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मसीही विश्वासी - सदा प्रभु के साथ रहे
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर का कोई कार्य कभी निरुद्देश्य नहीं होता है। वह स्वयं कार्यरत है, और अपने अनुयायियों से भी अपेक्षा करता है कि वे उसके लिए कार्यरत रहें। उसने अपने शिष्यों को उद्धार और मसीही विश्वास का जीवन व्यर्थ गँवाने और निठल्ले बैठने, औरों पर निर्भर होकर रहने के लिए नहीं दिया है। वरन, परमेश्वर ने प्रत्येक उद्धार पाए हुए व्यक्ति के लिए कुछ कार्य पहले से निर्धारित किए हैं (इफिसियों 2:10)। वह चाहता है कि प्रत्येक जन अपने उन दायित्वों को पूरे यत्न के साथ पूरा करे, जिसके लिए उसने अपने शिष्यों को उपयुक्त वरदान भी प्रदान किए हैं “और जब कि उस अनुग्रह के अनुसार जो हमें दिया गया है, हमें भिन्न भिन्न वरदान मिले हैं, तो जिस को भविष्यवाणी का दान मिला हो, वह विश्वास के परिमाण के अनुसार भविष्यवाणी करे। यदि सेवा करने का दान मिला हो, तो सेवा में लगा रहे, यदि कोई सिखाने वाला हो, तो सिखाने में लगा रहे। जो उपदेशक हो, वह उपदेश देने में लगा रहे; दान देनेवाला उदारता से दे, जो अगुआई करे, वह उत्साह से करे, जो दया करे, वह हर्ष से करे” (रोमियों 12:6-8); और प्रभु के लिए कार्यरत रहने में आलसी न हो, “प्रयत्न करने में आलसी न हो; आत्मिक उन्माद में भरो रहो; प्रभु की सेवा करते रहो” (रोमियों 12:11)।
हमने मरकुस 3:13-15 यह भी देखा था कि प्रभु ने जब अपने बारह शिष्य, जिन्हें प्रेरित कहा, नियुक्त किए, तो उनके लिए प्रभु के तीन प्रयोजन थे। प्रभु द्वारा दिए गए क्रम के अनुसार इन तीन प्रयोजनों में से पहला था कि वे शिष्य उसके साथ साथ रहें (मरकुस 3:14)। आज हम इस पहले प्रयोजन, प्रभु के साथ रहने, के बारे कुछ विस्तार से देखेंगे, और आते दिनों में शेष प्रयोजनों का अभी अध्ययन करेंगे।
हम पाप और उद्धार से संबंधित लेखों में देख चुके हैं कि पाप के साथ ही मृत्यु ने भी सृष्टि और मानव जीवन में प्रवेश किया। मृत्यु एक ऐसे और स्थाई अलगाव हो जाने को दिखाती है जो मानवीय सामर्थ्य एवं योग्यता से पूर्णतः अपरिवर्तनीय है। यह मृत्यु दो प्रकार से थी - आत्मिक, और शारीरिक। मनुष्य की आत्मिक मृत्यु के कारण वह तुरंत ही परमेश्वर की संगति से दूर हो गया; और शारीरिक मृत्यु के कारण वह मरनहार बन गया। जन्म लेते ही मनुष्य मरना आरंभ कर देता है, और अन्ततः एक समय पर आकर उसका शरीर भी क्षय हो जाता है। प्रभु यीशु ने संसार के सभी लोगों के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनकी इस मृत्यु को सभी के लिए सह लिया, और अपने कलवरी के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा समस्त मानव जाति के हर जन के लिए न केवल पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग बनाकर उपलब्ध करवा दिया वरन उनके लिए मृत्यु को पराजित कर दिया। प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाते और उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण करते ही व्यक्ति का परमेश्वर से मेल-मिलाप हो जाता है “क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:10); अर्थात आत्मिक मृत्यु या परमेश्वर से पृथक हो जाने का निवारण हो जाता है। साथ ही हम मसीही विश्वासियों के लिए परमेश्वर की यह भी प्रतिज्ञा है कि हमारे पुनरुत्थान के समय अथवा प्रभु के दूसरे आगमन के समय हमारे मरनहार शरीर पल भर में प्रभु के अविनाशी शरीर के समान हो जाएंगे “देखे, मैं तुम से भेद की बात कहता हूं: कि हम सब तो नहीं सोएंगे, परन्तु सब बदल जाएंगे। और यह क्षण भर में, पलक मारते ही पिछली तुरही फूंकते ही होगा: क्योंकि तुरही फूंकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जांएगे, और हम बदल जाएंगे” (1 कुरिन्थियों 15:51-52); अर्थात शारीरिक मृत्यु का अभी निवारण तो किया जा चुका है, बस उसका कार्यान्वित किया जाना शेष है, जो प्रभु के निर्धारित समय पर हो जाएगा।
निष्कर्ष यह कि मसीही विश्वास में प्रवेश करते ही, मसीही विश्वासी की परमेश्वर के साथ संगति बहाल हो जाती है। प्रभु की यह कदापि इच्छा नहीं है कि यह संगति फिर से कभी टूटे। इसीलिए वह चाहता है कि उसका प्रत्येक शिष्य, हर अनुयायी उसके साथ ही बना रहे। जब तक हम प्रभु के साथ बने रहेंगे, शैतान द्वारा हानि पहुंचाए जाने से सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि शैतान प्रभु द्वारा उसके लोगों के चारों ओर बनाए गए बाड़े को लांघ नहीं सकता है, प्रभु द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक प्रभु के जन को छू नहीं सकता है “शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बान्धा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुंह पर तेरी निन्दा करेगा। यहोवा ने शैतान से कहा, सुन, जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना। तब शैतान यहोवा के सामने से चला गया” (अय्यूब 1:9-12)। किन्तु जो इस बाड़े को लाँघेगा, शैतान उसे डस लेगा “जो गड़हा खोदे वह उस में गिरेगा और जो बाड़ा तोड़े उसको सर्प डसेगा” (सभोपदेशक 10:8)। और प्रभु अपने हर जन को शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रखना चाहता है। इसीलिए प्रभु चाहता है कि उसके शिष्य उसके साथ ही रहें। इसीलिए प्रभु ने हमें आश्वासन दिया है “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको” (1 कुरिन्थियों 10:13)।
प्रभु के साथ बने रहने के और भी लाभ हैं। प्रभु ने कहा है “हे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है” (मत्ती 11:28-30)। ‘जुआ’ या yoke वह उपकरण होता है जो किसान दो बैलों के द्वारा खेत जोतने के लिए प्रयोग करते हैं; जिसके अगले सिरे पर दो बैलों को साथ जोता जाता है और पिछला सिरे के निचले भाग में हल होता है और ऊपरी भाग किसान के हाथ में नियंत्रण के लिए रहता है। मत्ती 11:28-30 के इस आह्वान के साथ प्रभु अपने विश्वासी जन के साथ, सांसारिकता के भारी जुए के स्थान पर अपने हल्के जुए में होकर जुतना चाह रहा है कि उसके साथ मिलकर, उसकी सहायता करते हुए उसके जीवन भर चल सके। जो प्रभु के साथ जुता रहेगा, वह प्रभु से जीवन की हर बात के लिए शांति, मार्गदर्शन, समाधान, और सहायता भी पाता रहेगा। समस्या तब ही होगी जब मसीही विश्वासी या तो प्रभु के हलके जुए को उतार कर फिर से सांसारिकता के उस भारी जुए में जाकर जुत जाए, जिसमें प्रभु उसके साथ नहीं जुत सकता है, या फिर प्रभु को साथ लिए बिना अकेला ही जुए में लगकर अपनी ही शक्ति और युक्ति से कार्य करने का प्रयास करे।
इसीलिए प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा “तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते” (यूहन्ना 15:4-5)। जब तक हम प्रभु के साथ जुड़े रहेंगे, प्रभु से जीवनदायक सामर्थ्य, बुद्धि और समझ पाते रहेंगे, और उसके कार्यों को भली-भांति करते रहेंगे। जैसे ही हम अपनी सामर्थ्य, बुद्धि और समझ का सहारा लेंगे, अपनी योग्यता पर भरोसा रखने लगेंगे, प्रभु के कहे के अनुसार नहीं, वरन अपनी समझ और इच्छा अथवा किसी अन्य मनुष्य के कहे के अनुसार करने लगेंगे, तभी हम कठिनाइयों और समस्याओं में पड़ने लगेंगे, और हमें हताशाओं तथा कुंठित होने का सामना करना पड़ेगा। प्रभु की अगुवाई में, इस्राएलियों के लाल समुद्र पार करने के समान (निर्गमन 14 अध्याय), असंभव प्रतीत होने वाली बात भी संभव और सहज हो जाएगी; और बिना प्रभु की अगुवाई तथा सहायता के सरल और साधारण लगने वाली बात भी भारी पराजय बन जाएगी, जैसे यहोशू 7 अध्याय में इस्राएलियों के ऐ नगर में पराजय।
नए अथवा पुराने नियम के किसी भी परमेश्वर के जन या भविष्यद्वक्ता, या प्रेरित के जीवन और कार्यों को देख लें; सभी में आपको यही बात मिलेगी - जब तक वे प्रभु की अगुवाई में, प्रभु के कहे के अनुसार, प्रभु की सामर्थ्य और समझ के सहारे कार्य करते रहे, वे हमेशा ही हर परिस्थिति में हर बात पर जयवंत ही रहे; किन्तु जब भी उन्होंने अपनी या किसी अन्य मनुष्य की इच्छा या सलाह के अनुसार कार्य किया, उन्हें अन्ततः पराजय और समस्याएं ही हाथ लगीं, उनके सभी कार्य, सभी योग्यताएं और युक्तियाँ विफल हो गए, कुछ स्थाई और फलदायी नहीं रहा। प्रभु ने हमारी अगुवाई करते रहने की प्रतिज्ञा की है “मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपा दृष्टि रखूंगा और सम्मत्ति दिया करूंगा” (भजन 32:8)। इसीलिए प्रभु अपने शिष्यों से चाहता है कि वे सब से पहले उसके साथ बने रहने के पाठ को सीखें, और अपनी समझ का सहारा न लें, तब ही शिष्यों के मार्ग सफल होंगे “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण कर के सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा” (नीतिवचन 3:5-6)। उसके साथ-साथ, धैर्य और विश्वास के साथ चलते रहें - न उससे आगे भागने का प्रयास करें और न आलसी होकर उससे पीछे रह जाएं। प्रभु के लिए उपयोगी और आशीषित होने के लिए मसीही विश्वासी को सबसे पहले उसके साथ बने रहने, और प्रभु को निर्देश देने की बजाए प्रभु के कहे के अनुसार करते रहने वाला बनना है। तब ही वह विश्वासी अपने मसीही जीवन में आगे बढ़ने और कार्यकारी तथा परिपक्व होने पाएगा।
इसलिए यदि आप अभी तक अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह के नाम में, किन्तु अपनी अथवा अन्य मनुष्यों की ही सामर्थ्य, समझ, और शिक्षाओं अथवा युक्ति तथा योग्यता, के अनुसार जीते रहने का प्रयास करते रहें हैं, तो फिर आपको अपने जीवन में एक आमूल-चूल, एक मौलिक परिवर्तन करने की तात्कालिक आवश्यकता है। समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, इस व्यर्थ एवं निष्फल धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आ जाएं, और हर समय हर बात के लिए उसके साथ उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने को निभाना आरंभ कर लें। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि आप अपनी ही जिन धारणाओं और मान्यताओं का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ है, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
अय्यूब 32-33
प्रेरितों 14
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Christian Believer – Always With the Lord
In the previous article we had seen that every one of God’s works is for a purpose. He is working, and expects His followers to be working as well. He has not given salvation and the life of Christian faith to His disciples to waste away, to be doing nothing, and for being dependent on others for their needs. God has already determined something or the other for every Christian Believer to do (Ephesians 2:10). He wants that everyone should fulfil their responsibilities diligently and sincerely. For this He has given each one appropriate gifts as well “Having then gifts differing according to the grace that is given to us, let us use them: if prophecy, let us prophesy in proportion to our faith; or ministry, let us use it in our ministering; he who teaches, in teaching; he who exhorts, in exhortation; he who gives, with liberality; he who leads, with diligence; he who shows mercy, with cheerfulness” (Romans 12:6-8); none should be lazy in working for the Lord “not lagging in diligence, fervent in spirit, serving the Lord” (Romans 12:11).
We had also seen from Mark 3:13-15, that when the Lord chose His twelve disciples, whom He called ‘Apostles’, He had three purposes for them. In the sequence stated by the Lord, the first among these purposes was that those disciples “be with Him” (Mark 3:14). Today we will look into this first purpose for the Lord’s disciple in some detail, and in the days ahead, we will study the other purposes as well.
In the previous articles on sin and salvation, we had seen that along with sin, death also entered the creation and in human life. Death is a permanent state of separation, irreversible by any human means and efforts. This death was of two kinds - spiritual and physical. Because of spiritual death man became separated from God’s fellowship; and because of physical death he became perishable. Man begins to die from the moment he is born, and eventually at a particular time, his body dies and decays off. The Lord Jesus took the sins of entire mankind upon Himself and paid for them with His life, suffered this physical death for mankind, by His death on the cross of Calvary, burial, and resurrection, He prepared and made available for all of mankind the way for forgiveness of sins and salvation, and defeated death for everybody. The moment a person comes to faith in the Lord Jesus and accepts Him as his personal savior, he is reconciled with God “For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life” (Romans 5:10), i.e., the problem of the person’s spiritual death is taken care of. We Christian Believers also have the Lord’s promise that at the time of our resurrection, or at the time of the second coming of the Lord, our perishable bodies will change in a moment to the eternal bodies, like the body of the Lord Jesus after His resurrection “Behold, I tell you a mystery: We shall not all sleep, but we shall all be changed-- in a moment, in the twinkling of an eye, at the last trumpet. For the trumpet will sound, and the dead will be raised incorruptible, and we shall be changed” (1 Corinthians 15:51-52), i.e., the solution to physical death has been made ready as well, now it only has to be applied and activated in our lives, which will be done in the time appointed by the Lord.
The conclusion is that as soon as one enters into the Christian faith, the Christian Believer is restored into fellowship with God. Since it is not God’s will that this fellowship is ever broken again, therefore He wants that each and every one of His Born-Again Believer, His spiritual children remain with Him always. As long as we are with the Lord God, we will remain safe from Satan’s harm. Satan can never cross the boundary, the hedge that God has put around His people, and can never do anything to God’s children over and above the limit set by God for him, as is evident from this passage from Job, “So Satan answered the Lord and said, "Does Job fear God for nothing? Have You not made a hedge around him, around his household, and around all that he has on every side? You have blessed the work of his hands, and his possessions have increased in the land. But now, stretch out Your hand and touch all that he has, and he will surely curse You to Your face!" And the Lord said to Satan, "Behold, all that he has is in your power; only do not lay a hand on his person." So, Satan went out from the presence of the Lord” (Job 1:9-12). But whosoever will transgress this boundary, breach this hedge, he will be bitten by the ‘snake’ “He who digs a pit will fall into it, And whoever breaks through a wall will be bitten by a serpent” (Ecclesiastes 10:8). The Lord wants to keep safe every one of His people from the devices of Satan. That is why, to keep us safe from Satan, the Lord wants that each and every one of His disciples remain with Him; and the Lord has also assured us “No temptation has overtaken you except such as is common to man; but God is faithful, who will not allow you to be tempted beyond what you are able, but with the temptation will also make the way of escape, that you may be able to bear it” (1 Corinthians 10:13).
There are other benefits as well of being with the Lord. The Lord has said, “Come to Me, all you who labor and are heavy laden, and I will give you rest. Take My yoke upon you and learn from Me, for I am gentle and lowly in heart, and you will find rest for your souls. For My yoke is easy and My burden is light."” (Matthew 11:28-30). The ‘yoke’ is that piece of equipment whose front part the farmers put across the necks of two bullocks, to bind them together, and the hind part has the pointed metal tip to plough the fields. The top part, across the necks, is controlled by the farmer to guide and control the bullocks properly while ploughing. In this invitation of Matthew 11:28-30, the Lord Jesus is expressing the desire that His Believer come out of the heavy yoke of sin and worldliness, and join Him, be yoked with Him in His light yoke, travel the rest of the life journey along with the Lord, so that the Lord can help him all along the way. If the Christian Believer stays with the Lord, remains yoked with Him then the Lord will continue to give him peace, guidance, solutions, and help in all things throughout life’s journey. The Believer will face problems only if he decides to unyoke himself and either get yoked back with the heavy yoke of sin and worldliness - a yoke in which the Lord Jesus can never be with him; or the Believer decides to do things in his way, through his own strength, wisdom, and efforts, without taking the help of the Lord.
That is why the Lord said to His disciples, “Abide in Me, and I in you. As the branch cannot bear fruit of itself, unless it abides in the vine, neither can you, unless you abide in Me. I am the vine, you are the branches. He who abides in Me, and I in him, bears much fruit; for without Me you can do nothing” (John 15:4-5). So long as we are joined with the Lord, we will continue to receive from Him the life-giving strength, wisdom, and discernment to do things. But the moment we decide to trust in our own strength, wisdom, and discernment, in our own abilities, if we walk and work according to what seems right to us or what some other person tells us to do, instead of what the Lord instructs us to do, we will start falling into difficulties and problems, we will have to face frustrations and disappointments. When we walk and do according to what the Lord says, then as happened for the Israelites, the unsurmountable problem of crossing the Red Sea will become possible and easy (Exodus chapter 14); but without the help and guidance of the Lord, even the seemingly easy and ordinary thing will become a cause of a heavy defeat, as happened with Joshua and the Israelites at Ai (Joshua chapter 7).
Look up the life of any Prophet, Apostle, or person of God, in either the Old or the New Testament, and you will find this in all of them - as long as they carried out their ministry in the guidance of the Lord, through the strength and wisdom of the Lord, they always remained victorious over every situation, everything. But if they started to do things according to their own will or wisdom, or under guidance of any other person, eventually they suffered heavy loss and defeats; all their works, abilities, and cleverness failed, nothing remained stable and fruitful in their lives. The Lord has promised to give us the right guidance “I will instruct you and teach you in the way you should go; I will guide you with My eye” (Psalms 32:8). It is for this reason that the Lord wants that His disciples should first and foremost learn the lesson of being with Him, learning from Him, and should not trust in their own wisdom and ways of doing things, only then will they be successful in all that they do “Trust in the Lord with all your heart, And lean not on your own understanding; In all your ways acknowledge Him, And He shall direct your paths” (Proverbs 3:5-6). As a Born-Again Believer, learn to patiently be with Him and walk with Him - neither try to run ahead of Him, nor be lethargic and tardy and lag behind in the pace He sets for you. To be useful and fruitful for the Lord, and be blessed in his life by the Lord, the Christian Believer has to first learn to be with the Lord; not to instruct the Lord about things, but to be instructed by the Lord for everything. Only then will that Believer grow in His Christian life, become mature, effective, and fruitful for the Lord.
Therefore, if so far you have been living your life in the name of the Lord, but doing according to your own will, thoughts, desires, and abilities, or according to the guidance of some other person(s), then it is absolutely necessary that you effect a radical change in your outlook and life. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Job 32-33
Acts 14