पाप का समाधान - उद्धार - 25 - उद्धार के परिणाम और नया जन्म
पिछले लेख में हमने देखा कि किस प्रकार प्रभु यीशु मसीह ने समस्त मानवजाति के संपूर्ण पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके लिए आवश्यक बलिदान और प्रायश्चित का कार्य प्रभु ने पूरा कर दिया; और अपने मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा पाप के प्रभाव - आत्मिक और शारीरिक मृत्यु का भी पूर्ण समाधान कर के समस्त संसार भर के सभी मनुष्यों को पापों से मुक्ति, उद्धार और परमेश्वर से मेल-मिलाप कर लेने का मार्ग उपलब्ध करवा कर मुफ़्त में दे दिया। प्रभु यीशु द्वारा संपन्न किए गए इस कार्य को अपने जीवन में कार्यान्वित करने, और उसके लाभों को अर्जित करने के लिए अब किसी भी मनुष्य को न तो किसी धर्म के निर्वाह अथवा किसी धर्म विशेष को स्वीकार करने की, न किसी धार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने की, और न ही प्रभु द्वारा किए गए इस कार्य में किसी भी अन्य मनुष्य, वह चाहे कोई भी हो, द्वारा किसी भी प्रकार के कोई योगदान अथवा भागीदारी की आवश्यकता है। अब जो भी स्वेच्छा से और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान और उनके पुनरुत्थान को स्वीकार करता है, प्रभु यीशु मसीह के जगत का उद्धारकर्ता होने पर विश्वास लाता है, उन से अपने पापों से क्षमा माँगकर उनका शिष्य बनने के लिए अपने आप को उन्हें समर्पित करता है, वह अपने द्वारा किए गए इस निर्णय और प्रभु को समर्पण के पल से ही उनसे पापों की क्षमा और उद्धार पा लेता है; उसका सांसारिक नश्वर जीवन से स्वर्गीय अविनाशी जीवन में नया जन्म हो जाता है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह व्यक्ति कौन है, किस धर्म या जाति का है,
धर्मी है अथवा अधर्मी है, पढ़ा-लिखा है या अनपढ़
है, धनी है अथवा निर्धन है, स्वस्थ है
अथवा अस्वस्थ या अपंग है, किस रंग का है, समाज में उसका क्या स्तर या प्रतिष्ठा अथवा स्थान है, उसका पिछला जीवन कैसा था, आदि - उस व्यक्ति से
संबंधित किसी भी सांसारिक बात का उसके प्रभु पर लाए गए विश्वास द्वारा उद्धार और
पापों की क्षमा पाने से कोई लेना-देना नहीं है। महत्व और अनिवार्यता केवल इस की है
कि उसने सच्चे मन से और स्वेच्छा से प्रभु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किया है कि
नहीं, अपने आप को उसका शिष्य होने के लिए समर्पित किया है कि
नहीं। इसीलिए, जैसा इस श्रृंखला के एक आरंभिक लेख में कहा गया था, मसीही विश्वास के
अंतर्गत मिलने वाली पापों से क्षमा और उद्धार से अधिक सरल, सभी
के लिए उपलब्ध, सभी के लिए कार्यकारी समाधान और निवारण और
कहीं है ही नहीं। व्यक्ति जहाँ है, जैसा है, जिस भी स्थिति में है, अकेला है या किसी भीड़ में है,
किसी धार्मिक स्थल अथवा धार्मिक अगुवे की वहाँ उसके साथ उपस्थिति है
या नहीं - इन बातों और ऐसी किसी भी बात का कोई महत्व, कोई
भूमिका नहीं है। शान्त, दृढ़ निश्चय, आज्ञाकारी
और समर्पित मन से, मन ही में की गई एक सच्ची प्रार्थना, प्रभु यीशु से कहा गया एक वाक्य -
“हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर और मुझे अपना ले”, उस व्यक्ति द्वारा सच्चे मन से यह कहते ही, वह तुरंत
ही अनन्तकाल के लिए प्रभु का जन बन जाता है, नया जन्म
प्राप्त कर लेता है। यदि आपने अभी तक यह नहीं किया है, तो
अभी आपके लिए प्रभु का आह्वान है, अवसर है कि अभी यह कर लें,
और अपनी अनन्तकाल की नियति स्वर्गीय नियति में परिवर्तित कर लें।
यह पापों की क्षमा, उद्धार पा लेना अपने आप में अंत नहीं
है, वरन एक नए जीवन का आरंभ है। उद्धार पाना पल भर का कार्य,
किन्तु उद्धार पाए हुए जीवन को जीना सीखना, और व्यवहारिक जी के दिखाना जीवन भर का अभ्यास है, परिश्रम का कार्य है।
व्यक्ति द्वारा पश्चाताप तथा पापों की क्षमा की प्रार्थना करते ही उसके लिए और
उसके जीवन में परमेश्वर की ओर से कई स्वर्गीय बातें आरंभ हो जाती हैं, उससे जुड़ जाती हैं, जिन्हें हम आगे देखेंगे। अभी
हमने देखा कि उद्धार पाने को नया जन्म पाना भी कहते हैं; अर्थात
सांसारिक नश्वर जीवन से स्वर्गीय अविनाशी जीवन में नया जन्म हो जाना। शारीरिक और
सांसारिक दृष्टि से उसकी आयु कितनी भी हो, किन्तु आत्मिक
दृष्टि से वह अब एक नवजात शिशु है। जैसे बच्चा माता के गर्भ की संकुचित अवस्था से
बाहर आकर खुल कर हाथ-पाँव मारने, सांस लेने और विकसित होने,
बहुत से बातें सीखने और बढ़ने लगता है, उसी
प्रकार यह नवजात आत्मिक शिशु भी अब स्वर्गीय आत्मिक जीवन में प्रवेश कर के एक नए
वातावरण में विकसित होना आरंभ करता है - वह कितना, और कितनी
शीघ्रता से विकसित होने पाता है, यह उसके अपने परिश्रम,
प्रभु के प्रति समर्पण की दृढ़ता, प्रभु की
आज्ञाकारिता पर निर्भर है। उस आत्मिक शिशु का “दूध” या भोजन परमेश्वर का वचन बाइबल है, जिसे उसे निर्मल
मन के साथ बारंबार आत्मसात करते रहना है, तब ही वह ठीक से
बढ़ने पाएगा, “इसलिये सब प्रकार का बैर भाव और छल और
कपट और डाह और बदनामी को दूर करके। नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक
दूध की लालसा करो, ताकि उसके द्वारा उद्धार पाने के लिये
बढ़ते जाओ” (1 पतरस 2:1-2)।
जिस प्रकार एक नवजात शिशु में वो सारे अंग होते हैं
जो एक वयस्क और कद्दावर व्यक्ति में होते हैं, किन्तु उस शिशु का शरीर अभी वैसा
विकसित, शक्तिशाली, और विभिन्न कार्यों
के लिए सक्षम नहीं होता है, जैसा उस वयस्क का हो गया है,
उसी प्रकार से इस आत्मिक शिशु को भी आत्मिक रीति से विकसित, शक्तिशाली, और विभिन्न आत्मिक बातों एवं कार्यों के
लिए सक्षम होने में समय, आत्मिक भोजन, आत्मिक
जीवन के अभ्यास और परिश्रम की आवश्यकता होती है। उसके लिए यह कर पाने के लिए
परमेश्वर ने कई प्रकार के प्रयोजन और संसाधन उपलब्ध करवाए हैं, जिन्हें हम आगे के लेखों में देखेंगे। परमेश्वर का उद्देश्य है कि सभी
उद्धार पाए हुए लोग उसके पुत्र और हमारे उद्धारकर्ता प्रभु यीशु की समानता में
अंश-अंश करके ढलते चले जाएं, “परन्तु जब हम सब के उघाड़े
चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस
प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है,
हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं”
(2 कुरिन्थियों 3:18)। क्योंकि यह परिवर्तन
क्रमिक और ‘अंश-अंश करके’ होता है,
इसलिए उद्धार पाए हुए व्यक्ति में तुरंत ही प्रभु यीशु के समान
सिद्धता और पवित्रता दिखाई नहीं देती है; किन्तु वह उसकी ओर
अग्रसर रहता है। जैसे शारीरिक रीति से सभी समय-समय पर बीमार होते हैं कमजोर पड़ते
हैं, उनकी बीमारी का इलाज करके उन्हें फिर से स्वस्थ और सबल किया जाता है, वैसे ही आत्मिक जीवन में
भी शैतान द्वारा लाई गई बातों में फंस जाने के द्वारा उद्धार पाया हुआ व्यक्ति भी
आत्मिक रीति से बीमार हो सकता है, उसे फिर से आत्मिक बल पाने
के लिए आत्मिक इलाज की आवश्यकता पड़ती है, और उसे फिर से
आत्मिक रीति से शक्तिशाली और प्रभावी होने में कुछ समय लग सकता है।
नया जन्म पाना आत्मिक जीवन में प्रवेश करना है; प्रभु यीशु के स्वर्गीय
जीवन में रखा गया पहला कदम। इसके आगे जीवन भर का कार्य और अभ्यास है, साथ-साथ मिलती रहने वाली आत्मिक आशीष और अलौकिक आनन्द भी हैं, तथा भविष्य में परलोक में मिलने वाले, और उत्तमता में कल्पना से भी बाहर
प्रतिफल भी हैं “परन्तु जैसा लिखा है, कि जो आंख ने नहीं देखी, और कान ने नहीं सुना,
और जो बातें मनुष्य के चित्त में नहीं चढ़ीं वे ही हैं, जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिये तैयार की हैं”
(1 कुरिन्थियों 2:9)। क्या आप ने प्रभु के
बलिदान और पुनरुत्थान को स्वीकार करके, उसके पक्ष में अपना
निर्णय ले लिया है? स्वेच्छा से, सच्चे
और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे
पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान
लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और
व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान
लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को
अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत
सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना
शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका
सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को
स्वर्गीय जीवन बना देगा।
बाइबल पाठ: भजन 32
भजन 32:1 क्या ही धन्य है वह जिसका अपराध क्षमा किया गया, और जिसका पाप ढाँपा गया हो।
भजन 32:2 क्या ही धन्य है वह मनुष्य जिसके अधर्म का यहोवा लेखा न
ले, और जिसकी आत्मा में कपट न हो।
भजन 32:3 जब मैं चुप रहा तब दिन भर कराहते कराहते मेरी हड्डियां
पिघल गई।
भजन संहिता 32:4 क्योंकि रात दिन मैं तेरे हाथ के नीचे दबा रहा; और मेरी तरावट धूप काल की सी झुर्राहट बनती गई।
भजन 32:5 जब मैं ने अपना पाप तुझ पर प्रगट किया और अपना अधर्म न
छिपाया, और कहा, मैं यहोवा के सामने अपने
अपराधों को मान लूंगा; तब तू ने मेरे अधर्म और पाप को क्षमा
कर दिया।
भजन 32:6 इस कारण हर एक भक्त तुझ से ऐसे समय में प्रार्थना करे
जब कि तू मिल सकता है। निश्चय जब जल की बड़ी बाढ़ आए तौभी उस भक्त के पास न
पहुंचेगी।
भजन संहिता 32:7 तू मेरे छिपने का स्थान है; तू
संकट से मेरी रक्षा करेगा; तू मुझे चारों ओर से छुटकारे के
गीतों से घेर लेगा।
भजन 32:8 मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस
मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं
तुझ पर कृपा दृष्टि रखूंगा और सम्मत्ति दिया करूंगा।
भजन 32:9 तुम घोड़े और खच्चर के समान न बनो जो समझ नहीं रखते,
उनकी उमंग लगाम और बाग से रोकनी पड़ती है, नहीं
तो वे तेरे वश में नहीं आने के।
भजन 32:10 दुष्ट को तो बहुत पीड़ा होगी; परन्तु
जो यहोवा पर भरोसा रखता है वह करुणा से घिरा रहेगा।
भजन 32:11 हे धर्मियों यहोवा के कारण आनन्दित और मगन हो, और हे सब सीधे मन वालों आनन्द से जयजयकार करो!
एक साल में बाइबल:
· श्रेष्ठगीत 1-3
· गलातियों 2