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परिचय
परमेश्वर की आराधना कलीसियाओं में और विभिन्न अवसरों तथा पर्व-त्यौहारों पर की जाती है - चाहे घर में, या किसी स्थान पर जमा होने के समय। लगभग प्रत्येक ईसाई या मसीही गतिविधि का आरंभ प्रार्थना तथा एक-दो गीत गाने के साथ होता है; कलीसिया की सभा में भी, आरंभ में तथा बीच में कुछ गीत गाए जाते हैं, और इस गीत गाने को सामान्यतः आराधना करना कहा तथा समझा जाता है। बहुत सी कलीसियाओं में उपस्थित लोगों से आराधना का आह्वान करना सामान्यतः सभा में उपस्थित लोगों के द्वारा गीत गाना ही समझा और किया जाता है। इसलिए, गीत गाने को परमेश्वर की आराधना करने का एक बहुत आम और मान्य विधि समझा तथा माना जाता है।
बहुत सी कलीसियाओं की सभाओं में इस गीत गाने के साथ लोग विभिन्न शारीरिक हावभाव भी प्रदर्शित करते हैं, और अकसर “आराधना के अगुवे” लोगों से यह करने के लिए कहते हैं, उपस्थित लोगों से ऐसा करवाते हैं, वे इस बात पर बल देते हैं कि ये हावभाव और शारीरिक क्रियाएं करना भी परमेश्वर की आराधना करना है। कुछ “आराधना-अगुवे” ऐसा इस वाक्यांश “परमेश्वर चाहता है कि आप…करें” के द्वारा भी वह करवाते हैं, जो वे स्वयं, न कि परमेश्वर चाहता है। बहुत सी कलीसियाओं में “आराधना” करने के नाम पर लोग चिल्लाते हैं, शोर मचाते हैं, मुँह से अजीब और समझ न आने वाली आवाजें निकालते हैं, कुछ निरर्थक आवाजों को बारंबार दोहराते हैं, और इस सब को वे “अन्य-भाषा में आराधना”, अर्थात, परमेश्वर के साथ किसी अज्ञात ईश्वरीय भाषा में बात करना, उसकी “आराधना” करना कहते हैं, यद्यपि स्वयं उन्हें ही पता नहीं होता है कि उन्होंने क्या कहा है और उनके कहने का क्या अभिप्राय था।
कुछ अन्य कलीसियाओं में आराधना के आह्वान पर लोग बाइबल के किसी लेख में से कुछ अंश पढ़ते हैं या भजन संहिता में से पढ़ते हैं, या परमेश्वर के साथ बिताए गए शांत-समय में जो उन्हें परमेश्वर से मिला है कुछ लोग उसे बांटते हैं, जबकि कोई किसी गीत को गा देते हैं या परमेश्वर और उसके गुणों के बारे में कुछ वाक्य बोल देते हैं या प्रार्थना कर देते हैं या परमेश्वर के साथ उनके व्यक्तिगत अनुभवों का, या उसने जो उनके जीवन में किया है उसका वर्णन करते हैं।
इस तरह, यद्यपि ईसाइयों या मसीहियों में आराधना करने की सामान्य प्रवृत्ति तो है, किन्तु आराधना के बारे में, आराधना क्या है की समझ के बारे में, आराधना किस प्रकार करनी है उस के बारे में, उनमें कोई समानता या एकता नहीं है। एक अन्य, अचरज में डालने वाली दुखद बात यह भी है कि अधिकांश मसीहियों को यह भी नहीं पता है कि उन्हें आराधना क्यों करनी है। उन के लिए तो जैसा उन्होंने अपनी कलीसियाओं में देखा है, वही करना कलीसिया की सभा अथवा उस प्रकार के अवसर या पर्व-त्यौहार का एक अभिन्न अंग है, इसलिए वे भी उसी प्रकार से “आराधना” करते हैं; अर्थात उनके लिए यह एक परंपरा का पालन करने या किसी रीति को पूरा करने से अधिक और कुछ नहीं है, और चाहे उनके मन और मस्तिष्क उसमें न भी हों, वे उसे बस कर देते हैं। अधिकांश लोगों के लिए आराधना का “क्यों” और “कैसे” अज्ञात है; क्योंकि उन्होंने यह होते हुए देखा है, इसलिए वे भी यही करते रहते हैं। न तो कभी किसी ने उन्हें आराधना के बारे में सिखाने का प्रयास किया; और न ही उन्होंने स्वयं भी आराधना के बारे में कुछ जानने तथा सीखने का प्रयास किया।
प्रत्येक मसीही विश्वासी, प्रत्येक नया जन्म पाए हुए जन को परमेश्वर का आराधक होना है; यह कोई वैकल्पिक बात नहीं है, वरन मसीही जीवन के लिए एक अनिवार्यता है। बाइबल का तथ्य यही है कि आराधना परमेश्वर द्वारा अपने बच्चों को दिया गया एक बहुत प्रबल हथियार है, जिस के द्वारा वे शैतान की युक्तियों पर विजयी जीवन को जी सकें, उसकी शैतानी चालाकियों में फंस कर गिर न जाएँ। इन अन्त के दिनों में, जिन में हम जी रहे हैं, हम मसीहियों को इस सामर्थ्य और योग्यता के और भी बहुत अधिक आवश्यकता है। मसीही, इन परेशानियों से भरे दिनों में, आराधना के द्वारा ही अपने विश्वास में दृढ़ खड़े रह सकते हैं, परमेश्वर की महिमा कर सकते हैं, और एक प्रभावी गवाही को प्रस्तुत कर सकते हैं।
आगे दिनों में हम परमेश्वर के वचन बाइबल से अध्ययन करेंगे कि आराधना वास्तव में क्या है, और परमेश्वर क्यों चाहता है कि उसके बच्चे उसके आराधक बनें, वे जो आत्मा और सच्चाई से उसकी आराधना करते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
गिनती 34-336
मरकुस 9:30-50
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Introduction
Worshipping God is something often done in Church services and on various occasions and celebrations - whether in a home, or in a place of gathering. Nearly every Christian activity starts with prayer followed by a song or two; in Church services too, songs are sung at the beginning of the services and in between as well, and this singing of songs is often taken to be or understood as worship. In many Churches, the call for the congregation to worship implies singing songs, usually by the whole congregation. So, singing of songs is a very commonly understood way of worshipping God.
In many Churches and congregations this singing is often accompanied by different kinds of body gestures, and very often the “worship leaders” say and make the congregation carry out those gestures, emphasizing that doing so is the way to worship God. Some worship leaders even do this with the phrase “God wants you too…” and then speak out what they, not God, want the congregation to do. In many Churches, very often people shout and yell in the name of “worshipping” God, while others make unintelligible repetitive sounds, speak gibberish, calling it “worshipping in tongues”, i.e., allegedly speaking to God in some divine language, and call doing so “worshipping” God, although they themselves do not know what they have spoken or meant.
In some other congregations at the call to worship, people read Bible text passages or read from the Psalms, or share some insights from God’s Word that they have received during their Quiet Time with God, while some may sing a song or offer a prayer or speak out something about God, about His characteristics, His works, the way they have experienced God work in their lives, etc.
So, though there is a common tendency amongst Christians to Worship God, but yet there is no uniformity amongst them about the form of worship, about what worship actually is, about how to worship. A dismaying and sad fact is that most Christians do not even know why they should worship at all. To them worshipping God in the manner they have seen being done in their congregation or Church is something that is an integral part of the Church service, or of the service associated with a particular occasion or celebration, therefore they too “worship”; i.e., for them it is following a tradition or fulfilling a ritual, while their heart and mind may not be in it at all. The actual “how” and “why” of worship is unknown to many; they do it because it is done, and do it in the manner they have seen it being done. Nobody has ever bothered to teach them about worship; nor have they ever bothered to learn for themselves what worship actually means.
Every Christian Believer, every Born-Again person is to be a true worshipper of God; it is not an option, but a necessity of Christian life and living. The Biblical fact is that actual worship is a very powerful tool that God has given to His children to help them live an overcoming, victorious life over the wiles of Satan, and not fall prey to his devious schemes. In these end-times that we are living, we need this power and ability even more. It is through worship that Christians can defeat Satan, stand firm in their faith, glorify God, and effectively witness for Him even in these troubled times.
In the days ahead, we will study from God’s Word the Bible what worship actually is and why God wants His children, His people to be His Worshippers, those who worship Him in Spirit and in Truth.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Numbers 34-36
Mark 9:30-50
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