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प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का दूसरा स्तंभ, संगति में साथ
अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में आरंभ से ही सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और उनके लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन में “लौलीन रहे”। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से चार बातें देख चुके हैं। आज हम पाँचवीं बात, जो 2:42 की दूसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का दूसरा स्तंभ है, ‘संगति रखना’ के बारे में देखेंगे।
सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य का अकेले रहना परमेश्वर को पसंद नहीं था; वह आदम को एक ऐसा सहायक देना चाहता था जो उससे मेल खाता हो (उत्पत्ति 2:18)। इसलिए परमेश्वर पहले पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं को आदम के पास लाया, आदम ने उन सभी के नाम रखे, किन्तु उनमें से कोई भी आदम से मेल रखने वाला, उसका सहायक बन सकने वाला नहीं मिला (उत्पत्ति 2:19-20)। आदम को यह एहसास दिलाने के बाद कि वह सारी सृष्टि के सभी जीवों से भिन्न है, परमेश्वर ने उसके समान एक सहायक की रचना करके उसे आदम के साथ रख दिया (उत्पत्ति 2:21-22)। अर्थात, सृष्टि के आरंभ से ही न केवल मनुष्य परस्पर संगति में रहते थे, वरन परमेश्वर भी उनके साथ संगति करता था, उनसे मिलने आता था (उत्पत्ति 3:8)। साथ ही, शैतान हव्वा को तब ही बहका कर पाप में गिराने पाया जब वह अकेली थी, और न ही उसने परमेश्वर के विरुद्ध शैतान की बहकाने वाली बातों को सुनकर आदम अथवा परमेश्वर की संगति में जाने का प्रयास किया (उत्पत्ति 3:1-2)। अकेली स्त्री पाप में गिरी, फिर उसने आदम को भी पाप गिराया (उत्पत्ति 3:6), और उस पाप के कारण वे दोनों परमेश्वर की संगति से भी दूर हो गए। परस्पर संगति में तथा परमेश्वर के साथ संगति में बने रहने में बहुत सामर्थ्य है; पाप में पतित और पाप के कारण भ्रष्ट बुद्धि वाले हम मनुष्य इसे नहीं समझते हैं, किन्तु शैतान इस जानता और समझता है; इसीलिए वह हमें भी एक-दूसरे से दूर रखने तथा हमें परमेश्वर से दूर रखने के विभिन्न उपाय कार्यान्वित करता रहता है, कि कहीं हम परस्पर और परमेश्वर के साथ संगति की सामर्थ्य को पहचान कर, एक-मनता के साथ रहें और उसके लिए परेशानी का कारण न बन जाएं।
राजा सुलैमान ने लिखा, “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है। क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा; परन्तु हाय उस पर जो अकेला हो कर गिरे और उसका कोई उठाने वाला न हो। फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है? यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका सामना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती” (सभोपदेशक 4:9-12)। प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने शिष्यों से उनकी एक-मनता की सामर्थ्य के विषय में कहा, “फिर मैं तुम से कहता हूं, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिये जिसे वे मांगें, एक मन के हों, तो वह मेरे पिता की ओर से स्वर्ग में है उन के लिये हो जाएगी। क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं वहां मैं उन के बीच में होता हूं” (मत्ती 18:19-20)। अर्थात, जहाँ भी प्रभु के लोग एक मन होकर साथ हैं, सहमत हैं, वहाँ प्रभु परमेश्वर भी उनके साथ उस बात में सहमत है, उनके साथ विद्यमान है; वे चाहे संख्या में दो या तीन ही क्यों न हों! प्रभु यीशु ने हमारे पापों की क्षमा और उद्धार के लिए किए गए कार्य के द्वारा न केवल हमारे बीच के विभाजनों की दीवार को हटा दिया और हम सभी मनुष्यों को एक साथ जोड़ दिया, वरन साथ ही हमें एक साथ मिलाकर परमेश्वर का निवास-स्थान भी बना दिया, और परमेश्वर के साथ संगति में भी बहाल कर दिया (इफिसियों 2:11-22), हमारा मेल-मिलाप पिता परमेश्वर के साथ भी करवा दिया (रोमियों 5:1, 10-11)।
क्योंकि हमारा यह साथ मिलकर रहना और परमेश्वर की संगति में रहना हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और कलीसिया की सामर्थ्य के लिए, तथा प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होने का कारगर उपाय है, इसीलिए शैतान हमें परस्पर एक-मनता में नहीं रहने देता है, और परमेश्वर के साथ भी हमारी संगति को बाधित करता रहता है। उसने विभाजित रखने का यह षड्यंत्र कलीसिया के आरंभ से कार्यान्वित कर दिया था (रोमियों 15:5-6; 1 कुरिन्थियों 1:10-13; 11:18; 2 कुरिन्थियों 12:20; गलातियों 5:15; याकूब 4:1-2; आदि), और आज भी प्रभु के लोगों को एक मन होकर साथ रहने से रोकने के उपाय करता रहता है। यह एक दुख भरा कटु सत्य है कि आज हम प्रभु के लोग, एक ही प्रभु, एक ही कलीसिया के सदस्य होते हुए भी, साथ मिलकर रहने और कार्य करने के उपाय नहीं ढूँढ़ते हैं, वरन एक दूसरे से अलग रहने, अलग-अलग रहकर कार्य करने के कारण और तरीके ढूँढ़ते, और निभाते रहते हैं। जबकि होना इसका विपरीत चाहिए (इफिसियों 4:1-6)। इसीलिए हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और हमारी कलीसिया के जीवनों और गवाहियों में इतनी दुर्बलता है; शैतान इतनी सरलता से संसार में हमें प्रभु के लिए निष्क्रिय, निष्फल, और जगत में उपहास का विषय बनाए रखता है। आरंभिक कलीसिया के लोग परस्पर संगति रखने में भी लौलीन रहते थे, इसीलिए परमेश्वर की सामर्थ्य उनमें रहती थी, उनके द्वारा कार्य करती थी, “निदान, हे भाइयो, आनन्दित रहो; सिद्ध बनते जाओ; ढाढ़स रखो; एक ही मन रखो; मेल से रहो, और प्रेम और शान्ति का दाता परमेश्वर तुम्हारे साथ होगा” (2 कुरिन्थियों 13:11)।
यदि हम मसीही विश्वासियों को, प्रभु की कलीसिया के सदस्यों को, इन अंत के दिनों में अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ रहना है, और प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होना है, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस प्रेरित में होकर फिलिप्पी की कलीसिया को लिखे गए आग्रह को पूरा करना होगा, “सो यदि मसीह में कुछ शान्ति और प्रेम से ढाढ़स और आत्मा की सहभागिता, और कुछ करुणा और दया है। तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे। जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो” (फिलिप्पियों 2:1-5)। इसलिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु के भय में होकर इस आग्रह के निर्वाह का प्रयास करते रहें; कलीसिया में कभी मतभेद और विभाजनों का नहीं, अपितु प्रेम और मेल-मिलाप का कारण बनें, तब ही आप परमेश्वर की संतान कहलाएंगे (मत्ती 5:9)।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 43-44
1 थिस्सलुनीकियों 2
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The Second Pillar - Fellowship with Lord’s People
The Lord joins a person to His Church, as soon as the person repents of his sins, asks forgiveness for them from the Lord, believes in the Lord Jesus as his savior, and is saved, or, Born-Again. In the lives of the people who have been joined to the Church by the Lord, from the beginning, seven things are seen, which are given in Acts 2:38-42. Of these seven, four are given in Acts 2:42; of these four, it is also written that the people of the first Church “continued steadfastly” in all four of them. These four have also been called the four pillars of Christian life and the Church that keep the Believer and the Church stable and firm. In the previous articles we have already seen four out of these seven things. Today we will consider the fifth one, which is the second thing stated in Acts 2:42, is the second pillar of the Church and Christian living - “Fellowship.”
Since the beginning of creation God did not like man being alone; He wanted to give a helper to man who would be like him (Genesis 2:18). Therefore, God first brought all the living creatures before Adam, but amongst them none was found who could be a helper, a mate for Adam (Genesis 2:19-20). After letting Adam realize that he was a unique creation, different from every other creature of the world, God created a helper like him and placed her along with Adam (Genesis 2:21-22). In other words, since the beginning of creation man not only lived in fellowship with another human, but also in fellowship with God - who would come to meet them (Genesis 3:8). Also bear in mind that Satan was able to beguile Eve when she was alone, and did not think of getting back into fellowship with Adam or God when Satan was enticing her to disobey God (Genesis 3:1-2). The woman, when all alone, fell into sin, and then she led Adam also into sin (Genesis 3:6), and because of that sin both of them lost fellowship with God too. There is great power in being in mutual fellowship, and being in fellowship with God. Man, having a corrupted mind and wisdom due to having fallen in sin, is unable to understand and realize this source of strength and power, but Satan well knows and understands it. That is why he keeps trying to break up our fellowship with each other and with God, one way or another, so that we may neither realize nor come to utilize this source of power against him and his devious devices, by being united, being of one mind and purpose.
King Solomon wrote, “Two are better than one, Because they have a good reward for their labor. For if they fall, one will lift up his companion. But woe to him who is alone when he falls, For he has no one to help him up. Again, if two lie down together, they will keep warm; But how can one be warm alone? Though one may be overpowered by another, two can withstand him. And a threefold cord is not quickly broken” (Ecclesiastes 4:9-12). The Lord Jesus also spoke to His disciples about the power their being of one mind will give to them, “Again I say to you that if two of you agree on earth concerning anything that they ask, it will be done for them by My Father in heaven. For where two or three are gathered together in My name, I am there in the midst of them” (Matthew 18:19-20). In other words, wherever the people of the Lord are one-minded and together in fellowship, even if they are only two or three in numbers, the Lord is present amongst them and is united with them in their being one-minded. The Lord Jesus through His work for the forgiveness of our sins and salvation, has not only broken down the walls of separation between us, but has also joined us together, and has collectively made us into the dwelling place of God (Ephesians 2:11-22), and has reconciled us with God, restored us into the fellowship with God (Romans 5:1, 10-11).
Since our mutually being joined together and being in the fellowship with God is a very powerful and effective means not only for our individual Christian lives and the Church, but also for our being effective and useful for the Lord God, therefore Satan leaves no stone unturned to break our mutual unity and our fellowship with God. These attempts to break up the unity of the Church and Believers, Satan had begun from the first Church itself (Romans 15:5-6; 1 Corinthians 1:10-13; 11:18; 2 Corinthians 12:20; Galatians 5:15; James 4:1-2; etc.), and even today is still relentlessly continuing in his efforts to prevent us from staying in unity and fellowship. This a bitter truth that today, we, the people of the Lord, members of the Lord’s one and only Church do not strive to live and work together for the Lord; rather we try to find ways and excuses of remaining divided, separate from each other, and happily persist in living by and following our divisive ways and tendencies; whereas it should be the other way around (Ephesians 4:1-6). This is one major causes of our weak Christian and Church lives, our Christian witness; and Satan has so easily made us stagnant, ineffective, fruitless, and a cause for ridicule in the world. The people of the initial Church “continued steadfastly” in fellowship, therefore the power of the Lord was working in and through them in the world, “Finally, brethren, farewell. Become complete. Be of good comfort, be of one mind, live in peace; and the God of love and peace will be with you” (2 Corinthians 13:11).
If we, the Christian Believers, the members of the Church of the Lord Jesus, in these end times, have to remain firm, strong, and steadfast in our Christian Faith, life, and witness, if we are to be effective and useful for the Lord in these last days, then we will have to fulfill the admonition the Holy Spirit gave through the Apostle Paul to the Church in Philippi, “Therefore if there is any consolation in Christ, if any comfort of love, if any fellowship of the Spirit, if any affection and mercy, fulfill my joy by being like-minded, having the same love, being of one accord, of one mind. Let nothing be done through selfish ambition or conceit, but in lowliness of mind let each esteem others better than himself. Let each of you look out not only for his own interests, but also for the interests of others. Let this mind be in you which was also in Christ Jesus” (Philippians 2:1-5). Therefore, if you are a Christian Believer, then in the fear of the Lord, strive to fulfill this admonition. Do not ever be a cause for divisions and dissensions in the Church, but be one who promotes love and reconciliation in the Church; only then will you be called a child of God (Matthew 5:9).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 43-44
1 Thessalonians 2