परमेश्वर के वचन का स्वरूप और स्वभाव
परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने को समझने से पहले, हमारे लिए अच्छा होगा यदि हम परमेश्वर के वचन, मसीही विश्वासी के जीवन में उसकी भूमिका, और हमें उसका भला भण्डारी क्यों होना है, आदि बातों को समझ लें।
बाइबल कोई साधारण पुस्तक नहीं है; इसे जीवित वचन भी कहा जाता है – और किसी भी जीवित व्यक्ति के समान, यह उनसे वार्तालाप करती है जो उसका आदर करते हैं, उसमें विश्वास करते हैं, उसमें लिखी बातों पर तथा जो वह उनसे कहती है उस पर भरोसा करते हैं। बाइबल कुछ लोगों के मनन, चर्चाओं, और विचार-विमर्श की बातों का भी लेखा नहीं है। सम्पूर्ण बाइबल परमेश्वर द्वारा दी गई है, अर्थात परमेश्वर पवित्र आत्मा की प्रेरणा और मार्गदर्शन में मनुष्यों द्वारा लिखी गई है (2 शमूएल 23:2; 2 तीमुथियुस 3:16; 2 पतरस 1:20-21)। ऐसा भी हुआ कि कभी-कभी लिखने वालों को वह समझ में भी नहीं आ रहा था जो लिखने की उन्हें प्रेरणा दी जा रही थी, किन्तु परमेश्वर के आत्मा ने फिर भी उन्हें लिखने और भविष्य के लिए छोड़ देने के लिए कहा (यशायाह 29:11; दानिय्येल 8:17, 26; 12:4, 9)। परमेश्वर के अन्य लोगों (कुलुस्सियों 1:26-27) के साथ ही, प्रेरित पौलुस को भी उन भेदों की समझ प्रदान की गई थी, कि उन्हें मसीही विश्वासियों पर प्रकट करे (रोमियों 11:25; 16:25; 1 कुरिन्थियों 2:7; 15:51; इफिसियों 3:3-4, 9; 5:32; 6:19; कुलुस्सियों 4:3), और प्रेरित यूहन्ना पर अंत के समय के भेद प्रकट किए गए जो बाइबल की प्रकाशितवाक्य नामक पुस्तक में लिखे गए हैं। इसलिए, कभी भी बाइबल को संसार के लोगों के द्वारा लिखी गई किसी भी अन्य पुस्तक के समान न तो देखा जा सकता है और न ही लिया जा सकता है; यह अपने आप में अनोखी, अनुपम है। यह परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए ‘भले बनो और भलाई करो’ के सिद्धांत पर लिखी गयी कहानियों, घटनाओं और शिक्षाओं की पुस्तक नहीं है।
यूहन्ना रचित सुसमाचार का आरम्भ इन शब्दों के साथ होता है, “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था” (यूहन्ना 1:1); और फिर वह आगे कहता है, “और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:14)। ये दो पद यह बिलकुल स्पष्ट कर देते हैं क्यों बाइबल को ‘जीवित वचन’ कहा जाता है; क्योंकि बाइबल के रूप में हमारे हाथों में प्रभु यीशु, स्वयं परमेश्वर लिखित या छपे हुए स्वरूप में विद्यमान है।
यह हमारे सामने विचार करने और ध्यान रखने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण विषय ले कर आता है, ऐसा जिस पर अधिकांश लोग न तो विचार करते हैं और न ही जिसका ध्यान रखते हैं। अर्थात, बाइबल में किया गया कोई भी परिवर्तन, उसके साथ कोई भी दुर्व्यवहार, उसका कैसे भी दुरुपयोग का अभिप्राय यह सब प्रभु यीशु के साथ किया जाना है, परमेश्वर का अनादर करना, उसके साथ अनुचित व्यवहार करना है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि परमेश्वर ने अपने वचन में बहुत सख्ती से चेतावनी दी है कि उस में न तो कुछ जोड़ा जाए, और न ही उस में से कुछ घटाया जाए (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19); ऐसा करने के बहुत गंभीर और कठोर परिणाम होंगे। पौलुस ने भी अपने उदाहरण के द्वारा इस बात पर बल दिया (2 कुरिन्थियों 2:17; 4:2); तथा अन्य लोगों के लिए शिक्षा दी कि परमेश्वर के वचन को ठीक रीति से काम में लाएँ (2 तिमुथियुस 2:15), अर्थात परमेश्वर के वचन की ठीक व्याख्या करें और सही समझाएँ।
यहीं से मसीही विश्वासियों का परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने की भूमिका का आरम्भ होता है – वह यह सुनिश्चित करे कि वचन के साथ न तो कोई छेड़खानी की जाए, न उससे अनुचित व्यवहार, और न उसका दुरुपयोग, या गलत व्याख्या हो। हम इसके बारे में आगे अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Substance and Nature of God’s Word
Before understanding about the stewardship of God’s Word, we will do well to understand what God’s Word is, its role in the life of a Christian Believer, and why we need to be it’s good stewards.
The Bible is no ordinary book; it is known as the Living Word - and as any living person, it communicates and interacts with those who honor it, believe in it, trust what is written in it and what it is saying to them. Neither is the Bible a record of the meditations, discussions, and deliberations of some people. The whole of the Bible is ‘God breathed’, i.e., written down by men under the inspiration and guidance of God’s Holy Spirit (2 Samuel 23:2; 2 Timothy 3:16; 2 Peter 1:20-21). There were times when the authors did not understand what they were being inspired to write down, but God’s Spirit asked them to write it and leave it for later times (Isaiah 29:11; Daniel 8:17, 26; 12:4, 9). Along with other people of God (Colossians 1:26-27), the Apostle Paul was given the understanding for some of these mysteries, to reveal them to Christian Believers (Romans 11:25; 16:25; 1 Corinthians 2:7; 15:51; Ephesians 3:3-4, 9; 5:32; 6:19; Colossians 4:3); and to the Apostle John, the mystery of the end-times was revealed, as he recorded it in the book of Revelation in the Bible. Hence, the Bible can never be taken or seen as another book written by people of the world; it is unique, not just a collection of stories, incidences, and teachings written on the principle of ‘do good and be good’ to become acceptable to God.
The Gospel of John begins with these words: “In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God” (John 1:1); and then goes on to say, “And the Word became flesh and dwelt among us, and we beheld His glory, the glory as of the only begotten of the Father, full of grace and truth” (John 1:14). These two verses make it abundantly clear to us why the Bible is called The Living Word; because in the form of The Bible, we have the Lord Jesus, God Himself, in our hands in a printed or written form.
This brings up a very important consideration before us, something that most people neither ponder over, nor pay heed to, i.e., any alteration, mishandling, misuse of the Bible is tantamount to doing it to the Lord Jesus, and thereby maltreating and dishonoring God Himself. No wonder then that God has very strictly cautioned in His Word not to add anything to it, nor take anything away from it (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19); doing so has severe consequences. Paul too emphasizes this through his own example (2 Corinthians 2:17; 4:2), and exhorts others to be careful to rightly ‘divide’, i.e., interpret and expound God’s Word (2 Timothy 2:15).
This is where the role of Christian Believers as stewards of God’s Word the Bible comes in - to ensure that it is not tampered with, it is not misused, misinterpreted, mishandled, and is always presented in its actual form to others. We will see more on this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.