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मंगलवार, 31 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 6

 

पाप का समाधान - उद्धार - 2

       पिछले लेख में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल से उद्धार के बारे में देखना आरंभ किया था। हम इस विषय को तीन प्रश्नों के उत्तर के रूप में देखेंगे। ये प्रश्न हैं:

·        यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?

·        व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?

·        इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?

       कल हमने पहले प्रश्न, किससे और क्यों को देखना आरंभ किया था; और देखा था कि पाप, अर्थात परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने से, और करते ही, प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा में क्या परिवर्तन आ गए। उनमें अपने किए के कारण दोष का बोध आ गया; उनमें अपनी दशा को लेकर लज्जा आ गई जिससे वे उस पूर्व उन्मुक्त भाव से परमेश्वर के सम्मुख नहीं आने पाए; वे परमेश्वर से छिपने लगे; और उन्होंने अपनी लाज को ढाँपने के लिए अपने ही प्रयास तो किए, किन्तु वे अपर्याप्त और अस्थाई थे। फिर हमने शिक्षा ली थी कि मनुष्य का पाप उसके अंदर एक दोषी होने के स्थिति, एक ग्लानि को उत्पन्न करता है। पाप के कारण मनुष्य सच्चे परमेश्वर के सामने आने से कतराने लगता है। यद्यपि मनुष्य का समस्त हाल परमेश्वर के सामने बेपरदा है, बिल्कुल खुला है, फिर भी मनुष्य अपनी लज्जा को स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी धार्मिकता और भलाई के कामों से ढाँपने का प्रयास करता है, जो अपर्याप्त हैं, और अपने इन प्रयासों के बावजूद फिर भी अपने आप को परमेश्वर से छुपाए रखता है, उससे दूर रहने के प्रयास करता है। पाप के कारण आए परिणामों को आज और आगे देखते हैं। 

       बाइबल की पहली पुस्तक, उत्पत्ति के तीन अध्याय में इस प्रथम पाप की स्थिति का वर्णन दिया गया है। परमेश्वर जब मनुष्य से संगति करने अदन की वाटिका में आया, तो उसके विचरण के शब्द को सुनकर आदम और हव्वा वाटिका के वृक्षों के बीच में जाकर उससे छुप गए। किन्तु इस पाप में गिरे और उससे छुपने का प्रयास करने वाले मनुष्य को परमेश्वर ने ऐसे ही नहीं छोड़ दिया। परमेश्वर चाहता तो सीधे से उन पर अपने उस दण्ड की आज्ञा सुना सकता था, जिसकी चेतावनी वह पहले उस वर्जित फल के विषय उनको दे चुका था (उत्पत्ति 2:17)। किन्तु उस प्रेमी, दयालु, कृपालु, अनुग्रहकारी परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। उसने उन्हें अपनी गलती को, अपने पाप को मान लेने का अवसर दिया। गलती मनुष्य ने की थी; पतित दशा में मनुष्य था; अपनी लज्जा और दोष के निवारण को पता करने का कर्तव्य मनुष्य का था। किन्तु उसकी इस दशा का समाधान प्रदान करने के लिए उसे ढूँढता हुआ परमेश्वर आया। जैसे प्रभु यीशु मसीह ने अपने संसार में आने के लिए कहाक्योंकि मनुष्य का पुत्र खोए हुओं को ढूंढ़ने और उन का उद्धार करने आया है” (लूका 19:10) 

       परमेश्वर ने वाटिका में, उनके छिपने के स्थान के निकट आकर उन पर दोषारोपण नहीं किया, वरन उन्हें प्रेम से बुलाया; उनसे पूछातू कहाँ है?” इसलिए नहीं कि परमेश्वर को उनके बारे में पता नहीं था, वरन इसलिए ताकि वे अपने पाप का, अपनी गलती का अंगीकार कर सकें। इससे पहले कि परमेश्वर को उनपर अपने न्याय को लागू करना पड़े, वह उन्हें पूरा-पूरा अवसर दे रहा था कि वे अपनी गलती को मान लें, क्योंकि परमेश्वर का एक और अद्भुत गुण उसकी क्षमा भी है, “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9)। आदम बाहर निकल कर आया, और परमेश्वर से बात भी की; किन्तु उसे वास्तविकता बताने के स्थान पर बहाना और स्पष्टीकरण देने लगा; उसने कहा मैं तुझ से डर गया था, इसलिए छुप गया। यह पाप का मनुष्य के जीवन में एक और प्रभाव है - पाप डर उत्पन्न करता है। यह सामान्य व्यवहार की बात है, जब भी हम कोई गलती करते हैं, तो उस गलती के कारण हम में एक डर बना रहता है। मान लीजिए आप अपनी गाड़ी लेकर निकले हैं, और लाइसेंस लेना भूल गए, तो हर पुलिस वाले को देखते ही मन में डर आएगा, “कहीं इसने रोक कर लाइसेंस पूछ लिया तो परेशानी हो जाएगी!

       परमेश्वर ने उसे फिर से अपने पाप को मान लेने का एक और अवसर भी दिया साथ ही पाप का संकेत भी दिया; उससे सीधे से पूछा किक्या उसने वह वर्जित फल खा लिया है?” फिर से मनुष्य ने इस अवसर को गँवा दिया, और अब अपना दोष स्वीकार करने के स्थान पर, अपनी गलती दूसरों पर मढ़ने लगा। आदम ने परमेश्वर को और हव्वा दोनों को दोषी ठहराया - हव्वा को तो परमेश्वर ही ने उसे दिया था, इसलिए उसके लिए परमेश्वर ही जिम्मेदार था। हव्वा ने अपने आप को दोषी मानने के स्थान पर उसे बहकाने वाले सांप को दोषी ठहराया। गलती मान लेने और पश्चाताप करने का इस अवसर भी उन्होंने औरों पर दोषारोपण करने में गँवा दिया। आज भी हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया अपनी गलती स्वीकार करने के स्थान पर किसी अन्य को उसके लिए जिम्मेदार और दोषी ठहराने की होती है। अब परमेश्वर को न्याय का कदम उठाना पड़ा। 

       उनपर पीड़ा, परिश्रम, और मृत्यु को लागू कर दिया गया, और उन्हें उस आशीष के स्थान अदन के वाटिका से बाहर कर दिया गया। मृत्यु, जैसा हम पहले देख चुके हैं, एक मानवीय प्रयासों से अपरिवर्तनीय बिछड़ने की दशा को दिखाता है। पाप के कारण मनुष्य की संगति परमेश्वर से टूट गई; उसकी आत्मिक मृत्यु तुरंत हो गई, और वह शारीरिक मृत्यु के लिए भी निर्धारित कर दिया गया। मूल इब्रानी भाषा में जो वाक्यांश इसके लिए उत्पत्ति 2:17 में प्रयोग हुआ है, उसका वास्तविक अंग्रेजी अनुवाद है “dying thou dost die (YLT); dying thou shalt die (SLT)” जिसका हिन्दी अनुवाद होता हैमरते मरते तू मर जाएगा। अर्थात, उसी दिन से तेरी निरंतर कभी न रुकने और पलटे जाने वाली मरते चले जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी, और अंततः तू मर जाएगा।जिस दिन आदम और हव्वा ने पाप किया उनके लिए मृत्यु दो रीति से आ गई - आत्मिक रीति से वे परमेश्वर की संगति से अलग हो गए; और शारीरिक रीति से उन्होंने मरना आरंभ कर दिया, और अंततः अपनी आयु पूरी करके मर गए, मिट्टी में मिल गए। यही दशा तब से प्रत्येक मनुष्य के साथ रहती है; वह आत्मिक रीति से परमेश्वर से दूरी की दश में और शारीरिक रीति से एक दिन-प्रतिदिन घटती जाती आयु के साथ जन्म लेता है, और आयु पूरी करके मर जाता है, मिट्टी में मिल जाता हैइसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)

       पहले पाप से उत्पन्न हुई स्थिति के प्रति परमेश्वर की प्रतिक्रिया के बारे में हम और आगे अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए आप से निवेदन है कि अपने जीवनों की वास्तविक स्थिति का आँकलन करके देखें। पाप प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों पर दोषारोपण करने वाला, अपनी गलती के लिए औरों को जिम्मेदार ठहराने वाला, यहाँ तक कि परमेश्वर को भी दोषी ठहराने वाला बना देता है। मनुष्य सत्य के सामने आने, उसे स्वीकारने से डरता है, और हर हाल में अपने आप को सही दिखाना चाहता है। किन्तु परमेश्वर आपकी यह वास्तविकता जानता है, फिर भी वह आप से प्रेम करता है, आपके साथ अपनी संगति को बहाल करना चाहता है। लेकिन यह संभव हो पाना आपके निर्णय पर आधारित है। आपकी स्वेच्छा और सच्चे पश्चाताप तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके मैंने पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें।परमेश्वर आपकी संगति की लालसा रखता है, आपको दण्ड के अधीन नहीं, वरन आशीषित देखना चाहता है; इसे संभव करना या न करना, आपका अपना व्यक्तिगत निर्णय है। 

 

बाइबल पाठ: उत्पत्ति 3:8-24 

उत्पत्ति 3:8 तब यहोवा परमेश्वर जो दिन के ठंडे समय वाटिका में फिरता था उसका शब्द उन को सुनाई दिया। तब आदम और उसकी पत्नी वाटिका के वृक्षों के बीच यहोवा परमेश्वर से छिप गए।

उत्पत्ति 3:9 तब यहोवा परमेश्वर ने पुकार कर आदम से पूछा, तू कहां है?

उत्पत्ति 3:10 उसने कहा, मैं तेरा शब्द बारी में सुन कर डर गया क्योंकि मैं नंगा था; इसलिये छिप गया।

उत्पत्ति 3:11 उसने कहा, किस ने तुझे चिताया कि तू नंगा है? जिस वृक्ष का फल खाने को मैं ने तुझे बर्जा था, क्या तू ने उसका फल खाया है?

उत्पत्ति 3:12 आदम ने कहा जिस स्त्री को तू ने मेरे संग रहने को दिया है उसी ने उस वृक्ष का फल मुझे दिया, और मैं ने खाया।

उत्पत्ति 3:13 तब यहोवा परमेश्वर ने स्त्री से कहा, तू ने यह क्या किया है? स्त्री ने कहा, सर्प ने मुझे बहका दिया तब मैं ने खाया।

उत्पत्ति 3:14 तब यहोवा परमेश्वर ने सर्प से कहा, तू ने जो यह किया है इसलिये तू सब घरेलू पशुओं, और सब बनैले पशुओं से अधिक शापित है; तू पेट के बल चला करेगा, और जीवन भर मिट्टी चाटता रहेगा:

उत्पत्ति 3:15 और मैं तेरे और इस स्त्री के बीच में, और तेरे वंश और इसके वंश के बीच में बैर उत्पन्न करूंगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एड़ी को डसेगा।

उत्पत्ति 3:16 फिर स्त्री से उसने कहा, मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दु:ख को बहुत बढ़ाऊंगा; तू पीड़ित हो कर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।

उत्पत्ति 3:17 और आदम से उसने कहा, तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना उसको तू ने खाया है, इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है: तू उसकी उपज जीवन भर दु:ख के साथ खाया करेगा:

उत्पत्ति 3:18 और वह तेरे लिये कांटे और ऊंटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा ;

उत्पत्ति 3:19 और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा; क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।

उत्पत्ति 3:20 और आदम ने अपनी पत्नी का नाम हव्वा रखा; क्योंकि जितने मनुष्य जीवित हैं उन सब की आदि-माता वही हुई।

उत्पत्ति 3:21 और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये चमड़े के अंगरखे बना कर उन को पहना दिए।

उत्पत्ति 3:22 फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, मनुष्य भले बुरे का ज्ञान पाकर हम में से एक के समान हो गया है: इसलिये अब ऐसा न हो, कि वह हाथ बढ़ा कर जीवन के वृक्ष का फल भी तोड़ के खा ले और सदा जीवित रहे।

उत्पत्ति 3:23 तब यहोवा परमेश्वर ने उसको अदन की वाटिका में से निकाल दिया कि वह उस भूमि पर खेती करे जिस में से वह बनाया गया था।

उत्पत्ति 3:24 इसलिये आदम को उसने निकाल दिया और जीवन के वृक्ष के मार्ग का पहरा देने के लिये अदन की वाटिका के पूर्व की ओर करूबों को, और चारों ओर घूमने वाली ज्वालामय तलवार को भी नियुक्त कर दिया।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 132; 133; 134

·      1 कुरिन्थियों 11:17-34

सोमवार, 30 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 5

 

पाप का समाधान - उद्धार - 1

यूनानी भाषा, जिसमें परमेश्वर के वचन बाइबल का नया नियम खण्ड मूल में लिखा गया है, उसमें प्रयुक्त जिस शब्द का अनुवादउद्धारयाबचावकिया गया है, उसका अर्थ होता हैकिसी खतरे अथवा हानि से सुरक्षा प्रदान करना”; अर्थात उद्धार दिए जाने का अर्थ है बचाया जाना, सुरक्षित कर दिया जाना। यहाँ पर एक बहुत महत्वपूर्ण, और इस संदर्भ में सर्वदा ध्यान में रखने वाली बात है कि उद्धार हमेशा परमेश्वर की ओर से दिया जाता है; कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी रीति से परमेश्वर के उद्धार को कमा नहीं सकता है; अर्थात अपने किसी भी प्रयास से अपने आप को उद्धार प्राप्त करने का अधिकारी अथवा योग्य नहीं कर सकता है। हम आगे चलकर इसे कुछ और विस्तार से देखेंगे और समझेंगे। 

प्रभु यीशु मसीह के पृथ्वी पर आने का उद्देश्य, स्वयँ उन्हीं के शब्दों में, सँसार के सभी पाप में खोए हुए लोगों को बचाना, यही सुरक्षा, अर्थात उद्धार, सारे सँसार के सभी लोगों को उपलब्ध करवाना थाक्योंकि मनुष्य का पुत्र लोगों के प्राणों को नाश करने नहीं वरन बचाने के लिये आया है ...” (लूका 9:56); “यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूं” (यूहन्ना 12:47)। प्रभु द्वारा दिए जाने वाले इस उद्धार के विषय कुछ आधारभूत प्रश्न हैं, जिनके उत्तर जानना और समझना परमेश्वर की मानव जाति को अपनी संगति में बहाल करने की इस योजना को जानने, समझने, और मानने के लिए बहुत आवश्यक है। 

ये प्रश्न हैं:

·        यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?

·        व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?

·        इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?

उद्धार - किस से और क्यों

 कल हमने देखा था कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम का संकेत इस बात से मिलता है कि केवल मनुष्य ही है जिसको परमेश्वर ने, अपनी समस्त सृष्टि में से, अपने ही हाथों से, अपनी ही स्वरूप में रचा, और उसके नथनों में अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया, तथा उसे समस्त पृथ्वी और उसकी सभी बातों और प्राणियों पर अधिकार दिया (उत्पत्ति 1:26-28; 2:7)। केवल मनुष्य ही है जिससे संगति रखने के लिए परमेश्वर अदन की वाटिका में आया करता था। किन्तु आदम और हव्वा के द्वारा किए गए परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के पाप के कारण, परमेश्वर और मनुष्य की यह संगति टूट गई, और मनुष्य मृत्यु, अर्थात परमेश्वर से सदा के लिए अलग रहने के खतरे में आ गया। यह बहुत महत्वपूर्ण तथा आधारभूत तथ्य है, जिसे समझे बिना उद्धार के बारे में समझना असंभव है। क्योंकि निष्पाप, निष्कलंक परमेश्वर पाप के साथ संगति रखना तो दूर, पाप को देख भी नहीं सकता है (हबक्कूक 1:13) इसलिए उस प्रथम पाप, उस अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर और मनुष्य की संगति में अवरोध आ गया (यशायाह 59:1-2), मनुष्य परमेश्वर की संगति से दूर हो गया, और उससे हमेशा के लिए दूर हो जाने, अर्थात, मृत्यु के खतरे में आ गया।

परमेश्वर का वचन बाइबल बताती है कि पाप करने के बाद, पवित्र परमेश्वर के समक्ष निःसंकोच आने, और उससे उन्मुक्त होकर संगति और वार्तालाप करने की मनुष्य, आदम और हव्वा, की प्रवृत्ति बदल गई। उनके अंदर परमेश्वर की दृष्टि में दोषी होने का बोध आ गया, उन्होंने अपने इस नंगेपन, अपनी लज्जा को अपनी दृष्टि में उपयुक्त और उचित, अपने प्रयासों, अंजीर के पत्तों से बने आवरण के द्वारा ढाँप लिया, और जब परमेश्वर उनसे मिलने, संगति करने आया, तो वे परमेश्वर द्वारा उन्हें लगाकर दी गई वाटिका के वृक्षों में छिप गए:तब उन दोनों की आंखें खुल गई, और उन को मालूम हुआ कि वे नंगे है; सो उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़ जोड़ कर लंगोट बना लिये। तब यहोवा परमेश्वर जो दिन के ठंडे समय वाटिका में फिरता था उसका शब्द उन को सुनाई दिया। तब आदम और उसकी पत्नी वाटिका के वृक्षों के बीच यहोवा परमेश्वर से छिप गए” (उत्पत्ति 3:7-8)। यहाँ सांकेतिक भाषा में, पाप के प्रभाव और मनुष्य में आए परिवर्तनों के विषय कुछ महत्वपूर्ण बातें दी गई हैं:

·        आँखें खुलनाउन्हें पवित्र परमेश्वर के सम्मुख उनकी वास्तविक दशा तथा अपने किए पाप के दोषी होने का बोध होना दिखाता है।

·        नंगापनपाप के कारण उत्पन्न आत्म-ग्लानि, लज्जा को दिखाता है। उनकी सृष्टि से लेकर उस समय तक, वे अपनी इसी निर्वस्त्र दशा में परमेश्वर के साथ मिला करते थे, संगति करते थे, किन्तु उन्हें इसमें कोई लज्जा नहीं होती थी, उन्हें कभी अपने आप को ढाँपने की आवश्यकता नहीं हुई, क्योंकि वे भी निष्पाप और पवित्र दशा में थे। 

·        उनकी सृष्टि के समय से लेकर उनकी यह निर्वस्त्र दशा परमेश्वर के सम्मुख उनके बिल्कुल खुले, प्रकट और किसी भी प्रकार के आवरण रहित होने, और परमेश्वर द्वारा उनके विषय में सब कुछ जानने की ओर भी संकेत करता है।

·        अंजीर के पत्तों के लंगोट पहननामनुष्य के अपने आप को अपने ही प्रयासों से परमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत कर पाने योग्य बनाने को दिखाता है। मनुष्य अपने धर्म के कामों, अपने भले कार्यों, अपने ही बनाए तौर-तरीकों से अपनी लज्जा, परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारिता और पाप की दशा, को छुपाने का प्रयास करता है। वह यह भूल जाता है कि परमेश्वर के सामने उसका सब हाल खुला है, बेपरदा है। वह अपना कुछ भी परमेश्वर से छिपा नहीं सकता है। 

·        जिस प्रकार वे अंजीर के पत्ते वास्तविकता में केवल एक अस्थाई समाधान थे - थोड़े समय वे मुरझा जाते, सूख कर गिर जाते, और मनुष्य का नंगापन फिर से प्रकट हो जाता, उन्हें फिर से कुछ नया प्रावधान करना पड़ता; उसी प्रकार मनुष्य की धार्मिकता के काम, उसके अपने भलाई के प्रयास, सभी अस्थाई और नश्वर हैं, उसे कभी परमेश्वर के सम्मुखढँपाहुआ और प्रस्तुत होने योग्य नहीं बना सकते हैं। वह बार-बार अपने इन प्रयासों को दोहराता रहता है, किन्तु पाप का दोषी होने का बोध उसके विवेक से नहीं जाता है।

·        उन्होंने परमेश्वर की आवाज़ सुनकर अपने आप को “वाटिका के वृक्षोंमें छुपा लिया। आज भी मनुष्य अपनी ही गढ़ी हुई धार्मिकता को ओढ़ कर, अपने आप को परमेश्वर की सृष्टि की बातों में छुपाए रखने के प्रयास करता है; परमेश्वर के सामने अपनी वास्तविकता में आने के स्थान पर, वह अपने बनाए हुए आवरण ओढ़े हुए, अपने आप को अपनी ही गढ़ी हुई नश्वर बातों में छिपाए रखना चाहता है। 

 

आज किसी भी पूछ लें, सब के पास परमेश्वर की संगति में और उसके वचन के साथ समय न बिताने का एक ही बहाना है -जीवन इतना व्यस्त है कि इन बातों के लिए समय ही नहीं मिलता है; जो थोड़ा बहुत कर सकते हैं, वह कर लेते हैं, वरना संसार की माँगें यह सब करने के लिए समय ही नहीं देती हैं” - सभी अपने आप को संसार की बातों वाटिका के वृक्षोंमें छुपाए रखना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि संसार की यह सब बातें अस्थाई हैं, नश्वर हैं, यहीं रह जाएंगी, इनमें से कोई भी साथ नहीं जाएगी, ऐसा कोई बहाना परमेश्वर के सामने नहीं चलेगा।

अन्ततः वह समय सभी के जीवन में आएगा जब उन्हें परमेश्वर के सम्मुख अपनी वास्तविकनिर्वस्त्रदशा में आना ही होगा, और अपने जीवन की हर बात का हिसाब उसे देना होगा। तब उनके बनाए हुएअंजीर के पत्तों के लंगोटउनके पाप की दशा को ढाँपने पाएँगे, और उनके अपने नहीं वरन परमेश्वर के मानकों के आधार पर उन्हें न्यायसंगत ठहराने नहीं पाएंगे। परमेश्वर से उनकी वास्तविकता न अभी छुपी हुई है, और न तब छुपी हुई होगी, “सो जब तक प्रभु न आए, समय से पहिले किसी बात का न्याय न करो: वही तो अन्धकार की छिपी बातें ज्योति में दिखाएगा, और मनों की मतियों को प्रगट करेगा, तब परमेश्वर की ओर से हर एक की प्रशंसा होगी” (1 कुरिन्थियों 4:5) 

       पहले पाप से उत्पन्न हुई स्थिति के बारे में हम आगे अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए आप से निवेदन है कि अपने जीवनों को परमेश्वर के दृष्टिकोण से जाँच कर देखें, आप की वास्तविक स्थिति क्या है? ध्यान करें, आपके अपने कोई भी प्रयास और उपाय आपको परमेश्वर की दृष्टि से छुपा नहीं सकते हैं; आपकी लज्जा - आपके पाप की दशा उसके सामने खुली है। फिर भी वह आप से प्रेम करता है, आपके साथ संगति को बहाल करना चाहता है। लेकिन यह संभव हो पाना आपके निर्णय पर आधारित है। आपकी स्वेच्छा और सच्चे पश्चाताप तथा समर्पित मन से की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके मैंने पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें।परमेश्वर आपकी संगति की लालसा रखता है, आपको आशीषित देखना चाहता है; इसे संभव करना या न करना, आपका अपना व्यक्तिगत निर्णय है। 

 

बाइबल पाठ: रोमियों 6:19-23 

रोमियों 6:19 मैं तुम्हारी शारीरिक दुर्बलता के कारण मनुष्यों की रीति पर कहता हूं, जैसे तुम ने अपने अंगों को कुकर्म के लिये अशुद्धता और कुकर्म के दास कर के सौंपा था, वैसे ही अब अपने अंगों को पवित्रता के लिये धर्म के दास कर के सौंप दो।

रोमियों 6:20 जब तुम पाप के दास थे, तो धर्म की ओर से स्वतंत्र थे।

रोमियों 6:21 सो जिन बातों से अब तुम लज्जित होते हो, उन से उस समय तुम क्या फल पाते थे?

रोमियों 6:22 क्योंकि उन का अन्त तो मृत्यु है परन्तु अब पाप से स्वतंत्र हो कर और परमेश्वर के दास बनकर तुम को फल मिला जिस से पवित्रता प्राप्त होती है, और उसका अन्त अनन्त जीवन है।

रोमियों 6:23 क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है। 

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 129; 130; 131

·      1 कुरिन्थियों 11:1-16

रविवार, 29 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 4


पाप का परिणाम

       पिछले तीन लेखों में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार पाप क्या है; परमेश्वर किसे पाप मानता है, देखा है। संक्षेप में, बाइबल बताती है कि परमेश्वर की व्यवस्था, अर्थात, उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन, [जिनमें उसकी दस आज्ञाएँ (निर्गमन 20:1-20) तथा वे दो महान आज्ञाएँ (मत्ती 22:35-40) भी सम्मिलित हैं जो परमेश्वर की सारी व्यवस्था और उसके द्वारा अपने भविष्यद्वक्ताओं में होकर प्रकट की गई शिक्षाओं का आधार हैं], और हर प्रकार का अधर्म पाप है।

पवित्र, निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति नहीं कर सकता है; वह बुराई को देख ही नहीं सकता हैतेरी आंखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता …” (हबक्कूक 1:13); पाप परमेश्वर और मनुष्य में दीवार ले आता है, परस्पर संगति को तोड़ देता हैपरन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)। परमेश्वर की सारी सृष्टि में केवल मनुष्य ही है जिसे उसे अपने स्वरूप में, अपने हाथों से रचा, और उसमें अपनी श्वास डालकर उसे जीवित प्राणी बनाया, तथा समस्त पृथ्वी और सभी प्राणियों पर उसे अधिकार प्रदान कर दिया (उत्पत्ति 1:27-28; 2:7)। परमेश्वर मनुष्य के साथ संगति करता था, उससे मिलने आया करता था (उत्पत्ति 3:8)। इसीलिए परमेश्वर ने प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा को सचेत किया था कि यदि वे वाटिका के उस वर्जित फल को खाएंगे, तो मर जाएंगे (उत्पत्ति 2:17; 3:3) 

मर जाना, मानवीय क्षमताओं और संदर्भ में, एक अपरिवर्तनीय बिछड़ने को दिखाता है। जब कोई व्यक्ति शारीरिक रीति से मरता है, तो वह अपने सगे-संबंधियों, मित्रों, परिवार जनों, संसार से ऐसा पृथक होता है कि किसी भी मानवीय प्रयास द्वारा वह फिर न लौट सकता है और न लौटाया जा सकता है। इसी बात को आलंकारिक भाषा में संबंधों को तोड़ने के लिए भी व्यक्त किया जाता है; जब किसी से कहा जाएआज से तू मेरे लिए मर गयातो तात्पर्य यही होता है कि उन दोनों के मध्य का संबंध ऐसा समाप्त हो गया है मानों मृत्यु ने अलग कर दिया हो। आदम और हव्वा के द्वारा किए गए परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के पाप के कारण, परमेश्वर और मनुष्य की यह संगति टूट गई, और मनुष्य मृत्यु, अर्थात परमेश्वर से सदा के लिए अलग रहने के खतरे में आ गया। यह बहुत महत्वपूर्ण तथा आधारभूत तथ्य है, जिसे समझे बिना उद्धार के बारे में समझना असंभव है।

अब परमेश्वर के समक्ष दो विकल्प थे - या तो वह मनुष्य को उसके पाप में पड़ा रहने दे, और उस पाप के परिणामों को भुगतने दे; अथवा, वह उन दोनों प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा, को नष्ट करके नए मनुष्य सृजे और इस क्रिया को फिर से आरंभ करे। किन्तु परमेश्वर मनुष्य से इतना प्रेम करता है कि उसे इन दोनों में से कोई भी विकल्प स्वीकार्य नहीं था। न तो वह मनुष्य को पाप की दुर्दशा पड़े हुए देखना चाहता है, और न ही उसे नष्ट करना चाहता है; परमेश्वर तो दुष्ट के नाश होने से भी प्रसन्न नहीं होता हैसो तू ने उन से यह कह, परमेश्वर यहोवा की यह वाणी है, मेरे जीवन की सौगन्ध, मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न नहीं होता, परन्तु इस से कि दुष्ट अपने मार्ग से फिर कर जीवित रहे; हे इस्राएल के घराने, तुम अपने अपने बुरे मार्ग से फिर जाओ; तुम क्यों मरो?” (यहेजकेल 33:11)

पाप द्वारा उत्पन्न इस समस्या के समाधान के लिए या तो पाप को क्षमा किया जाना था; अन्यथा पाप के दोषी को पाप का दंड भुगताना था। यह एक बड़ी विडंबना थी; यदि परमेश्वर, उन दोनों के प्रति अपने महान प्रेम के अंतर्गत, आदम और हव्वा के पाप की अनदेखी करता और उन्हें ऐसे ही छोड़ देता, तो यह उसके सच्चे, खरे, न्यायी, पक्षपात रहित चरित्र और गुण के विरुद्ध होता, जो परमेश्वर को कदापि स्वीकार्य नहीं है। यदि उन्हें उनके पाप के परिणाम भुगतने के लिए छोड़ देता, तो न तो उसका प्रेमी हृदय इसे स्वीकार करता, और न ही यह उसके प्रेमी, अनुग्रहकारी, दयावान, कृपालु चरित्र और गुण के अनुरूप होता। मनुष्य के पाप ने परमेश्वर को एक बड़ी विडंबना की स्थिति में डाल दिया।

जो मनुष्य के लिए असंभव है, वह परमेश्वर के लिए संभव हैउस [यीशु] ने कहा; जो मनुष्य से नहीं हो सकता, वह परमेश्वर से हो सकता है” (लूका 18:27)। परमेश्वर ने ही इस असंभव प्रतीत होने वाली समस्या का समाधान निकाला - जो समस्त मानव जाति को परमेश्वर की ओर से सेंत-मेंत उपलब्ध करवाया गया प्रभु यीशु में लाए गए विश्वास द्वारा मनुष्यों के लिए उद्धार का मार्ग है; जिसके बारे में हम अगले लेखों में देखेंगे। परमेश्वर द्वारा बनाए और उपलब्ध करवाए गए इस उद्धार के मार्ग को जब हम बिना किसी पूर्व-धारणा के, और निष्पक्ष दृष्टिकोण रखते हुए देखते हैं, तो तुरंत प्रकट हो जाता है कि पाप की समस्या का इससे अधिक सहज, सरल, स्वीकार्य, मनुष्यों द्वारा बनाई गई धर्म-जाति-कुल-सभ्यता-स्थान आदि की सीमाओं से स्वतंत्र, संसार के सभी लोगों के लिए संपूर्णतः लाभकारी, और कोई समाधान हो ही नहीं सकता है। 

अभी के लिए, आप से विनम्र निवेदन है, यदि आपने अभी तक उद्धार नहीं पाया है, परमेश्वर के इस समाधान को स्वीकार नहीं किया है, तो अभी अवसर और समय रहते यह कर लीजिए; पता नहीं फिर यह अवसर और स्थिति हो या न हो। आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करते हुए, की गई समर्पण की एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार से आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा, उनके दंड को भी मेरे लिए सह लिया; और फिर मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा मेरे लिए जीवन का मार्ग बना कर दे दिया। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपना आज्ञाकारी शिष्य बना लें, और अपने साथ कर लेंआपको तुरंत ही अब से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन में लाकर खड़ा कर देगी। निर्णय आपका है। 

 

बाइबल पाठ: रोमियों 3:20-31 

रोमियों 3:20 क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहचान होती है।

रोमियों 3:21 पर अब बिना व्यवस्था परमेश्वर की वह धामिर्कता प्रगट हुई है, जिस की गवाही व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं।

रोमियों 3:22 अर्थात परमेश्वर की वह धामिर्कता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास करने वालों के लिये है; क्योंकि कुछ भेद नहीं।

रोमियों 3:23 इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।

रोमियों 3:24 परन्तु उसके अनुग्रह से उस छुटकारे के द्वारा जो मसीह यीशु में है, सेंत मेंत धर्मी ठहराए जाते हैं।

रोमियों 3:25 उसे परमेश्वर ने उसके लहू के कारण एक ऐसा प्रायश्चित्त ठहराया, जो विश्वास करने से कार्यकारी होता है, कि जो पाप पहिले किए गए, और जिन की परमेश्वर ने अपनी सहनशीलता से आनाकानी की; उन के विषय में वह अपनी धामिर्कता प्रगट करे।

रोमियों 3:26 वरन इसी समय उस की धामिर्कता प्रगट हो; कि जिस से वह आप ही धर्मी ठहरे, और जो यीशु पर विश्वास करे, उसका भी धर्मी ठहराने वाला हो।

रोमियों 3:27 तो घमण्ड करना कहां रहा उस की तो जगह ही नहीं: कौन सी व्यवस्था के कारण से? क्या कर्मों की व्यवस्था से? नहीं, वरन विश्वास की व्यवस्था के कारण।

रोमियों 3:28 इसलिये हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं, कि मनुष्य व्यवस्था के कामों के बिना विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरता है।

रोमियों 3:29 क्या परमेश्वर केवल यहूदियों ही का है? क्या अन्यजातियों का नहीं? हां, अन्यजातियों का भी है।

रोमियों 3:30 क्योंकि एक ही परमेश्वर है, जो खतना वालों को विश्वास से और खतना-रहितों को भी विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराएगा।

रोमियों 3:31 तो क्या हम व्यवस्था को विश्वास के द्वारा व्यर्थ ठहराते हैं? कदापि नहीं; वरन व्यवस्था को स्थिर करते हैं।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 126; 127; 128

·      1 कुरिन्थियों 10:19-33

शनिवार, 28 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 3

 

पाप क्या है? - 3

       परमेश्वर के वचन बाइबल में, परमेश्वर द्वारा पाप के विषय सिखाई गई बातों पर ध्यान करते हुए, पिछले दो लेखों में हम इस संबंध में कुछ बहुत महत्वपूर्ण और आधारभूत बातों को देख चुके हैं कि बाइबल के अनुसार पाप क्या है। हमने देखा है कि: 

  • बाइबल के अनुसार, पाप की परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। परमेश्वर जो सत्य है, शाश्वत है, सार्वभौमिक है, अपरिवर्तनीय है, युगानुयुग एक सा है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8); उसकी कही बात में भी उसके यही सभी गुण विद्यमान हैं (भजन 89:34; यहेजकेल 12:28)। उसने जो कहा और निर्धारित किया है, अन्ततः वही माना जाएगा, और उसी के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों 3:11-13) 
  • पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)। किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। 
  • इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति, कार्य, व्यवहार, इत्यादि पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं।
  • पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरंभ मन में होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15; मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28) 

 

जो भी ढिठाई से मन में पाप को रखते हुए, बाहरी रीति से धर्मी बनने का ढोंग रखते हुए परमेश्वर के पास मन के इस दोगलेपन के साथ आते हैं, परमेश्वर उनसे उनके उस दोगलेपन के अनुसार व्यवहार करता है (यहेजकेल 14:3-7)     

       परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के संदर्भ में कुछ और विस्तार से देखते हैं: इस्राएल को दी गई अपनी व्यवस्था के आरंभ में, परमेश्वर ने सभी के लिए परमेश्वर और अन्य मनुष्यों के साथ संबंधों एवँ व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए अपनी दस आज्ञाएं दीं। ये दस आज्ञाएँ मनुष्य जीवन के प्रत्येक आयाम – परमेश्वर, परिवार और समाज से उसके संबंध एवँ व्यवहार से संबंध रखतीं हैं, उन संबंधों के लिए मार्गदर्शन करती हैं, मनुष्यों के व्यवहार को निर्धारित करती हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि सँसार के किसी भी देश के संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन दस आज्ञाओं की परिधि के बाहर हो। इन दस आज्ञाओं के आरंभिक भाग में परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में अपने स्थान, आदर और मान को किसी भी अन्य को देना, परमेश्वर को कोई या कैसा भी भौतिक स्वरूप देना, वर्जित किया है (निर्गमन 20:1-7)। इसलिए, किसी भी व्यक्ति के द्वारा

  • अपने जीवन में परमेश्वर को उसका वह सर्वोच्च आदर एवँ स्थान प्रदान नहीं करना, जिसका वह हकदार है
  • अपने जीवन में परमेश्वर के स्थान पर सँसार की बातों या लोगों को अधिक महत्व देना
  • और सच्चे जीवते सृजनहार प्रभु परमेश्वर को, जो आत्मा है (यूहन्ना 4:24), अपने मन के अनुसार बनाए हुए कोई भी भौतिक स्वरूप, मूर्तियों या सृजी गई वस्तुओं के रूप में उपासना करना, उन मन-गढ़न्त नाशमान भौतिक वस्तुओं को ईश्वरीय आदर अथवा महत्व देना, आदि

सभी परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन है, इसलिए पाप है। 

इन्हीं दस आज्ञाओं का शेष भाग (निर्गमन 20:8-20), मनुष्य के पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के विषय में है। इन आज्ञाओं का उल्लंघन करना भी, अर्थात पारिवारिक एवँ सामाजिक संबंधों में परमेश्वर के निर्देशों की अवहेलना करना भी पाप है।

प्रभु यीशु मसीह से, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में यहूदियों के एक धार्मिक अगुवे ने उन्हें परखने के लिए एक प्रश्न किया था, और प्रभु के उत्तर से वह फिर निरुत्तर हो गया। यह वार्तालाप हमारे वर्तमान संदर्भ के लिए महत्वपूर्ण है:और उन में से एक व्यवस्थापक ने परखने के लिये, उस से पूछा। हे गुरु; व्यवस्था में कौन सी आज्ञा बड़ी है? उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार है” (मत्ती 22:35-40)। प्रभु यीशु के इस उत्तर में मनुष्य के परमेश्वर तथा अन्य मनुष्यों के प्रति व्यवहार और संबंध का सार है; इसीलिए उन्होंने यह भी कहा कि परमेश्वर की सारी व्यवस्था, इन्हीं दो आज्ञाओं पर आधारित है। इसका स्पष्ट निष्कर्ष है कि मनुष्य के किसी भी विचार या व्यवहार में जहाँ भी इनमें से एक भी आज्ञा का उल्लंघन हुआ, वहीं मनुष्य पाप की दशा में आ गया; पाप का दोषी ठहराया गया।

परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, अदन की वाटिका में मनुष्य द्वारा किए गए उस प्रथम पाप के बाद से मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति ने घर कर लिया, और तब से  सँसार का प्रत्येक मनुष्य पाप स्वभाव, तथा पाप करने की प्रवृत्ति के साथ जन्म लेता हैइसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। इसका सर्व-विदित और प्रत्यक्ष प्रमाण है, जब हम मानवीय व्यवहार एवँ क्रियाओं का, पाप के प्रति बाइबल के इन उपरोक्त व्यापक दृष्टिकोणों के संदर्भ में, आँकलन करते हैं, तो यह प्रगट हो जाता है कि परमेश्वर की दृष्टि में कोई भी मनुष्य पाप से अछूता नहीं है, सभी मनुष्य किसी-न-किसी रीति से पापी होने की परिभाषा में आ जाते हैं। इस कारण अपनी स्वाभाविक दशा में, सभी मनुष्यों ने मन-ध्यान-विचार-मनसा-दृष्टिकोण, व्यवहार या कर्मों के द्वारा पाप किया है; वे चाहे किसी भी धर्म, जाति, देश, आदि के क्यों न हों, इसलिए सभी मनुष्य परमेश्वर की महिमा से रहित और परमेश्वर के साथ संगति रखने के अयोग्य हैं, “इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों 3:23) और सृष्टि के आरंभ में पाप के विषय परमेश्वर द्वारा कहे गए दण्ड, मृत्यु (उत्पत्ति 2:17), के भागी हैं, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)

पाप की इस अपरिहार्य प्रतीत होने वाली समस्या के ईश्वरीय समाधान, “... परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23), के बारे में हम अगले लेख में देखना आरंभ करेंगे।

यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

बाइबल पाठ: रोमियों 3:10-19 

रोमियों 3:10 जैसा लिखा है, कि कोई धर्मी नहीं, एक भी नहीं।

रोमियों 3:11 कोई समझदार नहीं, कोई परमेश्वर का खोजने वाला नहीं।

रोमियों 3:12 सब भटक गए हैं, सब के सब निकम्मे बन गए, कोई भलाई करने वाला नहीं, एक भी नहीं।

रोमियों 3:13 उन का गला खुली हुई कब्र है: उन्होंने अपनी जीभों से छल किया है: उन के होंठों में साँपों का विष है।

रोमियों 3:14 और उन का मुंह श्राप और कड़वाहट से भरा है।

रोमियों 3:15 उन के पांव लहू बहाने को फुर्तीले हैं।

रोमियों 3:16 उन के मार्गों में नाश और क्लेश हैं।

रोमियों 3:17 उन्होंने कुशल का मार्ग नहीं जाना।

रोमियों 3:18 उन की आंखों के सामने परमेश्वर का भय नहीं।

रोमियों 3:19 हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के आधीन हैं: इसलिये कि हर एक मुंह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 123; 124; 125

·      1 कुरिन्थियों 10:1-18