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शनिवार, 29 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - चौथा स्तंभ; प्रार्थना


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का चौथा स्तंभ, प्रार्थना  

प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने मेंलौलीन रहे। हमने इन चारों में से पहली तीन, और सातों में से पहली छः बातों को पिछले लेखों में देखा है। आज इन चार में से चौथी तथा सात में से सातवीं बात, प्रार्थना में लौलीन रहने के बारे में देखते हैं। 

यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु यीशु के उन आरंभिक अनुयायियों के जीवन में, आरंभ से ही प्रार्थना करने का बहुत महत्व रहा है। सामान्यतः परमेश्वर से प्रार्थना करने को परमेश्वर से कुछ माँगने या उससे प्राप्त करने के प्रयास करने के अभिप्राय से देखा और समझा जाता है। किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार परमेश्वर से प्रार्थना का अभिप्राय होता है परमेश्वर से वार्तालाप करना, जैसा प्रभु यीशु मसीह बहुधा किया करते थे (मरकुस 1:35; मत्ती 14:23; लूका 5:16; 6:12-13)। यह वार्तालाप औपचारिकता का निर्वाह नहीं, अपितु, किसी अंतरंग मित्र के साथ दिल खोल कर बात करने के समान है। अपने मन की बात परमेश्वर से खुल कर कहना, और परमेश्वर के मन की बात को उससे सुनना। अर्थात, प्रार्थना करना, परमेश्वर से संगति करने के समान है, निरंतर हर बात के लिए उसके संपर्क में बने रहना, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानकर उसके अनुसार कार्य करना। जब मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ ऐसे निकट संबंध और संपर्क में रहेगा, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अपना हर निर्णय और कार्य करेगा, तो स्वतः ही उसके जीवन में परमेश्वर की सामर्थ्य भी प्रकट रहेगी, उसके कार्य भी सफल होंगे, और वह परिस्थितियों द्वारा विचलित और निराश भी नहीं होगा, क्योंकि उसे विश्वास रहेगा के जो कुछ भी उसके जीवन में हो रहा है, वह परमेश्वर की इच्छा और योजना के अंतर्गत है, और अन्ततः उससे उसकी भलाई ही होगी (रोमियों 8:28) 

इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस द्वारा लिखवाया, “निरन्तर प्रार्थना में लगे रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:17)। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि सब कार्य छोड़कर किसी एकांत स्थान में आँख बंद करके और हाथ जोड़कर बैठे रहो और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहते रहो। वरन यह कि हर समय, हर बात के लिए, परमेश्वर के साथ मन में एक मूक संवाद, एक वार्तालाप चलते रहना चाहिए, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानते रहना चाहिए, उसकी इच्छा के अनुसार करते रहना चाहिए। जो इस प्रकार परमेश्वर के साथ अपना घनिष्ठ संबंध बनाए रखते हैं, वे प्रभु के इस वचन को भी समझ सकते हैं और उसके प्रति आश्वस्त रह सकते हैं कि समय और आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रभु से वचन और सहायता मिलती रहेगी (लूका 12:11-12); तथा इन अंत के दिनों की भयानक घटनाओं से बचने और शांति के साथ रहने वाले भी हो सकते हैं (लूका 21:34-36; प्रकाशितवाक्य 3:10)

मसीही विश्वासियों के लिए प्रार्थना करना कोई निर्धारित संख्या के अनुसार गिनकर करना नहीं है, जैसा हम पुराने नियम के कुछ संतों और परमेश्वर के भक्तों के साथ देखते हैं (भजन 55:17; भजन 119:164; दानिय्येल 6:10), वरन हर पल, हर समय परमेश्वर के साथ संपर्क में बने रहना, उससे हर बात के लिए वार्तालाप में बने रहना है। जो इस भाव में जीवन व्यतीत करेगा, फिर वह इस एहसास के साथ भी जीवन जीएगा कि मैं परमेश्वर के साथ, और परमेश्वर मेरे साथ निरंतर विद्यमान हैं। और ऐसी स्थिति में फिर उसके लिए किसी लोभ-लालच, बुरे विचार आदि में बहक कर पाप में गिरना कठिन हो जाएगा, वह शैतान के द्वारा सरलता से बहकाया-गिराया नहीं जाएगा। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जो इस प्रकार से प्रार्थना मेंलौलीनरहेगा, उसके  आत्मिक जीवन का स्तर कैसा होगा। साथ ही, परमेश्वर के साथ इस प्रकार से संगति और संपर्क वही बना कर रख सकता है, जो प्रभु द्वारा अपनाया गया हो, प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ा गया हो। किसी मानवीय या संस्थागत प्रक्रिया के निर्वाह के द्वाराकलीसियासे जुड़ने वाले व्यक्ति के लिए परमेश्वर के साथ इस प्रकार प्रार्थना में जुड़े रहना संभव ही नहीं होगा। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपका प्रार्थना का जीवन कैसा है? क्या आपके लिए प्रार्थना करना परमेश्वर से कुछ माँगना ही है, या एक अंतरंग मित्र के समान उससे अपने दिल की सभी बातें साझा करना, तथा उसके दिल की बातों को जानकर उनके अनुसार कार्य एवं व्यवहार करना है? आप का प्रार्थना का जीवन और प्रार्थना के प्रति आपका रवैया प्रकट करेगा कि आप वास्तव में प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया से जोड़े गए जन हैं कि नहीं। यदि कहीं कोई कमी है, किसी सुधार की आवश्यकता है, तो अभी समय रहते जो भी ठीक करना है, वह कर लीजिए; कहीं बाद में समय और अवसर न मिले और कोई बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ जाए। 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 21-22     
  • मत्ती 19