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शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 56 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 42

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परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 10

 

 

    पिछले लेख में, 1 कुरिन्थियों 2:4-5 पर, एक उदाहरण के समान विचार करते हुए, कि पौलुस किस तरह से परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गयी सेवकाई में, परमेश्वर के वचन का उपयोग और उसके साथ व्यवहार करता था, हमने देखा था कि यद्यपि पौलुस कोई अच्छा वक्ता नहीं था, और न ही वह पवित्र शास्त्र के उसके ज्ञान और समझ के अनुसार वचन का प्रचार और शिक्षा, उसके ज्ञान और समझ की उत्तमता के साथ करता था, और कुरिन्थियों के मध्य अपनी सेवकाई के दौरान उसने अपने आप को निर्बल और भयभीत भी अनुभव किया; परन्तु क्योंकि वह परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी था, इसलिए परमेश्वर ने उसे बड़ी सामर्थ्य से भरकर उपयोग किया। परमेश्वर ने पौलुस की अयोग्यताओं और कमियों के बावजूद, कुरिन्थुस जैसे शहर में, उसके द्वारा कलीसिया की स्थापना करवाई, जो उस बात की पुष्टि करता है जो पौलुस ने कही, कि उसकी सेवकाई पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य द्वारा थी, न कि उसकी अपनी किसी योग्यता अथवा वरदान के कारण।


    पौलुस 2:5 में एक बात का उल्लेख करता है जिसका ध्यान वह परमेश्वर के वचन का उपयोग करने और उस से व्यवहार करने में करता था – उसके श्रोता अपना भरोसा किस पर रख रहे हैं – उसके प्रचार, ज्ञान, और बुद्धि पर, या परमेश्वर की सामर्थ्य पर? उसका प्रयास यही सुनिश्चित करने पर रहता था कि श्रोता केवल परमेश्वर की सामर्थ्य पर ही भरोसा रखें, न कि पौलुस की किसी योग्यता अथवा वरदान पर। इसीलिए, जैसा हमने पहले भी देखा है, पौलुस उसके अथवा किसी भी अन्य मनुष्य, परमेश्वर के सेवकों, का अनुसरण करने की प्रवृत्ति का, तथा कलीसिया में किसी भी आधार पर कोई भी गुट बनाने या विभाजन होने का घोर विरोध करता था। यह वर्तमान में अनेकों कलीसियाओं, यहाँ तक कि विश्वासियों की मण्डलियों में भी देखी जाने वाली प्रवृत्ति के बिलकुल विपरीत है; जहाँ पर अगुवे, पास्टर, और अन्य प्रमुख जन अपनी ही बात के माने जाने, और परमेश्वर के वचन की उनकी ही समझ और व्याख्या का बिना कोई प्रश्न उठाए पालन किए जाने पर बल देते हैं, वैसा ही करवाते हैं। और इसीलिए कलीसियाओं में व्यक्तियों के अनुसरण के अनुसार न केवल गुट बनते और विभाजन होते हैं, वरन ऐसा होने को बढ़ावा भी दिया जाता है। जैसा पौलुस ने रोम के मसीही विश्वासियों को लिखी अपनी पत्री में लिखा है, उद्धार देने वाला सच्चा विश्वास केवल परमेश्वर के वचन ही से आता है (रोमियों 10:17), और पतरस ने भी अपनी पहली पत्री में इस की पुष्टि की है कि विश्वासी होना, नया जन्म प्राप्त करना, परमेश्वर के वचन के द्वारा ही होता है (1 पतरस 1:23)। इसका अभिप्राय प्रकट है, वह चाहे कोई भी हो, किसी भी मनुष्य का वचन कभी भी किसी को भी उद्धार नहीं दे सकता है।


    इसलिए, जो लोग परमेश्वर के वचन के सेवकाई में लगे हैं, उन्हें पौलुस के समान इस बात का बहुत ध्यान रखना चाहिए कि, चाहे जानते हुए अथवा अनजाने में, वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले, उनकी योग्यताओं और वरदानों में भरोसा रखने वाले न बनाएँ; बल्कि केवल परमेश्वर और उसके वचन ही पर भरोसा रखने वाले हों। साथ ही, पौलुस के समान, उन्हें भी किसी प्रचारक अथवा शिक्षक का अनुसरण करते हुए गुट बनाने और विभाजन करने की प्रवृत्ति से बचे रहना है। उन्हें लोगों को परमेश्वर और उसके वचन का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित करना है, न कि किसी मनुष्य के वचन के। जैसा हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 पर विचार करते हुए देखा था, परमेश्वर के वचन में मिलाई गयी मानवीय बुद्धि की बातें, वचन को व्यर्थ और निष्फल कर देती हैं।


    ऐसा नहीं है कि पौलुस कभी बुद्धि और समझ की बातें नहीं करता था; जैसा उसने 2:6-8 में कहा है, वह ज्ञान की बातें भी सुनाता था, किन्तु इस बात के लिए सचेत रहता था कि ऐसा केवल सिद्ध, आत्मिक रीति से परिपक्व लोगों के मध्य करे। और तब भी, ज्ञान की बातें करते समय, पौलुस एक बार फिर से इसका भी ध्यान रखता था कि, “परन्तु हम परमेश्वर का वह गुप्‍त ज्ञान, भेद की रीति पर बताते हैं, जिसे परमेश्वर ने सनातन से हमारी महिमा के लिये ठहराया” (1 कुरिन्थियों 2:7)। अर्थात, एक बार फिर, ज्ञान की बात करते हुए, पौलुस कभी परमेश्वर के द्वारा दिए हुए वचन से बाहर नहीं जाता था, परमेश्वर के वचन में कभी अपना वचन नहीं मिलाता था, वरन केवल वही कहता था जो परमेश्वर चाहता था कि वह कहे।


    इस प्रकार से, इन पदों के द्वारा हम परमेश्वर के वचन के उपयोग और उसके साथ व्यवहार के बारे में पौलुस से एक और बात सीखते हैं, कि, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य में, श्रोताओं के, तथा उनकी आवश्यकताओं के अनुसार ही, केवल वही बोलें जो परमेश्वर चाहता है कि उन लोगों से कहा जाए। अविश्वासियों और नए विश्वासियों से, उनसे जो विश्वास में अपरिपक्व हैं, पौलुस सीधे और साधारण शब्दों तथा भाषा में प्रभु यीशु तथा उसके क्रूस पर चढ़ाए जाने, अर्थात सुसमाचार के बारे में बात करता था। लेकिन जो आत्मिक रीति से परिपक्व थे, सिद्ध थे, उनके साथ वह परमेश्वर के ज्ञान के बारे में बात करता था, उस ज्ञान के बारे में जिसे परमेश्वर ने गुप्त रखा हुआ था। लेकिन दोनों ही बातों के लिए, पौलुस कभी भी परमेश्वर ने जो उसे उन श्रोताओं से बोलने, उन्हें प्रचार करने, उन्हें सिखाने के लिए दिया था, उस से बाहर नहीं जाता था। परमेश्वर के प्रति उस का यह समर्पण, निर्भरता, और आज्ञाकारिता ही उसकी सफलता का भेद है, तब भी, और आज भी – परमेश्वर के वचन में उसके लिखे लेखों के द्वारा; और यही बात हमारी भी परमेश्वर द्वारा दी गई सेवकाई की सफलता का आधार है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Appropriately Handling God’s Word – 10

 

    In the previous article, while considering 1 Corinthians 2:4-5, as an example of how Paul utilized and handled God’s Word in his God given ministry, we had seen that although Paul was not an eloquent speaker, nor did he preach and teach God’s Word in any excellence of his knowledge and wisdom of the Scriptures, and during his ministry amongst the Corinthians he had even felt weak and afraid, yet because he was totally surrendered and obedient to God, therefore, God had used him mightily. Through Paul, despite his weakness and short-comings, in a place like Corinth, God had got a Church established, which affirmed what he said in these verses, that his ministry was proof that he worked through the guidance and power of the Holy Spirit, and not based on his gifts and abilities.


    In 2:5, Paul mentions a concern that he had while handling and ministering God’s Word – on what were his audience placing their faith – his preaching, knowledge, and wisdom, or in the power of God? His endeavor was to ensure that his audience trusted only in the power of God, and not any of Paul’s abilities or gifts. That is why, as we have seen before, Paul strongly discouraged any fan-following of himself or any of God’s ministers and any factionalism in the Church on any grounds. This presents a stark contrast to the trend seen today in many Churches, and even Believer’s Assemblies; where the Elders, Pastors, and other leaders insist on their word, their interpretation of God’s Word, to be accepted unchallenged. Therefore, factionalism based on personal following in the Church not only happens, but is also encouraged and promoted. As Paul has written in his letter to the Romans, the true saving faith comes only from the Word of God (Romans 10:17), and Peter affirmed it in his first letter that being Believers and Born Again was through the Word of God (1 Peter 1:23). The implication is evident, not the word of man, whosoever he may be, will never bring anyone to salvation.


    Hence, those engaged in the ministry of God’s Word, like Paul, should also make it a point to ensure that they do not, knowingly or unknowingly, attract their audience into developing a false faith in their own abilities and gifts, instead of having faith only in God and His Word. Rather, like Paul, they should also make it a point to discourage all factionalism and fan-following of certain preachers and teachers which leads to forming of groups and then to factions. They should encourage and persuade people to follow after God’s Word the Bible, instead of the words of any man. We have already seen while considering 1 Corinthians 1:17, how the wisdom of man mixed in God’s Word renders it vain and infructuous.


    It is not that Paul never talked about wisdom; as he says in 2:6-8, he did speak wisdom also, but was careful to do it only amongst those who were spiritually mature. And here too we see that even when speaking with wisdom, Paul again made it a point to speak “the hidden wisdom which God ordained before the ages for our glory” (1 Corinthians 2:7). So, once again, when speaking wisdom, Paul did not go out of God’s Word, never mixed his own words into God’s Word, but only spoke that which God wanted him to speak about.


    So, through these verses, we learn another aspect of utilizing and handling God’s Word from Paul, i.e., under the guidance and power of the Holy Spirit, speak according to the audience, and their needs, but only according to what God wants you to speak. For the unbelievers and novices, for those who were still immature in faith, Paul spoke in simple straightforward language and words, about the Lord Jesus Christ, and Him crucified, i.e., the gospel. But amongst those who were spiritually mature, he shared the wisdom of God, and spoke about God’s wisdom kept hidden in mysteries. But in either case, Paul never spoke anything other than what God had given him to speak, preach, and teach to a particular audience. This submission, dependence, and obedience to God in fulfilling his ministry, is the secret for his success, then, as well as now – through his writings in God’s Word; and can serve as the secret for the success of our God given ministries too.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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