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पुनःअवलोकन – 2
हमने हमारे विषय “आशीषित एवं सफल जीवन” पर अभी तक जो सीखा है, उस के पुनःअवलोकन को ज़ारी रखेंगे। यह 1 राजाओं 2:2-4 पर आधारित है, जहाँ दाऊद अपने युवा और अनुभवहीन पुत्र सुलैमान को, जिसे हाल ही में इस्राएल का राजा बनाया गया है, को कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दे रहा है। इन तीन पदों में, दाऊद सुलैमान को चार बातें हमेशा ध्यान में रखने के लिए कहता है; और इन चार में से दूसरी बात में, मसीही विश्वासियों के लिए चार और उप-बिन्दु हैं। अपने बाइबल अध्ययन में हम इस विषय को लगभग आधा तय कर चुके हैं, अर्थात हमने पहले निर्देश को देख लिया है, और फिर दूसरे निर्देश के चार उप-बिंदुओं में से पहले दो को भी देख चुके हैं।
1. हिम्मत रख और पुरुषार्थ दिखा।
दाऊद का सुलैमान के लिए, और आज हमारे लिए भी, पहला निर्देश है "तू हियाव बांधकर पुरुषार्थ दिखा" (1 राजाओं 2:2)। दाऊद सुलैमान से कह रहा है कि यद्यपि वह परमेश्वर द्वारा चुना और नियुक्त किया गया राजा है, लेकिन फिर भी उसके लिए जीवन कभी भी आसान और आरामदेह नहीं होगा। परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए उसे कई तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, और उसकी घोर परीक्षा होगी। उन परिस्थितियों पर जयवन्त होने का एकमात्र तरीका है परमेश्वर की सहायता, जिसके लिए उसे परमेश्वर का आज्ञाकारी, तथा परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार होना पड़ेगा। उसे अपने आप को शारीरिक, मानसिक, तथा आत्मिक रीति से तैयार करना पड़ेगा, कि परमेश्वर के मार्गदर्शन में उन परिस्थितियों के साथ व्यवहार कर सके। यदि वह नकारात्मक रवैया रखेगा, या हार मान लेगा, तो वह कभी कुछ नहीं करने पाएगा।
इसी प्रकार से मसीही विश्वासियों को भी, जो परमेश्वर के द्वारा और उसे की इच्छा में उद्धार पाए हुए हैं, अपने मसीही जीवन में संघर्षों का सामना करना ही होगा। मसीही विश्वास का जीवन जीने के लिए, उसमें बढ़ने तथा परिपक्व होने के लिए, परमेश्वर की आज्ञाकारिता के द्वारा उससे मिलने वाली सहायता एवं मार्गदर्शन में होकर, एक तैयारी, प्रत्याशा, और दृढ़ निश्चय के साथ विभिन्न संभावनाओं के लिए परिश्रम करना पड़ता है। यह आराम से बैठकर और सहज समझकर बिताया जाने वाला जीवन नहीं है। मसीह यीशु में विश्वास करने के द्वारा नया-जन्म या उद्धार पाना प्रक्रिया का पूरा हो जाना नहीं है, वरन आरंभ मात्र है, नए जीवन में बढ़ाया गया पहला ही कदम है। इस नए जीवन में सभी पुरानी बातें बदल दी जानी हैं, नई बातों को सीखना है, उनके अनुसार जीना है, उनका पालन करना है। इस जीवन को अपने स्वार्थ के लिए या अपनी संतुष्टि के लिए नहीं, बल्कि प्रभु यीशु मसीह के लिए जीना है (2 कुरिन्थियों 5:15, 17)। हर कदम पर शैतान विश्वासी को भटकाने और भरमाने, उसकी आत्मिक उन्नति में बाधाएँ डालने, उसके लिए जीवन को कठिन और कुंठित करने वाला बनाने का प्रयास करेगा, कि किसी तरह से उसे पराजित और इस जीवन को जी पाने में अक्षम अनुभव करवाए, जिस से कि वह फिर से वापस साँसारिक और शारीरिक जीवन जीने में लौट जाए। परमेश्वर प्रत्येक विश्वासी के जीवन में एक उद्देश्य के अंतर्गत ये सब बातें आने देता है, लेकिन हमेशा ही एक सीमा के अंदर, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 10:13 में लिखा है। कोई भी मसीही विश्वासी इस संघर्षों से निकले बिना न तो सीख सकता है, और न ही उन्नति कर सकता है, और न परिपक्व हो सकता है। लेकिन जो पुरुषार्थ करते हैं, परिश्रम के साथ आगे बढ़ते हैं, जैसे पौलुस ने किया था (2 तीमुथियुस 4:6-8), वे परमेश्वर से बहुतायत से इनाम भी पाते हैं। इसलिए इस विश्वास के जीवन को जीने के लिए मसीही विश्वासी को पुरुषार्थ करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, और फिर दृढ़ निश्चय के साथ इस निर्णय का निर्वाह करना चाहिए; और परमेश्वर पवित्र आत्मा इस में उसकी सहायता करेगा, उसका मार्गदर्शन करेगा, जैसा कि हम आगे देखेंगे।
2. परमेश्वर ने जो कुछ प्रदान किया है, उसके योग्य भण्डारी बनो।
जैसा दाऊद ने सुलैमान से कहा है, "जो कुछ तेरे परमेश्वर यहोवा ने तुझे सौंपा है, उसकी रक्षा कर के उसके मार्गों पर चला करना", अर्थात, परमेश्वर ने जो कुछ उसे सौंपा है, वह उसका योग्य भण्डारी बने (1 राजाओं 2:3a)। पौलुस भी कहता है कि उसे परमेश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसका भण्डारी भी बनाया है, और उसे इस भण्डारी होने को भली-भाँति निभाना है (1 कुरिन्थियों 4:1-2)। यह न तो उसके चुनने की बात थी, न ही उसकी पसन्द अथवा नापसन्द की, वरन परमेश्वर का आज्ञाकारी होने की थी (1 कुरिन्थियों 9:16-17), अन्यथा उसे इसके साथ जुड़ी हुई ‘हाय’ को भोगना पड़ेगा। परमेश्वर जब भी किसी को कुछ देता है, तो वह व्यक्ति स्वतः ही उस बात का भण्डारी भी हो जाता है, और उसे इस ज़िम्मेदारी को योग्य रीति से पूरा करना है। मसीह यीशु का अनुयायी होने के कारण, पसन्द करने या न करने, या स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं है। एक योग्य भण्डारी वह है जो उसे सौंपी गई प्रत्येक ज़िम्मेदारी का सही रीति से और परिश्रम के साथ निर्वाह करता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को सिखाया कि परमेश्वर पिता अपेक्षा करता है कि उसके भण्डारी खराई और ज़िम्मेदारी के साथ अपना कार्य करेंगे। जो ऐसा करेंगे, वे बहुतायत से इनाम भी पाएंगे (लूका 12:41-44)। हम दो तरह से अयोग्य भण्डारी हो सकते हैं:
ज़िम्मेदारी के प्रति लापरवाह और उदासीन होने के द्वारा: मत्ती 25:24-30 के दृष्टांत के उस सेवक के समान होना, जिसने न तो उसे दिए गए एक तोड़े की कीमत को समझा, और न ही जिसने उसे वह दिया था उसको उचित आदर दिया। उसने अपने तोड़े का कोई उपयोग नहीं किया, और हिसाब लेने के समय उसे दण्ड दिया गया।
ज़िम्मेदारी को अधिकार समझ कर अनुचित हक जताने के द्वारा: लूका 12:45-46 के दृष्टांत के सेवक के समान, जिसने अपने भण्डारी होने को एक अधिकार के समान लेकर उसका दुरुपयोग किया। जब कि उसे इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह में नम्र और देखभाल करने वाला होना चाहिए था (1 पतरस 5:1-4)।
हम अगले लेख में भण्डारी होने से संबंधित बातों का पुनःअवलोकन ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Recapitulation – 2
We will be continuing with our recapitulation of what we have learnt so far under the topic “Blessed and Successful Life,” from 1 Kings 2:2-4, where David is giving some very important instructions to his young and inexperienced son Solomon, who has recently been crowned King of Israel. In these three verses, David gives four points to Solomon to always bear in mind; and in the second of these four points, for the Christian Believers, there are four more sub-points. In our Bible study we are about half-way through, i.e., we have considered the first point and then the first two of the four sub-points under point two.
1. Be Strong and Manly, not timid or defeatist.
David’s first instruction for Solomon, and now for us is "be strong and prove yourself a man." (1 Kings 2:2). David was telling Solomon that though he is a God chosen and appointed King, still life will never be easy and convenient for him. He will have to face all kinds of situations and will be tested thoroughly in fulfilling his God given responsibilities. The only way to overcome the situations that will come is through the help of God, by being obedient to Him and willing to face them. He will have to prepare himself, physically, mentally, as well as spiritually for handling them under God’s guidance. If he were to have a negative or a defeatist attitude, he will never be able to accomplish anything.
Similarly, for Christian Believers, who are saved by God and in the will of God, Christian life is a life of struggles. Living the life of Christian faith, growing and maturing in it, etc., all require anticipation, preparation, and resolute laboring for the various possibilities, with the help and guidance of God, through being obedient to Him. It is not a life of sitting back and taking things easy. Being Born-Again or saved by coming into faith in the Lord Jesus, is not a completion, but only the beginning, the first step into a new life. In this new life, all the old things must change, new things must be learnt, lived, and followed. It must be a life lived not for selfish purposes or for self-gratification, but for the Lord Jesus (2 Corinthians 5:15, 17). At every step, Satan will try to mislead the Believer, hamper his spiritual growth, make life difficult to frustrate and somehow cause him to feel defeated and incapable, and then revert into the former worldly and carnal life. God allows these things in every Believer’s life for a purpose, but always within certain limits, as given in 1 Corinthians 10:13. No Christian Believer can learn, grow, and mature without passing . through these struggles. But those who are manly and strive, like Paul did (2 Timothy 4:6-8), will also be richly rewarded by God. Therefore, to live his life of faith the Christian Believer must commit to be a man, and then resolutely live out his decision; and God the Holy Spirit will help and guide him along, as we will see later.
2. Be a good Steward of whatever God has given.
As David said to Solomon, "keep the charge of the Lord God", i.e., he had to be keep charge of whatever God had entrusted to him (1Kings 2:3a); be a good steward of whatever God had given to him. Paul also says that he has been made a steward of everything that God has given him, and he has to do fulfill his stewardship faithfully (1 Corinthians 4:1-2). It is neither a question of choice, nor of liking or disliking, but of being obedient to God (1 Corinthians 9:16-17), or else suffer the associated woe of not fulfilling the responsibility. When God gives anything to anyone, that person simultaneously also becomes its steward, and is expected to fulfill this responsibility worthily. In being a follower of Christ Jesus, there is no question of liking or not liking, accepting or not accepting a stewardship. A good Steward is one who properly and diligently keeps charge of whatever has been entrusted to him. The Lord Jesus taught His disciples that God the Father expects His stewards to function responsibly and sincerely. Those who do so, will be richly rewarded (Luke 12:41-44). We can be poor stewards by either:
Being careless and unconcerned: being like the servant who neither considered the worth of the talent given to him, nor honored the one who had given it to him. He did not put the talent given to him to any use, and at the time of accounting, was punished (Matthew 25:24-30).
Being overly possessive and usurping: by being like the one who misused his stewardship as a position of authority (Luke 12:45-46); whereas he had to be gentle and caring in his responsibility (1 Peter 5:1-4).
We will further recapitulate about stewardship in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.