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प्रभु की मेज़ - परीक्षाओं का सामना करने की तैयारी के लिए
प्रभु यीशु मसीह के द्वारा फसह खाते समय प्रभु भोज की स्थापना को नए नियम से सीखने के लिए, हमें चारों सुसमाचारों में, मत्ती 26, मरकुस 14, लूका 22, और यूहन्ना 13 में दिए गए विवरणों को साथ मिलाकर देखना चाहिए, क्योंकि भिन्न लेखकों ने घटनाक्रम के भिन्न भागों को लिखा है। पिछले दो लेखों में हमने आरंभिक भाग के बारे में देखा है, अर्थात, प्रभु यीशु द्वारा शिष्यों के साथ फसह खाने की तैयारी करने के बारे में। पिछले लेख में हमने देखा था कि यह फसह न तो सांसारिक पारिवारिक रूप में प्रभु यीशु के घर में मनाया गया, न किसी शिष्य के घर में; किन्तु एक विश्वास में स्थापित हुए परिवार के समान, एक बिल्कुल ही भिन्न स्थान पर, जिसके बारे में, इसके घटित होने से पहले, शिष्य भी नहीं जानते थे। हम यह इसलिए कह सकते हैं क्योंकि हमने मत्ती 26:17-19 तथा लूका 10-13 से देखा है कि शिष्यों के प्रश्न के उत्तर में, कि फसह की तैयारी कहाँ पर की जाए, प्रभु यीशु न तो किसी का नाम लेते हैं, और न ही उस स्थान का कोई पता बताते हैं, परंतु पतरस और यूहन्ना से कहते हैं कि अमुक स्थान पर जाएं, वहाँ उन्हें एक व्यक्ति घड़ा लिए हुए जाता मिलेगा, उसके पीछे-पीछे जाएं और जिस भी घर में वह जाए उसके स्वामी से जाकर कहें कि उन्हें वह कमरा दिखाए जहाँ पर फसह की तैयारी करनी है। इसलिए, यह बहुत संभव है कि शिष्य न तो इस व्यक्ति से परिचित थे न उस स्थान को जानते थे, जिस घर में उन्हें फसह की तैयारी करनी थी। हम देखते हैं कि मरकुस 14:13-16 तथा लूका 22:10-13 में कुछ वर्णन दिया गया है जो मत्ती और यूहन्ना में नहीं दिया गया है। हमने इसका कुछ भाग पिछले लेख में देखा है, और साथ ही प्रभु के प्रति आज्ञाकारिता के महत्व को भी देखा है, चाहे वह जो कह रहा है वह कितना ही असंभव और असमंजस में डालने वाला प्रतीत हो, और यही लगे कि प्रभु की बात के सफल होने की बजाए असफल होने की संभावना कहीं अधिक है। किन्तु प्रभु के निर्देशों के प्रति बिना कोई प्रश्न किए आज्ञाकारी बने रहने के द्वारा उन सभी को बहुत लाभ भी मिला।
बाइबल में कहीं पर भी उस व्यक्ति की कोई पहचान नहीं दी अथवा संकेत की गई है, जिसके घर में उन्होंने फसह को खाया था। मरकुस 14:14 और लूका 22:11 से हम बस इतना जानने पाते हैं कि वह प्रभु यीशु को “गुरु” के रूप में जानता था; और जब पतरस तथा यूहन्ना ने उसे प्रभु का संदेश दिया तो उसने बिना कोई प्रश्न किए तुरन्त ही पहले से तैयार किया गया बड़ा सा ऊपर का कमरा उन्हें दिखा दिया; और उन्होंने वहीं पर तैयारी की।
यह सभी बातें बहुत असमंजस में डालने वाली लगती हैं; प्रभु यीशु इस गुप्त सी रीति से, बिना शिष्यों को कोई विवरण बताए, यह सब क्यों कर रहा था? वास्तविकता में, यह सब करने के पीछे प्रभु की एक बड़ी योजना थी। इसे समझने के लिए हम उस प्रश्न की ओर चलते हैं जिसके साथ यह घटनाक्रम आरंभ हुआ, प्रश्न जो शिष्यों ने प्रभु से पूछा “तू कहां चाहता है, कि हम जा कर तेरे लिये फसह खाने की तैयारी करें?” पहले तीनों सुसमाचार, मत्ती, मरकुस, और लूका एक ही शब्द “तैयारी करें” प्रयोग करते हैं; शिष्य प्रभु से तैयारी करने के स्थान के बारे में पूछ रहे थे। परन्तु वास्तविकता में, प्रभु उन्हें आने वाली घटनाओं के लिए तैयार कर रहा था, जो कुछ ही घंटों में उनके साथ होने वाली थीं; इतनी दिल दहला देने वाली और विश्वास को झकझोर देने वाली कि उनके कारण शिष्य पूरी तरह से हिल जाएंगे और वह कर जाएंगे जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। जैसा हम मत्ती 26:1-2 से देख चुके हैं, प्रभु ने उन्हें पहले से ही जो उसके साथ यरूशलेम में होने वाला था उसके बारे में सचेत कर दिया था कि उसे पकड़वाया जाएगा और क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए सौंप दिया जाएगा। किन्तु बजाए इसके कि वे शिष्य प्रभु से पूछते कि इस भयानक घटना के लिए वे कैसे तैयार हों, उन्हें क्या करना चाहिए, किसी ने भी प्रभु की बात पर ध्यान नहीं दिया, किसी ने उसकी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया, सभी शिष्यों ने इसे नज़रंदाज़ कर दिया। अब इन बातों के घटित होने का समय निकट था, कुछ ही घंटे बचे थे, और शिष्य अभी भी प्रभु की कही बात के बारे में उदासीन थे।
लेकिन एक बड़ी बात उनके पक्ष में थी - वे प्रभु के साथ अपनी ही इच्छा को लेकर, अपने ही अनुमान लगाकर नहीं चलते थे; किन्तु उसकी इच्छा को जानने और उसकी निर्देशों को मानने का प्रयास करने वाले थे। इसलिए, इन रहस्यमय लगने वाले निर्देशों के द्वारा, प्रभु व्यावहारिक रीति से उनके सामने इस बात को ला रहा था कि अनायास कुछ भी नहीं था; वह सभी बातों, सभी लोगों, और होने वाले सभी घटनाओं के बारे में जानता था; सभी बातें उसकी जानकारी में हो रही थीं, उसके नियंत्रण में ही थीं। वे हर बात के लिए, चाहे जो कुछ भी हो, उस पर भरोसा रख सकते थे। ये सभी बातें वे व्यावहारिक प्रमाण थे जिनके द्वारा प्रभु शिष्यों पर अपनी सार्वभौमिकता को प्रकट कर रहा था, उनके विश्वास को दृढ़ कर रहा था, जिससे के वे आने वाली बातों का सामना कर सकें। क्योंकि वे शिष्य उसकी इच्छा जानने और पूरा करने का प्रयास कर रहे थे, असंभव सी प्रतीत होने वाले बात के लिए भी बिना किसी संदेह या संकोच के, इसलिए प्रभु भी उनके सामने उस पर भरोसा रखने और उसकी आज्ञाकारी रहने के, उनके समक्ष और उनके साथ प्रभु भोज को स्थापित करने के आदर को, और उसकी संबंधित आशीषपूर्ण शिक्षाओं के अद्भुत प्रतिफल लेकर आया।
शिष्यों को पता भी नहीं था कि वे प्रभु के लिए फसह की तैयारी नहीं कर रहे हैं - वह तो पहले से ही जिस घर में उन्होंने उसे कहना था उसके स्वामी के द्वारा लगभग की ही जा चुकी थी, वरन प्रबु अपने पर भरोसा रखने वाले और आज्ञाकारी शिष्यों को शीघ्र ही उनकी होने वाली परीक्षा के लिए तैयार कर रहा था (प्रकाशितवाक्य 3:10)।
संसार भर की घटनाएं, चिल्ला-चिल्ला कर कह रही हैं कि हम अंत के दिनों में हैं; शीघ्र ही संसार का अंत आने वाला है और संसार परमेश्वर के सामने अपने न्याय के लिए खड़ा होगा। अंत के दिनों के चिह्नों में से कुछ चिह्न हैं बहुतायत से झूठे शिक्षकों का खड़ा होना, गलत शिक्षाओं की भरमार होना, और संसार भर में मसीही विश्वासियों का सताया जाना, जो अब सभी स्थानों पर देखे जा रहे हैं। प्रभु पर भरोसा रखने वाले, उसके आज्ञाकारी विश्वासियों के लिए, योग्य रीति से और प्रभु के निर्देशों के अनुसार प्रभु की मेज़ में भाग लेना, उन्हें प्रभु की सामर्थ्य और हर बात पर प्रभु के अधिकार को स्मरण दिलाता है; बाहर संसार और पाप के अंधकार में चाहे जो भी हो रहा हो, अन्ततः प्रभु की सार्वभौमिकता को याद दिलाता है, उसके लोगों के विश्वास को दृढ़ करता है। इस्राएलियों को निर्देश दिया गया था कि एक बार जब वे बलि के मेमने के लहू से चिह्नित किए हुए घर के अन्दर आ जाएं, तो फिर बाहर न निकलें, जहां अंधकार में मृत्यु काम कर रही थी। इसी प्रकार से मसीही विश्वासियों को भी निर्देश दिया गया है कि एक बार जब उन्होंने अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित कर दिया है तो फिर संसार में न जाएं, संसार के साथ कोई समझौता न करें। उनका बचाव, उनकी सुरक्षा, उनका छुटकारा “अन्दर”, अर्थात प्रभु में बने रहने में ही है; उसपर भरोसा बनाए रखने और उसके आज्ञाकारी बने रहने में है, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन और परेशान करने वाली क्यों न हों। प्रभु भोज में योग्य तथा सही रीति से भाग लेने के द्वारा प्रभु हमें तैयार करता है कि हम उन सभी परीक्षाओं का सामना करने के लिए तैयार रहें जो हमारे सामने आएंगी, जब हम प्रभु के लिए जीएंगे और कार्य करेंगे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
ज़कर्याह 1-4
प्रकाशितवाक्य 18
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The Lord’s Table - A Preparation For Facing Trials
In studying from the New Testament, the establishing of the Holy Communion by the Lord Jesus, at the time when He was eating the Passover with His disciples, we need to put together the details given in the four Gospels, from Matthew 26, Mark 14, Luke 22, and John 13, since different authors have stated different parts of the events. In the previous two articles we have seen about the initial part, i.e., about the Lord Jesus getting ready to eat the Passover with His disciples. In the last article we had seen that this Passover was neither celebrated as earthly families at the Lord’s, nor at one of the disciple’s homes, but as a family of faith, at a totally different place, which even the disciples did not know of before this happened. We can say this because we have seen from Matthew 26:17-19 and Luke 22:10-13 that in response to the question of the disciples about where to prepare the Passover, the Lord Jesus neither mentions anyone’s name nor any address, but asks Peter and John to go to a certain place, where they will see a person carrying a pitcher of water; they were to follow him, and whichever house he went into, to ask the owner of that house to show them the room, where they were to prepare for the Passover. Therefore, quite likely, the disciples were neither familiar with the place nor aware of this person in whose house they were going to eat the Passover. We see that Mark 14:13-16 and Luke 22:10-13 have given some details that Matthew and John do not mention. We have seen a part of it in the last article, and seen the importance of obedience to the Lord, even though what He says may sound implausible or perplexing, and may seem more likely to fail than succeed. But unquestioning obedience and fulfilling the Lord’s instructions benefitted them all immensely.
Nowhere in the Bible, has the identity of the person in whose house they ate that Passover been given or even hinted. From Mark 14:14 and Luke 22:11 all we can learn is that the owner of that house knew the Lord Jesus as “The Teacher”; and when Peter and John conveyed the Lord’s message to him, he immediately, unquestioningly showed them the large upper room, already furnished and made ready for the occasion; and they prepared for the Passover there.
All of this seems quite perplexing; why was the Lord Jesus doing this in a secretive manner, not laying open the details before His disciples, instructing them sequentially for the occasion? Actually, there is a great purpose the Lord has in doing all this. Let us go back to the initial question the disciples had put to the Lord Jesus, the place where this whole process was put into motion - “Where do You want us to go and prepare, that You may eat the Passover?” The first three Gospels - Matthew, Mark, and Luke, use the same word “prepare” in the question; the disciples were asking where to prepare the Passover. But actually, it was the Lord Jesus who was preparing them for the coming events, that would unfold in a few hours; very terrifying and faith shaking events that would shake the disciples to their core and make them do the unthinkable. As we have seen from Matthew 26:1-2 in the earlier articles, the Lord had forewarned them about what was waiting for Him in Jerusalem, that He would be caught and be delivered to be crucified. But instead of asking the Lord what He would have them to do to prepare for this terrible event, no one paid heed to this, no one took Him seriously, all the disciples ignored it. Now, the time of these things happening was at hand, just a few hours away, and the disciples were still not concerned about what the Lord had said.
But they had one major thing going in their favor - they were not assuming and presumptive about things with the Lord, but were concerned about knowing and doing His will, and were obedient to His instructions. So, through these seemingly cryptic instructions, the Lord was practically putting it across to them that nothing was unexpected or unforeseen; He knew about things, about people, about events, and all things were in His knowledge, under His control. They could trust Him for everything, for whatever happens. These were practical lessons by the Lord, demonstrating His sovereignty to the disciples and strengthening their faith, to enable them to handle the coming trials they were going to face. Since they were concerned about knowing His will, and obedient to doing His will, without any doubts or hesitancy about a seemingly impossible sequence of events, the Lord put before them the wonderful rewards of trusting Him and doing as He had instructed to be done, by establishing the Lord’s Table before them, with them, and giving them the teachings of the blessings associated with the Table.
It was not so much the disciples preparing for the Passover for the Lord - that was practically already done beforehand by the person in whose house they were going to eat the Passover; rather, the disciples did not even realize that actually it was the Lord who was preparing His trusting and obedient disciples to face the impending trial, soon to come upon them (Revelation 3:10).
The events of the world, all over, are crying out that the end-times are upon us; the world will soon come to an end and stand before God for judgment. Amongst the signs of the end times are the prolific rise of false teachers, explosion of wrong teachings, and the persecution of the Christian Believers - as is happening all over the world now. For His trusting and obedient disciples, their worthily partaking in the Lord’s Table, as per the Lord’s instructions, serves to remind them of the power and authority of the Lord Jesus, of His sovereignty over everything, no matter what may be happening outside, and thus strengthens their faith. The Israelites were instructed to not go out of their houses, once marked by the blood of the sacrificial lamb; outside where death was at work in the darkness, but they were safe inside the blood marked houses. Similarly, the Christian Believers too have been instructed to not go out into the world, not compromise with the world, once they have submitted themselves to the Lord. Their safety, security, and deliverance are in remaining “inside”, in the Lord, in being trusting and obedient to Him, no matter how difficult and troubling the situation may seem to be. Through properly and worthily participating in the Holy Communion, the Lord prepares us to face the trials that will come our way, as we live and work for the Lord.
If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Zechariah 1-4
Revelation 18
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