परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 13
पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से शैतान ने उस समय के धार्मिक अगुवों से पुराने नियम के लेखों में छेड़-छाड़ करवाई, और उसे बदल कर उनकी सहूलियत और लाभ के लिए बना दिया। प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के समय इस बात को उस समय जन-सामान्य के भी तथा उन धार्मिक अगुवों के सम्मुख भी प्रकट किया था। इसके बाद हमने देखा था कि जैसे-जैसे सुसमाचार और मसीहियत का प्रचार और प्रसार होता गया, उसी के साथ ही शैतान द्वारा मसीही शिक्षाओं को बिगाड़ने और भ्रष्ट करने का, गलत शिक्षाओं का, लोगों को बहका और भरमा कर विधर्मी मार्गों में डालने का भी; लोगों में इस गलतफहमी के साथ कि वे सही और भक्ति के मार्ग पर ही हैं, प्रचार और प्रसार होता चला गया। हमने बाइबल के उदाहरणों के द्वारा सामान्यतः न तो देखे-समझे और न ही पहचाने जाने वाले इस तथ्य को भी देखा था कि परमेश्वर की कलीसिया और मण्डलियों में इन गलत शिक्षाओं और सिद्धांतों के पैठ बैठा लेने और फिर दूसरों में फैलाए जाने में, चाहे अनजाने में या जान-बूझकर, हमेशा से ही धार्मिक अगुवों की एक प्रमुख भूमिका रही है।
यह कलीसिया के सम्पूर्ण इतिहास में होता चला आया है और आज भी हो रहा है, बाइबल के लेखों में फेर-बदल और बिगाड़ करने के द्वारा उसे बाइबल के विपरीत अर्थ और अभिप्राय दिए जा रहे हैं। और फिर इन फेर-बदल किए हुए, बिगड़े हुए, भ्रष्ट किए गए लेखों, उनके अनुचित अर्थों और अभिप्रायों के आधार पर कई डिनॉमिनेशंस, मत, और संप्रदाय खड़े हो गए हैं जो परमेश्वर के वचन से बहुत भिन्न बातों का प्रचार करते और शिक्षाएं देते हैं, किन्तु दावा बाइबल के अनुसार बिलकुल सही होने का दावा करते हैं। क्योंकि वे लोग यह एक आकर्षक, सांसारिक रीति से लुभावनी, और प्रतीत होने में तर्कपूर्ण तरीकों से करते हैं, बहुधा उनके साथ भौतिक लाभों के वायदों के साथ, इसीलिए बहुत से लोग उनकी ओर मुड़ जाते हैं, उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। इस बात के इतने सामान्य और खुली रीति से होने के दो मुख्य कारण हैं, और आज हम पहले कारण को देखेंगे, और फिर अगले लेख में हम दूसरे कारण पर विचार करेंगे।
पहला कारण, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, यह बहुत दुखद तथ्य है कि अधिकांश ईसाई या मसीही कभी परमेश्वर को अपने जीवनों में उचित समय देते ही नहीं हैं; उनके लिए परमेश्वर नहीं बल्कि सँसार और सँसार की बातें, ज़िम्मेदारियाँ ही प्राथमिकता होती हैं; उनके लिए परमेश्वर कोई विशेष महत्व का नहीं बल्कि औपचारिकता निभाने, कर्तव्य पूरा करने के लिए है। और उनके मन-मस्तिष्क में इस बात को गहराई से जमा देने के बाद, शैतान उन्हें सँसार की बातों और जिम्मेदारियों में ही उलझाए रखता है, उन्हें कभी उनकी इस गंभीर गलती और इसके भयानक दुष्परिणामों का एहसास ही नहीं होने देता है, उन्हें उलझा कर परमेश्वर तथा उसके वचन से दूर बनाए रखता है। इस बात का सबसे सामान्य और प्रकट प्रमाण है ऐसे लोगों के द्वारा स्वयं बाइबल अध्ययन करने के लिए समय को न लगाना; कुछ लोग औपचारिकता के लिए बाइबल पढ़ अवश्य लेते हैं, किन्तु अधिकांश ईसाई या मसीही सामान्यतः बाइबल की बातों और शिक्षाओं से अनभिज्ञ ही रहते हैं। और इसलिए, इस कमी को पूरा करने के लिए, परमेश्वर के वचन को सीखने के लिए वे औरों के द्वारा दिए गए संदेशों और शिक्षाओं को मान लेने, उन्हें स्वीकार कर लेने वाले बन जाते हैं। लेकिन क्योंकि उन्हें बाइबल में वास्तव में लिखी गई बातें और दी गई शिक्षाएँ पता नहीं होती हैं, इसीलिए जो भी प्रचार किया या सिखाया जाता है, उसे बिना जाँचे-परखे ही स्वीकार कर लेते हैं। प्रचार करने तथा शिक्षा देने वाला जितना अधिक परिचित, लोकप्रिय, या ख्याति प्राप्त व्यक्ति होता है, उतने ही अधिक अंध-विश्वास के साथ उसकी बातें स्वीकार की जाती हैं, उस पर तथा उसकी बातों पर भरोसा रखा जाता है, उनका बिना किसी संदेह के पालन किया जाता है।
एक और बात जो प्रचारक और शिक्षक की लोकप्रियता और उसकी कही बात को स्वीकार करने पालन करने में बहुत बड़ा योगदान करती है, वह है उसकी वाक्पटुता, उसकी प्रभावी शब्दावली, तथा शैली, और जिस तरह से वह बाइबल की बातों, शब्दों, और वाक्यांशों का बड़ी भक्ति, धार्मिकता और प्रभावी रीति से प्रस्तुत तथा उपयोग करता है। लेकिन शायद ही कोई होता होगा जो बेरिया के विश्वासियों के समान (प्रेरितों 17:11) वापस जाकर परमेश्वर के वचन से इस बात की पुष्टि करता है कि क्या बाइबल की वे बातें, वे शब्द, वे वाक्यांश, बाइबल में भी, बाइबल में परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाओं, वार्तालापों, और संदेशों आदि में, वास्तव में उसी रीति से उपयोग हुए हैं जैसे की यह प्रचारक आज उन्हें उपयोग कर रहा है, और अब करना सिखा रहा है। ध्यान कीजिए, लोगों को भरमाने और बहकाने के लिए शैतान की एक बहुत सफल युक्ति है बाइबल के सही लेख का अनुचित रीति से, ऐसे उपयोग करना, जैसा उपयोग उस लेख के लिए बाइबल में दिया नहीं गया है। और आजकल वह इस युक्ति को और भी अधिक सामान्य रीति से कार्यान्वित कर रहा है बाइबल की बातों, जैसे कि बपतिस्मा, प्रभु भोज, पश्चाताप, उद्धार आदि; बाइबल के शब्दों और वाक्यांशों, जैसे कि परमेश्वर के सम्मुख या उसकी उपस्थिति में आने, ‘यीशु का लहू’ और ‘यीशु के क्रूस’ आदि वाक्यांशों का विभिन्न बातों के लिए और कार्य करवाने के लिए उस तरह से उपयोग करने के लिए, जैसा उनके लिए बाइबल में नहीं दिया गया है।
हम दूसरे कारण को अगले लेख में देखेंगे, और साथ ही बाइबल में उल्लेखित एक संकेत को भी देखेंगे जो यह पहचानने में हमारी सहायता करेगा कि क्या कोई जन शैतान की युक्ति में फँस तो नहीं गया है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s Word – 13
In the previous article we had seen how Satan had got the then religious leaders to tamper with and alter the Old Testament Scriptural text, and converted it into something to their convenience and profit. The Lord Jesus during His earthly ministry had pointed this out to the general public as well as to those religious leaders. We next saw that, as the gospel and Christianity spread, so did the wrong teachings and doctrines brought in by Satan to corrupt and distort the Christian teachings, to deceive and misguide people into wrong, ungodly ways, while making them think that they were on the right and godly path. We also saw that Biblical examples clearly illustrate the generally unrealized and unacknowledged fact, that the religious leaders, knowingly or unknowingly, have always had a major role to play in letting these satanic teachings and doctrines enter and take hold in God’s Churches and from there spread to others.
This has been happening throughout the Church history, and is happening even today, the Biblical text is being altered and distorted to give it inappropriate unBiblical meanings. Then, based on these altered, corrupted texts and the meanings and implications ascribed to them, many denominations, sects, and cults have risen up that preach and teach things much different from God’s Word, but claim to be absolutely correct Biblically. Because they do it in an attractive, physically appealing, and a seemingly logical manner, often along with promises of many temporal gains and benefits, therefore, many accept their false teachings and turn to following them. There are two main reasons why this happens so freely and easily, and today we will see about the first reason, and in the next article we will consider the second reason.
The first reason, as has been pointed out earlier, is the very sad fact that most Christians never give God any quality time in their lives; the world and the responsibilities and things of the world and not God is not a priority for them; God is not someone important, but an obligation, a formality to be fulfilled. And having got this firmly entrenched in their minds and hearts, Satan keeps them occupied in the things and responsibilities of the world, never letting them realize their very grave error and its disastrous consequences, and keeping them entangled away from God and His Word. This is most commonly evidenced by their not taking time to study the Bible for themselves; some may perfunctorily read it, but by far the vast majority of Christians generally remain unawares of what actually is written in God’s Word. Therefore, to make up for this lack, they always blindly rely on the messages and teachings given to them by others as a means of learning God’s Word. But since they are unaware of what is actually written and taught in the Bible; therefore, they tend to accept whatever has been preached and taught without cross-checking or verifying it. The more familiar, popular, or renowned the preacher or teacher is, the more confidently and blindly he is trusted, and whatever he says and preaches is accepted, believed, and followed.
A factor that strongly contributes to the popularity and general acceptance of whatever the preacher or teacher says is his impressive vocabulary, eloquence, and style, and the manner in which he presents and uses Biblical words, terms, and phrases in a very pious, religious, and impressive sounding way. But hardly anyone bothers to go back like the Berean Believers (Acts 17:11) used to do, to confirm from God’s Word, whether those Biblical terms, words, and phrases have actually been used in the Bible, by God’s people in their prayers, conversations and messages, etc., in the same way as this preacher or teacher is using them today, is ascribing meanings and implications to them, and teaching to be done now. Remember, one of Satan’s very effective strategies to misguide people is to use the correct Biblical text, in an inappropriate way, in ways not seen in the Bible. And nowadays he is implementing this strategy through the more commonly and often inappropriately used Biblical things like Baptism, Holy Communion, Repentance, Salvation etc.; Biblical terms and phrases e.g., about entering into God’s presence, binding Satan, applying and using phrases like ‘blood of Jesus’ and ‘Cross of Jesus’ etc., for accomplishing various things, and in ways not stated about them in the Bible
We will consider the second factor, and a Biblical indicator that will help us discern whether someone has fallen prey to satanic ploys in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.