परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 4
पिछले दो लेखों में हम ने शैतान की एक युक्ति के बारे में देखा है, जिसे वह अकसर मसीहियों को भ्रम में डालने और उन्हें बहका कर परमेश्वर से दूर ले जाने के लिए उपयोग करता है – उन्हें लुभा और फुसला कर उन्हें उकसाता है कि परमेश्वर के वचन पर भरोसा रखने से अधिक वे अपनी बुद्धि और समझ पर भरोसा करें, और जो उन्हें सही प्रतीत होता है उसे करने में फिर देर न करें; परमेश्वर का नाम लेकर उन से कही गई किसी बात को स्वीकार करने से पहले, उसे जाँचने, उसकी पुष्टि करने, में समय लगाने की बजाए, जो सही लगता हैं उसे स्वयं भी करें तथा औरों से भी करवाएँ। शैतान की इस युक्ति से संबंधित, हव्वा के उदाहरण के अतिरिक्त हमने तीन अन्य उदाहरण बाइबल में से देखे थे – अय्यूब के मित्रों का, पौलुस के दृष्टिकोण और रवैये का, और पतरस द्वारा यद्यपि श्रद्धा में होकर, किन्तु जल्दबाजी में प्रभु को झिड़कने और फिर स्वयं प्रभु से डाँट खाने और उसे उसका स्थान दिखाए जाने का। आज हम प्रभु के वचन के अनुचित उपयोग, परमेश्वर की आज्ञाओं के गलत निर्वाह का एक और संबंधित उदाहरण देखेंगे।
यह एक बहुत ही सामान्य बात है, और अधिकांश लोग इसके बारे में सोचते भी नहीं हैं; वे यही मान कर चलते हैं कि जो परमेश्वर के वचन में लिखा हुआ है, यदि वे उसे कर रहे हैं, तो फिर जिस तरह से वह किया जा रहा है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह हर हाल में परमेश्वर की आज्ञाकारिता में किया गया कार्य ही है, और इसलिए परमेश्वर को उससे प्रसन्न होना चाहिए और उसे स्वीकार करके उसके लिए उन्हें आशीष देनी चाहिए। इसलिए, वे परमेश्वर के वचन में लिखी हुई परमेश्वर के कार्य और उसकी आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों को बहुत हलके में लेते हैं, जैसे कि प्रभु यीशु के क्रूस को, प्रभु यीशु के लहू को, प्रभु-भोज में सम्मिलित होने को, बपतिस्मा लेने को, परमेश्वर को आराधना चढ़ाने उसकी उपासना करने को, इत्यादि। लोग इन सभी और वचन की ऐसी ही अन्य बातों को, चाहे श्रद्धा और भक्ति के भाव साथ, वैसे पालन करते हैं जैसा उन्हें सही या, सहज लगता है; किन्तु उस प्रकार से नहीं जैसा कि परमेश्वर के वचन में उनके बारे में लिखा और करने के लिए कहा गया है। इस अनुचित निर्वाह में अन्य मनुष्यों, विशेषकर मण्डली के अगुवों और प्रधान लोगों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है; लोग अकसर वही करते हैं जो उनके अगुवे और प्रधान लोग बताते और सिखाते हैं, न कि वह जो वचन में लिखा गया है। ऐसा करने के द्वारा, वे परमेश्वर के वचन का योग्य भण्डारी होने की अपनी ज़िम्मेदारी में लापरवाह हो जाते हैं, उसका उचित निर्वाह नहीं करते हैं। साथ ही, ऐसा करने से, वे शैतान को उन्हें एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य के प्रति अन्धा भी बना लेने देते हैं – परमेश्वर और उसके मार्ग, न तो मनुष्य की कोई कल्पना अथवा रचना हैं, और न ही मनुष्य इस बात का निर्णय कर सकता है, न परमेश्वर को बाध्य कर सकता है कि परमेश्वर को किस बात से प्रसन्न होना चाहिए, और उसे क्या स्वीकार्य होना चाहिए, तथा किस बात के लिए मनुष्य को आशीष देनी चाहिए। इसके विपरीत, वास्तविक तथ्य यही है कि परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया है, और परमेश्वर ने मनुष्य को यह भी बताया है कि उसे क्या पसंद है और क्या नहीं, तथा मनुष्य को किस प्रकार से परमेश्वर की आज्ञाकारिता करनी है जिससे कि उसकी संगति में बना रहे, उसकी आशीष प्राप्त करता रहे।
यह बाइबल में, आरम्भ से ही, बहुधा बल देकर कहा गया और बारंबार दोहराया गया तथ्य है कि परमेश्वर से सम्बन्धित सभी बातों में, विशेषकर उसकी आराधना, उपासना, और सेवकाई के संबंध में, वह एकमात्र बात जो परमेश्वर को प्रसन्न करती है और उसे स्वीकार्य है, वह है उसके तथा उसके वचन के प्रति आज्ञाकारिता (1 शमूएल 15:22; यिर्मयाह 7:23)। अकसर और सामान्यतः हम परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी होने से केवल यही समझते हैं कि जो परमेश्वर ने कहा है वह नहीं करना अनाज्ञाकारिता है। किन्तु सामान्यतः, बहुत से लोग जिस बात का एहसास नहीं करते हैं, जानते नहीं हैं, समझते नहीं हैं, और जो उन्हें अकसर सिखाई ही नहीं जाती है वह है कि न केवल परमेश्वर के कहे हुए को नहीं करना अनाज्ञाकारिता है, परन्तु जिस रीति से परमेश्वर ने करने को कहा है उस रीति से नहीं करना भी अनाज्ञाकारिता ही है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने जो कहा है यदि वह किया तो जाता है, किन्तु परमेश्वर द्वारा कहे गए, उसके वचन में दिए गए तरीके से करने की बजाए, उसे किसी मनुष्य द्वारा तय किए गए तरीके से किया जाता है, तो यह भी अनाज्ञाकारिता ही है। ये दोनों बातें, वह जो परमेश्वर ने करने को कहा है उसे न करना, और जैसा परमेश्वर ने कहा है वैसे नहीं करना, परमेश्वर की आज्ञा का, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन हैं और 1 यूहन्ना 3:4 में दी गई परिभाषा के अनुसार ये पाप हैं। शैतान ने लुभा और फुसला कर आदम और हव्वा से यही करवाया – परमेश्वर के निर्देशों का उल्लंघन, और इसी कारण फिर पाप सृष्टि तथा मानव जाति में आ गया, तथा चारों और विनाश फैला दिया।
परमेश्वर इस बात के लिए कितना दृढ़ है कि परमेश्वर के कार्य परमेश्वर के तरीके से ही किए जाएँ, यह इस्राएल के मिस्र से छुड़ाए जाने की बातों के उदाहरणों से देखा जा सकता है। हम निर्गमन की पुस्तक के इन उदाहरणों को अगले लेख से देखना आरम्भ करेंगे, और फिर उसके बाद कुछ अन्य उदाहरणों को भी देखेंगे, कि किस प्रकार से परमेश्वर उसके साथ संगति करने, उसकी आराधना और उपासना करने, और उसकी सेवकाई करने के तरीकों के बारे में बहुत दृढ़ है; और यदि भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी को लापरवाही से निभाया जाता है, तो परमेश्वर उसे हलके में नहीं लेता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Improper Behavior Towards God’s Word – 4
In the previous two articles we have seen one of Satan’s strategies, that he often uses to deceive the Christian Believers and lead them astray from God – entice and provoke them into trusting their own intellect and understanding more than trusting God’s Word, and then hastily going ahead to do and also make others do that seems which seems right to them, instead of waiting to learn, check, and confirm before doing something said in the name of God. Besides the example of Eve, we had seen three examples from the Bible related to this satanic strategy – that of Job’s friends, of Paul’s attitude and point-of-view before his conversion, and of Peter, though reverentially but hastily rebuking the Lord and then being rebuked and set in his place by the Lord. Today we will consider another related form of inappropriate use of God’s Word, of misusing the commandments of God.
It is a very common practice, and most people do not even think twice about it; they simply assume that so long as they are doing what is mentioned in God’s Word, the manner of doing it does not matter. It is still something done in obedience to God, and God should be happy with it, accept it, and bless them for it. So, they very casually take things mentioned in God’s Word and with God’s work and worship, e.g., the Cross of the Lord Jesus, the Blood of Lord Jesus, the Holy Communion, Baptism, Worshipping God, etc., and use them in a manner they think is right, though reverentially, but actually not in accordance with what God has had written in His Word about them. In this inappropriate doing of things the role of other human beings, particularly the Elders and prominent people in the Assembly is of extremely important; people usually do what is told and taught to them by their Elders and leaders, and not what is written in God’s Word. By doing so, they are being irresponsible in their stewardship towards God’s Word, and do not fulfil it appropriately. Moreover, because of this, they also allow Satan to make them overlook a very crucial fact – God and His ways are neither something imagined and created by men, nor can man decide and dictate what should please God, should be acceptable to Him, and should result in God blessing them for it. On the contrary, the fact of the matter is that man has been created by God and God has told man what is acceptable to Him, what pleases Him and what does not please Him, and how man should go about obeying God to remain in fellowship with Him, be blessed by Him.
It is an often-emphasized fact that has been reiterated throughout the Bible, that since the very beginning, in all things pertaining to God, particularly His worship and serving Him, the only thing that pleases God and is acceptable to Him, is obedience to Him and His Word (1 Samuel 15:22; Jeremiah 7:23). Commonly and generally, we understand disobedience to God, only as not doing what God has said. But usually what most people do not realize, do not know, do not understand, and it is hardly ever taught to them is that disobedience is not simply not doing what God has said, but also not doing something in the way God has said it should be done. In other words, although doing what has been told by God to do, but not doing it in the way instructed by God; instead doing it in a way devised by man instead of what God has given in His Word. Both of these, not doing what God has said and not doing in the manner God wants it done, are sin as defined in 1 John 3:4, because they are transgressions of God’s law (KJV), or lawlessness (NKJV, NIV, NASB). This is what Satan had enticed Adam and Eve to do – disobey God’s instructions, and thereby sin entered creation and into mankind, wreaking havoc all around.
How particular God is about doing God’s things in God’s ways is well illustrated by some examples from Israel’s deliverance from Egypt. We will start with this illustration from Exodus in the next article, and after that, also see some other examples of how God is very particular about things related to fellowshipping with Him, worshiping Him, and serving Him; and does not take it lightly if this stewardship is not carried out responsibly.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.