एक दुखदायी वर्ष में एक के बाद एक करके मेरे तीन मित्रों की मृत्यु हो गई। पहले दो मित्रों की मृत्यु ने भी मुझे तीसरे मित्र की मृत्यु के आघात को झेलेने के लिये तैयार नहीं किया। मैं रोने के सिवाय कुछ नहीं कर सका।
मुझे एक अजीब सी शांति मिलती है यह जान कर कि जब यीशु ने दुख का सामना किया तो उसकी प्रतिक्रिया भी मेरी प्रतिक्रिया के समान ही थी। मुझे इससे सांत्वना मिलती है कि जब यीशु का मित्र लाज़र मरा तो यीशु रोया (युहन्ना ११:३२-३६)। यह इस बात का भी सूचक है कि जब मेरे मित्रों की मृत्यु हुई तो परमेश्वर ने कैसा अनुभव किया होगा, क्योंकि वह भी उनसे प्रेम करता था।
अपने क्रूस पर चढ़ाये जाने से पहले गत्सम्ने के बाग़ में, यीशु ने यह प्रार्थना नहीं की, "हे प्रभु मैं तेरा बहुत आभारी हूँ कि तू ने मुझे अपने निमित कष्ट उठाने को चुना है।" नहीं, ऐसा नहीं, वरन किसी भी साधारण मनुष्य की तरह उसने ऐसी परिस्थिती में स्वभविक रूप से होने वाले दुख, भय, अकेलेपन और घोर निराशा को अनुभव किया। इब्रानियों का लेखक कहता है, "(यीशु ने) ऊंचे शब्द से पुकार पुकार कर और आंसु बहा बहा कर उससे जो उसे मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थनाएं और विनती की" (इब्रानियों ५:७), परन्तु वह मृत्यु से बचा नहीं।
जब हम उसके क्रूस पर कहे गए भजन के गंभीर पद "हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?" (भजन २२:१, मरकुस १५:३४) को पढ़ते हैं तो प्रतीत होता है कि यीशु भी शायद उसी प्रश्न का सामना कर रहा था जिसका हम करते हैं - "क्या परमेश्वर को मेरी चिन्ता है?"
लेकिन यीशु का वह भारी दुख एक अलौकिक शांति के साथ झेलना इस बात का प्रमाण है कि उसे अपने पिता पर पूरा भरोसा था कि हालात चाहे जैसे भी हों, परमेश्वर का प्रेम कभी न बदलने वाला और स्थिर प्रेम है। उसने इस विश्वास को प्रमाणित करके दिखाया कि इस प्रश्न "क्या परमेश्वर को मेरी चिन्ता है?" का केवल एक ही उत्तर है "हाँ, अवश्य है।" - फिलिप यैन्सी
(यीशु) बहुत अधीर और व्याकुल होने लगा। और उसने कहा: मेरा मन बहुत उदास है, यहाँ तक कि मैं मरने पर हूँ। - मरकुस १४:३३, ३४
एक साल में बाइबल:
मुझे एक अजीब सी शांति मिलती है यह जान कर कि जब यीशु ने दुख का सामना किया तो उसकी प्रतिक्रिया भी मेरी प्रतिक्रिया के समान ही थी। मुझे इससे सांत्वना मिलती है कि जब यीशु का मित्र लाज़र मरा तो यीशु रोया (युहन्ना ११:३२-३६)। यह इस बात का भी सूचक है कि जब मेरे मित्रों की मृत्यु हुई तो परमेश्वर ने कैसा अनुभव किया होगा, क्योंकि वह भी उनसे प्रेम करता था।
अपने क्रूस पर चढ़ाये जाने से पहले गत्सम्ने के बाग़ में, यीशु ने यह प्रार्थना नहीं की, "हे प्रभु मैं तेरा बहुत आभारी हूँ कि तू ने मुझे अपने निमित कष्ट उठाने को चुना है।" नहीं, ऐसा नहीं, वरन किसी भी साधारण मनुष्य की तरह उसने ऐसी परिस्थिती में स्वभविक रूप से होने वाले दुख, भय, अकेलेपन और घोर निराशा को अनुभव किया। इब्रानियों का लेखक कहता है, "(यीशु ने) ऊंचे शब्द से पुकार पुकार कर और आंसु बहा बहा कर उससे जो उसे मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थनाएं और विनती की" (इब्रानियों ५:७), परन्तु वह मृत्यु से बचा नहीं।
जब हम उसके क्रूस पर कहे गए भजन के गंभीर पद "हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?" (भजन २२:१, मरकुस १५:३४) को पढ़ते हैं तो प्रतीत होता है कि यीशु भी शायद उसी प्रश्न का सामना कर रहा था जिसका हम करते हैं - "क्या परमेश्वर को मेरी चिन्ता है?"
लेकिन यीशु का वह भारी दुख एक अलौकिक शांति के साथ झेलना इस बात का प्रमाण है कि उसे अपने पिता पर पूरा भरोसा था कि हालात चाहे जैसे भी हों, परमेश्वर का प्रेम कभी न बदलने वाला और स्थिर प्रेम है। उसने इस विश्वास को प्रमाणित करके दिखाया कि इस प्रश्न "क्या परमेश्वर को मेरी चिन्ता है?" का केवल एक ही उत्तर है "हाँ, अवश्य है।" - फिलिप यैन्सी
जब हम विश्वास करेंगे कि परमेश्वर का हाथ हर बात में है, तब हम हर बात परमेश्वर के हाथ में सौंप सकेंगे।
बाइबल पाठ: मरकुस १४:३२-४२(यीशु) बहुत अधीर और व्याकुल होने लगा। और उसने कहा: मेरा मन बहुत उदास है, यहाँ तक कि मैं मरने पर हूँ। - मरकुस १४:३३, ३४
एक साल में बाइबल:
- न्यायियों ११, १२
- लूका ६:१-२६