व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? - 2
मनुष्य के असमर्थ होने के कारण (भाग 2)
पिछले लेख से हमने देखना आरम्भ किया है की क्यों परमेश्वर की व्यवस्था मनुष्य का उद्धार नहीं कर सकती है। मूलतः, इसके दो कारण है; पहला है कि मनुष्य व्यवस्था का पालन करने में असमर्थ है; और दूसरा है कि व्यवस्था का उद्देश्य कभी भी उद्धार का मार्ग होने का नहीं था। हमने मनुष्य के असमर्थ होने के बारे में देखना आरंभ किया है, और देखा है कि किस प्रकार से परमेश्वर ने अपने विषय मनुष्य के साथ संपर्क को बनाए रखा है; उसने एक विशेष जाति को भी चुना, किन्तु औरों को अपने से दूर नहीं किया, उन्हें भी उसके निकट आने के अवसर प्रदान, उनके लिए द्वार को खुला छोड़ा। आज हम इन बातों के बारे में थोड़ा सा और देखेंगे, और देखेंगे की ऐसे या वैसे, अन्ततः परिणाम वही रहा – मनुष्य व्यवस्था का पालन करने में असमर्थ ही रहा।
जैसे परमेश्वर ने इस्राएलियों के हाथों में अपनी व्यवस्था दी, वैसे ही संसार के सभी लोगों के सामने परमेश्वर ने अपने विषय सृष्टि में प्रमाण भी रखे (रोमियों 1:20 भजन 19:1-4), और संसार के लोगों को उन बातों को देखने और समझने की सामर्थ्य भी दी, जैसे पूर्व से लोग आकाश के चिह्नों से प्रभु यीशु मसीह के जन्म की बात समझकर उसे देखने के लिए आए थे (मत्ती 2:2)।
इन सभी बातों के द्वारा परमेश्वर संसार को प्रभु यीशु मसीह के लिए और अंततः प्रभु द्वारा किए जाने वाले न्याय का सामना करने के लिए तैयार कर रहा था। परमेश्वर ने मनुष्य को उसके व्यवहार के इतिहास से दिखा दिया कि वह अपने प्रयासों और कार्यों द्वारा धर्मी होने के लिए कितना अक्षम है।
हव्वा ने वर्जित फल खाने के द्वारा परमेश्वर के समान होने, भले और बुरे का ज्ञान रखने, के मंसूबे बनाए थे। परमेश्वर ने आदम, हव्वा और उनकी संतानों को लगभग 4000 वर्ष का समय देने के द्वारा दिखा दिया कि उस ज्ञान को पा लेने के बाद भी वे शैतान के सामने कितने दुर्बल और अयोग्य हैं, अपने बल, बुद्धि, और ज्ञान से कदापि उसका सामना नहीं कर सकते हैं, न उसपर विजयी हो सकते हैं।
कुल मिलाकर निष्कर्ष एक ही है, चाहे परमेश्वर मनुष्यों को अपनी व्यवस्था, याजक, देखरेख, और सुरक्षा प्रदान करे; या चाहे मनुष्यों को धर्मी बनने के लिए उनकी अपनी बुद्धि, समझ, कल्पनाओं और मन-गढ़न्त योजनाओं पर छोड़ दे; परिणाम एक ही है। जैसा हमने इस शृंखला के आरंभिक लेख में देखा था, अपने किसी भी प्रयास या कार्य से मनुष्य अपने आप से किसी भी रीति से भला, धर्मी, और पवित्र नहीं हो सकता है।
मनुष्य की अज्ञानता यही है कि यद्यपि वह शैतान और उसकी युक्तियों के सामने असमर्थ है; यद्यपि वह अपने प्रयासों और कर्मों के द्वारा कभी भी, किसी भी प्रकार से, शैतान की बातों पर विजयी हो पाने के लिए अक्षम है, फिर भी इनके लिए वह परमेश्वर द्वारा उसे दी जाने वाली सहायता को स्वीकार करने की बजाए, विभिन्न प्रकार के अपने ही व्यर्थ प्रयास करता ही रहता है। मनुष्य, बजाए इसके कि परमेश्वर और उसकी बुद्धिमत्ता पर भरोसा रख कर काम करे, वह अपने ही ज्ञान, समझ, और कार्यों पर अधिक भरोसा रखता है, और इसी लिए शैतान के फंदों से निकलने नहीं पाता है।
यह एक प्रकट तथ्य है कि अदन की वाटिका में किए गए पहले पाप से लेकर, आज तक; सब कुछ जानते, देखते, पहचानते, और समझते हुए भी, यहाँ तक कि उद्धार पाने के बाद और परमेश्वर के वचन को जानने के बाद भी, मनुष्य बारंबार, और बहुत बार न चाहते हुए भी, शैतान की युक्तियों में फंस जाता है और पाप में गिर जाता है। क्यों शैतान इतनी सरलता से मनुष्यों पर हावी हो जाता है, क्यों मनुष्य अपने आप से शैतान का सफलता से सामना नहीं करने पाता है, और यह उसकी अज्ञानता क्यों है, इन बातों को हम आगे के लेखों में देखेंगे। अभी के लिए हमें इस बात पर ध्यान करना है कि अब उनके पापों से उन्हें छुड़ाने वाले सारे जगत के उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु मसीह, के आ जाने के बाद, परमेश्वर उनके इसी अज्ञानता के समय के व्यवहार की अनदेखी करके, उन्हें पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार करने के लिए आज्ञा दे रहा है। जो इस पश्चाताप और प्रभु में विश्वास में नहीं आएंगे, वे फिर नाश हो जाएंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 2
Because of Man’s Incapability (Part 2)
Since the previous article we have begun to see why God’s Law cannot save man. Basically, there are two reasons; first is man’s incapability to obey the Law; and second is that the purpose of the Law never was its being a means to save. We have started to see about man’s incapability to obey the Law, and had seen how God kept communicating with man about Himself; His choosing a special people for Himself, but also not distancing Himself from the others, providing them with opportunities and leaving the door open for them to come to Him. Today, we will see some more about these issues, and see that one way or another, the net result remains the same – man remains incapable of obeying the Law.
Just as God put his Law into the hands of the Israelites, so God also placed evidence of Himself in His creation for all the people of the world to see and recognize Him (Romans 1:20; Psalm 19:1-4). And He gave to the people of the world the ability to see and understand those things; e.g., as people from the east had come at the birth of the Lord Jesus Christ, having seen and understood by the signs in heaven (Matthew 2:2).
Through all these things, God was preparing the world to receive the Lord Jesus Christ and ultimately the Lord's judgment. God showed man through the history of his behavior how incapable he is to be righteous by his own efforts and actions.
Eve, by eating the forbidden fruit, had plans to be wise like God, through gaining the knowledge of good and evil. God showed Adam, Eve, and their descendants by giving Adam, Eve, and their descendants about 4000 years of time, that even after gaining that knowledge, with their strength, knowledge, and wisdom there was no way they could not face Satan; He demonstrated to them how weak and unworthy they were, incapable of being victorious over Satan on their own.
The overall the conclusion, in either case is the same. Whether God provides His Law, Priests, care, and protection to humans; Or whether He leaves men to their devices, to their own wisdom, understanding, fantasies and concocted plans to become righteous; the net result is the same. As we saw in the opening article of this series, by no means can a man become good, righteous, and holy by his own efforts.
The ignorance of man is that although he is incapable of successfully facing the devil and his devices, although man is incapable of ever, in any way, overcoming the deviousness of Satan by his own efforts and deeds, yet instead of accepting the help that God gives him for these, he chooses to take recourse to various forms of his own methods and foolishness, perceiving it as his wisdom and ability. Rather than to trust in God, he keeps on trying in vain to win over Satan through his own wisdom, knowledge, understanding, and deeds, and is therefore, unable to escape Satan's snares.
It is an evident fact that from the first sin committed in the Garden of Eden, to the present day; despite knowing, seeing, recognizing, and understanding everything; so much so that even after being saved and knowing the Word of God, man repeatedly, and many times unwillingly, falls because of Satan's devices into sin. Why does Satan so easily dominate humans, why is man not able to successfully face Satan on his own, and why this ignorance in him; we will see these things in the following articles. For now, what we have to note and ponder upon is that with the coming of the Lord Jesus Christ, the Savior of all the world, the one who redeems them from their sins; God, is willing to forgive the ignorant behavior of men, and therefore, is commanding them to repent and accept the Lord Jesus as Savior. Those who will not come to this repentance and faith in the Lord will perish.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.