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पवित्र आत्मा के लिए जवाबदेही - यूहन्ना 16:7.
मसीही सेवकाई के लिए मसीही विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका को हमने पिछले लेखों में देखा है, कि वह कैसे प्रभु के शिष्य को उसकी सेवकाई के लिए सिखाता है, तैयार करता है, प्रभु की बातें स्मरण करवाता है, और उसे सुरक्षा प्रदान करता है। शिष्य तब ही संसार का और ‘संसार के सरदार’, अर्थात शैतान, उसकी युक्तियों, उसके दूतों का सामना कर सकता है, मसीही सेवकाई में प्रभावी हो सकता है, जब वह स्वयं इस कार्य के लिए तैयार हो गया हो - और उसकी यह तैयारी उसे केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवा कर देता है। उस शिष्य की अपनी कोई योग्यता, कोई गुण, कोई शिक्षा, कोई प्रशिक्षण, कोई अनुभव, आदि तब तक किसी उपयोगिता का नहीं है, जब तक परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके जीवन में कार्य करके उसे अपनी रीति से सक्षम न कर दे; तब ही उस शिष्य के अन्य कोई भी गुण, योग्यता, शिक्षा, प्रशिक्षण, और अनुभव आदि प्रभु के लिए उपयोगी और प्रभावी किए जा सकते हैं - जैसा हम पौलुस के जीवन से देखते हैं। परमेश्वर के वचन की बातों में सर्वोत्तम गुरु, गमलिएल, से वचन की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने, और फरीसी होने के लिए प्रशिक्षित किए जाने के बाद भी, वह प्रभु परमेश्वर के लिए उपयोगी नहीं था, वरन प्रभु के कार्य का विरोधी और नाशक था। किन्तु प्रभु यीशु में विश्वास लाने के बाद ही उसका वह सब प्रशिक्षण, अध्ययन, अनुभव, आदि पवित्र आत्मा के द्वारा प्रभु के लिए उपयोगी बनाया जा सका। प्रभु यीशु की वास्तविकता को समझने के बाद वह अपने पहले के सभी ज्ञान, समझ, प्रशिक्षण, अनुभव, कार्य आदि को ‘कूड़ा’ कहता है, और उसकी लालसा वचन के मानवीय ज्ञान में नहीं, वरन प्रभु यीशु मसीह की मृत्युंजय की सामर्थ्य को जानने और उसमें बढ़ने की हो जाती है (फिलिप्पियों 3:4-11)। इसी प्रकार से मूसा को भी मिस्र से मिला वहाँ का सर्वोत्तम मानवीय ज्ञान-बुद्धि-सामर्थ्य और योग्यता इस्राएलियों का कुछ भला करने के लिए उसके किसी काम नहीं आए। उसे वह सब छोड़ कर भागना पड़ा। जब वह जंगल में मूक और मूर्ख भेड़ों की देखभाल करते रहने से परमेश्वर के द्वारा प्रशिक्षित कर लिया गया, तब ही परमेश्वर ने उसे अपने लोगों की चरवाही करने के लिए सक्षम करके वापस मिस्र में भेजा, और उसमें होकर अभूतपूर्व कार्य किए, संसार के लोगों के लिए अपने वचन तथा व्यवस्था को दिया।
व्यक्तिगत रीति से तैयार करने के बाद, अब यूहन्ना 16 अध्याय में सार्वजनिक मसीही सेवकाई से संबंधित बातें प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के सामने रखीं। इन बातों का आरंभ यूहन्ना 16:7 “तौभी मैं तुम से सच कहता हूं, कि मेरा जाना तुम्हारे लिये अच्छा है, क्योंकि यदि मैं न जाऊं, तो वह सहायक तुम्हारे पास न आएगा, परन्तु यदि मैं जाऊंगा, तो उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा” से होता है, जहाँ फिर यूहन्ना 13 अध्याय से आरंभ हुए इस वार्तालाप में चौथी बार प्रभु शिष्यों से कहता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा उनके पास और उनमें रहने के लिए प्रभु के भेजे जाने के द्वारा ही आएगा; अर्थात प्रभु के शिष्यों के लिए प्रभु परमेश्वर के अतिरिक्त परमेश्वर पवित्र आत्मा को उपलब्ध करवाने का और कोई तरीका नहीं है। पवित्र आत्मा परमेश्वर है, और सार्वभौमिक, सर्वसामर्थी, सर्वज्ञानी, सृजनहार है; वह मनुष्य के वश या अधीनता में नहीं है कि मनुष्य के कहे के अनुसार कार्य और व्यवहार करे। प्रभु ने अपने महान अनुग्रह और प्रेम में होकर अपने शिष्यों की सहायता के लिए उसे अवश्य प्रदान किया है, किन्तु उसे शिष्यों का सेवक या दास नहीं बना दिया है कि वे अपनी ही इच्छा और समझ के अनुसार उससे, और उसके नाम में लोगों से कुछ भी उलटा-सीधा कार्य तथा व्यवहार करें। जिस दिन प्रभु हिसाब लेगा, और इस हिसाब के लेने का आरंभ प्रभु के लोगों से ही होगा (1 पतरस 4:17), उस दिन पवित्र आत्मा के नाम से किया जाने वाला यह सब बाइबल के वचनों से बाहर का व्यर्थ का और अनुचित व्यवहार, ऐसा करने और सिखाने वालों के लिए बहुत भारी पड़ेगा (मत्ती 12:36-37), किन्तु तब उनके पास बचने का कोई मार्ग नहीं होगा। उन्हें अपने द्वारा परमेश्वर पवित्र आत्मा के प्रति किए गए अपमानजनक व्यवहार और व्यर्थ बातों के लिए दण्ड भोगना ही होगा।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, आपने अपने पापों से वास्तविक पश्चाताप करके प्रभु यीशु से उनके लिए सच्चे मन से क्षमा माँगी है, अपना जीवन प्रभु को समर्पित किया है, प्रभु की आज्ञाकारिता में जीवन जीने का निर्णय किया है, तो यह ध्यान रखिए कि आप अपने इस निर्णय के उचित और सही निर्वाह के लिए प्रभु के प्रति व्यक्तिगत रीति से उत्तरदायी हैं। और मसीही विश्वासी होने के नाते आप से भी स्वर्ग में आपके अनन्तकालीन प्रतिफल निर्धारित करने के लिए आपके व्यवहार, कार्य और बातों का सारा हिसाब अवश्य ही लिया जाएगा (1 कुरिन्थियों 3:13-15; 2 कुरिन्थियों 5:10; प्रकाशितवाक्य 22:12)। उस समय आप अपने अनुचित, वचन की शिक्षाओं से अलग, वचन के उदाहरणों और बातों से भिन्न व्यवहार के लिए किसी अन्य मनुष्य, या मानवीय मत-समुदायों-डिनॉमिनेशंस के नियमों और रीतियों आदि पर बात नहीं टाल सकेंगे। परमेश्वर का वचन बाइबल आपके हाथ में होते हुए भी, और उसे सिखाने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा आपके साथ होते हुए भी, तथा परमेश्वर द्वारा अन्य विभिन्न साधन उपलब्ध करवाए जाने के बावजूद, क्यों आपने केवल उनके आकर्षक और लाभकारी प्रतीत होने के कारण, मनुष्यों की शिक्षाओं, व्यवहारों, बातों को वचन की शिक्षाओं और उदाहरणों से बढ़कर महत्व दिया - इसका उत्तर आप ही को देना होगा। प्रभु ने आपके लिए सब कुछ करके दिया है, उसके द्वारा दिए गए इन अद्भुत प्रयोजनों का सदुपयोग करना तो आपके हाथों में है। उसने आपके लिए उत्तम भोज सजा कर दिया है, सेंत-मेंत उपलब्ध करवा दिया है; फिर भी यदि आप व्यर्थ और हानिकारक भोजन खाकर हानि उठाएं, तो प्रभु को तो उसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, तथा पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 49-50
रोमियों 1
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Accountability Regarding the Holy Spirit - John 16:7
We have seen the role of God the Holy Spirit in the personal life of a Christian Believer in the previous articles; how He teaches and prepares a disciple of the Lord Jesus, brings to his remembrance what the Lord Jesus taught and said, provides him the safety and security, etc. for his ministry. It is only because of this that the disciple of Christ is able to face and overcome the devices and plans of “the ruler of this world”, i.e., Satan and his angels. A Christian Believer can only be effective when he has become adequately prepared for his ministry, and it is the Holy Spirit who prepares him, and makes him effective in his ministry. No ability, no characteristic, no education and training, no experience of any Believer can be of any use, unless the Holy Spirit makes him ready and useful in His own manner - as we see from the life of Paul. Paul was taught by the best teacher, Gamliel, and received the highest possible education of his time, was trained to be a Pharisee - a master of the Scriptures, and yet he was of no use for God, rather he was a cause for pain and problems in the Christian Ministry. But once he came to faith in the Lord Jesus, it was only then that the Holy Spirit could put his education, training, knowledge, experience, understanding, work, etc. to proper use and he could be made effective for the Lord. After coming to the right understanding of the truth about the Lord Jesus, Paul called all of his previous knowledge, understanding, training, experience, etc., from human sources to be “rubbish”; and his yearning was no longer for gaining knowledge, wisdom, and commendation from men, but to know the power of the resurrection of the Lord Jesus and to grow in Him (Philippians 3:4-11). Similarly, Moses also could not put any of the knowledge, wisdom, and abilities he learnt in Egypt, the best learning center of that time, to any use for helping the Israelites. He had to run away from Egypt. Only after he had been trained by God through tending the dumb sheep, did God send him back into Egypt to look after His people, and did wonderful unprecedented works through him, gave His Law and Word through him for the world.
Having talked to the disciples about the role of the Holy Spirit in their personal lives, in John chapter 16, the Lord talked to them about His role in their ministry, on which they would embark in the near future. This starts with the Lord’s statement in John 16:7, “Nevertheless I tell you the truth. It is to your advantage that I go away; for if I do not go away, the Helper will not come to you; but if I depart, I will send Him to you.” Once again, in this discourse which had begun in John chapter 13, for the fourth time, the Lord tells the disciples that the Holy Spirit will only come to them to be with them and reside in them, when He sends Him. In other words, for the disciples of the Lord, there was no other way to receive God the Holy Spirit. The Holy Spirit is God, He is omnipotent, omnipresent, omniscient, creator; He is not under the command or control of any person, that the person may say and He will have to do accordingly. The Lord God in His great mercy and grace has given Him to His disciples as their helper, but has not made Him the servant or sub-ordinate of His disciples, that they may use Him in any way they want, and speak to the people about Him whatever comes to their minds, do any kind of odd behavior in His name, teach others strange things not given in God’s Word the Bible.
The day the Lord sits on His judgement throne and starts taking an account - and this accounting will begin with God’s people (1 Peter 4:17), all these unBiblical contrived things being practiced, preached, and taught will be a very difficult thing to explain and answer for by those who indulge in them (Matthew 12:36-37); they will have no way to escape from Lord God’s judgement about it all. They will have to suffer the consequences of their derogatory, demeaning, and unBiblical attitude and behavior towards the Holy Spirit.
If you have repented of your sins, sincerely asked forgiveness for them from the Lord Jesus, and have surrendered your life to the Lord Jesus to live a life of obedience to Him, i.e., you are a Christian Believer, then bear in mind that you are accountable and answerable to the Lord Jesus for properly carrying out this decision that you have made. For your eternal rewards in heaven, you will surely be called to answer for your attitude, behavior, works, all you speak and say, etc. (1 Corinthians 3:13-15; 2 Corinthians 5:10; Revelation 22:12). At that time, you will not be able to pass on the blame for your strange, odd, unBiblical behavior, preaching, teaching, and works etc., to others; to sects, groups and denominations and their practices, their rules and regulations etc. Because you had the Word of God in your hand and God’s Holy Spirit was there with you to teach the Word to you, God had also made available other resources to help you learn His Word; the example of so many other people of God was also there for you to see and emulate, and yet you chose to accept, believe, and follow unBiblical teachings and practices devised by men, just because they seemed attractive and beneficial. The Lord has done and provided all that is required for you to live a life pleasing and acceptable to Him; now it is up to you to make use of His provisions. He has prepared and freely made available the best meal and has set the table for you; if you still go and partake of vain, unhealthy food, you cannot hold God responsible for the consequences of your own decisions.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 49-50
Romans 1