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मसीही विश्वासी द्वारा प्रचार - क्या और कैसे?
प्रभु यीशु मसीह का, मरकुस 3:14-15 में, अपने शिष्यों के लिए दूसरा प्रयोजन था “वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें”, और हमने इसके तीसरे भाग, शिष्य “प्रचार करें” को पिछले लेख में देखना आरंभ किया। अपने स्वर्गारोहण के समय प्रभु ने अपने शिष्यों को प्रचार करने के बारे में जो निर्देश दिए, वे हमें मत्ती 28:18-20, मरकुस 16:15-19, और प्रेरितों 1:8 में मिलते हैं। इन तीनों खण्डों में दिए गए प्रभु के निर्देशों के अनुसार प्रचार का कार्य करने से, बहुत विरोध, कठिनाइयों, और बाधाओं के बावजूद वे शिष्य सुसमाचार प्रचार बहुत प्रभावी और सफल रीति से कर सके, जिससे दो दशक के भीतर ही उनके लिए ये कहा जाने लगा कि “...ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया है...” (प्रेरितों 17:6)। अर्थात, प्रभु द्वारा उन्हें दिए गए इन निर्देशों में वह सामर्थी कुंजी है, जो संसार भर में प्रभावी और सफल सुसमाचार प्रचार का मार्ग बताती है। आज हम अनेकों प्रकार के आधुनिक साधन और सहूलियतों के होने बावजूद, अपने मानवीय तरीकों से उतना प्रभावी और सफल सुसमाचार प्रचार नहीं करने पाते हैं, जितना उन आरंभिक दिनों में उन शिष्यों ने कर दिखाया था। यद्यपि सुसमाचार प्रचार से संबंधित बहुत सी शिक्षाएं प्रेरितों के काम की पूरी पुस्तक और नए नियम की अन्य पत्रियों में दी गई हैं, हम यहाँ पर केवल प्रभु के स्वर्गारोहण से संबंधित उपरोक्त तीनों खंडों में प्रभु द्वारा दिए गए इन निर्देशों में क्या विशेष था, जिससे वे शिष्य इतने प्रभावी हो सके, केवल उसे ही देखेंगे। ने नियम में अन्य स्थानाओं पर दी गईं सुसमाचार प्रचार की सेवकाई से संबंधित बातें या तो प्रभु द्वारा दी गई इन शिक्षाओं का व्यावहारिक प्रयोग दिखाती हैं, या इन मूल शिक्षाओं के उपयोग और समझ में हुई त्रुटि एवं उन्हें लागू करने से बातों से संबंधित हैं। इसलिए, हमारे द्वारा प्रभु की बातों पर ध्यान केंद्रित करने से हम एक प्रभावी और सफल मसीही सेवकाई के मूल सिद्धांतों को समझने और सीखने पाएंगे। ये सिद्धांत और मूल शिक्षाएं हैं:
प्रभु ने ये निर्देश अपने प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्यों को दिए थे। अर्थात, यह कार्य यरूशलेम से आरंभ कर के सारे संसार भर में (प्रेरितों 1:8), उनके द्वारा किए जाने के लिए था जिन्होंने सच्चे मन से प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया था, और उसके कहे को करने के लिए प्रतिबद्ध थे। ये शिष्य प्रभु द्वारा इस कार्य के लिए तैयार किए तथा प्रभु के अधिकार (मत्ती 28:18) के साथ भेजे गए थे; किसी मनुष्य अथवा मानवीय विधि के द्वारा नहीं। सुसमाचार प्रचार के लिए इनकी योग्यता किसे कॉलेज अथवा सेमनरी से मिली डिग्री नहीं, वरन प्रभु की शिष्यता थी। उन शिष्यों ने यह कार्य अपने प्रभु के लिए किया था, न कि किसी नौकरी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। उन्होंने यह प्रचार प्रभु के कहे के अनुसार, उसकी आज्ञाकारिता में, उसे प्रसन्न करने के लिए किया था, न कि किसी मत (denomination) या समुदाय की मान्यताओं के अनुसार अथवा उसके अधिकारियों की संतुष्टि के लिए।
उन शिष्यों को न तो किसी धर्म का प्रचार करना था, न ही किसी का धर्म परिवर्तन करना था, और न ही प्रभु को स्वीकार करने के लिए किसी भी प्रकार के भौतिक, सांसारिक, अथवा शारीरिक लाभ या प्रतिफलों का लालच लोगों के सामने रखना था। उन्हें प्रभु यीशु के कहे के अनुसार मसीह यीशु के शिष्य बनाने थे, और फिर जो स्वेच्छा से शिष्य बन जाए, उसे बपतिस्मा देना था और प्रभु की बातें सिखानी थीं (मत्ती 28:19-20); यह सभी प्रचारकों और उपदेशकों के लिए जाँचने की बात है कि क्या वे प्रभु द्वारा दिए गए इस क्रम और निर्देश का पालन कर रहे हैं? उन्हें लोगों को लुभाना नहीं था, न ही कोई ऐसे आश्वासन देने थे जिनका प्रभु ने न तो कोई उल्लेख किया और न ही कोई निर्देश दिया।
उनके द्वारा सुसमाचार प्रचार पापों के पश्चाताप के आह्वान के साथ होना था न कि सांसारिक बातों और भौतिक सुख-समृद्धि तथा शारीरिक चंगाइयों के प्रलोभन देने के द्वारा। न ही उन्हें किसी अन्य के धर्म या विश्वास को नीचा दिखाने, उसकी आलोचना करने के लिए कहा गया था; उन्हें केवल अपने व्यक्तिगत जीवन और व्यवहार एवं वार्तालाप से प्रभु यीशु मसीह और उसके कार्य को संसार के लोगों के सामने ऊंचे पर उठाना था, शेष कार्य परमेश्वर पवित्र आत्मा ने करना था।
क्योंकि ये शिष्य प्रभु के अधिकार के साथ, और प्रभु के निर्देशों के अंतर्गत, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के साथ सुसमाचार प्रचार के लिए भेजे गए थे, इसलिए आवश्यकता के अनुसार, उनके प्रचार के दौरान, उनके प्रचार के साथ ही उनके द्वारा ईश्वरीय सामर्थ्य के कार्य भी हो जाने, और खतरों में भी प्रभु द्वारा सुरक्षित रखे जाने का आश्वासन उनके साथ था (मरकुस 16:15-18)। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि प्रभु ने उन्हें आश्चर्यकर्म करके लोगों को प्रभावित करने और लुभाने, इन बातों के द्वारा अपने नाम को ऊंचा दिखाने के लिए नहीं भेजा था। जैसे प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दौरान था, वैसे ही उन शिष्यों का प्राथमिक कार्य सुसमाचार प्रचार था। जैसे प्रभु ने आश्चर्यकर्म सुसमाचार प्रचार के दौरान आवश्यकतानुसार किए, उसी प्रकार इन शिष्यों को भी करना था। न प्रभु ने आश्चर्यकर्मों को लोगों को आकर्षित करने के लिए प्रयोग किया, और न ही इन शिष्यों को ऐसा करना था। तात्पर्य यह कि अद्भुत काम और आश्चर्यकर्म प्राथमिक नहीं थे; सुसमाचार और पापों से पश्चाताप करना तथा उद्धार पाना प्राथमिक था; यही करना था, और शेष बातें समय और आवश्यकता के अनुसार स्वतः ही होनी थीं।
आज लोग सच्चे सुसमाचार के प्रचार में बहुत कम, और प्रभु यीशु मसीह के नाम में अपने मत या समुदाय की बातों के प्रचार में, या सांसारिक बातों, भौतिक समृद्धि, और शारीरिक चंगाइयों के प्रचार और प्रदर्शन में बहुत अधिक लगे हुए हैं। आज के प्रचारक प्रभु यीशु को प्रसन्न करने की बजाए, अपने द्वारा किए गए कार्यों के आँकड़े (statistics) अपने अधिकारियों और संसार के लोगों के सामने रखने में अधिक रुचि रखते हैं। हम जगत के अंतिम दिनों में रह रहे हैं; प्रभु यीशु मसीह ने कहा था, “...देखो, मैं तुम से कहता हूं, अपनी आंखे उठा कर खेतों पर दृष्टि डालो, कि वे कटनी के लिये पक चुके हैं” (यूहन्ना 4:35); “...पके खेत बहुत हैं; परन्तु मजदूर थोड़े हैं: इसलिये खेत के स्वामी से बिनती करो, कि वह अपने खेत काटने को मजदूर भेज दे” (लूका 10:2)। आज प्रभु यीशु मसीह को किसी मत या समुदाय की नौकरी करने वाले प्रचारकों की नहीं, उसका शिष्य बनकर सच्चे समर्पण और आज्ञाकारिता तथा प्रतिबद्धता के साथ सुसमाचार प्रचार करने वालों की बहुत आवश्यकता है। क्या आप प्रभु के लिए यह निर्णय करेंगे, और अपने आप को उसकी सेवकाई के लिए समर्पित करेंगे?
जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 1-3
प्रेरितों 17:1-15
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Christian Disciple – Preach What & How?
The second purpose of the Lord Jesus for His disciples was that they go out to preach, as and when He asks them, and wherever He sends them for it. We had started to study this aspect of the second purpose - preaching, in the last article. The instructions the Lord Jesus gave to His disciples for their ministry all over the world at the time of His ascension, are given in Matthew 28:18-20, Mark 16:15-19, and Acts 1:8. Although the disciples faced many problems, persecutions, and opposition in preaching the gospel, but by following the principles the Lord had given to them in these three passages, they could very successfully and effectively carry out their ministry, so much so that within two decades of their working for the Lord, it was said of them “...These who have turned the world upside down…” (Acts 17:6). The implication is clear; in these instructions given by the Lord Jesus are the key to the effective and successful preaching of the gospel. Today, despite our numerous technological resources and conveniences, we are unable to as effectively and successfully preach and teach the gospel of salvation, as those initial disciples could. The reason is nowadays we resort to humanly devised means and methods of preaching, use products of man’s wisdom and understanding; whereas those disciples used the Lord given means and methods of spreading the gospel, and came out winners.
Although many teachings about gospel preaching and teaching are given in the Book of Acts and in the Epistles of the New Testament, but here we will only look into the teachings given by the Lord Jesus at the time of His ascension, in the above mentioned three passages; those disciples could carry out their effective and successful ministry by following those instructions from the Lord. The other teachings given at other places in the New Testament are about the application of the principles of the Lord’s teachings, and about correcting the errors and misinterpretations of the Lord’s teachings. Hence our concentrating upon the Lord’s teachings will give us the insight required for an effective Christian ministry of spreading the gospel. These principles and fundamental teachings are:
The Lord had given these instructions and the responsibility of taking the gospel to the ends of the earth to His disciples - i.e., those who were surrendered and committed to Him. This ministry was to be carried out to the ends of the earth (Acts 1:8), by those who had truly and sincerely accepted the Lord Jesus as their Lord and Savior, those who were willing and committed to doing the Lord’s bidding at all costs. These disciples had been taught and prepared by the Lord Jesus for this ministry and were sent by Him with His authority (Matthew 28:20). They were not chosen and trained by any man-made process, neither were given this task by virtue of any educational qualification or degree they may have earned, nor were they sent with any human authority behind them. That is to say, they were neither working for a salary, nor for or under any human institution or organization, and their accountability was to the Lord. They preached and taught the actual and true Gospel of Salvation in the Lord Jesus, and not its interpretation by any denomination or sect or group along with the beliefs and doctrines of that denominations sect or group mixed into the Gospel of the Lord Jesus. They went out and preached the gospel to please the Lord and fulfill His instructions to them, and not to work for or please any human authority.
These disciples were not asked to preach about any religion, nor were they asked by the Lord to indulge in any religious conversions, nor offer any worldly or physical or personal benefits and inducements as a reward for accepting the Lord. They, as per the instructions of the Lord, were to “make disciples” - disciples of the Lord Jesus. Those, who willingly and voluntarily accepted to become the disciples of the Lord Jesus, they were to be baptized and taught the teachings of the Lord Jesus (Matthew 28:19-20). This is something that every preacher and teacher in Christian ministry should ponder over and consider in his ministry - are they actually practicing what the Lord has instructed, and in the manner and sequence instructed by the Lord? Or, are they using various inducements to attract people to the Lord for the sake of presenting statistics to their authorities; are they guilty of using means and methods not ever spoken of by the Lord for His ministry, to be man-pleasers rather than be God pleasers?
The disciples of the Lord Jesus were to preach the gospel with a call to repentance of sins, i.e., an acknowledgement of personal sins by the person accepting the Lord. The call to accept the gospel was never to be for the sake of worldly prosperity, physical healings, and other similar temporal benefits. Neither did the Lord ever do it himself, nor did He ever instruct the disciples to criticize and demean any other religion or faith, and use that criticism as a means to be presenting a better or superior alternative. The disciples, by their lives, behavior, and words, had to exalt the Lord Jesus and His work of salvation before the people of the world, so that the people could see, examine, and be convinced of the changed lives of the disciples; the rest was for the Holy Spirit to do.
Since these disciples were sent under the authority and instructions of the Lord, after having received the power of the Holy Spirit, therefore, as per the needs and requirements of the situation, it was the Lord’s assurance to them that during their ministry miraculous works could also be accomplished through them and the Lord would also keep them safe (Mark 16:15-18). Here, it is very important to note and understand that the Lord had not sent them out to do miraculous works and impress people by them, and through these things to try and exalt the name of the Lord Jesus. As was during the days of the earthly ministry of the Lord, the primary purpose of the disciples was to preach the gospel. As the Lord did miracles during His ministry of preaching the gospel, according to the need of the hour, similarly these disciples too had to primarily preach the gospel, and as per the need, the Lord would do miraculous works through them as well. Neither did the Lord ever use His miracles to attract people to Himself or His message, nor were these disciples meant to use the Lord’s power to do miracles through them to attract people to the Lord. The point is, that in Christian ministry of the gospel, miraculous and wondrous works are never ever the primary thing; only repentance of sins, accepting the gospel, believing in the Lord Jesus is the primary thing, the main issue; all the rest would automatically follow as per the need of the hour and the situation at hand.
Today people very rarely practice the preaching of the gospel as actually instructed by the Lord in His Word the Bible. Instead, their preaching is more in accordance with the teachings and opinions of their denominations or sects or groups. Also, many people give the primary place to worldly prosperity, physical things, healings, etc. in their ministry, and try to attract people through them. Today, most preachers are more worried about pleasing their worldly authorities through their records and statistics of various kinds, instead of being concerned about pleasing the Lord Jesus, in whose name they claim to be doing these things. We are living in the last days; the Lord Jesus had said, “...Behold, I say to you, lift up your eyes and look at the fields, for they are already white for harvest!” (John 4:35); and “...The harvest truly is great, but the laborers are few; therefore, pray the Lord of the harvest to send out laborers into His harvest” (Luke 10:2). Today the Lord Jesus does not need preachers to preach according to the opinions and understanding of any denomination or sect or group; but He needs those who with a true commitment and surrender to Him will go out to preach the true gospel as He wants them to preach, when and where he asks them to preach. Will you decide in favor of the Lord and take this step of commitment and surrender yourself to Him for His ministry to be done the way He wants it done? Where there is the obedience and submission to the Lord, where His Word is honored and obeyed, His security and blessings are also there.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 1-3
Acts 17:1-15