क्या बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?
भाग 4 – कलीसिया में स्त्रियों के लिए बाइबल से निर्देश
बाइबल में स्त्रियों को कलीसिया में या पुलपिट से प्रचार करने की अनुमति नहीं है। कुछ लोग बाइबल के कुछ उदाहरणों का गलत उपयोग कर के स्त्रियों द्वारा प्रचार करने, तथा पुलपिट का प्रयोग करने को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। किन्तु यह उनके द्वारा वचन से ऐसे अर्थ निकालना है, जो बाइबल की व्याख्या के सिद्धान्तों के अनुसार अनुचित एवं अस्वीकार्य हैं। उनके ये प्रयास वचन को एक गलत धारणा में बैठाने, उसके अनुरूप करने के लिए वचन के खंडों को तोड़ना-मरोड़ना और उनका दुरुपयोग करना है। उनके इन प्रयासों एवं उदाहरणों का बाइबल के आधार पर विश्लेषण हम आने वाले लेखों में देखेंगे। आज के लेख में हम देखते हैं कि इस विषय पर बाइबल में क्या लिखा गया है। स्त्रियों को जिस बात के लिए प्रभु ने मना किया है वह है पुरुषों को सिखाना या कलीसिया अर्थात चर्च में बोलना या उपदेश करना। इस निर्देश को दो स्थानों पर लिखा गया है:
इस विषय पर परमेश्वर के वचन बाइबल का पहला निर्देश है: 1 कुरिन्थियों 14:34-35 “स्त्रियां कलीसिया की सभा में चुप रहें, क्योंकि उन्हें बातें करने की आज्ञा नहीं, परन्तु आधीन रहने की आज्ञा है: जैसा व्यवस्था में लिखा भी है। और यदि वे कुछ सीखना चाहें, तो घर में अपने अपने पति से पूछें, क्योंकि स्त्री का कलीसिया में बातें करना लज्ज़ा की बात है।” परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस से लिखवाए गए इन शब्दों पर ध्यान कीजिए:
· यह मात्र सुझाव अथवा इच्छा नहीं है; यह आज्ञा है।
· यह कलीसिया की सभा में सम्मिलित होने वाली सभी स्त्रियों के लिए है।
· इस आज्ञा का आधार परमेश्वर का वचन है, न कि पौलुस की कोई व्यक्तिगत धारणा।
उपरोक्त पदों के साथ, पौलुस द्वारा उन्हें साथ ही में कही गई एक और बात को भी देखना यहाँ पर सहायक होगा – 1 कुरिन्थियों 14:36-38 “क्या परमेश्वर का वचन तुम में से निकला? या केवल तुम ही तक पहुंचा है? यदि कोई मनुष्य अपने आप को भविष्यद्वक्ता या आत्मिक जन समझे, तो यह जान ले, कि जो बातें मैं तुम्हें लिखता हूं, वे प्रभु की आज्ञाएं हैं। परन्तु यदि कोई न जाने, तो न जाने।”
पौलुस ने कुरिन्थुस की मण्डली को यह पत्री उनकी बहुत सी गलतियों को ठीक करने के लिए लिखी थी; और उन गलतियों में से एक महिलाओं द्वारा कलीसिया में अधिकार जताने और बोलने से भी संबंधित थी, जिसे उसने उपरोक्त पदों में संबोधित किया है। अब पत्री के अन्त की ओर पहुँचते हुए, वह पवित्र आत्मा की अगुवाई में, अभी तक कि लिखी सुधार की सभी बातों, महिलाओं के कलीसिया में बोलने के सहित, के सन्दर्भ में पौलुस उपरोक्त पद 36-38 में उस मण्डली के लोगों को कहता है कि कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों का परमेश्वर के वचन और उसके निर्देशों पर कोई एकाधिकार अथवा विशेषाधिकार नहीं है। उन्हें भी परमेश्वर के वचन और निर्देशों को वैसे ही स्वीकार तथा पालन करना है जैसे कि अन्य कलीसियाओं को। जैसा अन्य कलीसियाओं में है, उन्हें भी वैसे ही रहना है।
साथ ही उन्हें, और विशेषकर उन्हें जो उन में अपने आप को आत्मिक जन समझते हैं, यह भी समझना और स्वीकार करना है कि पौलुस ने जो उन्हें लिखा है वह उसकी अपनी इच्छा नहीं, परमेश्वर की आज्ञाएँ हैं। किन्तु यदि कोई इस बात को स्वीकार नहीं करता है तो इससे उनके लिए परमेश्वर का वचन बदला नहीं जाएगा। उसे फिर अनाज्ञाकारिता का स्वयं अपना हिसाब देना होगा।
इस विषय पर परमेश्वर के वचन बाइबल का दूसरा निर्देश है: 1 तीमुथियुस 2:11-12 “और स्त्री को चुपचाप पूरी अधीनता में सीखना चाहिए। और मैं कहता हूं, कि स्त्री न उपदेश करे, और न पुरुष पर आज्ञा चलाए, परन्तु चुपचाप रहे।” साथ ही इससे आगे के दो पदों पर भी ध्यान कीजिए: 1 तीमुथियुस 2:13-14 “क्योंकि आदम पहिले, उसके बाद हव्वा बनाई गई। और आदम बहकाया न गया, पर स्त्री बहकाने में आकर अपराधिनी हुई।”
यहाँ पर आकर, इस विषय पर स्पष्टीकरण देते हुए, वह इस निर्देश के दिए जाने के आधार को बताता है – उनकी रचना किए जाने के समय से ही प्राथमिकता पुरुष की है, स्त्री को पुरुष का सहायक होने के लिए बनाया गया (उत्पत्ति 2:18), उसकी निर्देशक या स्वामिनी होने के लिए नहीं, और पाप में पड़ने के बाद स्त्री को पुरुष के आधीन किया गया (उत्पत्ति 3:16)। साथ ही पौलुस पवित्र आत्मा की अगुवाई द्वारा यह भी दिखाता है कि स्त्री कमज़ोर पात्र है, जैसा कि पतरस ने लिखा है (1 पतरस 3:7), और इसीलिए शैतान ने, परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग कर के अपनी चाल को कामयाब करने के लिए स्त्री को चुना, न कि आदम को, क्योंकि स्त्री के बहकाए जाने की संभावना अधिक थी, और यही हुआ भी। क्योंकि उसकी सृष्टि से ही परमेश्वर ने स्त्री को एक भिन्न भूमिका के लिए बनाया है, जिसमें पुरुषों को वचन सिखाना सम्मिलित नहीं है, इसलिए स्त्री को परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं का आदर करना चाहिए न कि उनका उल्लंघन।
वचन के ये दोनों निर्देश बताते हैं कि परमेश्वर की आज्ञा है कि कलीसिया की सभाओं में स्त्रियाँ चुप रहें, उपदेश न करें, और न पुरुषों पर आज्ञा चलाएँ, वरन आधीन होकर सीखें – जो उत्पत्ति 3:16 के अनुसार है, और यदि कुछ पूछना या समझना हो तो वह घर जाकर करें। यहाँ पर यह भी ध्यान करना चाहिए कि “आधीन” होने से अर्थ दासी समान होने या गुलामी करना नहीं है, वरन आदर और प्राथमिकता देना है। इन पदों से स्पष्ट है कि बाइबल के अनुसार स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने या पास्टर होने की जिम्मेदारियों को निभाना परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता है, अनुचित है।
अगले लेख में हम स्त्रियों के प्रचार करने और कलीसियाओं में पास्टर होने की बात का समर्थन करने वालों के कुछ तर्कों, और उनके द्वारा उठाई गई कुछ आपत्तियों को देखेंगे; और फिर बाद में उनके द्वारा बाइबल से दिए जाने वाले उदाहरणों के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
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According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?
Part 4 – Biblical Instructions for Women in the Church
The Bible does not permit to women to use the Pulpit, i.e., preach in the Church. Some people by misusing some Biblical examples try to justify women’s preaching in the Church and say that there is nothing wrong with it. But this is misinterpreting God’s Word, by not following principles of Bible interpretation, to give it inappropriate and unacceptable meanings. Their efforts are to twist and trim God’s Word, misuse it to make it conform to a particular line of thought. We will look at the examples and explanations given by them in the coming articles and analyze them from God’s Word the Bible. In today’s article we will see what the Bible says on this topic. What the Lord has not permitted the women is to teach men, and to speak or preach in the Church. This instruction has been given at two places:
The first instruction about this in God’s Word is: 1 Corinthians 14:34- 35 “Let your women keep silent in the churches, for they are not permitted to speak; but they are to be submissive, as the law also says. And if they want to learn something, let them ask their own husbands at home; for it is shameful for women to speak in church.” Pay attention to the words written by Paul through God the Holy Spirit:
· This not a mere suggestion or desire; it is a command.
· It is for all women gathered and participating in the Church service.
· The basis of this command is God’s Word, not Paul’s own or personal concept.
Here, along with the above verses, it will be helpful to consider another thing said in the very next verses - 1 Corinthian 14:36-38 “Or did the word of God come originally from you? Or was it you only that it reached? If anyone thinks himself to be a prophet or spiritual, let him acknowledge that the things which I write to you are the commandments of the Lord. But if anyone is ignorant, let him be ignorant.”
Paul had written this letter to the Church in Corinth to correct many errors that had come into the Church; and one of their mistakes was related to women exercising authority and speaking during the Church service, which has been addressed in these aforementioned verses. Now, coming towards the end of this letter, under the guidance of the Holy Spirit, in context of all the corrections that he had written to them, including about women speaking in the Church, Paul says in the above-mentioned verses 36-38 that the members of the Church in Corinth do not have any special rights or privileges related to God’s Word. They too have to accept and obey God’s Word, just the same as the other Churches do. As is the practice in other Churches, they too have to follow the same.
Moreover, those amongst them, who consider themselves to be spiritual, they should understand and accept that what Paul had written to them are not his own desires, but God’s commands. But if anyone is not willing to accept this, then the Word of God will not be altered for that person. Then he will have to answer for himself before God.
The second instruction in God’s Word on this topic is in 1 Timothy 2:11-12 “Let a woman learn in silence with all submission. And I do not permit a woman to teach or to have authority over a man, but to be in silence.” Also, pay attention to the next two verses written here, 1 Timothy 2:13-14 “For Adam was formed first, then Eve. And Adam was not deceived, but the woman being deceived, fell into transgression.”
Here, to clarify, he provides the basis for this instruction – since their creation the primacy is of man, the woman was made as a helper for man (Genesis 2:18), and not someone to direct, or to dominate him; and after the committing of sin, the woman was put under man (Genesis 3:16). Through the Holy Spirit, Paul also says that woman was created as a weaker vessel, as Peter has written (1 Peter 3:7), and that is why, Satan misused God’s instructions to make Eve fall, not Adam, since his chances of success were better working on Eve than on Adam, and that is what happened as well. From her very creation, woman has been created for a different role than man, and her role does not include teaching God’s Word to men. Hence, women should respect her God assigned limits, and not transgress them.
Both of these instructions on this topic show that it is God’s command that in a Church service, women should remain silent, should not preach, and should not exercise authority over men. Rather, learn under submission – which is in accordance with Genesis 3:16. If the women need to ask or understand anything, they should do that at home. It is also important to note here that being under submission does not mean becoming a slave or a servant, but giving respect and due honor, the primacy, to men. It is clear from these verses that the Bible does not permit women to use the pulpit, i.e., preach in the Church, nor to be a Pastor in the Church; doing either of these is disobeying God and is inappropriate.
In the next article we will look at some of the arguments given, objections raised by those who are in favor of women preaching and being Pastors; and then we will look at the examples they cite from the Bible to justify their stand.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued