बातें हैं: 1. मरे हुए कामों से मन फिराना, 2. परमेश्वर पर विश्वास करना, 3. बपतिस्मों, 4. हाथ रखना, 5. मरे हुओं के जी उठना, 6. अन्तिम न्याय। इन सिद्धांतों से संबंधित शिक्षाओं को भूल जाने का वही परिणाम होगा जो इब्रानियों के लेखक ने कहा है – विश्वासी अपने आत्मिक जीवन में पिछड़ जाएँगे, और इस कारण कलीसिया भी पिछड़ जाएगी।
तीसरी, मसीही जीवन जीने से संबंधित: सभी विश्वासियों के लिए कुछ निर्देश, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, यरूशलेम में प्रेरितों और अगुवों के द्वारा निर्धारित और स्थापित किए गए थे (प्रेरितों 15:28-31); ये थे, “तुम मूरतों के बलि किए हुओं से, और लहू से, और गला घोंटे हुओं के मांस से, और व्यभिचार से, परे रहो। इन से परे रहो;” ये सभी कलीसियाओं के द्वारा पालन करने के लिए थे, और उन्हें पहुँचाए गए, तथा इनके पालन से कलीसियाओं में उन्नति हुई (प्रेरितों 16:4-5)।
यह कलीसियाओं के अगुवों की, तथा उनकी जिन्हें वचन की शिक्षा देने की सेवकाई सौंपी गई है, की ज़िम्मेदारी है कि वे यह देखें कि ये तीनों तरह की बातें प्रत्येक विश्वासी को, नया हो या पुराना, और कलीसिया को सिखाई तथा याद दिलाई जाएँ। जैसे कि आरंभिक बातों के संदर्भ में इब्रानियों 5:11-14 में लिखा गया है, इन नेव समान आरंभिक सिद्धांतों को न जानना या भूल जाना, आत्मिक परिपक्वता को हानि पहुँचता है, विश्वासियों को “ऊँचा सुनने” वाला बना देता है, और ठोस आत्मिक भोजन लेने के अयोग्य कर देता है।
अगले लेख में हम इन तीन में से पहली तरह की शिक्षा, सुसमाचार प्रचार और पालन के बारे में परमेश्वर के वचन से कुछ बातें देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
Preliminary Considerations – 3
We are now studying a Christian Believer’s growth through proper study and utilization of God’s Word, the Bible. In the preceding articles we have seen that the Bible teaches the paramount importance of a proper ministry of God’s Word for the growth of the Christian Believers and the Church. We saw that in the first century the rapid growth and establishment of Churches and Christian Believers all over the world was mainly because of a proper ministry of the unadulterated, uncorrupted Word of God. On the other hand, whenever and wherever there was a shortcoming in the ministry of God's Word, it adversely affected the growth of the Church and of the Christian Believers. This shortcoming in the ministry of the Word can be in quantity as well as quality, i.e., quantitatively, teachings inadequate in/or number and frequency; and qualitatively, teachings that adulterate God’s Word with human thoughts and wisdom.
The importance of properly learning God’s Word, and learning it in its purity and truth can be understood by the fact that not only has God placed His Word in our hands, but has also given His Holy Spirit to every Believer to teach the Word (John 14:26). As we saw in the last article, Paul in his farewell address to the Ephesian Believers emphatically reminded them that he had made it a point not to hold back anything from them, and to teach to them the whole counsel of God (Acts 20:20, 27). To learn this ‘whole counsel of God,’ the Bible gives us three Categories of Teachings, essential for the spiritual growth and progress of the Believers and the Church. Those entrusted with the ministry of sharing God’s Word should take note and model their ministry accordingly, under the guidance of the Holy Spirit. These three categories are:
First, the Gospel: Preaching the gospel was the basic thing that the disciples of the Lord Jesus were told to do in their ministry for the Lord (Matthew 28:19; Mark 16:15; Luke 24:46-48; Acts 1:8). Paul in concluding his first letter to Corinthians, in which he pointed out their numerous short-comings and errors, and showed them how to correct those errors, towards the conclusion of his letter, brought them back to the gospel - 1 Corinthians 15:1-4. In other words, the gospel is not meant only to bring people to salvation, but it is also the panacea for all problems in personal and Church life. The implication is that if the Believers learn to repeatedly evaluate their lives, beliefs, practices, teachings they have received, etc., against the gospel, they will also learn to identify the right from the wrong, and will not be led astray. Anything that leads them astray from the Lord Jesus’s teachings, in any manner adds to, or takes away from those teachings; or makes people trust in anything other than the Lord’s sacrifice on the Cross and His resurrection from the grave, is a wrong teaching; and is not to be accepted or followed, no matter how pious, logical, and attractive it may seem, and no matter who practices, preaches, and teaches it.
Second, the Basic Principles: The author of Hebrews says in Hebrews 5:12 that his audience had deteriorated to the point that they required the basic principles be taught to them again. Then in Hebrews 6:1-2 he mentions the six basic topics, the elementary principles, he calls them foundational teachings, therefore they are those that should be taught in all the churches. These six are: 1. Repentance from dead works; 2. Faith towards God, 3. Doctrine of Baptisms, 4. Laying on of hands, 5. Resurrection of dead, 6. Eternal judgement. Forgetting the teachings related to these principles, will produce the same effect as the author of this letter to Hebrews has mentioned – Believers will deteriorate in their spiritual lives, and therefore, the Church will also deteriorate.
Third, regarding Christian living: Some instructions for all the Believers, were determined and established by the Apostles and Elders of Jerusalem under the guidance of the Holy Spirit (Acts 15:28-31); namely, “abstain from things offered to idols, from blood, from things strangled, and from sexual immorality”. They were meant to be followed by all the Churches, were delivered to the Churches, and obeying them resulted in the growth of the Churches (Acts 16:4-5).
It is the responsibility of the Church Elders and those entrusted with the ministry of teaching God’s Word to see that teachings of these three categories are taught and reminded to every Believer, new and old, and to the Church. As it is written in context of the basic principles, in Hebrews 5:11-14, not knowing, or forgetting these foundational Biblical teachings, leads to deterioration of spiritual maturity, makes the Believers “dull of hearing,” and unable to take in solid spiritual food.
In the next article, we will start considering about the first of these three kinds of teachings, i.e., about preaching and following the Gospel from God’s Word.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.