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प्रभु की मेज़ - सदा परमेश्वर पर विश्वास रखें एवं धन्यवादी रहें
हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि प्रभु भोज की गलत समझ और अनुचित व्यवहार के कारण कुरिन्थुस की कलीसिया में जो त्रुटियाँ घुस आई थीं, जिनमें प्रभु भोज का अपमान और कलीसिया को तुच्छ जानना भी सम्मिलित थे (1 कुरिन्थियों 11:20-22), उनके निवारण और उन लोगों को शैतान के हाथों से छुड़ाने के लिए, पवित्र आत्मा उन्हें प्रेरित पौलुस में होकर प्रभु यीशु मसीह द्वारा प्रभु भोज की स्थापना पर लेकर जाता है। हम कुरिन्थियों के इस अध्याय तथा सुसमाचारों में दिए गए वर्णनों, दोनों ही में देखते हैं कि प्रभु यीशु ने प्रभु भोज की स्थापना फसह को खाते समय या खा लेने के बाद, फसह की सामग्री ही के द्वारा की, जो रोटी और कटोरा प्रभु ने लिया वह फसह के भोज का भाग था, किन्तु प्रभु भोज फसह नहीं था। इसलिए यहाँ पर तथा सुसमाचारों में दी गई जानकारी का एक भाग, जो प्रभु द्वारा प्रभु भोज की स्थापना से संबंधित है कुछ पेचीदा लगता है। यहाँ, 1 कुरिन्थियों 11:23-24 में लिखा है कि प्रभु ने रोटी लेकर धन्यवाद किया, और फिर उसे तोड़ा और उनके लिए अपनी तोड़ी गई देह के प्रतीक के रूप में शिष्यों को दे दिया। लूका भी इसे प्रभु द्वारा धन्यवाद दिए जाने के साथ लिखता है (लूका 22:19), जब कि मत्ती और मरकुस कहते हैं कि उसने आशीष माँगकर रोटी को तोड़ा और फिर शिष्यों को दिया (मत्ती 26:26; मरकुस 14:22)। चाहे प्रभु ने धन्यवाद माँगकर किया अथवा आशीष माँगकर, जो बात इससे प्रकट है वह है कि प्रभु इस बात के लिए, कि उसकी देह औरों के लिए तोड़ी जानी थी, उन शिष्यों के लिए जो फसह के भोज के लिए बैठे थे किन्तु अभी भी इसी झगड़े में पड़े हुए थे कि उनमें से बड़ा कौन है (लूका 22:24), संसार के पापी लोगों के लिए, परमेश्वर का कृतज्ञ या धन्यवादी था।
रोटी के लिए धन्यवाद करना या आशीष माँगना वह ‘भोजन की प्रार्थना’ नहीं थी जो हम भोजन करने से पहले परमेश्वर से करते हैं, क्योंकि मुख्य भोजन तो आरंभ हो चुका था, और उसके लिए धन्यवाद या आशीष की जो भी प्रार्थना होनी चाहिए थी, वह पहली की गई होगी। साथ ही, प्रभु जो कर रहा था, वह केवल प्रतीक के रूप में था, न कि वह पूरा भोजन उन्हें दे रहा था। यही बात सुसमाचारों के वर्णन से भी प्रकट है, जहाँ पर भी स्पष्ट लिखा गया है कि उसने रोटी के लिए धन्यवाद किया या आशीष माँगी और फिर उसे तोड़ा, तथा उसे अपनी तोड़ी गई देह का चिह्न बताया। अर्थात, मतलब यही निकलता है कि प्रभु परमेश्वर का, उसके लिए धन्यवाद कर रहा था, उसे आशीष दे रहा था, जो थोड़ी देर में उसके साथ होने वाला था, उस दुख और पीड़ा के लिए, उसके द्वारा समस्त मानव जाति के सभी पाप अपने ऊपर ले लेने और स्वयं पाप बन जाने के लिए, मानव जाति के पापों के लिए उसकी देह के यातनाएं सहने और तोड़े जाने के लिए। स्वेच्छा से किसी व्यक्ति द्वारा यह सब करना कल्पना से बाहर है अविश्वसनीय है; किन्तु इसके लिए परमेश्वर का धन्यवाद करना, आशीष देना कि उसने यह सब उसके साथ होने दिया, इन सब बातों और यातनाओं में से उसे निकलने दिया, समझा अथवा समझाया नहीं जा सकता है, यह मानवीय बुद्धि की सीमाओं से बाहर की बात है। लेकिन फिर भी यहाँ पर हम देखते हैं कि प्रभु अपने जीवन के व्यक्तिगत उदाहरण से हमें सिखाता है कि हर बात के लिए, हर परिस्थिति में परमेश्वर के धन्यवादी बने रहें; और एक बार फिर से, पहले स्वयं ऐसा कर के, फिर शिष्यों द्वारा उस कार्य को करने के लिए कहा।
प्रभु के शिष्य, एक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को प्रभु के उदाहरण का अनुसरण करना है, और परमेश्वर पर भरोसा बनाए रखना है कि वह हर बात में, सभी अनुभवों और परिस्थितियों के द्वारा भी केवल वही करेगा, वही होने देगा, जो उसके बच्चों के लिए लाभकारी है; चाहे उस समय, उस पल में वह बात समझने में कठिन और कष्ट-दायक हो। अर्थात परमेश्वर अपने लोगों के लिए हमेशा ही रोमियों 8:28 को पूरा करेगा। यही बात परमेश्वर के लोगों ने भी अपने व्यवहार से दिखाई है, जैसे कि शद्रक, मेशक, और अबेदनगो ने (दानिय्येल 3:16-30), और दानिय्येल ने (दानिय्येल 6:12-28)। परमेश्वर ने अपने लोगों से कहा है कि वे सदा हर बात में आनंदित रहें, क्योंकि परमेश्वर का आनन्द ही हमारा दृढ़ गढ़ है (नहेम्याह 8:10); और यह भी कि हमें सदा अपनी प्रार्थना और निवेदन परमेश्वर के सम्मुख धन्यवाद के साथ प्रस्तुत करने चाहिए (फिलिप्पियों 4:4, 6)। प्रभु की मेज़ में भाग लेने वाले लोगों को हमेशा, और हर बात के लिए उसपर भरोसा रखने वाले लोग होना चाहिए (2 तिमुथियुस 1:12), और जो कुछ भी वह हमारे जीवनों में आने देता है, जिन भी परिस्थितियों में से हमें लेकर चलता है, उन सभी के लिए सदा उसके धन्यवादी होना चाहिए। प्रभु की मेज़ में भाग लेना प्रभु में विश्वास और भरोसे को फिर से नया करने का, प्रभु में सदा आनन्दित रहना सीखने का अवसर होना चाहिए।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 18-19
मत्ती 6:1-18
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The Lord’s Table - Always Trust God & Remain Thankful
We have seen in the earlier articles that to rectify the errors that had crept into the Corinthian Church because of their mishandling the Holy Communion, and thereby denigrating it, and also despising the Church (1 Corinthians 11:20-22); to bring them out of the situation they had got themselves into, the Holy Spirit through the Apostle Paul, recounts to them the manner of initiation of the Lord’s Table, by the Lord Jesus. We have seen here, as well as in the Gospel accounts, that the Holy Communion, though established with the elements, i.e., the bread and cup being used in the Passover meal, but it was a separate event by itself. The Holy Communion established by the Lord was not the Passover meal itself, but He did it during or after He and the disciples had eaten the Passover meal. Therefore, a bit of information presented here, as well as in the Gospel accounts, related to the Lord’s initiating the Holy Communion, is intriguing. It says here, in 1 Corinthians 11:23-24 that taking the bread, the Lord Jesus gave thanks, then broke it and gave it to the disciples as a symbol of His body broken for them. Luke also records it as giving thanks (Luke 22:19), while Matthew and Mark say that He blessed it (Matthew 26:26; Mark 14:22). Whether the Lord said thanks or whether He blessed it, essentially it conveys that the Lord was grateful to God for it; for a symbol of His body being broken for others, for the disciples who while sitting to have the Passover meal, were still quarrelling about who was greater amongst them (Luke 22:24), for the sinful people of the world.
The giving of thanks or blessing the bread could not be the ‘grace’ we say at the beginning of the meal; He could not be thanking God for the meal, nor could be blessing the food they were to partake, since the main meal had already begun, and thanks or blessings for it would have been done at its beginning. Moreover, what the Lord was doing was giving the disciples only a symbolic presentation, and not a full meal. Then, as is apparent from this as well as the Gospel accounts, it is specifically mentioned that He thanked or blessed the bread, and then called it the symbol of His body broken for them. So, in essence, the Lord was thanking God for, or blessing for what He would be going through and suffering in a short while, His taking up the sins of mankind upon Himself, becoming sin, the breaking of His body for the sins of mankind and mankind’s deliverance from sins. To voluntarily agree to suffer all this for others, in the place of others is by itself unimaginable for any person, but to be thanking God, blessing for permitting it to happen and lead through such excruciating experiences, is inexplicable, beyond human understanding. Yet, here the Lord through His personal example shows and teaches us to be thankful to God for everything, in all circumstances; once again by first demonstrating it through His own life, then to be emulated by His disciples.
The disciple of the Lord Jesus, a Born-Again Christian Believer has to follow the Lord’s example, and trust God that He will, in and through all experiences and circumstances, only do that, or get done that which is beneficial for His children; even though the thing may seem difficult to understand and painful at the moment; i.e., God will always fulfill Romans 8:28 for His people. This is something demonstrated by God’s people like Shadrach, Meshach, and Abednego (Daniel 3:16-30), Daniel (Daniel 6:12-28). Also, God has instructed that His people should always be rejoicing in Him, since the joy of the Lord is our strength (Nehemiah 8:10); and should always pray and bring our petitions to God with thanksgiving (Philippians 4:4, 6). The participants of the Lord’s Table should be the ones who always trust Him for everything, in all circumstances (2 Timothy 1:12), and are always thankful to Him, for whatever He may allow in our lives, however He may lead us in life. Partaking of the Lord’s Table should be a time of renewing our faith and trust in the Lord, of learning to be happy and rejoicing in the Lord always.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 18-19
Matthew 6:1-18
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