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पुनःअवलोकन – 1
तीन महीने पहले हमने बाइबल अध्ययन की इस श्रृंखला, जिसका शीर्षक है “आशीषित एवं सफल जीवन,” और जो 1 राजाओं 2:2-4 पर आधारित है, को आरंभ किया था। उस समय इस खण्ड से संबंधित हाथ में जो नोट्स थे उनके आधार पर ऐसा लगा था, कि यह श्रृंखला कुछ ही लेखों में; संभवतः जो 8-10 से अधिक नहीं होंगे, समाप्त हो जाएगी। इस की तो कल्पना भी नहीं की थी कि यह प्रभु के हाथों में दी गई पाँच रोटियों और दो मछलियों के समान हो जाएगा। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए, परमेश्वर ने हमारी आँखों, हृदयों, और बुद्धि को अपने वचन के इतने अद्भुत और विस्मयकारी सत्यों के लिए खोला कि उन के कारण हम बहुधा अभिभूत हुए और दिल में कँपकँपी भर गई। परमेश्वर ने हमारी आँखों को कितनी ही मानवीय बुद्धि के अनुसार गढ़ी हुई बातों की वास्तविकता की ओर खोला, जिन्हें हम बाइबल के सत्य और तथ्य समझते आ रहे थे; और हमारे समान कई अन्य लोग ऐसा ही कर रहे हैं। अब हम उन नोट्स में लिखे हुए बिंदुओं का लगभग आधा भाग तय कर चुके हैं, और अभी भी लगभग हर लेख में परमेश्वर अपने वचन के गहरे भेद और भी प्रकट कर रहा है। आइए, जो अभी तक हमने सीखा है, उसका एक संक्षिप्त पुनःअवलोकन कर लेते हैं।
राजा दाऊद, अपने देहान्त से पहले, 1 राजाओं 2:2-4 में अपने युवा पुत्र सुलैमान को निर्देश दे रहा है; सुलैमान, अभी हाल ही में, परमेश्वर की इच्छा में राजा नियुक्त हुआ है। दाऊद सुलैमान को निर्देश दे रहा है कि यद्यपि परमेश्वर ने उसे राजा बनाया है, लेकिन उसे किसी भी बात को यूँ ही हलके में नहीं लेना है। उसे सीखने की आवश्यकता है कि कैसे जीवन जिए, परमेश्वर के अनुग्रह में बढ़े और उन्नति पाए, और अपने राज्य में आशीषित, सफल, और सुरक्षित रहे।
अपने जीवन काल में दाऊद बहुत साहसी व्यक्ति, और एक माना हुआ योद्धा था। उसके चारों के राजाओं और राज्यों में हिम्मत नहीं थी कि, जब तक वह सिंहासन पर था, राज्य कर रहा था, उस के साथ किसी भी प्रकार की कोई छेड़-छाड़ करें।
लेकिन उसका उत्तराधिकारी, सुलैमान, युवा था और युद्ध कौशल में तथा शासन कला में अनुभवहीन था (1 राजाओं 3:7)। इसलिए चारों के राज्यों और दाऊद तथा इस्राएल के शत्रुओं के पास, दाऊद के देहान्त के बाद यह प्रलोभन हो सकता था कि जो वे दाऊद के साथ और उसके रहते इस्राएल के साथ नहीं कर सके, वह सुलैमान के साथ करें और अपना बदला उतार लें।
इसीलिए, दाऊद सुलैमान को निर्देश देता है कि एक “आशीषित एवं सफल जीवन” जीने के लिए, अर्थात जयवन्त रहने के लिए, उसे एक विशेष रीति से जीवन जीना होगा। दाऊद ने अपने जीवन काल में परमेश्वर के साथ अपने अनुभवों से जो सीखा था, उसके आधार पर दाऊद सुलैमान से कहता है कि उसे परमेश्वर पर पूर्णतः निर्भर, उसका पूर्णतः आज्ञाकारी, और उस पर पूर्णतः भरोसा रखने वाला होना होगा, और केवल परमेश्वर को ही अपनी सुरक्षा बनाए रखना होगा। यह संभव हो पाने के लिए उसे इन चार बातों का निर्वाह करना होगा:
"तू हियाव बांधकर पुरुषार्थ दिखा" (1 राजाओं 2:2)।
"जो कुछ तेरे परमेश्वर यहोवा ने तुझे सौंपा है, उसकी रक्षा कर के उसके मार्गों पर चला करना", अर्थात, परमेश्वर ने जो कुछ उसे सौंपा है, उसका योग्य भण्डारी बने (1 राजाओं 2:3a)।
परमेश्वर के वचन में लिखी सभी बातों का आज्ञाकारी बना रहे (1 राजाओं 2:3b)।
अपने सम्पूर्ण हृदय और सम्पूर्ण प्राण से, सच्चाई के साथ, हमेशा परमेश्वर के प्रति समर्पित और खरा बना रहे (1 राजाओं 2:4b)।
यही चारों निर्देश प्रत्येक मसीही विश्वासी पर भी, उनके मसीही जीवनों में जयवन्त और सफल होने के लिए, लागू होते हैं। यह इन अन्त के दिनों में और भी आवश्यक है, जब हम विभिन्न तरीकों से अपने जीवनों के हर पक्ष में निरन्तर शैतानी हमलों का सामना कर रहे हैं। इस श्रृंखला में हमने इन्हीं चार सिद्धान्तों को लिया है ताकि एक प्रतिबद्ध मसीही जीवन को जी कर दिखा सकें, जो परमेश्वर को महिमा देता है और हमारे अपने जीवनों में आशीषें लाता है।
अपने बाइबल अध्ययन में अभी हम इनमें से दूसरे सिद्धान्त, "जो कुछ तेरे परमेश्वर यहोवा ने तुझे सौंपा है, उसकी रक्षा कर के उसके मार्गों पर चला करना" (1 राजाओं 2:3a), अर्थात, परमेश्वर द्वारा प्रदान की गई हर बात का भला भण्डारी होने के बारे में लगभग आधा देख चुके हैं। प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर ने न केवल उद्धार दिया है, बल्कि उसके साथ कम से कम चार बातें भी अवश्य ही दी हैं; ये चार बातें हैं:
उसका वचन
उसकी पवित्र आत्मा
उसकी कलीसिया तथा उसके बच्चों की संगति
हमारी सेवकाई के लिए कोई न कोई आत्मिक वरदान
अपने बाइबल अध्ययन में इस समय हम मसीही विश्वासी के परमेश्वर के द्वारा दी गई बातों का भण्डारी होने को देख रहे हैं, और पिछले लेख तक हमने परमेश्वर के वचन का, तथा पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के बारे में देखा है। अभी तक हमने जो सीखा है उसके इस संक्षिप्त पुनःअवलोकन के बाद हम अपने बाइबल अध्ययन को फिर से आरंभ करेंगे, और मसीही विश्वासी के परमेश्वर की कलीसिया का तथा परमेश्वर के बच्चों के साथ संगति का भण्डारी होने के बारे में देखना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Recapitulation – 1
Three months ago, we had started on this series of Bible studies titled “Blessed and Successful Life,” based on 1 Kings 2:2-4. As it had seemed then, based on the notes I had in hand on this passage, the series should have been completed in a few articles; quite likely not more that 8-10. It was beyond any imagination that this would turn out to be something like the five loaves and two fishes in the hands of the Lord. As we went along, God opened our eyes, heart, and mind to such awesome, stupendous truths from His Word, that it often overwhelmed us and brought trepidation to our hearts. God opened our eyes to so many humanly contrived things that we had been accepting and believing as Biblical truths and facts; and like us, so many others are still doing the same. Now we are about half-way into the points those notes, and God is still revealing more and deeper truths in nearly every article. Let us recapitulate what we have learnt so far.
In 1 Kings 2:2-4, King David, before his death, is instructing his young son, Solomon, who has recently been crowned as King of Israel, in the will of God. David is instructing Solomon, though made a King by God, yet he should not take things for granted. He needs to learn about how to live, grow and prosper in God's favor, and be blessed, safe and successful in his reign.
David during his lifetime had been a very courageous person, a well-known warrior. The surrounding kings and kingdoms did not have the guts to meddle with him in any manner, while he was on the throne, ruling Israel.
But his successor, Solomon, was young and inexperienced, in war as well as statesmanship (1 Kings 3:7). Therefore, the surrounding kingdoms and the enemies of David and Israel, after David's demise, could easily be tempted to think of taking their revenge and do to Solomon what they could not do to David.
Therefore, David instructs Solomon, that to lead a “Blessed and Successful Life,” i.e., to remain victorious, he needs to live and function in a particular manner. From what David had learnt through his life-experiences with God, David instructs Solomon that he has to remain totally trusting, obedient and dependent upon God, and to let God alone be his security. For this to happen, he must do the following 4 things:
To "be strong and prove yourself a man." (1 Kings 2:2).
To "keep the charge of the Lord God", i.e. to be a good Steward of whatever God has given to him (1 Kings 2:3a).
To be obedient to the Word of God, in all things written in it. (1 Kings 2:3b).
To be careful, taking heed, to remain sincere and committed to the Lord always (1 Kings 2:4b).
The same 4 instructions apply to every Christian Believer, for their being victorious and successful in their Christian lives and be partakers of God's blessings, particularly in these end times when we are facing the relentless attacks of satanic forces in various ways, and in every aspect of our lives. In this series, we have used these 4 principles to learn about living a committed Christian life that glorifies God, and brings blessings to our lives.
So far, in our Bible study we are about half-way through the second principle, i.e., "keep the charge of the Lord God", i.e. be a good Steward of whatever God has given (1 Kings 2:3a). To every Believer, God has not only given salvation, but at the very least, the following four things:
His Word
His Holy Spirit
His Church and Fellowship of His Children
Some Gift of the Holy Spirit for our ministry
In our Bible study we are presently considering the Christian Believer being a steward of his God given provisions. While considering various aspects of our stewardship as Born-Again Christian Believers, till the last article we have seen about being stewards of God’s Word, and God’s Holy Spirit, so far. After having recapitulated what we have learnt so far, we will take up and carry on with the Bible study from the Believer being a steward of God’s Church and of fellowshipping with God’s children.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.