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रविवार, 25 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 40a – Desire the Best Gifts / बड़े वरदानों की धुन Part - 1


बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो” (1 कुरिन्थियों 12:31) को समझना - भाग 1

 

परमेश्वर पवित्र आत्मा चाहता है कि सभी मसीही विश्वासी उसके द्वारा दिए जाने वाले आत्मिक वरदानों के बारे में सही समझ सीखें और रखें। परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित सेवकाई के अनुसार प्रत्येक मसीही विश्वासी को पवित्र आत्मा के द्वारा उपयुक्त आत्मिक वरदान दिए जाते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में न तो कोई सेवकाई छोटी अथवा बड़ी है, और न ही कोई आत्मिक वरदान बड़ा या प्रमुख, अथवा, छोटा या गौण है। इस प्रकार की भिन्नता या भेदभाव करना मनुष्य की प्रवृत्ति एवं भावना है, परमेश्वर की नहीं। यहाँ पर 1 कुरिन्थियों 12:31 के आधार पर वरदानों को बड़ा या छोटा कहने से पहले, इस पद को उसके संदर्भ में सही रीति से समझना आवश्यक है।


इससे पहले के खण्ड, 1 कुरिन्थियों 12:12-27, में पौलुस ने शरीर को रूपक के समान प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष दिया कि जिस प्रकार देह के सभी अंग देह के लिए समान महत्व के और उसकी कार्य-क्षमता तथा कुशलता के लिए अपने-अपने स्थान पर आवश्यक हैं, कोई अंग कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण, या बड़ा अथवा छोटा नहीं है, उसी प्रकार मण्डली में भी सभी मसीही विश्वासी, अपने भिन्न-भिन्न वरदानों और कार्यों के साथ, प्रभु की मण्डली रूपी देह के लिए समान महत्व रखते हैं, न तो कोई मसीही विश्वासी, न उसकी सेवकाई, न उसके वरदान, औरों की तुलना में बड़े अथवा छोटे, या कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण है, सभी समान हैं। फिर इसके बाद पद 28 में पौलुस उस मण्डली रूपी एक देह में विभिन्न जिम्मेदारियों और कार्यों का उल्लेख करता है, और उन्हें क्रमवार बताते हुए उनकी क्रम-संख्या भी बताता है। किन्तु यह क्रम संख्या उन सेवकाइयों और वरदानों को अधिक या कम महत्वपूर्ण दिखाने के उद्देश्य से नहीं हैं, बल्कि अधिक उपयोग में लाई जाने वाली सेवकाई और उसके वरदान को पहले रखा गया है, और कम उपयोग में लाई जाने वाली सेवकाई एवं उसके वरदान को बाद में रखा गया, यद्यपि सभी समान स्तर के हैं। फिर पद 29-30 में पौलुस आलंकारिक प्रश्नों के द्वारा यह दिखाता है कि हर किसी को एक ही, या सारी ज़िम्मेदारियाँ नहीं दी गई हैं; सभी को अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभानी है। और तब पद 31 में उसके द्वारा “बड़े से बड़े वरदान” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है। इस पद को अन्य पदों के साथ, उसके संदर्भ में देखने से यह प्रकट हो जाता है कि “बड़े से बड़े” से अभिप्राय स्तर अथवा प्रमुख होने में बड़े नहीं, वरन अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी वाले वरदान के लिए है।


अर्थात पौलुस में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों को यह बता रहा है कि मसीही मण्डली में अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी उठाने वाले, यानि कि प्रभु के लिए अधिक से अधिक उपयोग में आने वाले व्यक्ति होने की धुन में रहो या लालसा रखो। यदि इसे वरदानों और सेवकाइयों में परस्पर तुलना में बड़े-छोटे के लिए समझा जाए तो फिर पद 12-27 में दी गई चर्चा व्यर्थ है; फिर तो प्रभु की मण्डली रूपी देह में सभी समान महत्व के नहीं हैं, और पवित्र आत्मा ने बड़े या छोटे आत्मिक वरदान देने के द्वारा भेद-भाव किया है। और यह बात परमेश्वर के स्वरूप और वचन की शिक्षाओं के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाती है, इसलिए स्वीकार्य भी नहीं है। वरन, यदि वरदानों और सेवकाइयों के बड़े या छोटे होने की व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाए, तो यह फिर कलीसिया में उच्च स्तर के वरदानों के सन्दर्भ में ‘जिनके पास है’ और ‘जिनके पास नहीं है’ के आधार पर विभाजन को उत्पन्न करता है; और यह बाइबल के बाहर की गलत शिक्षाओं और सिद्धांतों का परिणाम है। हम अगले लेख में इसके बारे में चर्चा को ज़ारी रखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


-  क्रमशः


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Understanding “But earnestly desire the best gifts” (1 Corinthians 12:31) - Part 1 


God the Holy Spirit wants that all Christian Believers should learn and have a correct understanding about the gifts that He gives. For help in carrying out the God assigned works and ministry, every Believer is given gifts appropriate to the need by the Holy Spirit. In God’s eyes, no ministry is small or big, nor of greater or lesser importance; and no spiritual gift is of greater or lesser importance. Thinking in terms of such differentiation is man’s tendency, not God’s. Here, before anyone calls the gifts greater or lesser on the basis of 1 Corinthians 12:31 - a verse that is often misused to support this concept, it is essential to understand this verse properly and in its context.


Consider the preceding verses, in 1 Corinthians 12:12-27 Paul through using the human body as a metaphor has concluded that in the body all the parts are of equal importance, and their utility, presence, and functioning is essential in the location they have been placed. Similarly, in the Church - the body of Christ, every Christian Believer, with their different gifts and ministries, are equally important in their respective positions and for works assigned to them. No Christian Believer, and no one’s ministry or gift is greater or lesser in comparison to the others, and their works are also of equal importance, no work is more or less important. Then after this, in verse 28 Paul mentions the various responsibilities, ministries, and works in that one body, i.e., the Church of the Lord Jesus Christ in a particular order. But this order is not meant to indicate the relative importance and status of those ministries and their gifts, but the relative frequency of use of the ministries and their gifts, although all are of same importance and status. After this, in verses 29-30, Paul through his rhetorical questions emphasizes that everybody has not been given the same responsibility, nor has anyone been given all the responsibilities; everyone has to fulfil their responsibility. Then in verse 31 he uses the phrase “the best gifts”. By looking at this verse along with and in context of the other verses, it becomes apparent the implication of the phrase “the best gifts” is not gifts greater in status or prominence, rather, gifts with the most responsibilities.


In other words, through Paul, the Holy Spirit is telling the Christian Believers to desire to be the ones who take the most responsibilities in the Church - the body of the Lord, i.e., earnestly desire to be the ones in the Church who serve the most. If this verse is taken to understand that it is indicating ministries or gifts mutually being greater or lesser, then Paul’s discussion of verse 12-27 is vain; since then, in the body of the Lord - His Church, everybody does not have the same importance, and God the Holy Spirit has differentiated between Believers by giving greater or smaller gifts. And this is not at all consistent with the teachings of Word of God, therefore is unacceptable. Rather, if this interpretation of gifts and ministries being of greater and lesser importance is accepted, then it creates a situation that causes divisions in the Church on the basis of the ‘having’ and ‘not having’ “greater” gifts, and this is a result of unBiblical, wrong teachings and doctrines. We will continue with the discussion of this topic in the next article.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


- To Be Continued


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