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आराधना में बाधाएँ (2) - अपने स्तर को न समझना
मसीही विश्वासी के जीवन में बाधाएँ बनकर उसे योग्य रीति से परमेश्वर की आराधना करने से रोकने वाली बातों के अध्ययन में हमने पिछले लेख में देखा था कि इस का प्राथमिक और सर्वोपरि कारण है यह न समझना कि आराधना वास्तव में है क्या। इसीलिए, वास्तविक आराधना के स्थान पर लोग प्रार्थना, रीति के अनुसार और औपचारिकता में गीत गाने, मण्डली की सामूहिक आराधना में बिना गीत के शब्दों पर ध्यान या विश्वास किए उन्हें गा लेना, आदि का उपयोग करते हैं। इनमें से कोई भी वह “आत्मा और सच्चाई” से की गई आराधना नहीं है, जो परमेश्वर अपने लोगों से चाहता है। ऐसे अपरिपक्व मसीही विश्वासियों के जीवनों में परमेश्वर की व्यक्तिगत आराधना का भी स्थान नहीं होता है, जो उनके परमेश्वर के साथ एक निकट और सार्थक संबंध के न होने का भी सूचक है। इसीलिए, इस औपचारिक तथा ऊपरी आराधना से उनके जीवनों में कोई लाभ भी नहीं आते हैं।
एक और बाधा जो मसीही विश्वासियों को परमेश्वर की योग्य आराधना करने से रोकती है, उनका उन्हें परमेश्वर से मिले हुए ओहदे या स्तर की जानकारी न होना है। परमेश्वर ने प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को, अर्थात उसे जिसने अपने पापों से पश्चाताप किया है और प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया है, अपने अनुग्रह में उसे उद्धार के साथ एक स्तर भी प्रदान किया है। पहले हम परमेश्वर के वचन से परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा मिले स्तर को देखते हैं, और इस का एहसास करते हैं कि परमेश्वर ने नया जन्म पाए हुए उसके विश्वासियों को कैसे ऊँचे स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है, उन्हें जो प्रभु में विश्वास करते हैं, उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया है, और अपने जीवन उसे समर्पित कर दिये हैं।
ऐसे मसीही विश्वासियों के बारे में परमेश्वर का वचन कहता है, कि:
वे परमेश्वर की संतान बन गए हैं, “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)।
परमेश्वर की संतान होने के नाते वे मसीह के संगी वारिस हैं, “इसलिये कि जितने लोग परमेश्वर के आत्मा के चलाए चलते हैं, वे ही परमेश्वर के पुत्र हैं। क्योंकि तुम को दासत्व की आत्मा नहीं मिली, कि फिर भयभीत हो परन्तु लेपालकपन की आत्मा मिली है, जिस से हम हे अब्बा, हे पिता कह कर पुकारते हैं। आत्मा आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं। और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” (रोमियों 8:14-17)।
इस पृथ्वी पर, इस वर्तमान शारीरिक जीवन में भी, वे अंश-अंश करके प्रभु की समानता में बदलते चले जा रहे हैं, “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18)।
वे परमेश्वर के याजक हैं (प्रकाशितवाक्य 1:6), वास्तव में एक चुना हुआ वंश, राज-पदधारी याजकों का समाज, पवित्र प्रजा, और परमेश्वर की निज प्रजा हैं, “पर तुम एक चुना हुआ वंश, और राज-पदधारी याजकों का समाज, और पवित्र लोग, और (परमेश्वर की) निज प्रजा हो, इसलिये कि जिसने तुम्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करो” (1 पतरस 2:9)।
उपरोक्त सभी पदों में यह ध्यान दीजिए कि ये आते समय में पूरी होने वाली प्रतिज्ञाएं नहीं हैं, न ही ऐसी संभावनाएं हैं जो मसीही विश्वासी के द्वारा कुछ विशेष करने अथवा एक विशिष्ट प्रकार का जीवन जीने के द्वारा उसे प्राप्त होंगी; परन्तु यह प्रदान कर दिए गए वास्तविक तथ्य हैं। क्योंकि स्वयं परमेश्वर ने प्रत्येक वास्तविक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को इस उच्च स्तर पर लाकर आसीन कर दिया है, इसीलिए, पौलुस लिखता है, “हे भाइयों, मेरी भावना यह नहीं कि मैं पकड़ चुका हूं: परन्तु केवल यह एक काम करता हूं, कि जो बातें पीछे रह गई हैं उन को भूल कर, आगे की बातों की ओर बढ़ता हुआ। निशाने की ओर दौड़ा चला जाता हूं, ताकि वह इनाम पाऊं, जिस के लिये परमेश्वर ने मुझे मसीह यीशु में ऊपर बुलाया है” (फिलिप्पियों 3:13-14)। पौलुस भली-भांति जानता था कि वह एक घोर पापी है (1 तिमुथियुस 1:12-15), और परमेश्वर के अनुग्रह तथा उससे कोई ज़िम्मेदारी मिलने के सर्वथा अयोग्य है (1 कुरिन्थियों 15:9-10)। लेकिन फिर भी परमेश्वर ने उसे उद्धार दिया और उसे एक स्वर्गीय स्तर प्रदान किया, जैसे परमेश्वर ने प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को भी किया है। इसलिए, यद्यपि पौलुस अपने मन में अपनी भूतपूर्व दशा और स्तर का ध्यान रखता था, लेकिन उसने इन बातों को अपने जीवन के लिए एक ऐसा भारी बोझ कभी नहीं बनने दिया जो उसे परमेश्वर से मिली ज़िम्मेदारी को पूरी करने वाली जीवन-दौड़ के लिए बाधा बने। पौलुस को इस बात का एहसास था कि आगे बढ़ने के लिए उसे पिछली गलतियों और बुराइयों को भुलाना और छोड़ना पड़ेगा; केवल तब ही वह आगे उस इनाम की ओर बढ़ सकेगा जो उसके लिए रखा हुआ है। और उसने कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को भी इसी बात का एहसास करवाया - वे पहले क्या थे, और वर्तमान में उन्हें क्या बना दिया गया है (1 कुरिन्थियों 6:9-11)। इसलिए अब उन्हें अपने वर्तमान स्तर के अनुसार जीवन जीना है, न कि भूतपूर्व स्थिति के अनुसार। जब तक कि हम इस बात का एहसास नहीं करेंगे कि परमेश्वर की दृष्टि में हम क्या हैं, और इस बात को सदा ध्यान में बनाए नहीं रखेंगे, तब तक हम अपने आप को परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला तो दूर की बात है, उसे स्वीकार्य जीवन और व्यवहार भी नहीं रख सकेंगे।
तो इसका विश्वासी की आराधना पर क्या प्रभाव पड़ता है? यह एक दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि बहुत से विश्वासी, परमेश्वर की आराधना करते समय, अपना अनादर करते हैं, अपने आप को अप्रतिष्ठित ठहराते हैं; और वह भी वर्तमान काल में। उन्हें परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रदान किए गए स्तर का कोई वास्तविक एहसास नहीं है। वे परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा उद्धार पाने के बाद भी अपने लिए यही यही कहते हैं कि उद्धार पाने से पहले वे जैसे हुआ करते थे, वैसे ही अब भी हैं। वे अपने आप को अनेकों प्रकार के अनादरपूर्ण नामों और बातों से संबोधित करते हैं, अपने आप को अनेकों प्रकार के अप्रतिष्ठित स्तर और पदवियाँ प्रदान करते हैं। किन्तु ज़रा सा विचार करके देखिए कि यह सब परमेश्वर को कैसा लगता होगा, जो कहता है, “मैंने तुझे क्षमा कर दिया है और तुझे उठा कर अपनी संतान होने का स्तर दे दिया है; तू मसीह का संगी वारिस, मेरा राज-पदधारी याजक और विशेष प्रजा है, और अभी भी मैं तुझे मसीह की समानता में बदलता चला जा रहा हूँ।” किन्तु विश्वासी कहता है, “नहीं, मैं तो अभी भी एक नीच, निरादर के योग्य, पूर्णतः अयोग्य, किसी भी भलाई इए अनुपयुक्त, घिनौना, आदि हूँ!” क्या यह ज़रा भी सही और उचित लगता है? क्या परमेश्वर ऐसी कोई भी बात सुनना चाहेगा? क्या परमेश्वर किसी विश्वासी के मुँह से ऐसी बातें सुनकर उसकी सराहना करेगा? क्या परमेश्वर ऐसी बातों को कभी भी उसकी “स्तुति और आराधना” के रूप में स्वीकार करेगा? चाहे यह अनजाने में ही हो, किन्तु क्या यह परमेश्वर का गुणानुवाद करने के स्थान पर उसमें अविश्वास करना, अप्रत्यक्ष रीति से उसे झूठा ठहराना नहीं है? इससे संबंधित एक रोचक बात यह भी है कि जो लोग अपनी ‘आराधना’ में इस प्रकार के शब्द अपने लिए प्रयोग करते हैं, यदि कोई उन्हें उन्हीं के उन शब्दों से संबोधित करे तो वे बहुत बुरा मानते हैं, बहुत क्रुद्ध हो जाते हैं। क्या यह उनके द्वारा दिखाया जाने वाला पाखण्ड नहीं है? ऐसी तथाकथित ‘आराधना’ वास्तव में मण्डली के उपस्थित लोगों के कानों के लिए तो हो सकती है, किन्तु परमेश्वर की स्तुति और आराधना के लिए कदापि नहीं है। न केवल मसीही विश्वासी को यह जानना चाहिए कि वास्तविक आराधना क्या है, वरन साथ ही उसे इस बात का ध्यान भी रहना चाहिए कि परमेश्वर ने उसे क्या स्तर प्रदान किया है, उठाकर कहाँ पर बैठाया है। और फिर परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किए गए इसी स्तर के अनुसार ही उसे हर समय, हर बात के लिए, बोलना और व्यवहार करना चाहिए।
अगले लेख में हम इसी बात से संबंधित एक और बाधा के बारे में देखेंगे, जो मसीही विश्वासियों को सच्ची आराधना करने से बाधित करती है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 13-15
लूका 1:57-80
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Obstacles to Worship (2) - Not Realizing Our Status
In studying the obstacles in a Christian Believer’s life that keep him from worshipping God worthily, we have seen in the last article that the primary and foremost reason is not knowing what worship actually is. Therefore, true worship is substituted with things like prayer, ritualistic and formal singing of songs, participating in congregational singing without actually meaning the lyrics being sung, etc. None of these are “the worship in spirit and truth” that the Lord God seeks from His people. Such immature Christian Believers also lack having a personal time of worshipping God in their lives, which is an indicator of their lack of a close and meaningful personal relationship with God. Therefore, they do not benefit from their perfunctory and superficial worship in any manner.
Another obstacle that keeps a Christian Believer from offering worship to God worthily is their not realizing the status that God has granted to them along with the salvation He has graciously given to them because of their repenting of sins and accepting the Lord Jesus as their Savior. Let us first see from God’s Word and realize about the status that the Lord God has elevated the Born-Again Christian Believers, i.e., those who believe in Him, have accepted Him as their personal savior, and have committed their lives to Him.
God’s Word says about such Christian Believers, that:
They have been made the children of God, “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God” (John 1:12-13).
As God’s children, they are joint heirs with Christ Jesus, “For as many as are led by the Spirit of God, these are sons of God. For you did not receive the spirit of bondage again to fear, but you received the Spirit of adoption by whom we cry out, "Abba, Father." The Spirit Himself bears witness with our spirit that we are children of God, and if children, then heirs--heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together” (Romans 8:14-17).
Even on this earth, in the present physical life, they are gradually being transformed into the likeness of our Lord, “But we all, with unveiled face, beholding as in a mirror the glory of the Lord, are being transformed into the same image from glory to glory, just as by the Spirit of the Lord” (2 Corinthians 3:18).
They are the Priests of God (Revelation 1:6), in fact a chosen generation, a Royal Priesthood, a holy nation, God’s own special people, “But you are a chosen generation, a royal priesthood, a holy nation, His own special people, that you may proclaim the praises of Him who called you out of darkness into His marvellous light” (1 Peter 2:9).
In all these verses, notice that these are not promises to be fulfilled in the future, or possibilities to which the Believers can attain if they do certain things, or live a particular kind of life; but they are already granted and accomplished facts. Since God Himself has already elevated every truly Born-Again Christian Believer to such an exalted status, therefore, Paul writes, “Brethren, I do not count myself to have apprehended; but one thing I do, forgetting those things which are behind and reaching forward to those things which are ahead, I press toward the goal for the prize of the upward call of God in Christ Jesus” (Philippians 3:13-14). Paul well knew that he was a heinous sinner (1 Timothy 1:12-15), absolutely unworthy of the grace of God and responsibility bestowed upon him (1 Corinthians 15:9-10). But still, God had saved him and granted him a heavenly status, as God has granted to every true Christian Believer. So, while Paul did did keep at the back of his mind his former condition and status, but he did not let it become a heavy weight that would prevent him from properly running his race of responsibility entrusted to him by God. Paul realized that to reach forward, he had to forget and let go of his wrong-doings of the past, only then could he press forward to the prize kept for him. And he reminded the Corinthian Believers also about the same thing - what they formerly were, and what they presently have been made (1 Corinthians 6:9-11). Therefore, now they have to live according to their present status, not in their past. Unless we realize and remain aware of who we are in the eyes of God, we will not conduct ourselves in a manner acceptable to God, let alone appreciated by Him.
So, how does this affect the Believer’s worship? It is an unfortunate fact that many Believers, while worshipping God, belittle and demean themselves, and that too in the present tense, i.e., they say they still are the same as they were earlier, before being saved by the grace of God. They call themselves all sorts of demeaning names, give themselves various belittling titles and status. But just think it over, how would all this sound to God, who says that “I have forgiven you and lifted you up to the status of being my child, a joint-heir with Christ, my Royal Priest and special people, and even now am transforming you into the likeness of Christ”; and the Believer says, “No, but I am still such a lowly, dishonorable, unworthy, good-for-nothing, wretched creature, etc.!” Does this make any sense? Would God like to hear any of these things, would He in any manner ever appreciate a Believer’s saying such things? Will He ever accept this as “Praising and Worshipping God”? Even if it is inadvertent, is this not disbelieving God and indirectly calling Him a liar, instead of exalting Him? Is there any example in God’s Word of any of His people ever worshipping Him in this manner? And an interesting fact is, that those who use such belittling and demeaning terms for themselves in their so-called ‘worship’, take serious offence and respond in anger to anyone who calls them out by any of those very terms that they have used for themselves. Is this not sheer hypocrisy on their part? Such so-called ‘worship’ is more for the ears of the congregation, than it is for praising and exalting God. Not only should the Christian Believer know what worship actually is, but should also be aware of his God-given status, then speak and behave accordingly at all times, for all things.
In the next article we will see another similar obstacle to worship in the life of a Christian Believer.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Joshua 13-15
Luke 1:57-80
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