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प्रभु यीशु की कलीसिया प्रभु ही के द्वारा बनाई जा रही है
पिछले लेखों में हम मत्ती 16:18 में प्रभु के कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...”; की तीन बहुत महत्वपूर्ण को देखते आ रहे हैं। इनमें से पहली बात है, कि प्रभु स्वयं ही अपनी कलीसिया बनाएगा, यानि कि, प्रभु यीशु अपनी कलीसिया, अर्थात, उन लोगों को जो उसे जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, स्वयं ही एक समूह में एकत्रित कर रहा है। किसी की भी वास्तविक मनोदशा, और प्रभु के प्रति उसकी निष्ठा और समर्पण की वास्तविक स्थिति को कोई भी मनुष्य नहीं जान सकता है, किन्तु प्रभु की दृष्टि से कुछ छिपा नहीं है। इसीलिए वह समय-समय पर शैतान द्वारा कलीसिया में घुसाए हुए लोगों को प्रकट और पृथक करता रहता है, तथा मत्ती 13:24-30 के अनुसार अंत के समय एक बड़ा पृथक करना होगा और कलीसिया में घुसाए गए दुष्ट के सारे लोग निकाल कर अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे, प्रभु की कलीसिया में प्रभु के चुने हुए लोगों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं बचेगा।
दूसरी बात जो हमने कल के लेख में कुछ विस्तार से देखी, वह है कि प्रभु अपनी कलीसिया का स्वामी है और अपने स्वामित्व में कोई हस्तक्षेप नहीं होने देता है। वह अपने इस स्वामित्व को बहुत गंभीरता से लेता है, अपनी कलीसिया, यानि अपने लोगों का पूरा ध्यान रखता है। वह स्वयं ही कलीसिया की देखभाल के लिए उचित दासों को उनकी योग्यता के अनुसार नियुक्त करता है और फिर उन से उन्हें सौंपे गए दायित्व का पूरा हिसाब भी लेता है। प्रभु को अपनी कलीसिया, अपने लोगों की जरा सी भी हानि, उनके प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही कतई स्वीकार नहीं है।
तीसरी, जिसे हम आज देखेंगे है कि प्रभु ने कहा कि वह स्वयं ही अपनी इस कलीसिया को ‘बनाएगा’; प्रभु के इस कथन में भी दो महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें कलीसिया के लिए प्रयोग किए गए रूपकों में से एक, “परमेश्वर के निवास के लिए एक मन्दिर” (इफिसियों 2:21-22) के संदर्भ में अधिक सरलता से समझा जा सकता है:
उन दोनों बातों में से एक बात तो यह कि जैसे पहली दो बातों में हमने कलीसिया से संबंधित हर बात में प्रभु की सार्वभौमिकता को देखा है, कि वही अपने लोगों को चुनता और बुलाता है, अनुचित लोगों को अपने लोगों में से पृथक करता है; और यह कि कलीसिया का संपूर्ण स्वामित्व प्रभु के ही हाथों में है, ठीक उसी प्रकार से यह बात भी है कि वह स्वयं ही अपनी कलीसिया को बनाता भी है। हर एक निवास-स्थान या मंदिर का हर अंश, हर पत्थर का अपना निर्धारित स्थान होता है। जिस पत्थर का जो स्थान है उसे वहीं पर लगाया और उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार से प्रभु ही अपने लोगों को, उसके द्वारा उनके निर्धारित कार्यों एवं कलीसिया या मण्डली में उपयोग के अनुसार व्यवस्थित करके उन्हें कलीसिया में उनके सही स्थान पर स्थापित भी करता है। यह निर्णय न तो किसी मसीही विश्वासी का अपना होता है, न किसी अन्य मनुष्य, अगुवे, अध्यक्ष, डिनॉमिनेशन, अथवा संस्था आदि का है; इसे केवल प्रभु ही निर्धारित और कार्यान्वित करता है।
और, उन दोनों बातों में से दूसरी बात के लिए ध्यान कीजिए कि यहाँ प्रयुक्त शब्द है ‘बनाएगा’ - भविष्य काल; जब प्रभु ने यह बात कही कलीसिया उस समय वर्तमान नहीं थी, बनाई जानी थी। प्रभु द्वारा कही गई यह बात प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस के प्रचार और उस प्रचार द्वारा हुई प्रतिक्रिया के साथ कलीसिया के अस्तित्व में आने से आरंभ हुई थी; और हम यह देख चुके हैं कि स्वयं प्रभु ही अपनी कलीसिया में लोगों को जोड़ता जाता था। किसी वस्तु को ‘बनाने’ में समय और प्रयास लगता है, उसे उसके पूर्ण और अंतिम स्वरूप में लाने या ढालने के लिए एक प्रक्रिया से होकर निकलना पड़ता है। प्रभु की कलीसिया भी प्रभु के द्वारा ‘बनाई’ जा रही है, उसमें अभी भी संसार भर से हर प्रकार के लोग जोड़े जा रहे हैं। साथ ही यह भी ध्यान कीजिए कि प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक सदस्य, उसका प्रत्येक जन “नया जन्म” पाने के द्वारा प्रभु के साथ जुड़ता है। “नया जन्म” पाने के साथ ही वह एक आत्मिक शिशु के समान कलीसिया में, प्रभु की संगति में प्रवेश करता है। उसे शिशु अवस्था से उन्नत होकर परिपक्व स्थित में आने में समय और विभिन्न अनुभवों एवं शिक्षाओं से होकर निकलना पड़ता है। इसलिए कलीसिया के सभी सदस्य अलग-अलग आत्मिक स्तर और परिपक्वता की स्थिति में देखे जाते हैं; प्रभु उन्हें उनके कलीसिया में सही स्थान के लिए अभी तैयार कर रहा है। इसीलिए कहा गया है कि अभी कलीसिया पूर्ण नहीं हुई है, निर्माणाधीन है; उसमें कार्य ज़ारी है। यही कारण है कि आज हमें प्रभु की कलीसिया में, अर्थात प्रभु के लोगों के समूह में कुछ कमियाँ, दोष, अपूर्णता, और सुधार के योग्य बातें दिखती हैं। प्रभु उसे बना भी रहा है और जितनी बन गई है, उसे प्रभु निष्कलंक, बेझुर्री भी बनाता जा रहा है, जिससे अन्ततः अपने पूर्ण स्वरूप में वह तेजस्वी, पवित्र और निर्दोष होकर उसके साथ खड़ी हो (इफिसियों 5:27)।
इन बातों का एक उत्तम उदाहरण राजा सुलैमान द्वारा परमेश्वर की आराधना के लिए बनवाया गया प्रथम मंदिर का निर्माण कार्य है। परमेश्वर के इस मंदिर के लिए लिखा गया है, “और बनते समय भवन ऐसे पत्थरों का बनाया गया, जो वहां ले आने से पहिले गढ़कर ठीक किए गए थे, और भवन के बनते समय हथौड़े बसूली या और किसी प्रकार के लोहे के औजार का शब्द कभी सुनाई नहीं पड़ा” (1 राजा 6:7)। इस पद की बातों पर ध्यान कीजिए - मंदिर के निर्माण के लिए जो पत्थर तैयार किए गए, वे, निकाले जाने के बाद, और मंदिर में लगाए जाने से पहले, एक अलग स्थान पर गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर ठीक कर लिए जाते थे। जब वे अपने स्थान पर बैठाए जाने के लिए तैयार हो जाते थे, तो उन्हें ला कर उनके निर्धारित स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था। हर पत्थर का अपना निर्धारित स्थान था, जिसके आधार पर उसे गढ़, तराश और काट-छाँट कर तैयार किया जाता था। न तो वह पत्थर किसी अन्य का स्थान ले सकता था, और न ही कोई अन्य पत्थर उसका स्थान ले सकता था; और न ही वह पत्थर यह निर्धारित करता था कि वह कहाँ पर लगाया जाना पसंद करेगा। भवन बनाने वाले ने जिसे जहाँ के लिए निर्धारित और तैयार किया था, वह वहीं पर लाकर स्थापित किया जाता था। एक और बहुत अद्भुत बात थी कि उस पत्थर को बस लाकर उसके स्थान पर स्थापित कर दिया जाता था; उसे फिर गढ़ने, तराशने और काटने-छाँटने की, अर्थात अन्य के साथ ताल-मेल बैठाने के लिए सही करने की कोई आवश्यकता नहीं होती थी; वहाँ पर, मंदिर में, किसी भी औज़ार का शब्द सुनाई नहीं देता था। इसी प्रकार से प्रभु भी हमें इस संसार में, विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों के द्वारा गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर तैयार कर रहा है। वह यह कार्य हमें अपने सुरक्षित स्थान, अपनी कलीसिया में लाकर करता है, जहाँ हम निरंतर उसकी निगरानी, उसकी देखभाल में रहते हैं। प्रभु के नियुक्त सेवकों के द्वारा हमें तैयार किया जाता है, प्रभु उन सेवकों के कार्य पर भी दृष्टि बनाए रखता है; और अन्ततः जब वह मसीही विश्वासी उसके द्वारा निर्धारित स्थान के लिए तैयार हो जाता है, प्रभु उसे वहाँ पर स्थापित कर देता है। इस प्रकार प्रभु द्वारा परमेश्वर के निवास के लिए यह मंदिर बनाया जा रहा है, निर्माणाधीन है।
ध्यान कीजिए, जिस पहाड़, या खदान से ये पत्थर निकाले जाते थे, वहाँ पर छोटे-बड़े, विभिन्न आकार और प्रकार के अनेकों अन्य पत्थर भी होंगे; किन्तु हर पत्थर मंदिर में लगाए जाने के लिए उपयुक्त एवं उचित नहीं था। केवल वही पत्थर जो मंदिर में लगाए जाने के लिए उपयुक्त एवं उचित थे, उन्हें ही फिर गढ़ने, तराशने, और काटने-छाँटने के लिए लिया गया, और अन्ततः मंदिर में स्थापित किया गया। प्रभु के द्वारा कलीसिया के बनाए जाने में भी केवल वही “पत्थर” या लोग सम्मिलित होंगे जो वास्तव में प्रभु की कलीसिया के हैं, जो उसे “मसीह” यानि “जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता” स्वीकार करके उस पर विश्वास रखते हैं, उसी के आज्ञाकारी रहते हैं। अन्य कोई भी, जो किसी भी अन्य आधार पर कलीसिया से जुड़ने का प्रयास करता है, अन्ततः उसका तिरस्कार कर दिया जाएगा, उसे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाएगा, और अनन्त विनाश के लिए भेज दिया जाएगा। मत्ती 13:24-30 के दृष्टांत पर ध्यान कीजिए; बुरे पौधों के खेत में बने और बढ़ते रहने, खेत के स्वामी द्वारा उनकी भी देखभाल होने, उन्हें भी पानी और खाद मिलने, पक्षियों और जानवरों से उनकी भी सुरक्षा किए जाने के द्वारा वे खेत के स्वामी को स्वीकार्य नहीं बन गए थे। उनका अन्तिम स्थान तो पहले से निर्धारित था, और वे फिर वहीं भेज भी दिए गए। इसी प्रकार, प्रभु की कलीसिया में जो प्रभु के मानकों और निर्धारण के द्वारा नहीं है, वह अभी अपने आप को कितना भी सुरक्षित और स्वीकार्य क्यों न समझता रहें, अन्ततः उन की वास्तविकता तथा अंतिम दशा अनन्त विनाश ही की होगी, वह स्वर्गीय मंदिर या कलीसिया का भाग कभी नहीं ठहरेंगे।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो अपने आप को जाँच-परख कर सुनिश्चित कर लीजिए कि आप प्रभु के मानकों और बुलाए जाने के द्वारा अपने आप को मसीही विश्वासी मानते हैं, या आप किसी अन्य रीति द्वारा प्रभु की कलीसिया से जुड़ने के कारण अपने आप मसीही विश्वासी समझते हैं। खेत में उगने वाले बुरे पौधों के लिए तो अपनी अंतिम दशा बदलना संभव नहीं था, किन्तु आपके पास अभी अवसर भी है, और प्रभु की क्षमा भी आपके लिए अभी उपलब्ध है, आप अभी भी अपनी अंतिम दशा बदल कर ठीक कर सकते हैं। अभी सही आँकलन करके सही निर्णय ले लीजिए; बाद में यदि अवसर न रहा, तो फिर अनन्त विनाश ही हाथ लगेगा। दूसरे, पृथ्वी पर प्रभु की कलीसिया में सम्मिलित होने के बाद, प्रभु आपको गढ़कर, तराश कर, काट-छाँट कर ठीक करता है कि आप उसकी स्वर्गीय कलीसिया में आपके उचित स्थान पर स्थापित किए जा सकें। यह प्रक्रिया अवश्य ही पीड़ादायक होती है, इसके द्वारा हमारे जीवन की कई बातें जो व्यर्थ और आत्मिक उन्नति एवं परिपक्वता के लिए बाधक हैं, निकाल दी जाती हैं। इसे कोई विलक्षण, अनहोनी, या अनुचित बात न समझें (प्रेरितों 14:22; 2 तिमुथियुस 3:12; इब्रानियों 12:5-12; 1 पतरस 4:1-2, 12-19); हमारे तैयार किए जाने का ये बातें एक अनिवार्य भाग हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 5-6
इफिसियों 1
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Lord Jesus Christ is Still Building His Church
In the previous articles, we have been looking at three important things from the Lord’s statement, “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18. The first among these three is that the Lord said He will build His Church, i.e., the Lord Jesus will Himself gather together those people who accept Him as the one and only savior of the world. No man can ever know the actual state of any person’s mind and heart, nor a person’s commitment and submission towards the Lord Jesus; but nothing is hidden from the eyes of the Lord God. that is why, from time-to-time He keeps exposing and separating the infiltrators brought into the Church by Satan, and as per Matthew 13:24-30, at the end there will be a great separation and segregation and those sneaked into the Church by the wicked one will all be cast out into eternal destruction, none other than the Lord’s chosen will remain in the Lord Jesus Christ’s Church.
The second thing that we saw in some detail in the previous article was that the Lord is the owner of His Church, and does not allow any interference in His ownership. He takes His ownership responsibilities very seriously, and takes full care of His people. He Himself appoints appropriate people, according to their abilities, for looking after the works of the Church, and eventually will take a proper accounting from them of this responsibility entrusted to them. The Lord does not accept any carelessness, any harm, of His people and Church.
The third thing, which we will see today is the Lord’s statement that He Himself will build His Church. There are two important points in this statement of the Lord, which can be more easily understood by one of the metaphors used for the Church, “A temple for the dwelling of God” (Ephesians 2:21-23).
Of those two, the first point is that, as we have seen the sovereignty of the Lord Jesus in everything related to the Church, that it is He who chooses and calls His people, separates out the inappropriate ones from amongst His people, the ownership of the Church is in the hands of the Lord; another thing is that it is He who is building His Church. In every house or temple, every piece, every stone has its appointed place. Every stone is placed in its fixed place, and used in its assigned role. Similarly, it is the Lord who properly places and establishes every person in His Church according to the person’s work, ministry, and assigned place in the Church. This decision is not taken by any Christian Believer, nor by any other person, or Elder, or Official, or by any Denomination, Organization, or Institution. It is only the Lord, and Lord alone who determines and implements this.
The second point is that in this statement, the Lord uses the future tense “will build”; when the Lord had said this, at that time the Church had not come into existence, it still had to be built. It takes time and effort to build anything, and a process has to be followed to bring it into the final shape, and its completion. The Church began with the preaching of Peter in Acts 2, and the response of the devout Jews gathered in Jerusalem, on hearing the sermon. We have already seen earlier that from that time onwards, the Lord Himself kept adding people to His Church. Even today, this process of adding to the Church is continuing, and the Lord is still building His Church. Also bear in mind, that every person that the Lord adds, gets added by the person’s being saved or being Born-Again. With being saved or Born-Again, a person enters into the fellowship of the Lord as a spiritual neonate, passes through various experiences and learns many things, gradually maturing and growing spiritually, being cut, trimmed, molded, and polished to take his assigned place in the Church. That is why, in the Church - local as well as universal, we still have Christian Believers in various stages of maturity and spiritual growth; the Lord is still at work in them, preparing them for their appointed place in the Church. That is why it is said that the Church has not been completed yet; it is still “under construction.” for this reason, in the Lord’s Church we still get to see some faults, shortcomings, things that need to be corrected, an incompleteness. The Lord is still building it, and whatever has been built, is making it without spot or wrinkle as well, so that in its completed form, the Church will stand by His side as His glorious, holy, blemish less bride (Ephesians 5:27).
An excellent example of this process is the first temple built by Solomon for the worship of the Lord. It has been written about the construction process of this Temple that “And the temple, when it was being built, was built with stone finished at the quarry, so that no hammer or chisel or any iron tool was heard in the temple while it was being built” (1 Kings 6:7). Take note of the things said in this verse. The stones that were used for the building of this temple, after being taken out of the quarry and before being put in their place in the temple, were taken to a place where they were cut, trimmed, polished and given the size, shape, and appearance required for their place in the temple. Once they were ready for being placed in the temple at their proper place, then they were brought and fitted into their place. Every stone had its assigned place, and according to that place, it was cut, trimmed, prepared, and made ready. No other stone could take its place, nor could the stone take the place of any other stone; nor did the stone decide in which place it would like to be placed and fit in. According to the plan and design of the master-builder, every stone was placed in its pre-determined location. There was another very astounding and wonderful thing that was happening, mentioned here; each prepared and ready stone was just brought and fit into place, there was no need to trim and finely cut or prepare it again to take its place and settle in with the other stones at that location. It is written that in the temple there was no sound heard of any instruments being used. Similarly, the Lord too, in this world, through our situations, experiences and circumstances is cutting, trimming, molding, and polishing us, preparing us to take our pre-determined place in the Church. He does this work in His secured place, in His Church, where we are constantly under His observation and are being worked upon, under His supervision by His appointed ministers. When we are finally ready and prepared for our pre-determined place, the Lord takes and places us there. In this manner, this temple, this Church is still under construction, he is still building it.
Think it over, in the quarry, from where the stones were cut, there must have been various stones of different sizes and shapes; but every stone was not appropriate for being used in the temple. Only those stones that were appropriate for being used in the temple, were then taken to be cut, trimmed, polished, and prepared to place in the temple. The Lord too uses only those people to build His Church, who are actually worthy of His Church, i.e., those who have actually accepted Him as the Messiah, the “one and only savior of the world” have come into faith in Him, and have lived a life of obedience to Him and His Word. Anyone else, who has joined himself to the Lord’s Church through any other means, on any other basis or criteria, will be rejected, sent out into eternal destruction. Pay heed to the parable of Matthew 13:24-30; the tares received the care of the landlord, they too got the manure, water, protection from birds and animals, etc., but none of this made them accepted by the landlord. They had been identified and kept for destruction from the beginning, and that is where they were eventually sent. Similarly, in the Church of the Lord, all those who are not according to the standards and criteria of the Lord, they may consider themselves safe and secure for now, may think that they are accepted by the Lord, but eventually at the end, they will be cast out and sent to destruction. They will never be a part of the heavenly temple, the Church of God.
If you are a Christian Believer, then examine yourself and make sure that you actually are a saved and Born-Again Believer, as per the criteria and the standards of the Lord Jesus, and have come into the Church not through any other mechanism or way, but by the one and only way of repentance and forgiveness of sins from the Lord, as given by the Lord. The tares growing in that field did not have the power or ability to change their eternal destiny; but you have the opportunity and the ability to receive the Lord’s forgiveness and come to faith in Him, join Him in His prescribed manner. Do a proper evaluation now, and rectify that which needs to be rectified, while you still can do it. Do it now, lest somehow if you do not have the opportunity, time, or ability to do it later, you may not have to cut a sorry figure and face eternal destruction. Secondly, after you become a part of the Church of the Lord Jesus, He will cut, trim, mold, and polish you to prepare you for your assigned place in the Church. This process is painful for sure; but is necessary, and by it many vain and redundant things in our lives are taken away, things that impede our spiritual growth and maturity. Do not think this to be something unexpected or inappropriate (Acts 14:22; 2 Timothy 3:12; Hebrews 12:5-12; 1 Peter 4:1-2, 12-19); this is an integral and essential part of the process to build us up for our place in the Church.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 5-6
Ephesians 1