पुरुषार्थ करना – 4
हमने पिछले लेख में देखा था कि एक मसीही विश्वासी को, अपनी बुलाहट का निर्वाह करने के लिए, परमेश्वर से आशीषित और सफल होने के लिए, और अपने जीवन के द्वारा उसकी महिमा करने के लिए सीखना होगा कि सभी परिस्थितियों का सामना साहस के साथ, पुरुषार्थ करते हुए करे, यह जानते हुए कि उसके जीवन में जो कुछ भी होगा वह परमेश्वर की अनुमति और उसके द्वारा निर्धारित सीमा के अन्दर ही होगा। हमारे जीवन में चाहे जो भी परिस्थिति आए, परमेश्वर ने उसके लिए हमें पहले से ही उपयुक्त संसाधन दे रखे हैं कि हम उस स्थिति का भली-भांति सामना कर सकें। दाऊद सुलैमान को यही बात सिखा रहा है – पुरुषार्थ करना सीख और ठान ले, विपरीत परिस्थितियों के मध्य में भी विश्वास में दृढ़ होकर खड़ा रह और साहसी हो कर हर बात का सामना कर। परमेश्वर में भरोसा बनाए रख, और ध्यान करता रह कि परमेश्वर ने पहले भी किस प्रकार से सहायता की है (1 शमूएल 17:37)।
परमेश्वर के लोगों में बहुधा यह प्रवृत्ति देखी जाती है, कि परमेश्वर द्वारा दिए गए संसाधनों और सहायता के सहारे खड़े होकर परिस्थितियों का सामना करने की बजाए, वे “विश्वास की प्रार्थनाओं” के पीछे छिपना चाहते हैं। उनकी यही प्रार्थना होती है कि या तो परमेश्वर उनके लिए उन परिस्थितियों को हटा दे, या उन्हें उन परिस्थितियों से बाहर निकाल ले। इससे भी बढ़कर उनकी यह गलत प्रवृत्ति भी होती है कि वे परमेश्वर के आगे यह विनती करते रहते हैं कि वे तो इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए अक्षम हैं, इसलिए परमेश्वर स्वयं ही उनके लिए, उनके स्थान पर, उन परिस्थितियों का सामना कर ले। लेकिन वास्तविकता यही है कि मसीही विश्वासी इस प्रकार से प्रार्थनाओं के पीछे नहीं छुप सकते हैं, ऐसे बहाना बनाकर अपने आप को बचा नहीं सकते हैं, और अपने स्थान पर परमेश्वर को उनकी ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए नहीं कह सकते हैं। जयवन्त और आशीषित होने के लिए, उन्हें उन परिस्थितियों में से सक्रिय होकर जाना ही पड़ेगा। ऐसा संभव नहीं है कि विश्वासी प्रार्थना कर लें कि परमेश्वर हमारे लिए परिस्थिति का सामना कर ले, और फिर वे स्वयं आराम से घर पर बैठ जाएँ, इस प्रतीक्षा में कि परमेश्वर उनके लिए काम को करके दे देगा। इस संबंध में परमेश्वर के वचन में से कुछ उदाहरणों को देखिए:
जब यहोशू के नेतृत्व में अमालेकियों के साथ इस्राएलियों का युद्ध हो रहा था, तब युद्ध की स्थिति का निर्धारण मूसा के प्रार्थना में उठे हुए हाथों से हो रहा था (निर्गमन 17:10-13)। किन्तु फिर भी उन इस्राएलियों को वहाँ युद्ध-भूमि पर विद्यमान रहना और युद्ध करते रहना अनिवार्य था। इस्राएली केवल मूसा की प्रार्थनाओं और उठे हुए हाथों में युद्ध को छोड़ कर अपनी विजय की प्रतीक्षा करते हुए, आराम से छावनी में नहीं बैठ सकते थे।
परमेश्वर ने यहोशू को कनान पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजने से पहले यही निर्देश दिए थे की वह साहसी, सामर्थी, और आज्ञाकारी बना रहे (यहोशू 1:5-9)। उसका विजयी होना और योग्य रीति से इस्राएलियों का नेतृत्व करना इस बात पर निर्भर था कि वह इस्राएलियों का नेतृत्व करते हुए व्यक्तिगत रीति से कितना साहस दिखाता है और विश्वास में कितना आज्ञाकारी रहता है। यहोशू तब ही पराजित हुआ जब उसने परमेश्वर से पूछे बिना, अपनी ही बुद्धि के सहारे कार्य किया, जैसे कि ऐ (यहोशू 7 अध्याय) और गिब्बोनियों (यहोशू 9 अध्याय) के बारे में हुआ, तब ही उसे पराजय का सामना करना पड़ा।
यिर्मयाह से, जब परमेश्वर ने उसे इस्राएलियों के लिए अपना प्रवक्ता होने की नियुक्ति के बारे में बताया, परमेश्वर ने कहा कि उसे अपनी आयु के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, और न ही लोगों से डरने की, बस वह परमेश्वर पर भरोसा रखे, और परमेश्वर जो करने को कहे वही करता रहे (यिर्मयाह 1:6-8, 17-19)। यिर्मयाह के लिए जीवन और सेवकाई आसान नहीं थी, उसे बहुत विरोध का सामना करना पड़ा, दुःख उठाना पड़ा, किन्तु उसके पुरुषार्थ और परमेश्वर के लिए वफादारी से किए गए परिश्रम ने उसे अनंतकाल के लिए परमेश्वर के वचन में आदरणीय स्थान दे दिया।
राजा यहोशापात को परमेश्वर की और से आश्वस्त किया गया था कि युद्ध उसका नहीं है, बल्कि परमेश्वर का है; लेकिन फिर भी उसे अपनी सेना को लेकर युद्ध भूमि में विद्यमान रहना था (2 इतिहास 20:15-17)। उसे आराम से घर बैठकर परमेश्वर के द्वारा काम पूरा किए जाने की प्रतीक्षा नहीं करनी थी।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में, पौलुस ने तिमुथियुस को भी यही निर्देश दिए – कि दृढ़, साहसी, और आज्ञाकारी बना रहे, और दुःख उठाकर भी अपनी सेवकाई को पूरा करे (2 तिमुथियुस 1:8, 4:1-5)।
आज हमारे लिए, इन बढ़ते हुए विरोध और सताव के समयों में, हमें यह स्मरण रखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर ही, अपनी योजना में, हमें ऐसे समयों में संसार में लाया है, और जहाँ पर हम हैं, वहाँ पर, तथा इन समयों और परिस्थितियों में रखा है। इसलिए, यह स्वतः ही प्रगट है कि उसने न केवल हमें इन परिस्थितियों का सामना करने के योग्य किया है, उनके लिए उचित और उपयुक्त योग्यता, क्षमता, और बुद्धिमानी प्रदान की है, बल्कि वह स्वयं भी हमेशा ही हमारे साथ बना रहता है, हमें जिस भी बात का सामना करना पड़े उसमें हमारी सहायता करने और हमारा मार्गदर्शन करने के लिए; वह हमें कभी अकेला या असुरक्षित नहीं छोड़ता है।
इसलिए परमेश्वर के लोगों को पुरुषार्थ के साथ खड़े होने और साहस के साथ परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार बने रहना चाहिए। विरोध और सताव के इन समयों में भी जिन में परमेश्वर हमें इस सँसार में ले कर आया है, जिन में हमें जीवन जीना है, हमें परमेश्वर पर अपना भरोसा बनाए रखना है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Being a Man - 4
We have seen in the previous article that a Christian Believer, to fulfill his calling, to be successful and blessed by God, and glorify Him through his life, has to learn and accept to face all situations courageously, in a manly manner, knowing that whatever comes in his life is with the permission of God, and to the extent that God has allowed. For all the situations that come our way, God has also already given beforehand to us the resources and ability to manage the situation. That is what David is instructing Solomon - learn and resolve to be a man, in the midst of adverse situations stand firm in the faith and handle everything bravely, having faith in God, and recalling how God has helped in the past (1 Samuel 17:37).
One very common tendency seen amongst God’s children is that instead of standing up and facing the situations through the help of the God given resources, they tend to hide behind “prayers of faith” for God to either remove those situations for them, or else to remove them from those situations; or even worse, they often plead their inability to manage the situation and ask God to handle the situation for them. But the fact of the matter is that a Christian Believer cannot just hide behind prayers, excuse himself, and ask God to do things for them instead. To be victorious and blessed, one has to be present in the situations and be active in them. The Believers, having prayed for God to manage the situation, should not be resting at home, and waiting for God to sort out the situation for them. Consider some examples from God’s Word:
Though it was the prayers and lifted hands of Moses that were deciding the fate of Israel's battle against the Amalekites, the Israelites under Joshua had to be in the battlefield and physically be fighting to defeat them (Exodus 17:10-13). The Israelites could not just hand the battle over to Moses for prayer and God for action, and sit back in their camp, waiting for the outcome of the battle in their favor.
To Joshua also, before sending him to conquer Canaan, God gave the same instructions that he had to be strong, courageous, and obedient (Joshua 1:5-9). His being victorious and leading the Israelites worthily, depended upon how courageously and in faith he personally behaved as the leader of the Israelites. Joshua faced defeat only when he stopped consulting God and relied on his own wisdom and thinking, as happened in the incidents of Ai (Joshua chapter 7) and the Gibeonites (Joshua chapter 9).
To Jeremiah, when informing him of being appointed God’s spokes-person for Israelites, God said not to worry about his age, nor be afraid of the people, but just be faithful to say and do whatever God told him to say and do (Jeremiah 1:6-8; Jeremiah 1:17-19). Life and ministry were not easy for Jeremiah; he had to face a lot of opposition and sufferings, but his “being a man” and striving faithfully for God have given him an honorable place in God’s Word for eternity.
King Jehoshaphat was assured that the battle was not his, but God's; yet he had to be present and position his army in the battlefield (2 Chronicles 20:15-17). He could not just casually sit back and wait for God to do things for him.
To Timothy also, through the Holy Spirit, Paul gave the same instructions - to be strong, and courageous, and obedient and fulfill his ministry even while suffering for it (2 Timothy 1:8; 4:1-5).
For us, today, in these times of increasing opposition and persecution, we need to remember that it is God, who in His plans, has brought us into this world and placed us in the places that we are in these times, in these situations. Therefore, it goes without saying that He not only has made us capable of handling the situations, having given us the required abilities and wisdom to face and overcome the situations, but He is also there with us to help and guide us in whatever we face, never leaving us alone or unprotected.
Therefore, God's people have to learn to stand up like a man and face situations bravely, in faith, in these testing times the time that God has brought us into this world, and the time that we have been given to live through.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.